मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टि में : डॉ. देवराज


मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टि में : डॉ. देवराज


प्राचीन और मध्यकालीन मणिपुरी कविता //८//

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जब किसी भी प्रदेश के लोकगीतों की बात चलती है तो लोक- कथाएं और देवी-देवताओं के किस्से जुड़ ही जाते हैं। परंतु मणिपुर के लोक-साहित्य में इतनी विविधता है कि इस बगियाँ में विभिन्न प्रकार के फूल पाठक को मिलेंगे। अपनी इस कृति में डॉ. देवराज बडे़ विस्तार से मणिपुर के लोकगीतों और उनसे जुडे़ दंतकथाओं का विवरण देते हुए बताते हैं:-


"प्राचीन और पूर्व मध्यकालीन मणिपुरी भाषा में कथा-काव्य-ग्रंथों की भी सुदीर्घ परम्परा है। इनमें जहाँ रचना की प्रबन्ध शैली का सौन्दर्य है, वहीं इनकी प्रतीकात्मकता तथा अन्योक्तिपरकता उस काल के मणिपुरी लोगों की प्रतिभा की परिचायिका भी है। ऐसा ही एक ग्रन्थ है,‘नुमित काप्पा’ जिसका शाब्दिक अर्थ है - सूर्य का शिकार ।"


"इस काल का ‘खोङ्जोमनुपी नोङ्कारोल’ नामक ग्रन्थ प्रेम और उससे जुडी़ त्रासदी को मुख्य कथानक के रूप में ग्रहण करता है। पेना पर गाई जानेवाली इसकी कथा के अनुसार लुवाङ वंश की छह सुन्दर कन्याओं और छः जनजातीय युवकों के प्रेम की कथा है।... "


"प्रेम की उच्चतर मानवीय भावना और आत्मबलिदान के सौंदर्य से परिपूर्ण एक ऐतिहासिक आधारभूमि वाला काव्यात्मक ग्रंथ है ‘नाओथिङ्खॊङ द्फ्म्बाल काबा’। यह कथा निङ्थीजा वंश के राजकुमार और शौलोइ लङ्माइ [नोङ्माइजिंग पर्वतीय क्षेत्र ] के मुखिया की पुत्री ‘पीतङा’के मध्य अगाध प्रेम की गाथा है।"


"इन थोडे़ से उदाहरणों से प्राचीन और पूर्व मध्यकालीन मणिपुरी कविता के स्वरूप तथा उसकी प्रकृति को एक सीमा तक ही समझा जा सकता है, किन्तु यह सीमा इतनी संकुचित भी नहीं है। कारण यह कि इस उल्लेख से हम उस काल के मणिपुरी समाज, उसकी सांस्कृतिक चेतना और धीरे-धीरे विकास पा रही काव्य-कला को बहुत कुछ समझ सकते हैं। लाइहराओबा से जुडे़ गीतों के मूल में पूरी विचार-पद्धति तथा मानव सभ्यता के विकास की तत्कालीन अवस्था विद्यमान है। लाइहराओबा अन्य बातों के साथ सृष्टि-उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के विकास की जानकारी भी देता है। आज यह जानकर आश्चर्य होता है कि उस काल में मणिपुरी विचारक यह समझने लगे थे कि इस संसार की उत्पत्ति बिना किसी योजन के नहीं हो गई। उसके मूल में नर-नारी के मध्य विद्यमान आकर्षण की आदिम प्रवृत्ति है, किन्तु यह आकर्षण दैहिक आनन्द तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके साथ समाज-निर्माण की चाह बँधी हुई है।"



......क्रमश:


प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

अँगरेजी की चक्की में क्यों पिसें बच्चे - डॉ. वेदप्रताप वैदिक



ँगरेजी की चक्की में क्यों पिसें बच्चे

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

बीबीसी हिंदी से साभार

(लेखक भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं।)


भारत में अँगरेजी के वर्चस्व को बढ़ाने में अँगरेजी के अखबार विशेष भूमिकानिभाते हैं। भारत में अँगरेजी के जितने अखबार निकलते हैं, उतने दुनिया केकिसी भी गैर-अँगरेजीभाषी देश से नहीं निकलते। दिल्ली के एक अँगरेजी अखबारने कुछ ऐसे आँकड़े उछाले हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि अँगरेजी सुरसा केबदन की तरह निरंतर बढ़ती चली जा रही है।


एक सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में अँगरेजी माध्यम के छात्रोंकी संख्या में 74 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उनकी संख्या 54 लाख से बढ़कर95 लाख हो गई है। हिन्दी माध्यम के छात्रों की संख्या में सिर्फ 24प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यानी हिन्दी के मुकाबले अँगरेजी तीन गुना तेजदौड़ रही है।

ऐसा कहने का आशय क्या है? आशय यह है कि हिन्दी वालो जागो, आँखें खोलो।अपने बच्चों को अँगरेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाओ। दुनिया के साथ कदमसे कदम मिलाकर चलो। विदेशों में बड़ी-बड़ी नौकरियाँ हथियाना हो तो अपनेबच्चों को अभी से अँगरेजी की घूटी पिलाना शुरू करो। वैश्वीकरण के इस युग में मातृभाषा से चिपके रहने में कोई फायदा नहीं है। इस खबर में आंध्र,तमिलनाडु और महाराष्ट्र की इसलिए विशेष तारीफ की गई है कि उनके 60प्रतिशत बच्चे अँगरेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं।


इस खबर में संख्या का जो खेल खेला गया है, पहले हम उसकी खबर लें। यह ठीकहै कि अँगरेजी माध्यम के छात्र 54 लाख से बढ़कर 95 लाख हो गए, लेकिन हम यहक्यों भूल गए कि हिन्दी माध्यम के छात्र 6 करोड़ 31 लाख से बढ़कर 7 करोड़ 73लाख हो गए। हिन्दी का प्रतिशत 49।5 से बढ़कर 52.2 हो गया, जबकि अँगरेजी का4.3 से बढ़कर 6.3 ही हुआ। यह कुल 15 करोड़ छात्रों की संख्या में से निकला हुआ प्रतिशत है।


इस संख्या को इस कोण से भी देखें कि कुल 15 करोड़ छात्रों में से अँगरेजीमाध्यम वाले छात्र एक करोड़ भी नहीं हैं। अँगरेजी माध्यम के छात्रों केमुकाबले सिर्फ हिन्दी माध्यम के छात्रों की संख्या 8-9 गुना बढ़ी है।पिछले 200 साल से पूरी सरकारी मशीनरी और भारतीय भद्रलोक ने अपनाखून-पसीना एक कर लिया। भारतीय भाषाओं के विरुद्ध जो भी साजिश संभव थी, वहभी कर ली।


इसके बावजूद क्या नतीजा सामने आया? 110 करोड़ लोगों के भारत में सिर्फ 95लाख बच्चे अँगरेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। यानी पूरे भारत में अँगरेजीमाध्यम से पढ़ने वालों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है। ये एक प्रतिशतबच्चे बड़े होकर कैसी अँगरेजी लिखते-बोलते हैं, यह सबको पता है। नोबेलपुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी नई पुस्तक 'आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन'की भूमिका में उनकी अँगरेजी सुधारने वाली एक अँगरेजी लड़की का बड़ा आभारमाना है। यह उनकी सचाई और विनम्रता का प्रमाण है। जब अमर्त्य बाबू का यहहाल है तो अँगरेजी के अखाड़े में दंड पेलने वाले नौसिखियों का क्या कहना?


भारत में एक करोड़ बच्चे अँगरेजी यानी विदेशी भाषा की चक्की में पिस रहेहैं। ऐसी पिसाई दुनिया में कहीं नहीं होती। दुनिया के किसी भी शक्तिशालीया मालदार देश में उनके बच्चों की गर्दन पर ऐसी छुरी नहीं फेरी जाती।वहाँ गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र तथा कला के विभिन्न विषय विदेशी माध्यमसे नहीं पढ़ाए जाते। ये सारे विषय अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन,जापान और रूस जैसे देशों में स्वदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाए जाते हैं।इसीलिए सारे विषयों को सीखने में बच्चों को विशेष सुविधा होती है। सीखनेकी रफ्तार तेज होती है। उनके नंबर भी ज्यादा आते हैं। वे फेल भी कम होतेहैं। उन्हें विदेशी भाषा से कुश्ती नहीं लड़नी पड़ती।


अपनी भाषा वे सरलता से सीख लेते हैं। उनकी सारी शक्ति विषयों को सीखनेमें लगती है। भारत में इसका उल्टा होता है। बच्चों को मार-मारकर विदेशीभाषा रटाई जाती है। जितना समय वे अन्य पाँच विषयों को सीखने पर लगातेहैं, उससे ज्यादा उन्हें अकेली अँगरेजी पर लगाना होता है। फिर भी, सबसेज्यादा बच्चे अगर किसी विषय में फेल होते हैं तो अँगरेजी में होते हैं।यही कारण है कि बीए तक पहुँचते-पहुँचते 15 करोड़ में से 14 करोड़ 40 लाखबच्चे पढ़ाई से मुँह मोड़ लेते हैं।


सिर्फ 4-5 प्रतिशत बच्चे कॉलेज तक पहुँच पाते हैं। हमारे देश के पिछड़ेपनका एक मूल कारण यह भी है कि हमारे यहाँ सुशिक्षित लोगों की संख्या 15प्रतिशत भी नहीं है। साक्षर लोग यानी अपने हस्ताक्षर कर सकने वाले लोग 70प्रतिशत हो सकते हैं, लेकिन क्या साक्षरों को सुशिक्षित कह सकते हैं?दूसरे शब्दों में अँगरेजी के कारण बच्चे शिक्षा से ही पिंड छुड़ा लेतेहैं। इस तरह अँगरेजी शिक्षा के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा बनती है।


जिन बच्चों को अँगरेजी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती है और जिनका माध्यमअँगरेजी है, उन बच्चों की कितनी दुर्दशा होती है, उसका गंभीर अध्ययन करनेकी जरूरत है। ये बच्चे निरंतर दबाव और तनाव की जिंदगी जीते हैं। वे अपनीभाषा, अपने संगीत, अपनी कला, अपनी परंपरा और अपने मूल्यों से बेगाने होतेचले जाते हैं। वे कहीं भी गहरे उतरने के लायक नहीं रहते। उनकामन-मस्तिष्क चमगादड़ की तरह हो जाता है। वे उल्टे होकर लटकने लगते हैं।उन्हें बताया जाता है कि पश्चिम ही छत है। अमेरिका और ब्रिटेन ही सबसेऊपर हैं। उनसे ही जुड़ो।


वे उनसे इतने जुड़ जाते हैं कि बड़े होकर वे इन्हीं पश्चिमी देशों में रहनेके लिए उतावले हो जाते हैं। इसीलिए हमारे अँगरेजी माध्यम से लोग पश्चिमकी गटर में बह जाते हैं। इसे ही 'ब्रेन-ड्रेन' कहा जाता है। इन लाखोंछात्रों की पढ़ाई और लालन-पालन पर यह गरीब देश करोड़ों-अरबों रुपए खर्चकरता है और जब फल पककर तैयार होता है तो गिरने के लिए वह अमेरिकी झोलीतलाशता है। इससे बढ़कर भारत की लूट क्या हो सकती है?


जो लोग पढ़-लिखकर विदेशों में बस जाते हैं, वे भारत के लिए क्या करते हैं?भारत की बात जाने दें, अपने परिवारों के लिए भी खास कुछ नहीं करते। उनसेज्यादा पैसा तो वे बेपढ़े-लिखे मजदूर भेजते हैं, जो खाड़ी के देशों में कामकरते हैं। ये कमाऊ पूत हैं और वे उड़ाऊ पूत हैं। अँगरेजी की पढ़ाई देश मेंउड़ाऊ-पूत पैदा करती है। यदि अमेरिका जाकर हमारे 10-15 लाख नौजवानों नेनौकरियाँ हथिया लीं तो इसमें फूलकर कुप्पा होने की क्या बात है?


इसमें शक नहीं है कि अगर वे अँगरेजी नहीं जानते तो उन्हें ये नौकरियाँनहीं मिलतीं, लेकिन जरा सोचें कि इन 10-15 लाख लोगों के लिए हम अपने देशका कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं? 15 लाख लोगों को विदेशों में नौकरी मिलजाए, इसलिए हम 15 करोड़ बच्चों को अँगरेजी की चक्की में पीसने को तैयारहैं? हम कितने बुद्धू और क्रूर राष्ट्र हैं?


इतना ही नहीं, अँगरेजी के मोह के कारण हम चीनी, जापानी, रूसी, फ्रांसीसी,जर्मन और हिस्पानी जैसी भाषाएँ भी अपने बच्चों को नहीं सिखाते। हमने अपनासंसार बहुत छोटा कर लिया है। यदि हम हमारे बच्चों को अँगरेजी के साथ-साथअन्य प्रमुख विदेशी भाषाएँ सीखने की छूट दे देते तो भारत अपने व्यापार औरकूटनीति में अब तक संसार का अग्रणी देश बन जाता।


जरा ध्यान दीजिए! यहाँ मैंने छूट देने की बात कही है, थोपने की नहीं!भारत में अनेक विदेशी भाषाएँ जमकर पढ़ाई जानी चाहिए, जैसी कि आजकल चीन मेंपढ़ाई जा रही हैं। चीनी लोग अँगरेजी की गुलामी नहीं कर रहे हैं। उसे अपनागुलाम बनाकर उससे अपना काम निकाल रहे हैं। अमेरिका में चीनियों की संख्याभारतीयों से भी ज्यादा है। उनके लिए अँगरेजी महारानी नहीं, नौकरानी है।हमने अँगरेजी को महारानी बना रखा है।


इसीलिए 15 करोड़ बच्चों पर हम उसे थोप देते हैं और एक करोड़ बच्चों से कहतेहैं कि तुम्हें जो कुछ सीखना हो, वह अँगरेजी के माध्यम से ही सीखो। किसीभी विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाना अक्ल के साथ दुश्मनी है। इस परसंवैधानिक प्रतिबंध लगना चाहिए। कौन लगाएगा यह प्रतिबंध? हमारे सारे नेतागण तो कुर्सी और पैसे के खेल में पगला रहे हैं।


उन्हें इन बुनियादी सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह काम देश केप्रबुद्धजन को ही करना होगा। अगर वे कोई जबर्दस्त जन-अभियान चला दें तोअपने देश के बच्चों का बड़ा कल्याण होगा और नेतागण तो अपने आप उसके पीछेचले आएँगे।

मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज (7)




मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज

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प्राचीन और मध्यकालीन मणिपुरी कविता : (७)

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मणिपुरी लोकगीतों के माध्यम से यह समझा जा सकता है कि यहां की सभ्यता और संस्कृति में वैदिक प्रभाव रहा है। इन लोकगीतों का अवलोकन करते हुए डॉ. देवराज बताते हैं :-


"तत्कालीन स्तोत्र साहित्य के अन्तर्गत प्र्कृति -पूजा सम्बन्धी रचनाएं मुख्य रूप से आती हैं\ये बहुत कुछ वैदिक स्तोत्र-साहित्य जैसी ही हैं। इनमें मानव-सभ्यता के विकास का प्रथम चरण विद्यमान है। ...उसी प्रक्रिया में संसार की अन्य भाषाओं की तरह मणिपुरी भाषा में भी स्तोत्र-रचना हुई। इनमें अग्नि, सूर्य, वर्षा आदि के साथ ही मृत्यु और सोरारेन [इन्द्र जैसा चरित्र] के सम्बन्ध में भी स्तोत्र प्राप्त हैं। मणिपुरी पौराणिक विश्वास के अनुसार पोइरैतोन नामक पात्र अग्नि लेकर आया था। यह अग्नि आज भी मणिपुर के ‘आन्द्रो’ नामक गांव के देवस्थान पर सुरक्षित है।स्तोत्र में कहा गया है:
पोइरैतोन खुन्थोक मै
पोइनाओताना खुल्लिङ मै
चकपा कागुप मै...

"प्राचीन मणिपुरी भाषा में सूर्य सम्बन्धी स्तोत्रों की विशेषता यह है कि उनमें सूर्य को देवताओं में प्रधान माना गया है। राजकुमार झलजीत सिंह ने अपने इतिहास-ग्रंथ में ऐसा एक स्थोत्र प्रस्तुत करते हुए इसका कारण यह बताया है कि उस काल में मणिपुर में भौगोलिक और जल्वायु सम्बन्धी कारणों से ठंड का प्रकोप थ, जिस कारण सूर्य की अधिक महत्ता थी। इसी प्रकार फ़सल के लिए वर्षा का महत्त्व स्वीकार करते हुए वर्षा के देवता के रूप में सोरारेन नामक देवता की कल्पना की गई है, जिसका चरित्र बहुत कुछ इन्द्र जैसा है। उसकी दया का आह्वान किया गया है:
हे कासा नोङ्थों सोरारेन
खाक्पा निङ्थौ पाङ्चम्बा
कासा पाओताक हैबा
अवाङ थाङ्वाइ योइरेनबा...
"सोरारेन की स्तुति के साथ साथ प्रचीन मणिपुरी भाषा में कुछ ऐसे गीत भी हैं, जिन्हें अनावृष्टि के समय गाया जाता था। वर्षा के आह्वान वाला एक गीत है-
नोङो चुथरो
लाङ्जिङ मतोन धम्हत्लो
पात्सोइ नुराबी ताओथरो
उनम पाकङ खुन्जरो
कौब्रु कौनु नोङ ओ
लोइजिङ लोइया नोङ ओ...
[बरसो वर्षा बरसो, लाङ्जिङ की चोटी तक डूब जाए, पात्सोइ की युवती बहे, उनम के युवा उठा लो, क्रौबु की पत्नी कौनु, पश्चिम के पर्वत से आनेवाली वर्षा, अचानक मूसलाधार बरसनेवाली गगन से धरा पर आओ...डॉ। आनन्दी देवी द्वारा किया गया भावानुवाद।]"



- क्रमश:

( प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद )

वैश्वीकरण और भाषायी संतुलन : ओम विकास

वैश्वीकरण और भाषायी संतुलन
- ओम विकास



- भौतिक और आध्यात्मिक विकास का असंतुलन समाज और राष्ट्र विश्रंखित कर देता है।
- समाज की इकाई व्यक्ति है, जो अपनी भाषा के सहारे समाज को बनाता है, बढ़ाता है और परंपरा से जुड़कर भविष्य का निर्माण करता है।
- लोक भाषा में सहजता है, वसंत सी उमंग है, संवेदना है, रचना धर्मिता है, नवीनता की कल्पनाशीलता भी।
- समाज का शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग के स्तर विकास के सूचकांक बनाते हैं।
- इन्नोवेशन अर्थात् नवाचार, नवीन आविष्कार हर क्षेत्र में उत्पादकता और दक्षता बढ़ाने के लिए आवश्यक है। इन्नोवेशन आर्थिक प्रगति का मूल है।
- इन्नोवेशन समाज की सेहत के लिए महत्वपूर्ण विटामिन है, इसका संवर्धन लोक भाषा में आसान है, अन्यथा अत्यंत दुष्कर।
- भारत बड़ा देश है, लोकतंत्र है, सहजता-सम्पन्न है। लगभग 1650 बोलियां हैं, लिपि लेखन व साहित्य की दृष्टि से 20 के करीब समृध्द भाषाएं हैं।
- लिपि भेद से विभिन्नता है, लेकिन संस्कृति और सोच में समानता है। विविधता में एकता है।
बाहरी आक्रमणों से आहत हुए अलग-अलग छोटे-छोटे राज्यों को बाहरीशक्तियों ने जीता, दबोचा, साहित्य, कला और पारंपरागत ज्ञान को तहस-नहस किया, ध्वस्त किया। इस प्रकार समाज का मौलिक चिंतन और आविष्कारोंन्मुखी नवाचारमय दृष्टिकोण अवरूद्ध हुआ।


स्वतंत्र भारत की चुनौतियां हैं -
1. सर्व शिक्षा, 2. सर्व स्वास्थ्य, 3. सर्व न्याय,
4। विकास में लोगों की भागीदारी

विश्वभर की ज्वलंत समस्याएं हैं -
1. मंहगाई, 2. नौकरियों में कमी, 3. आतंक,
4। पर-दोषारोपण

- चुनौतियों और समस्याओं के संदर्भ में लोकभाषा महत्वपूर्ण है। निज भाषा उन्नति को मूल।
- योजनाएं बिजनेस मॉडल पर आधारित हों, कम खर्चे में अधिक लाभ, अधिक पिपुल पार्टिसिपेशन, 80:20 मेनेजमेंट सिध्दांत के आधार पर बहुसंख्य लोगों की लोकभाषा केन्द्रित हों।
- व्यक्तिगत नवाचार अंग्रेजी में हो सकता है, लेकिन समूचे समाज का नवाचार, आविश्कारों और सुधार-तकनीकों के आंकड़े लोकभाषा के माध्यम से ही बढ़ाए जा सकते हैं।
- ज्ञान-आयोग ने वैश्वीकरण के संदर्भ में अंग्रेजी की महिमा बतायी है। शायद औरों से काम लेने के मकसद से। लेकिन इससे भारत के समाज में अपने काम पैदा करने की शक्ति नहीं बढ़ेगी। परिणाम, भारत परमुखापेक्षी बनने लगेगा, जो स्वतंत्र भारत की प्रकृति के विरूद्ध है।
- विकास के तीन चरण होते हैं - 1। Catch-up Phase, 2. Competitive Phase, 3. Commanding Phase

कैचप फेज में भारत ने बहुत तरक्की की है -खाद्यान्न, इन्फोमेशन टेक्नोलॉजी, न्यूक्लीयर पावर, उद्योग-प्रबंधन, इत्यादि। अब, कम्पटीटिव फेज में योजना बनें, जिसमें हम चुनौतियों का सामना करें, निर्धारित लक्ष्यों को कम समय कम में और लागत में पाएं; और विकास की गति और सातत्य को सुनिश्चित करने के लिए लोगों की भागेदारी को बढ़ावें, लोगों के इन्नोवशन नवाचार प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करें। यह सब केवल मात्र लोकभाषा में ही सम्भव है।

- ज्ञान-आयोग की रिपोर्ट में बस इतना सुधारना है कि भारत में अंग्रेजी-साक्षरता 10-20 प्रतिशत पर्याप्त है, शेष भारत सहज चिंतन से समृद्धि में भागीदारी कर भारत को अग्रणी बनाएगा।
- समाज में उतार चढ़ाव तो आते हैं, लेकिन सजग रहना है कि हम अपनी जमीन से भी न उखड़ जावें। महात्मा गांधी ने भी चेताया था, ''सब दिशाओं से ज्ञान आए, संस्कृतियाँ आवें, लेकिन इनकी हवा से ऐसा न हो कि अपने पैर उखड़ जाएं।''
- राष्ट्र स्तर की योजनाओं में भूल होने का मुख्य कारण है, लोगों की उदासीनता। अत: उतिष्ठ, जाग्रत, वरान्निबोध।
- आज आवश्यकता है योजनाओं को लोकपरक कसौटी पर परख कर स्वीकृति देने की, अथवा अस्वीकृति का बिगुल बजाने की।
- तेजी से विकास के लिए सभी योजनाओं में लोगों की सहजतापूर्ण भागेदारी हो।
सामाजिक संवदेना, कल्पनाशीलता, रचनाधर्मिता की बीज-प्रवृत्ति का रोपण बचपन में 10 वर्ष तक लोकभाषा में ही आसानी से, सहजता से होता है।
- विश्वस्तर पर कारोबार के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान किया जाए। केवल अंग्रेजी ही नहीं, अन्य विदेशी भाषाओं को भी प्रोत्साहित किया जाए। फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश, जापानी, रशियन, चाइनीज, कोरियन आदि भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।

- चिंता न करें, पर चिंतन जारी रखें। हिन्दी लोकप्रिय हो रही है। जैसे-जैसे समृध्दि बढ़ रही है, हिन्दी भी सुदृढ़ हो रही है। हाँ, स्वरूप बदल रहा है - ट्रांजीशन फेज है। संक्रमण काल की हिन्दी में टैक्नीकलशब्द अंग्रेजी के हैं, संक्षेपाक्षर कभी कभार रोमन में भी। कोई परेशानी की बात नहीं। ग्राह्यता बढ़ी है। अंग्रजी के विज्ञापनों में हिन्दीशब्दों का प्रयोग बढ़ रहा है। टीवी चैनलों पर हिन्दी में प्रसारण बढ़ा है। न्यूज पेपर भी औद्योगिक गतिविधियों को हिन्दी में लाने लगे है। हिन्दी में इकोनोमिक टाइम्स अच्छी शुरूआत है। वेब पर ब्लॉग लेखन बढ़ रहा है।
हिन्दी को सशक्त बनाने के लिए सुनिश्चित करिए-

-१- टेक्नोलॉजी का प्रयोग सरल, सुबोध, सुलभ बनाएं
-२- सभी योजनाओं की सीमक्षा ''लोगों की भागीदारी'' के परिप्रेक्ष्य में होती रहे।
-३- सभी सरकारी अनुदान प्राप्त संगोष्ठियों में अनिवार्यत: लोकभाषा में हो। कम से कम 20 प्रतिशत पेपर और चर्चा-सत्र लोकभाषा में हो।

- उठो, उठाओ, उड़ जाओ
मिलकर छूलो आसमान भी।

बहस गरम है - ४ (यह अंत नहीं है)


mouli pershad >cmpershad@yahoo.com


शायद आज इस ग्रूप का होना सार्थक प्रमाणित हुआ। बधाई डॉ. कविता वाचक्नवी जी,भारतीय इतिहास की इतनी अच्छी व्याख्या के लिए। शायद अब हमारी संस्कृति पर उंगली उठाने वालों की आंखें खुल जाए!


hindi-bharat-owner@yahoogroups.com



अच्छी चर्चा चल रही है.

वेदों व वैदिक संस्कृति को नकारने वालों के साथ समस्या यह है कि वे वेद के नाम पर प्रचलित किसी भी अधकचरी संस्कृत में कही या मान्यता के रूप में प्रचलित बात को वेद की बात कह कर सुनी सुनाई के आधार पर गाली देते या नकारते चलते हैं. जैसा कि बहुधा साहित्य की मुख्य धारा के मुखिए अपने नेतृत्व को साबित करने अथवा विभाजन के लिए पाए मान व पैसे को पचाने एवम् खपाने के लिए दिखाए जाने वाले कार्यों की सूची को लम्बा करने के लिए एक यही मार्ग अपनाए जग जाहिर हैं. क्योंकि उनकी प्रतिबद्ध्ता प्रायोजकों के प्रति है, सो वे इस देश का अहित करके भी उनका हित पहले साधेंगे ही. दुर्भाग्य यह है कि उनकी इन कारस्तानियों के फलस्वरूप जाने कितने लोग, जो स्वयम् वेद या वैदिक ज्ञान तक पहुंचने का कष्ट नहीं उठाते या नहीं उठा पाते, वे, इन्हीं बातों को परम सत्य मान कर स्वयम् भी इन्हीं तर्कों का सहारा लेकर स्वयम् को फ़ॊरवर्ड अनुभव करते कराते हैं.

एक और दुर्भाग्य यह भी है कि इन लोगों से टकराने वाले भी जिन तर्कों व तथ्यों का आश्रय लेते हैं, वे तर्क व तथ्य भी स्वयम् उन्हें अधूरे जाने ही रेखांकित किए जाते हैं बहुधा. इसलिए प्रतिपक्ष द्वारा भोथरे प्रमाणित कर दिए जाते हैं. भले ही वह वर्णाश्रम व्यवस्था की बात हो या मनुस्मृति को नकारने की बात, या स्त्री या अन्य सामाजिक सहभागियों के सम्बन्ध में सामाजिक आचार संहिता के नियमन की बात.


मध्युगीन मान्यताओं को भारतीय संस्कृति का इतिहास समझने वालों पर केवल दया ही की जा सकती है. महाभारत के युद्ध के साथ( लगभग साढ़े पांच हजार वर्ष पूर्व) मूल वैदिक भारतीय संस्कॄति वाली सभ्यता का जब अन्त हो गया तब संसार की कोई भी अन्य जाति, मत, सम्प्रदाय अस्तित्व में आए. इसीलिए अंग्रेजीदां बाईबल के मतानुसार सारी सृष्टि को ५ हजार वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई मान कर लोगों को भरमाने के साथ साथ भारतीय वैदिक संस्कृति व काल को अल्पकालिक ठहराते व नकारते आए हैं. जबकि इस सृष्टि को बने तथा वैदिक सभ्यता को अस्तित्व में आए १अरब ९७ करोड़ से अधिक वर्ष हो चुके. और अब तो स्वयम् उस बाईबली कथन को पाश्चात्य विद्वानों की खोजों ने नकार दिया है. पर हमारे देश में न अपने देश का असल इतिहास लिखने वालों, बताने वालों की बातें पढ़ाई जाती हैं, न उन्हें कोई मान्यता दी जाती रही है. और सारे के सारे तथाकथित बहुपठ (?)होने का दम्भ पालने वाले अंग्रेज़ी जूठन को सिर माथे लिए देश व संस्कृति की कमियाँ व दोष देखते -दिखाते अपने आधुनिक होने का भरम ढोए जाते हैं.

स्वाध्याय में अनभ्यास इन सब के मूल में है. ठीक उसी तरह जैसे कभी बुद्ध के साथ हुआ था. मध्ययुगीन सामाजिक विसंगतियों व सत्य ज्ञान के स्थान पर अधकचरे बोझे को ढोती सामाजिक व्यवस्था के प्रति किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति का विद्रोह न्यायसम्मत है. यही बुद्ध के साथ हुआ. वे विचलित थे व परिवर्तकामी थे. किन्तु देश का दुर्भाग्य यह रहा कि उन्होंने वेद व धर्म के नाम प्रचलित तमाम अधार्मिकता व अवैदिकता को नकारने के लिए स्वयम् वेद व शास्त्र पर श्रम नही किया. जब एक विसंगति के प्रति विद्रोह जागा व व्यक्त हुआ तो तब के तमाम धर्म के ठेकेदारों ने यह कर चुप कराना चाहा कि नहीं - नहीं यह तो धर्म है. और बुद्ध ने कहा यदि यह धर्म है तो मैं इस धर्म को नहीं मानता, तब फिर कहा गया कि नहीं नहीं यह तो वेद में लिखा है, बुद्ध ने कहा -ओह यदि यह वेद में लिखा है तो मैं वेद को भी नहीं मानता. लोगों ने कहा -अरे वेद तो ईश्वरीय ज्ञान है, बुद्ध ने कहा तो मैं ऐसे ईश्वर को भी नहीं मानता. इन सब के बीच यदि बुद्ध स्वयम् वेदों पर श्रम करते तो आज इतिहास ही दूसरा होता. मध्युगीन महाभारतोपरान्त पतनकाल की विसंगतियों को धर्म व वेद का मुलम्मा चढ़ा कर प्रस्तुत करने वाले तथाकथित धार्मिकों ने जितनी हानि की , उस ही तर्ज पर उसे सुधारने व परिवर्तनकामी, सम्वेदनशील व समाजसुधार की वृत्ति वाली विचारधारा वालों के हाथों भी हुई. काश बुद्ध स्वयम् वेदों व इस देश की संस्कृति के अध्ययन पर श्रम करते, काश वे संस्कृत को स्वयम् पढ़कर वेद के नाम पर प्रचलित झूठ का समाहार करते. पर बस, ये सब काश ही है. क्योंकि ऐसा नही हुआ. व बौद्धकाल केवल समस्त संस्कृति,धर्म व शास्त्र का नकार काल ही बन कर रह गया. इसी लिए बौद्ध-दर्शन नास्तिक दर्शन के रूप में ख्यात व स्थापित हुआ.

यह भी साथ ही स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि इस भारत देश में कभी किसी नास्तिक दर्शन के लिए सहानुभूति नहीं रही. परिणामस्वरूप बौद्धदर्शन भी भारत में जन्मने के बावजूद, नृपतियों के प्रश्रय के बावजूद यहाँ टिक या चल नहीं पाया, जितना व जैसे चीन आदि मंगोल देशों में फैला.

बुद्ध सर्वाधिक खिन्न थे पशुहिंसा व बलि आदि की हिंसक वृत्तियों से, इसी लिए उन्होंने अहिंसा को परम धर्म के रूप में मान्यता दिलाने पर सर्वाधिक बल दिया. किन्तु समय व इतिहास साक्षी हैं कि उनके नामलेवा व उस सम्प्रदाय की छतरी तले आने वाले देश ही अनुपात में सर्वाधिक हिंसक मांसाहारभोगी हुए.तो कहाँ क्या हुआ बौद्ध दर्शन?


केवल वैदिक संस्कृति को गाली देने के लिए उसका प्रश्रय लेने वालों ने अपने स्वार्थ के लिए देश के लोगों को वर्ग-विभाजित करने के स्वार्थ में प्रयोग का अस्त्र बना कर उसके नाम पर घात किए हैं. कर रहे हैं. जब तक भारतीय यह कुचाल नहीं समझते तब तक घृणा की ठेकेदारी को कोई नहीं रोक सकता. और वे ठेकेदार ऐसे हैं कि वे यहाँ तक ब्रेनवाश कर चुके हैं कि सच बताने वाले को भी शत्रु प्रमाणित कर वर्ग-दम्भी या कुछ भी और तमगे से टाँक कर अपनी साजिशों को अंजाम देते रहेंगे. और इतिहास की ही भाँति आज भी लोग इनके भ्रम में आकर संस्कृति,शास्त्र व देश की सभ्यता को नकारते रहेंगे......., जब तक कि देश इतना टुकड़े न हो जाए कि जगह जगह स्थानीयता वा क्षेत्रीयता, भाषा, मत, जन्म या किसी अन्य भी चीज पर बँट न जाएँ, सामन्तशाही होकर देश पुन: किसी गर्त में न चला जाए.

कितने भोले हैं हम या सच कहें तो मूर्ख.

---- कविता वाचक्नवी




poonam abbi

Re: [हिन्दी-भारत] Fwd: Re: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plight - VEDIC KNOWLEDGE & ENGLISH

If Prem Sahajwal ji so believes that Budhh is a better role-model than the vedic rishis, then why did he not follow in the path of his role model? it would have benefitted millions of people। What he does & the way he speaks is the opposite of what Buddh did.

poonam abbi
Re: [हिन्दी-भारत] Re: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plight

Then why is America enforcing Spanish in its schools? Why is it encouraging students to learn arabic, chinese, even Hindi? Why has the brit govt। started including the principles of Geeta in training their soldiers? If whatever is vedic is just rantings of senile men who were thinkinkg, then can you tell me the miraculous way of doing things without thinking? Well I do see what happens when people speak & do things without thinking, it is there all over the internet & =the news & events of the world are examples enough that what happens when things are done without thinking। The only people who are not required to think are those who are not people, but sheep ---

On Tue, 5/13/08, Prem Sahajwala ।COM>wrote:

From: Prem Sahajwala Subject: Re: [हिन्दी-भारत] Re: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plightTo: HINDI-BHARAT@yahoogroups.comDate: Tuesday, May 13, 2008, 1:59 PM
Hi dears
pl do not mind my comments. The arguments that Japan progressed without english are too outdated now. In the globalisation era a country should have as many english knowing people as possible and also those who know many other languages. This doesnt mean any loss to our national languages which are many. The English is our mouth to english speaking world and our own languages are for our own communication. When Mulayam Singh was Defence Minister he once went to the Defence HQ and ordered strictly that every thing should be done in Hindi and not even a single sentence should be in English. But the Army generals when they heard this must have felt like turning out this rustic Defence Minister as it was now next to impossible to convert the whole military lingo from English to HIndi. We must now kill the blessing like English just as a form of jingoism or pseudo patriotism but accept English also as an unseparable language from the Indians.
2. The Vedic knowledge need not be revived but should only be kept well published as a part of history. If u think today we can go for Manu smriti and the science of the Vedas you are simply bent upon going back.

Pl forgive my views and consider me a friend.

pcs

बहस गरम है - 3

mouli pershad

आदरणीय भाई प्रेमजी, मैं आप के इस चिंतन से सहम्त हूं कि हमे जो कुछ भी आज के संदर्भ में अनुचित लगता है उसका परिमार्जन करें वर्ना हमारा समाज ठहरे पानी की तरह काई बन कर रह जाएगा। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम हमारी संस्कृति को ही नकार दें और पाश्चात्य चमक के पीछे दौडते फिरें।
रही बात नारी की स्थिति की, तो क्या हमारी माताएं हमें वो सब नहीं दिया जिससे हम अच्छे नागरिक बन सकें। अंग्रेज़ी पढ़ कर ही क्या हम शिक्षित कहलाएंगे। क्या हमारी माताओं ने वो नैतिक पाठ नहीं पढाईं जिससे हम सज्जन कहलाते हैं। आज की पाश्चात्य ढंग की कितनी माताएं यह पाठ पढा रही हैं\

आप ने वर्णाश्रम का प्रश्न उठाया है। क्या आज के संदर्भ में वह तर्कहीन बन गया है। यदि हां तो फिर आज के ओल्ड एज होम क्या हैं? अंध विश्वास को नकारना अलग है और अपनी संस्कृति को नकारना अलग। आशा है कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे। आखीर समुद्र मंथन से ही अमृत प्राप्त होता है।

Prem Sahajwala wrote:

मित्र मौली प्रसाद जी को सादर नमस्कार पाश्चात्य संस्कृति ने ही हमारी नारी को शिक्षित किया वरना नारी घर में ही रह जाती व जैसा एक बार किसी शंकराचार्य जी महाराज ने कहा था, सती प्रथा भी वेदों के अनुकूल ही मानी जाती. पाश्चात्य संस्कृति ने विद्वा विवाह जो इश्वर चंद्र विद्या सागर ने ब्रिटिश की मदद से ही कानून पारित कर के शरू करवाया हमारे समाज में मान्यता पा सका तथा पाश्चात्य सभ्यता के आधार पर ही बाबा साहेब हिंदू कोड बिल लाये जिसमें नारी को कम से कम शराबी व जुआरी पति से तलाक लेने की सुविधा प्राप्त हुई. ऐसी अनेक अनेक बातें हैं तथा संक्षेप में कहना हो तो इतना कहना काफ़ी है कि आज जहाँ जहाँ पश्चिमी शिक्षा नहीं पहुँची वहाँ लड़कियां प्रेम करने के लिए जिंदा जलाई जाती हैं या एक ही गोत्र में शादी करने वाले जोडों को या तो जला कर नालों में फ़ेंक दिया जाता है या उन्हें भाई बहन करार दिया जाता है. इसलिए पश्चिमी सभ्यता से परहेज़ क्यों एंड प्राचीन गली सड़ी प्रथाओं से चिपके रहने का मोह क्यों. वैदिक संस्कृति में तो साठ वर्ष कि आयु में घर छोड़ कर जंगल में रहना पड़ता था तथा बीबी को बच्चों के भरोसे छोड़ना पड़ता था. सत्तर वर्ष कि आयु में कुटिया छोड़ भिक्षुक बन के सात घरों से भिक्षा मांग कर या तो खंडहर में रहना पड़ता था या किसी मन्दिर में. ऐसी विरासत का हम क्या करें मौली प्रसाद जी. मेरी एक ग़ज़ल का एक शेर है जो आप पर बखूबी लागू होता है -
उन्हें गुरूर है इस मुल्क कि विरासत पर मुझे है फिक्र अभी कल मिली वसीयत की.
धन्यवाद - प्रेम सहजवाला


mouli pershad cmpershad@yahoo।com

प्रकृति को समझना इतना सहज नहीं है सहजवाला जी। आप तो जानते ही होंगे कि किस प्रकार हमारी सोच ने ही आज की आधुनिक चीज़ों के अविष्कार के प्रथम पथ बने हैं। जब कोई अनुसंधान होता है तो पहले पहल त्रुटियां तो होती है। इसलिए हम यह नहीं कहते कि हमारे वैदिक चिंतक जो कुछ कह गए, वह पूरा का पूरा सही है परंतु यह भी सहीं है कि उनका चिंतन ही आधुनिक जीवन का पथ प्रदर्शक है। क्या आपने चंद्रकांता पढते समय यह अनुमान लगाया था कि तिलिस्म के बक्सों में नाचती गाती गुडि़या सच में सम्भव हो सकती हैं- परंतु आज आपके घर में आप दिन-रात बक्से में बैठी गुडिया को देख रहे हैं। वैसे ही पष्पक विमान और आग उगलते बाण कपोल कल्पना ही तो थे!
रही बात आप के बुद्ध का अनुसरण करने की - तो हर व्यक्ति को यह छूट है ही। आखिर वो भी तो एक हिंदू ही थे।

Prem Sahajwala pc_sahajwala2005@yahoo।com

Dear menon saheb
The vedic knowledge or science as u may call it was based merely on guess work and philosophy in which even the gravity and gravitation were there because the mother earth possessed some divine power. The Vedic scientist (u may love to call them so) came to conclusion by mere meditation while today's science is based on experiment observation hypothesis and theory and law. Aristotle had said -
Everything on the earth can be known by mere thinking.
For everything there is a supreme cause.

The first of these concepts is misplaced as no truth of the world has been known by mere thinking but all the progress of the world is based on experimenting and verifying.
I would ask you a simple question:
Which divine power is there to help the blast victims of Jaipur? So many people die in droughts floods earthquakes and cyclones (see the Burma). Divine is therefore some luxury of those happy persons who live peaceful individualistic life. Divine is our own halucination. I believe more in the Buddha who did not believe that our lives are controlled by some divine power or that what we do is a result of the karma in our previous births.

With regards
pcsvavamenon wrote:
Dear Prem Sahajwala-ji,
Namasthe !!!
Did I say in mail not to learn english ? Please read the mail in full and try to understand the message / idea / concept in the mail. Your mail is an emotional response without even fully understanding the gist of what I wrote.
You say that Vedic knowledge should be kept well published as part of HISTORY. My dear friend, in fact VEDIC KNOWLEDGE is THE TOTAL KNOWLEDGE THAT ONE HAS TO ACQUIRE THROUGH OUR LIVES....... In our traditions, there is AVIDYA, VIDYA, PARA VIDYA AND APARA VIDYA..... With your english education (especially the "USA/UK accented angrezi), we acquire AVIDYA. VIDYA is knowledge of ATMA, PARA VIDYA is the knowledge of your own SELF. APARA VIDYA is the knowledge of BRAHMAM / BRAHMAN / ISHWAR. In english, there is only knowledge whereas in our traditions, the above are the four LEVELS OF KNOWLEDGE..... All our 1400 plus authoritative scriptures teach us to connect and keep us connected to THE DIVINE.
Poonamji, as regards patenting, please visit www.amiahindu.com and see how american senate library (Congress library) has already patented all the sanatana dharma scriptures and all the vedic knowledge and also gods and godesses.....
for Premji and the likes, our vedic knowledge is history.... for america and europe, they are trying to patent them so that after 50 - 100 years, we have to go to america and europe to learn our scriptures.......
With best regards,
vm

Re: [हिन्दी-भारत] Re: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plight
Prem Sahajwala

मित्र मौली प्रसाद जी को सादर नमस्कार
पाश्चात्य संस्कृति ने ही हमारी नारी को शिक्षित किया वरना नारी घर में ही रह जाती व जैसा एक बार किसी शंकराचार्य जी महाराज ने कहा था, सती प्रथा भी वेदों के अनुकूल ही मानी जाती. पाश्चात्य संस्कृति ने विद्वा विवाह जो इश्वर चंद्र विद्या सागर ने ब्रिटिश की मदद से ही कानून पारित कर के शरू करवाया हमारे समाज में मान्यता पा सका तथा पाश्चात्य सभ्यता के आधार पर ही बाबा साहेब हिंदू कोड बिल लाये जिसमें नारी को कम से कम शराबी व जुआरी पति से तलाक लेने की सुविधा प्राप्त हुई. ऐसी अनेक अनेक बातें हैं तथा संक्षेप में कहना हो तो इतना कहना काफ़ी है कि आज जहाँ जहाँ पश्चिमी शिक्षा नहीं पहुँची वहाँ लड़कियां प्रेम करने के लिए जिंदा जलाई जाती हैं या एक ही गोत्र में शादी करने वाले जोडों को या तो जला कर नालों में फ़ेंक दिया जाता है या उन्हें भाई बहन करार दिया जाता है. इसलिए पश्चिमी सभ्यता से परहेज़ क्यों एंड प्राचीन गली सड़ी प्रथाओं से चिपके रहने का मोह क्यों. वैदिक संस्कृति में तो साठ वर्ष कि आयु में घर छोड़ कर जंगल में रहना पड़ता था तथा बीबी को बच्चों के भरोसे छोड़ना पड़ता था. सत्तर वर्ष कि आयु में कुटिया छोड़ भिक्षुक बन के सात घरों से भिक्षा मांग कर या तो खंडहर में रहना पड़ता था या किसी मन्दिर में. ऐसी विरासत का हम क्या करें मौली प्रसाद जी. मेरी एक ग़ज़ल का एक शेर है जो आप पर बखूबी लागू होता है -
उन्हें गुरूर है इस मुल्क कि विरासत पर
मुझे है फिक्र अभी कल मिली वसीयत की.
धन्यवाद - प्रेम सहजवाला

mouli pershad wrote:
आदरणीय प्रेम सहजवाला जी ने अपने चिंतन में कुछ गडमड कर दिया लगता है। यह सही कहा है कि हमें जितनी अधिक भाषाओं का ज्ञान होगा हमें उसका अधिक लाभ मिलेगा। अंग्रेज़ी का लाभ तो हमें मिल ही रहा है - जो इस बात को नकारते हैं उन्हें अज्ञानी ही कहेंगे। रही बात संस्कृति और संस्कार की , वह तो हमारी धरोहर है जिसे छोड़ना हमारी जडों से बिछडने जैसा है। इस लिए यह कहना कि हमारी वैदिक संस्कृति पुरानी पड़ गई है और उसके चलते हम पिछड़ जाएंगे, यह न केवल मिराधार है बल्कि अज्ञानतापूर्ण भी है। आज हम अपनी संस्कृति को छोड कर पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड में लगे हुए हैं जो हमे किस ओर ले जा रही है उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

जब हम अपना छोड कर दूसरे की ओर भागते हैं तो बहुगुणा की परिस्थिति हो जाती है। [आप को अप्रासंगिक लग रहा होगा!}. जब बहुगुणा जी ने अपनी पार्टी का विलय इंदिराजी की कांग्रेस में कर दिया और फिर भी चुनाव हार गए थे तो प्रसिद्ध व्यग्यकार शैल चतुर्वेदी ने कहा था-
गुणा करते करते भाग हो गए
साडी की चक्कर में कुर्ते पर दाग हो गए।

मैंने यह प्रसंग माहौल को हलका करने के लिए लिखा है ताकि यदि प्रेम जी अपना प्रेम बनाए रखें

बहस गरम है - २

कृपया पत्राचार को अंतिम से पहले की ओर उलटे क्रम में पढ़ें (क.वा.)



mouli pershad cmpershad@yahoo।कॉम


आदरणीय प्रेम सहजवाला जी ने अपने चिंतन में कुछ गडमड कर दिया लगता है। यह सही कहा है कि हमें जितनी अधिक भाषाओं का ज्ञान होगा हमें उसका अधिक लाभ मिलेगा। अंग्रेज़ी का लाभ तो हमें मिल ही रहा है - जो इस बात को नकारते हैं उन्हें अज्ञानी ही कहेंगे। रही बात संस्कृति और संस्कार की , वह तो हमारी धरोहर है जिसे छोड़ना हमारी जडों से बिछडने जैसा है। इस लिए यह कहना कि हमारी वैदिक संस्कृति पुरानी पड़ गई है और उसके चलते हम पिछड़ जाएंगे, यह न केवल मिराधार है बल्कि अज्ञानतापूर्ण भी है। आज हम अपनी संस्कृति को छोड कर पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड में लगे हुए हैं जो हमे किस ओर ले जा रही है उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

जब हम अपना छोड कर दूसरे की ओर भागते हैं तो बहुगुणा की परिस्थिति हो जाती है। [आप को अप्रासंगिक लग रहा होगा!}. जब बहुगुणा जी ने अपनी पार्टी का विलय इंदिराजी की कांग्रेस में कर दिया और फिर भी चुनाव हार गए थे तो प्रसिद्ध व्यग्यकार शैल चतुर्वेदी ने कहा था-
गुणा करते करते भाग हो गए
साडी की चक्कर में कुर्ते पर दाग हो गए।

मैंने यह प्रसंग माहौल को हलका करने के लिए लिखा है ताकि यदि प्रेम जी अपना प्रेम बनाए रखें

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vavamenon
: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plight - VEDIC KNOWLEDGE & ENGLISH
Dear Prem Sahajwala-ji,
Namasthe !!!
Did I say in mail not to learn english ? Please read the mail in full and try to understand the message / idea / concept in the mail. Your mail is an emotional response without even fully understanding the gist of what I wrote.
You say that Vedic knowledge should be kept well published as part of HISTORY. My dear friend, in fact VEDIC KNOWLEDGE is THE TOTAL KNOWLEDGE THAT ONE HAS TO ACQUIRE THROUGH OUR LIVES....... In our traditions, there is AVIDYA, VIDYA, PARA VIDYA AND APARA VIDYA..... With your english education (especially the "USA/UK accented angrezi), we acquire AVIDYA. VIDYA is knowledge of ATMA, PARA VIDYA is the knowledge of your own SELF. APARA VIDYA is the knowledge of BRAHMAM / BRAHMAN / ISHWAR. In english, there is only knowledge whereas in our traditions, the above are the four LEVELS OF KNOWLEDGE..... All our 1400 plus authoritative scriptures teach us to connect and keep us connected to THE DIVINE.
Poonamji, as regards patenting, please visit
www.amiahindu.com and see how american senate library (Congress library) has already patented all the sanatana dharma scriptures and all the vedic knowledge and also gods and godesses.....
for Premji and the likes, our vedic knowledge is history.... for america and europe, they are trying to patent them so that after 50 - 100 years, we have to go to america and europe to learn our scriptures.......
With best regards,
vm




Prem Sahajwala pc_sahajwala2005@yahoo।कॉम

Hi dears
pl do not mind my comments. The arguments that Japan progressed without english are too outdated now. In the globalisation era a country should have as many english knowing people as possible and also those who know many other languages. This doesnt mean any loss to our national languages which are many. The English is our mouth to english speaking world and our own languages are for our own communication. When Mulayam Singh was Defence Minister he once went to the Defence HQ and ordered strictly that every thing should be done in Hindi and not even a single sentence should be in English. But the Army generals when they heard this must have felt like turning out this rustic Defence Minister as it was now next to impossible to convert the whole military lingo from English to HIndi. We must now kill the blessing like English just as a form of jingoism or pseudo patriotism but accept English also as an unseparable language from the Indians.
2. The Vedic knowledge need not be revived but should only be kept well published as a part of history. If u think today we can go for Manu smriti and the science of the Vedas you are simply bent upon going back.

Pl forgive my views and consider me a friend.

pcs

Re: [हिन्दी-भारत] Re: [हिन्दी-भारत] Re: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plight
mouli pershad
अंग्रेज़ी साहित्यकार विलियम शेक्सपियर को उर्दू का लेखक वली मियां शेख पीर कहते हैं तो क्या वह मुसलमान हो जाएंगे। जिसकी जैसी चाह उसकी वैसी भक्ति। चलो, किसी बहाने एक बडी हस्ती को अपना बना लिया.......अच्छा किया


Re: [hc] Re: HC clears Husain - mahabharatha and draupadi ji's plight
---vavamenon wrote:

Poonamji,
Namasthe !!!
Yes, the modern �accented angrezi education� has really made the standards and quality of understandings of New Generations of Bharatheeyans fall down tremendously.
The depth of morale and character and observation / analytical powers also have taken dive downwards�.. That is why we are having such �blah�blah�.s� happening in these forums�
The revival of our VEDIC principles and traditions is the foremost / important task all Bharatheeya parents and children have to undertake, for which study of sanskrit language can really put the foundation.
English should be taught only as a medium of communication, but we should not die to learn the same�..
Japan has become world�s 2nd largest economy not be going after English�. 90% of their population do not know English�.. In fact, Japan is trying to learn from Indian system of education due to indians� advanced brains in computer software fields�. It is the memory power of bharatheeyans (due to taking butter � which is the basic brain�s food � learnt from Lord Krishna�s childhood stories� that parents have learnt from Mahabharatha / Ramayana / Bhagavatham, etc., passing on beautifully and dutifully to the next generations that helped Indians to be at the forefront of knowledge. The present backwardness in the research fieled is due to the poor politicians lack of vision and dynamism. With proper visionary leadership having nation�s growth in mind, proper administration of production and distribution, etc., India would be the world leader in no time�.. India was, is and would be the richest country in the world as our dear Bharatham is DAIVBA BHOOMI, DIVVYA BHOOMI, DEVA BHOOMI, VEDA BHOOMI, JNAANA BHOOMI, SATHYA BHOOMI, DHANNYA BHOOMI, PUNNYA BHOOMI, SWARGA BHOOMI, SWAPNA BHOOMI, and what not� !!!!!).
With thanks for the support and prayers,
VM


poonam abbi wrote:

So now the b...chor chattas are saying that xtianity is akin to Krishna Niti...a clear indication that now the Hindus are divided, after patenting haldi, neem & baasmati, they can patent Geeta, Krishna & Ved in their name & claim to be the wise ones? trule to their nature...WOLF IN SHEEP'S CLOTHING

बहस गरम है - १ (`हिन्दीभारत' समूह पर)

पहले यह 'मेल' पहुँचा , जिसे भेजा वावा मेनन जी ने।

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Sureshji,
I am sorry if I ever sounded that I am ANGRY in my mails......
I too consider every human being and all that has and does not have life as a part of the Omni-present Ishwar.
But, I search for TRUTH in people who take on the roles of Guru / Achaarya / Teacher....
Finally, it is individual peace and happiness. As long as you are happy and content, please go ahead and do what you want to do.....
I am attaching a PEACE INVOCATION (peace for all - the entire universe and its parts including Brahman) rendered so beautifully that listening to it for few times settles your SELF in peace and happiness. Please do circulate to as many as you can..... Let peace prevail everywhere...
with best regards, and thanks,


vm sureshbalaraman wrote:
Menonji,
I believe christanity is akin to "Krishna -Neethy" or Krishnas Order.Krishna and Christ are similiar in sounds too.I have no problems in accepting christains as children of god or islamics as children of god or for that any people as children of god.Because that is the only truth.Whenever i get angry,i simply chant the shanthi mantra poornamadah poornamidam.......to calm myself.I think i better do that.I love Lord Krishna very much and i love Bhagavan Sathya Sai Baba very much and i am happy.Thanks.

sb

--- In hinducivilization@yahoogroups.com, vavamenon wrote

NOT HUNGER,is my opinion.> > >
Yes, human imagination is so vivid that he can find justification for any of his thoughts/words/deeds-acts. The question is about Dharma and Adharma....> > jesus could as well have created enough breads to feed the hungry which he had already done before (one bread becoming 5000 instantly - and this concept also comes from Draupadi's Akshayapatra feeding Durvasavu), instead of cursing a poor fig tree (and this tree has nothing to do with following his preachings - for or against) which did not do any harm to him..... WHY SUCH A GREAT SOUL AS JESUS WHO CLAIMS TO KNOW EVERYTHING GET ANGRY ON A TREE AND CURSE ? And, I was reading a Book "Mohammed" written by Martin Lings, approved by Al Azhar University-Cairo which is the authority on Islam, which also repeated same-like story of Mohammed fee ding thousands under the same concept....> > Do you have any idea where jesus was from the age of 6 to 28 ? He disappeared in bible after bible came to India, because whatever stories about jesus were given in the bible till then were "Krishnaleela stories", and being afraid that Indians would DIS-COVER the lies in bible (being a copy of Lord Krishna's avtara stories) and dump jesus, the usual practice of bible amendment took place..... Please try to get some bibles of 600 - 900 AD. Read Thomas Paine's AGE OF REASON written in 1793-94 to see how brilliantly he has debunked the theory of "word of god" to be human mind's concoctions...... Thomas Paine declares that untill his time, there were about 300,000 amendments to the original book called bible.....> Can word of god be changed so fast ? > I think, we are going to get no where because of repetitions of a "imposition of Lord Krishna's Teachings to concepts which are totally against what Lor d Krishna said...." You ask any christian or muslim to accept Lord Krishna as a Guru / Teacher and see the difference.....> Spiritually, philosophically, conceptually, or on any criteria, there is no meeting point for Sanatana Dharma with all other philosophical concepts, including Buddhism,because sanatana dharma principles are DHARSHANS experimentable, experienceable by anyone who tries to walk the ordained time-tested scientific paths, all others are manufactured by man "in the name of God", which never offer the experience of God. They do not give a valid justification as to why a child is born blind, deaf or dumb, or any happening that cannot be explained with logic.... One can find total answers for any questions one may ask in Sanatana Dharma principles and traditions, if followed well and sincerely. I have not reached a stage where I can answer all, but I am so happy that I am on my way to some great experiences, learning Bhagavad Gita, which itself cover s TOTAL KNOWLEDGE to a great extent..... Every time I read Gita, I am in awe of the depth of Vyaasa Bhagavan's intelligence who> has concentrated all the TOTAL KNOWLEDGE in 700 verses !!!> With best regards,> vm > > > sureshbalaraman sureshbalaraman@... wrote:> >>Did you read bible ? Jesus and his followers once came under a fig tree, tired from walking a long journey and finding that the fig tree did not have any fruit to offer them to feed them, jesus cursed the fig tree that "you will never bear fruit till the end of time"..... How foolish to curse a fig tree because the tree did not give him fruits when he was hungry.... !!! His own father God created this fig tree and what is the logic of this CURSE ??? Can you explain to me ?<<> > Yes i have read the bible,based on what Lord Krishna says to Arjuna,as to how people come to him.> > As far as why Lord Jesus Christ,cursed the tree ,i need the verse that you are talking about,so that we can understand with what context he is saying.Also,he is showing to people as to how human he is,despite having superior powers within him,to prove to his disciples,that one can control anything in this world,but,NOT HUNGER,is my opinion.>

sb> --- In hinducivilization@yahoogroups.com, vavamenon vavamenon@ wrote:
M.F.Hussain, has to be admitted in a mental hospital,as his screw in his head has become loose,if he is going to draw about Prophet Mohammed with Ayeshsa taking your suggestion seriously.Neither that man nor the judge have got any se nse.I will gurantee you,if MF hussain draws on your suggestion,immediat ely a FATWAH,will be issues to have him killed,maybe Osma Bin Laden himself ,will come from Pakistan,from his kidney hospital to kill him,as his wahhabism permits such gory nonsense in the name of allah.This is exactly th e point that I wanted to make dear Sureshji, HINDUISM IS A FREE FOR ALL and is like an orphan, anyone can come and rape bharatham and her principles/traditions anytime anyway others want to..... That has to stop..... If their books and religion are serene and sacred, so is what is in Bharatham, which is applicable to the entire humanity and therefore, universal.... (In fact, I can prove that old testament / new testament (bible) is manufactured with a lot of liftings from Bharatheeya Scriptures.... They are 90% copies... The only difference in the concept is that their God is separate, whereas Indian Darshan is of a Brahman/Brahmam that is ALL-P ERVASIVE AND OMNIPRESENT, OMNIPOTENT AND OMNISCIENT.....), AND BECAUSE OF THEIR SEPARATEDNESS OF A GOD SITTING SOMEWHERE IN THE HIGH SKIES, MORE THAN HALF OF THE HUMAN POPULATION IS BLINDED AND CANNOT GO BEYOND THEIR BODY.... THEY ARE NOT TAUGHT MEDITATION, TO LOOK INSIDE THEMSELVES TO SEE THE DIVINE LIGHT WITHIN THEMSELVES, WHEREAS INDIAN TRADITION DECLARES THAT EVERYTHING AND EVERYONE CREATED ARE A PART OF THE DIVINE and therefore all that is created is COSMIC, which can be seen and experienced by EVERY TRUE SEEKER the many scientific and time-tested paths such as Jnaana-yoga, karma-yoga, raja-yoga, bhakthi-yoga, etc.I agree with Shri Shankarji also when he replied to you through many mails, where your understanding has faltered..... Coming from a very learned person like you, it is a bit surprising....I too agree to your understanding that everyone is a manifestation of Brahman's energy in different forms, but to rec ognise everyone as Brahman is foolishness. Those exalted souls are considered Gurus / Aachaaryas / Shrestas, who are truly Ishwara-realised souls and who scientifically explains what/who Ishwar is and ALSO WHO LEADS A LIFE FOLLOWING THE RITUALS AND AACHAARAS that he prescribes the followers t o take them to the abode of Ishwar.What we have to consider here is whether the God, and the Sons of Gods and Prophets sprang up during the last 2000 years have truly set examples for the mankind to follow to attain Sat-Chit-Ananda (eternal bliss). Did you read bible ? Jesus and his followers once came under a fig tree, tired from walking a long journey and finding that the fig tree did not have any fruit to offer them to feed them, jesus cursed the fig tree that "you will never bear fruit till the end of time"..... How foolish to curse a fig tree because the tree did not give him fruits when he was hungry.... !!! His own father God created this fig tree and wh at is the logic of this CURSE ??? Can you explain to me ? Like this, you will find a lot of non-sense in these books. I find only violence from these sects. 95% of the problems faced by mankind right now in the world have their roots in these religious dogmas. How they can be considered DIVINE ? Where is Dharma protected by these dogmas ? In fact, they are so aggressive that violence is the only way they can achieve their goals...., even to make others to accept their GODS.....However, if your exchanges were to bring out the views of members of the forum to assess the potential, i agree that this has been a good exercise.
Thank you,With best regards,
vm

पं. नवरत्न का अप्रकाशित राष्ट्रीयगान : ललित शर्मा - `मधुमती' (मई २००८) से साभार

पं. नवरत्न का अप्रकाशित राष्ट्रीयगान

( ललित शर्मा )
`मधुमती' (मई २००८) से साभार
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पं. गिरिधर शर्मा ’नवरत्न‘ हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के ऐसे स्वनामधन्य व्यक्तित्व थे जो न केवल एक साहित्यकार थे, अपितु एक सफल अनुवादक और हिन्दी के उत्थान में स्वयं को होम कर देने वाले सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनका जन्म झालरापाटन नगरी (जिला झालावाड, राजस्थान) में हुआ था। पं. नवरत्न ने अपने जीवन में मुट्ठी भर लोगों के लिये नहीं लिखा, अपितु हजारों हजार लोगों के लिए साहित्य रचा। इसमें हजारों देशवासियों के सपने समाहित थे। इसलिये उनका सृजन हिन्दी भारती के लिए मर मिटने वाले भावों को जाग्रत करता है। उन्होंने गुलाम भारत की दुर्दशा देख यह समझा था कि देश को परतन्त्रता से उबारने में हिन्दी और देशभक्ति के भाव होना आवश्यक है।

उन्होंने अपने लेखन में समाज और राष्ट्र की कई चेतनाओं को मन से छुआ जिनमें आत्मोत्सर्ग, स्वतन्त्रता, देशभक्ति के भाव मुखरित हैं। उन्हें अपने देश से अत्यधिक प्रेम था। इसी देश की माटी को उन्होंने अपनी आँखों का सुरमा बनाया था और इन्दौर में १९१८ ई. में आयोज्य हिन्दी साहित्य सम्मेलन में कर्मवीर गाँधी की अध्यक्षता में अपने द्वारा रचित ऐसा सुन्दर राष्ट्रगान प्रस्तुत किया था जिसमें भारत के सांस्कृतिक वैभव का स्वर्णिम चित्र था। इससे पहले भी उन्होंने १९१५ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में ऐसी सुन्दर और मौलिक भारत माता की वन्दना प्रस्तुत की थी जिसे हिन्दी साहित्य का प्रथम राष्ट्रगीत माना गया था। परन्तु ये वे तथ्य हैं जिन्हें आज भी हिन्दी भारती को समर्पित साहित्यकार याद रखते हैं परन्तु १९२० ई. में उन्होंने जिस भावभरे भारत के राष्ट्रीयगान की रचना की थी उसके बारे में आज तक कोई इसलिये नहीं जान पाया कि वह रचना केवल हस्तलिखित ही रह गई और प्रकाशन से दूर हो गई।

आज से ८८ वर्ष पूर्व रची गई यह हस्तलिखित रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय के भावों से यह भरकर लिखी गई थी। इस रचना के बारे में यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक होगा कि पं. नवरत्न ने इसे क्यों रचा था। इसका एक रोचक उल्लेख भी इस प्रकार है - पं. नवरत्न जिस झालरापाटन नगरी के वासी थे उसी नगरी में एक प्राचीन और व्यापारिक फर्म सेठ बिनोदीराम बालचन्द थी। यह फर्म उस समय देशभर में अपने उद्योग के साथ-साथ साहित्यिक प्रचार के लिए भी प्रसिद्ध थी। इसके संचालक सेठ बालचन्द और उनके पुत्र सेठ लालचन्द व सेठ नेमीचंद सेठी न केवल साहित्यप्रेमी थे वरन् वे हिन्दी भारती के प्रबल समर्थक और पं. नवरत्न के द्वारा रचित साहित्य के प्रमुख व्यय प्रकाशक थे। वे राजपूताना हिन्दी साहित्य सभा के मंत्री थे। झालरापाटन स्थित उनकी विशाल हवेली ’बिनोद भवन‘ में भारतीय हिन्दी साहित्य का आज भी विशाल पुस्तकालय देखने योग्य है जिसे उनके वंशज सुरेन्द्र कुमार सेठी ने आज भी सँजोए रखा है। १९२० ई. में इसी फर्म के सेठ बालचंद सेठी के युवा पुत्रों सेठ लालचंद और सेठ नेमीचंद ने राष्ट्रीय भक्ति के भाव अपने मन में जागने पर अपने गुरु पं. नवरत्न से विशेष निवेदन किया कि - ’’वे कृपा कर कोई ऐसा राष्ट्रीय गान लिखें जिसे पढकर राष्ट्र के प्रति भक्ति भाव सदैव बने रहें।‘‘ पं. नवरत्न तो थे ही राष्ट्रभावों को समर्पित अतः उन्होंने ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी सवंत १९७७ (सन १९२० ई.) को कलम उठाई और राष्ट्रीय गान का लेखन कर उसे नाम दिया - ’जय जय जय जय हिन्दुस्तान‘

कुल ३ पृष्ठों के ५ छन्दों में लिखे ८८ वर्ष पूर्व के इस राष्ट्रीयगान में पं. नवरत्न ने भारत का ऐसा सुन्दर गान किया जिसे पढकर आँखों के सामने सम्पूर्ण सौर जगत् के दृश्य के मध्य भारत की सांस्कृतिक अस्मिता के स्वर्णिम दर्शन होते हैं। इस गान में पं. नवरत्न ने भारत देश को नमन करते हुए उसे विश्व का जीवन प्राण दर्शाया है। उन्होंने भारत राष्ट्र को धर्म रक्षक, न्यायी, दुःखों से मुक्त करने वाला, हरि को गोद में बैठाने वाला तथा इन्द्रासन हिलाने वाला दर्शाया है। पं. नवरत्न द्वारा हस्तलिखित और आज तक हिन्दी भारती के साहित्यकारों की नजरों से दूर रहा यह अप्रकाशित राष्ट्रीय गान इस प्रकार है। यथा -

जय जय जय हिन्दुस्तान
(ज्ये. शु. ८, सं. १९७७ वै.)
*

जय जय जय जय हिन्दुस्तान

जय जय जय जय हिन्दुस्तान
महिमंडल में सबसे बढके
हो तेरा सन्मान
सौर जगत् में सबसे उन्नत
होवे तेरा स्थान
अखिल विश्व में सबसे उत्तम
है तू जीवन प्रान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
१)
धर्मासन तेरा बढकर है
रक्षक तेरा गिरिवरधर है
न्यायी तू है तू प्रियवर है
है प्रिय तव सन्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
महिमंडल में सबसे बढकर
सौर जगत् में सबसे उन्नत
अखिल विश्व में सबसे उत्तम
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय हिन्दुस्तान
(२)
पैदा हुआ न तू बन्धन को
दुःख से मुक्त करे तू जन को
फिरे न तू कह नीति वचन को
है तेरा शुचि ज्ञान
जय जय.
महिमंडल में.
सौर जगत् में.
अखिल विश्व में.
जय जय.
जय जय.
(३)
बडे बडे तप पूर्ण किये हैं
हरि को भी निज गोद लिये हैं
इन्द्रासन भी हिला दिये हैं
है तेरी वह शान
जय जय.
महिमंडल में.
सौर जगत् में.
अखिल विश्व में.
जय जय.
जय जय.
(४)
तेजस्वी तेरे बालक हैं
आत्म प्रतिष्ठा के पालक हैं
विश्व ताज के संचालक हैं
ध्रुवसम, देश महान्
जय जय.
महिमंडल में.
सौर जगत् में.
अखिल विश्व में.
जय जय.
जय जय.
(५)
तव सुगन्धि सब जग में छावे
लोक मान्य तू सब को भावे
तेरी मोहन मूर्ति सुहावे
करूँ निछावर जान
जय जय.
महिमंडल में.
सौर जगत् में.
अखिल विश्व में.
जय जय.
जय जय.
जय जय
जय जय हिन्दुस्तान
जय जय
जय जय हिन्दुस्तान।
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भारतीय भाषाओं का भविष्य : राहुल देव

प्रिय मित्र,
भारत के वर्तमान और भविष्य से जुड़े एक बेहद महत्वपूर्ण विषय के बारे में आपसे दो बातें करने के लिए पत्र लिख रहा हूँ। आश्चर्य यह है कि विषय जितना महत्वपूर्ण है उतना ही उपेक्षित भी।
विषय है हमारी सभी भारतीय भाषाओं का भविष्य।

भारत, कम से कम शिक्षित, शहरी भारत, संसार की एक महाशक्ति बनने के सपने देख रहा है। दुनिया भी अब मानने लगी है कि भारत में महाशक्ति बनने की इच्छा, क्षमता और संभावनाएं तीनों मौजूद हैं। यह परिदृश्य हर भारतीय के मन में एक नई आशा, उत्साह और आत्मविश्वास का संचार करता है। हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, योजना आयोग, ज्ञान आयोग, देशी विदेशी विद्वान, अर्थशास्त्री, लेखक, चिंतक, उद्योगपति आदि सब ज्ञान युग में भारत की बौद्धिक शक्ति और उद्यमशीलता की संयुक्त संभावनाओं के ही आधार पर यह कल्पना साकार होती देखते हैं।

इस बौद्धिक शक्ति का साक्षात हमारी शिक्षा करेगी इस पर भी सब सहमत हैं। शिक्षा व्यवस्था को संसाधनों, गुणवत्ता और सुलभता से संपन्न बनाने की बड़ी बड़ी योजनाएं बन रही हैं। ज्ञान आयोग ने शिक्षा संबंधी जो कई सिफारिशें प्रधानमंत्री से की हैं उनमें एक यह भी है कि पूरे देश में अंग्रेजी को पहली कक्षा से पढ़ाना शुरू किया जाय। पूरे देश में बच्चों को बढ़िया अंग्रेज़ी शिक्षा मिल सके उसके लिए अंग्रेज़ी शिक्षकों को प्रशिक्षित करने और 6 लाख नए अंग्रेज़ी शिक्षक तैयार करने की भी उन्होंने सिफारिश की है।

आज देश का हर गाँव, ज़रा भी शिक्षा का महत्व जानने वाला ग़रीब से ग़रीब नागरिक अपने बच्चों के लिए अंग्रेज़ी शिक्षा माँग रहा है। राज्य सरकारों पर ज़बर्दस्त दबाव है कि सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी माध्यम की पढ़ाई जल्दी से जल्दी शुरू की जाय। कई राज्य यह कर चुके हैं। बाकी भी करेंगे। सब चाहते हैं कि प्रगति और वैश्वीकरण की इस भाषा से कोई वंचित न रहे। सबने मान लिया है कि भारत के महाशक्ति बनने में अंग्रेज़ी सबसे बड़ा साधन है और होगी।

अंग्रेज़ी-माहात्म्य की इस जयजयकार के नक्कारखाने में हम एक तूती की आवाज़ उठाना चाहते हैं।

- अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो दो पीढ़ियों के बाद भारत की सारी भाषाओं की स्थिति क्या होगी?

- उनमें पढ़ने, लिखने और बोलने वाले कौन होंगे?

- क्या ये सभी भाषाएं सिर्फ़ बोलियाँ बन जाएंगी?

- या भरी-पूरी, अपने बेहद समृद्ध अतीत की तरह अपने-अपने समाजों की रचनात्मक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, साहित्यिक अभिव्यक्ति और संवाद की सहज भाषाएं बनी रहेंगी?

- क्या आज से दो पीढ़ियों बाद के शिक्षित भारतीय इन भाषाओं में वह सब करेंगे जो आज करते हैं, अब तक करते रहे हैं?

नहीं?
तो क्या आपको भी हमारी तरह यह दिखता है कि 20-30 साल आगे का शिक्षित भारत ज्यादातर हर गंभीर, महत्वपूर्ण काम अंग्रेज़ी में करेगा या करने की जीतोड़ कोशिश में लगा होगा?


अगर हाँ, तो तब इन सारी भाषाओं की स्थिति, व्यवहार के तरीके और क्षेत्र, प्रभाव, शक्ति, प्रतिष्ठा आदि क्या होंगे?

उनकी देश के व्यापक शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, बौद्धिक, साहित्यिक, कलात्मक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक आदि सभी ज्ञानात्मक क्षेत्रों में जगह क्या होगी?

जब लगभग हर शिक्षित भारतीय पढ़ने, लिखने और गंभीर बातचीत में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का प्रयोग करेगा, ये सारे काम अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं या पारंपरिक मातृभाषाओं में सहजता से करने में असमर्थ होगा, वैसे ही जैसे आज भी केवल अंग्रेज़ी माध्यम घरों-स्कूलों से निकले बच्चे असमर्थ होते जा रहे हैं, तब --

-कैसा होगा वह भारत?

-कैसे होंगे वे भारतीय?

-कितने और किस तरह के भारतीय होंगे वे?

-इन सारी भाषाओं में जो अमूल्य धरोहर, संवेदनाएं, संस्कार, ज्ञान, जातीय स्मृतियाँ संचित हैं और अब तक हर भारतीय को मातृभाषा के माध्यम से सहज ही मिलती रही हैं उनका क्या होगा?

-सिर्फ या ज्यादातर अंग्रेज़ी पढ़ने, लिखने, बोलने वाले महाशक्ति भारत के इन निर्माताओं की सोच, संस्कार, जीवन शैली, सपने, मनोरंजन के तरीके, शौक, महत्वाकांक्षाएं, पहनावा, खानपान, मूल्यबोध, एक भारतीय होने का आत्मबोध – ये सब कैसे होंगे?

-भाषा व्यवहार, स्थितियों और भाषाओं के आपसी रिश्तों में यह जो देशव्यापी, विराट और गहरा परिवर्तन लगभग अलक्षित ही घट रहा है क्या देश ने इस पर इसी गहराई से विचार भी करना शुरू किया है?

-क्या हमें यह प्रक्रिया दिख भी रही है?

-क्या यह विचार-योग्य है?

-क्या इन भाषाओं के आसन्न भविष्य के बारे में कुछ करने की ज़रूरत है?

-अगर है तो क्या किया जा सकता है?

-आपकी हमारी भूमिका इसमें क्या हो सकती है?

हम कुछ मित्र इन प्रश्नों पर चिंतित हैं।

इसे समूची भारतीयता पर घिरता संकट मानते हैं।

काश हम और हमारे ये भय ग़लत और निराधार साबित हों। लेकिन हम इन सवालों पर मिल कर विचार करना चाहते हैं। इस परिवर्तन और इसके निहितार्थों, इससे निकलती संभावनाओं को समझना चाहते हैं।

हम देश के हर प्रमुख भाषाभाषी समाज के साथ यह विचार मंथन और विमर्श करना चाहते हैं। क्योंकि हमें लगता है कि ये सिर्फ़ हिन्दी नहीं हर भारतीय भाषा के सामने खड़े प्रश्न हैं। शायद जीवन-मरण के, अस्तित्व की शर्तों और स्थितियों को बदलने वाले प्रश्न हैं।

हम चिंतित हैं निराश नहीं। कुछ अस्पष्ट रणनीतियाँ, कुछ विचार हमारे मन में हैं। उन्हें मित्रों के सामने रख कर, उनसे समझ, सुझाव और सामर्थ्य प्राप्त करना चाहते हैं।

इस विमर्श में शामिल होने का हम आपको निमंत्रण देते हैं। आपसे सहयोग की भी प्रार्थना करते हैं। इस विमर्श में बहुत सारे लोग, संसाधन, धन लगेंगे। आपकी प्रतिक्रिया का हम इंतज़ार करेंगे।

इस विमर्श की शुरूआत हम शनिवार, 17 मई, 2008 को शाम 6 से 8.30 बजे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कांफ्रेंस कक्ष 2 में एक बातचीत से कर रहे हैं। आप सादर आमंत्रित हैं।


आपका
राहुल देव
सम्यक् न्यास
के-13, ग्रीन पार्क एक्सटेंशन,
नई दिल्ली 110016
फोन +91 11 2619 1670
फैक्स +91 11 2617 6539

आधी आबादी (वे बिस्तर में पड़ी हैं, ......)

आधी आबादी

( ऋषभ देव शर्मा)



वे रसोई में अडी़ हैं,

अडी़ रहें.

वे बिस्तर में पड़ी हैं,

पड़ी रहें.

यानि वे

संसद के बाहर खड़ी हैं,

खड़ी रहें?



' गलतफहमी है आपको ।

सिर्फ़ आधी आबादी नहीं हैं वे।

बाकी आधी दुनिया भी

छिपी है उनके गर्भ में,

वे घुस पड़ीं अगर संसद के भीतर

तो बदल जाएगा

तमाम अंकगणित आपका. '

उन्हें रोकना बेहद ज़रूरी है,

कुछ ऐसा करो कि वे जिस तरह

संसद के बाहर खड़ी हैं,

खड़ी रहें!


उन्हें बाहर खड़े रहना ही होगा

कम से कम तब तक

जब तक

हम ईजाद न कर लें

राजनीति में

उनके इस्तेमाल का कोई नया

सर्वग्राही

सर्वग्रासी

फार्मूला।


शी.........................

कोई सुन न ले...............

चुप्प ...............!


चुप रहो,

हमारे थिंक टैंक विचारमग्न हैं;

सोचने दो.
चुप रहो,

हमारे सुपर कंप्यूटर

जोड़-तोड़ में लगे हैं;

दौड़ने दो.
चुप रहो,

हमारे विष्णु, हमारे इन्द्र-

वृंदा और अहिल्या के

किलों की दीवारों में

सेंध लगा रहे हैं;

फोड़ने दो।

तब तक कुछ ऐसा करो

कि वे जिस तरह

संसद के बाहर खड़ी हैं,

खड़ी रहें!


कुछ ऐसा करो

कि वे चीखे, चिल्लाएं,

आपस में भिड़ जाएं

और फिर सुलह के लिए

हमारे पास आएं।




हमने किसानों का एका तोड़ा,

हमने मजदूरों को एक नहीं होने दिया,

हमने बुद्धिजीवियों का विवेक तोड़ा,

हमने पूंजीपतियों के स्वार्थ को भिड़ा दिया

और तो और.............

हमने तो

पूरे देश को

अपने-आप से लड़ा दिया।


अगडे़-पिछड़े के नाम पर

ऊँच-नीच के नाम पर

ब्राह्मण-भंगी के नाम पर

हिंदू-मुस्लिम के नाम पर

काले-गोरे के नाम पर

दाएँ-बाएँ के नाम पर

हिन्दी-तमिल के नाम पर

सधवा-विधवा के नाम पर

अपूती-निपूती के नाम पर

कुंआरी और ब्याहता के नाम पर

के नाम पर.....

के नाम पर....

के नाम पर.....

अलग अलग झंडियाँ

अलग अलग पोशाकें

बनवाकर बाँट दी जाएं

आरक्षण के ब्राह्म मुहर्त में

इकट्ठा हुईं इन औरतों के बीच!

फिर देखना :

वे भीतर आकर भी

संसद के बाहर ही खड़ी रहेंगी;

पहले की तरह रसोई और बिस्तर में

अडी़ रहेंगी,

पड़ी रहेंगी!

(स्रोत : ताकि सनद रहे_२००२_तेवरी प्रकाशन)

मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज (६)

मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में – डॉ. देवराज - [VI]


पिछली बार हमने ‘लाइ-हराओबा’ अनुष्ठान के बारे में कहा था। इस धार्मिक अनुष्ठान सम्बंधी जानकारी और इससे जुडे़ लोकगीतों की जानकारी के बारे में डॉ. देवराजजी बताते हैं:
"यह अनुष्ठान विभिन्न चरणों में सम्पन्न होता है। सबसे पहले ‘लाइ फ़ि सेत्पा’ होता है, जिसके अन्तर्गत लाइहराओबा उत्सव से पहले देव-स्थान की अच्छी तरह सफ़ाई होती है और देवताओं को नव-परिधान अर्पित किया जाता है। ...एक ओर सृष्टि-उत्पत्ति की कथा विस्तार के साथ गाई जाती है और दूसरी ओर नृत्याभिनय द्वारा उसे दृष्याकार दिया जाता रहता है। माइबा-माइबी भक्तों के साथ गायन करके देवता को प्रसन्न करते हैं। कई बार वे इस प्रकार गाते हैं :

हो हो होइ हा हा हा
के रिल्लो कै रिला
नृत्य के क्रम में शारीरिक चेष्टाओं, नेत्रों और चेहरे की भंगिमाओं के माध्यम से गर्भाधान से लेकर प्रसव तक के दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं। इसके साथ गायन चलता रहता है, जैसे-
आ......आ...आ.....आ
नुमिदाङ्वाइगीना मतमदा आ
नुमित्ना चिङ्या थाङ्लक्ले ए
चेङ्गीना मैना तमया थेङ्
तमगीन मैनबु खोङ्मै नेम.....
["आ, सन्ध्या-काल में आ। पश्चिम में सूर्यास्त हो रहा है। पर्वत की अग्नि भी पाद-प्रदेश तक जा पहुंची है। तलहटी की अग्नि भी चरण-वन्दना में लगी है।"....डॉ. इबोहल सिंह द्वारा किया गया भावानुवाद।]

"लाइहराओबा के अवसर पर कभी-कभी लोकगीत शैली के गीतों का गायन भी किया जाता है, जैसे:
अङौबा शगोल तोङ्बरा
निङ्थौरेलगी शगोलदि
ममै गे गे साओबनि
अङौबा शगोल तोङ्बरा
[क्या तुम सफ़ेद घोडे़ की सवारी कर रहे हो? राजा के घोडे़ की पूँछ गे गे करती है। क्या तुम सफ़ेद घोडे़ पर सवार हो! - स. लनचेनबा मीतै द्वारा किया गया भावानुवाद।]

"लाइहराओबा के अवसर पर अनेक प्रकार के नृत्य के अन्तर्गत थाबलचोङ्बा शैली का नृत्य भी होता है। इसके साथ गाये जानेवाले एक गीत का उदाहरण निम्नांकित है:
के-के-के-मो-मो
यङ्गेन सम्बा श्याओ श्याओ
तोक्पगा काम्बगा कैगा येन्गा
येनखोङ् फ्त्ते चाशिङ्ल्लु
लाइगी येन्नी चाफ्दे
के-के-के-मो-मो
["बन बिलाव के साथ काम्बा तथा बाघ के संग मुर्गा लड़ने को उद्यत है। मुर्गा अच्छा नहीं है। उसे खा डालो। किन्तु मुर्गा देवता का है। उसे खाया नहीं जा सकता।" डॉ. इ.सिं.काङ्जम द्वारा किया गया भावानुवाद्।]

"लाइहराओबा के अवसर पर कभी-कभी लोकगीत शैली के गीतों का गायन भी किया जाता है, जैसे:
अङौबा शगोल तोङ्बरा
निङ्थौरेलगी शगोलदि
ममै गे गे लाओबनि
अङौबा शगोल तोङ्बरा
[क्या तुम साफ़ेद घोडे़ की सवारी कर रहे हो? राजा के घोडे़ की पूँछ गे गे करती है। क्या तुम सफ़ेद घोडे़ पर सवार हो! - स्.लनचेनबा मीतै द्वारा किया गया भावानुवाद।]"
घोडे़ का विषय तो भारत के ही नहीं, समस्त विश्व के साहित्य में एक विशेष स्थान रखता है। फ़िल्मों में भी नायक का घोडे़ पर सवार होकर प्रेमिका से मिलने जाने का दृश्य आ
म है। यह है देशकाल और भाषा से परे प्राकृतिक प्रभाव का अच्छा उदाहरण ; जो हर समाज एवं साहित्य में व्याप्त है।
..........क्रमशः
(प्रस्तुति : चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद )

इस सुख को बार-बार जीने की इच्छा हुई

इस सुख को बार-बार जीने की इच्छा हुई
(10th May : The day when the world comes together)

कल एक मित्र ने यह विडियो भेजा। इसे देखना स्वयं में इतना सुखद अनुभव था कि एक तो इस सुख को बार बार जीने की इच्छा हुई जाती थी, दूसरे यह भी कि बुजुर्गों से सुना है - "बाँटने से दुःख कम होता है व सुख बाँटने से बढ़ता है "। तो अब कोई इसमें तीन पाँच की बात ही नहीं रह गयी कि क्यों न अपने इस सुख को द्विगुणित किया जाए।

यों भी ऐसी चीजों को सहेज कर अपने लिए अलग रख लेने की कामना को (यह वीडियो देख कर ) स्वार्थ तो नहीं कहा जा सकता। गुडगाँव की मंजु बंसल जी के सौजन्य से उपलब्ध कराए गए इस विडियो की सराहना व प्रशंसा के शब्द ही बता सकते हैं कि यह प्रयास सभी को कितना रुचता है -


Imagine! Kenya sings for India


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