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राष्ट्रपति द्वारा हिन्दी दिवस पर सर्वोत्कृष्ट हिन्दी लेख व लेखक का सम्मान




हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट लेख हेतु "सूचना प्रौद्योगिकी में नागरी" (लेखक : भारतीय भाषाओं की कम्प्यूटिंग के पितामह श्री ओम विकास जी ) को वर्ष 2012-2013 के पुरस्कार हेतु चुना गया है, इस लेख हेतु हिन्दी दिवस 14 सितंबर को ओम जी को राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया जाएगा। 


मैं गर्व की इस घड़ी में अपनी ओर से, 'हिन्दी-भारत' की ओर से व 'विश्वम्भरा' की ओर से ओम विकास जी का अभिनंदन करती हूँ व बधाई संप्रेषित करती हूँ।

 विशेष हर्ष की बात यह भी है कि उस लेख को सर्वप्रथम इसी वेबसाईट पर स्वयं मैंने ही प्रकाशित किया था, आज उस कार्य के लिए पुनः मन गौरवान्वित है। लेख को यहाँ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है -  





‘उदारीकरण का उन्माद और आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन : सरलता के सहारे हत्या की हिकमत


आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन


सरलता के सहारे हत्या 




पिछले दिनों राजभाषा के नीति-निर्देशों को लेकर गृह मंत्रालय का एक जो नया ‘ परिपत्र ' प्रकाश में आया है (क्लिक - "हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा" ) , उसने भाषा के संबंध में निश्चय ही एक नये ‘विमर्श‘ को जन्म दे दिया है। क्योंकि, भाषा केवल ‘सम्प्रेषणीयता‘ का माध्यम भर नहीं है, बल्कि वह मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार भी है। फिर क्या किसी भी राष्ट्र की भाषा की संरचना में मनमाने ढंग से छेड़छाड़ की जा सकती है ? क्या वह मात्र एक सचिव और समिति के सहारे हाँकी जा सकती है ? निश्चय ही इस प्रश्न पर समाजशास्त्री, शिक्षा-शास्त्री, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक विद्वानों को बहस के लिए आगे आना चाहिए। यहाँ प्रस्तुत है , इस प्रसंग में एक बौध्दिक-जिरह को जन्म देने वाली कथाकार प्रभु जोशी की टिप्पणी


सरलता के सहारे हत्या की हिकमत
प्रभु जोशी 



भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय की सेवा-निवृत्त होने जा रही एक सचिव सुश्री वीणा उपाध्याय ने जाते-जाते राजभाषा संबंध नीति-निर्देशों के बारे में एक ताजा-परिपत्र जारी किया कि बस अंग्रेजी अखबारों की तो पौ-बारह हो गयी। उनसे उनकी खुशी संभाले नहीं संभल पा रही है। क्योंकि, वे बखूबी जानते हैं कि बाद ऐसे फरमानों के लागू होते ही हिन्दी, अंग्रेजी के पेट में समा जायेगी। दूसरी तरफ हिन्दी के वे समाचार-पत्र, जिन्होंने स्वयं को ‘अंग्रेजी-अखबारों के भावी पाठकों की नर्सरी‘ बनाने का संकल्प ले रखा है, उनकी भी बांछें खिल गयीं और उन्होंने धड़ाधड़ परिपत्र का स्वागत करने वाले सम्पादकीय लिख डाले। वे खुद उदारीकरण के बाद से आमतौर पर और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने के बाद से खासतौर पर अंग्रेजी की भूख बढ़ाने का ही काम करते चले आ रहे हैं।


षडयंत्र है या अनभिज्ञता


 षडयंत्र है या अनभिज्ञता

 - प्रो. सुरेन्द्र गंभीर








मान्यवर प्रभु जोशी जी और राहुलदेव जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर हमारा ध्यान खींचा है।
भारत में हिन्दी की और न्यूनाधिक दूसरी भारतीय भाषाओं की स्थिति गिरावट के रास्ते पर है। ऐसी आशा थी कि समाज के नायक भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए स्वतंत्र भारत में क्रान्तिकारी कदम उठाएँगे परंतु जो देखने में आ रहा है वह ठीक इसके विपरीत है। यह षडयंत्र है या अनभिज्ञता इसका फ़ैसला समय ही करेगा।




भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक है परंतु वह अपनी ही भाषा की सीमा में होनी चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज अंग्रेज़ी और उर्दू के बहुत से शब्द ऐसे हैं जिसके बिना हिन्दी में हमारा काम सहज रूप से नहीं चल सकता। ऐसे शब्दों का हिन्दी में प्रयोग सहज और स्वाभाविक होने की सीमा तक पहच चुका है और ऐसे शब्दों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह भी ठीक है कि हिन्दी में भी कई बातों को अपेक्षाकृत सरल तरीके से कहा जा सकता है। परंतु यह सब व्यक्तिगत या प्रयोग-शैली का हिस्सा है। विभिन्न शैलियों का समावेश ही भाषा के कलेवर को बढ़ाता है और उसमें सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करता है।

भारतीय भाषाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए : भोपाल घोषणा-पत्र


भारतीय भाषाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए
भोपाल घोषणा-पत्र

(नीचे के प्रारूप से जो भी मित्र सहमत हों वे अपने हस्ताक्षर करते चलें ताकि शीघ्रातिशीघ्र केंद्र सरकार को भेजा जा सके।

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भोपाल में 24 और 25 सितम्बर 2011 को `भूमण्डलीकरण और भाषा की अस्मिता' विषय पर आयोजित परिसंवाद के हम सभी सहभागी महसूस करते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की अस्मिता ही नहीं, अस्तित्व तक खतरे में हैं। 


स्वतन्त्र भारत को एक सम्पन्न, समतामूलक तथा स्वाभिमानी देश के रूप में विकसित होना चाहिए था। यह जीवन के सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं के उपयोग से ही सम्भव था, किन्तु न केवल हमारी अपनी भाषाओं की उपेक्षा की गयी, बल्कि इनकी कीमत पर अंग्रेजी को अनुचित बढ़ावा दिया गया। इसके पीछे जो वर्गीय नज़रिया था, उसने हमें एक औद्योगिक राष्ट्र बनने से रोका, हमारी खेती को चौपट किया, आम जनता से सरकारी तन्त्र की दूरी बढ़ाई और शिक्षा तथा पूँजी के वर्चस्व ने इस प्रकिया की रफ्तार को खतरनाक ढ़ंग से बढ़ाया है।


हम मानते है कि वर्तमान भूमण्डलीकृत निजाम में भारत की जो हैसियत, भूमिका और दिशा है उसमें ज़्यादातर हिन्दुस्तानियों की भौतिक खुशहाली तथा सांस्कृतिक उन्नति की कोई गारन्टी नही है। उनकी अपनी भाषाओं का दमन, उनकी भौतिक विपन्नता और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में उनकी समुचित हिस्सेदारी के अभाव के लिए जिम्मेदार है। इसलिए हमारी नजर में जन-भाषाओं की रक्षा, तरक्की और फैलाव का सुनिश्चित कार्यक्रम अपना कर तथा इस पर अमल की प्रक्रिया में शिक्षा, प्रशासन, न्याय तथा जीवन के सभी अहम पहलुओं से जुड़ी व्यवस्थाओं में गहरे परिवर्तन ला कर हम भारत के संविधान के आदर्शों एवं लक्ष्यों को हासिल कर सकते है।


अंगे्रजी से हमारा कोई दुराव नही है हम इसकी शक्ति, दक्षता और खूबसूरती के कायल है। हम चाहते है कि हमारे लोग दुनिया की अन्य समृद्ध भाषाओं के साथ-साथ अंगे्रजी से भी लाभान्वित हो, लेकिन हम नही चाहते कि अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा सम्पूर्ण भारत के समग्र विकास में रोड़े खड़े करे तथा हिन्दुस्तानियों की एक बहुत बड़ी जमात को अपने ही घर में पराया बना दे। हमें यकीन है कि अंग्रेजी के सच्चे प्रेमी अंग्रेजी को शोषण, अन्याय, विषमता तथा अविकास का औजार बनते देखकर खुश नही हो सकते। इसलिए हम इस भोपाल घोषणा-पत्र को अंगीकार करते हुए यह चाहते है और माँग करते हैं कि -


1. भारत के सार्वजनिक में यथासंभव भारतीय भाषाओं का प्रयोग हो। 


2. नीचे से लेकर ऊपर तक समस्त शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाये। इसकी तुरन्त शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से की जाये। जिन विषयों की बेहतरीन किताबें भारतीय भाषाओं में नहीं है, उन्हें तैयार करने का काम विद्वानों की टोलियों को सौंपा जाए। यह काम ज्यादा से ज्यादा दस वर्ष की मियाद मंे पूरा किया जाना चाहिए। इसके चार चरण हो सकते हैं-पहले माध्यमिक शिक्षा स्तर तक, उसके बाद स्नातक स्तरप तक, फिर उत्तर-स्नातक और शोध तक और अन्त में तकनीकी विषयों की शिक्षा।


3. किसी भी भारतीय को अंग्रेज या कोई विदेशी भाषा सीखने के लिए बाध्य न किया जाये। प्रत्येक भारतीय को संविधान-मान्य भाषा में उच्चतम स्थान तथा पद तक जानेका अधिकार होना चाहिए। 


4. सभी तरह की औद्योगिक प्रक्रियाओं तथा जन माध्यमों से अंग्रेजी को रुखसत करते हुए देशी भाषाओं को उनका हक दिया जाये।


5. धारा सभाओं, प्रशासन एवं अदालतों से अंग्रेजी को हटाने के लिए एक मियाद तय की जाये और किसी भी हालत में उस मियाद को न बढ़ाया जाये।


6. राज्यों की भाषा क्या हो, इस पर विवाद नहीं है। पर केन्द्र का मामला उलझा हुआ है। हम महसूस करते हैं कि बहुभाषी केन्द्र चलाना व्यावहारिक नहीं है। इसलिए, जैसा कि संविधान कहता है, केन्द्र की भाषा हिन्दी ही रहे, लेकिन केन्द्रीय नौकरियों की संख्या और नौकरशाहों की शक्ति को देखते हुए केन्द्र की राजभाषा के रूप में हिन्दी को ऐसे अतिरिक्त अवसर नहीं मिलने चाहिए, जिससे अन्य भाषा-भाषियों को अनुभव हो कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। इसलिए हम चाहते हैं कि केन्द्र के पास सेना, मुद्रा, विदेश नीति तथा अन्तरराज्यीय संसाधन जैसे विषय ही रहें और बाकी सभी अधिकार राज्यों, जिलों एवं स्थानीय निकायों के बीच बांट दिये जाएं। इससे कई राज्यों में हिन्दी के प्रति जो आक्रोश दिखाई पड़ता है, वह खत्म हो सकता है और भारतीय भाषाओं की पारिवारक एकता मजबूत हो सकती है। 


7. जनसंचार माध्यमों पर पूंजी के नियंत्रण को हम खतरनाक मानते हैं। अतः जनसंचार के किसी भी माध्यम से भाषा नीति का फैसला उस माध्यम से मालिकों तथा उसमें काम करने वालों की बराबरी पूर्ण सहमति और ऐसी सहमति न बन पाने पर ‘एक व्यक्ति: एक वोट‘ के आधार पर होना चाहिए।


8. हमारे देश का नाम भारत है। अपने ही देशवासियों के मुँह से ‘इण्डिया‘ सुनकर हमें अच्छा नहीं लगता। इसलिए ‘इण्डिया, दैट इज भारत‘ को हटाकर सिर्फ भारत रखा जाये। इसी तरह, भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय रेल, आकशवाणी आदि जैसे सभी राष्ट्रीय संस्थानों के अंग्रेजी नामों कोक हटाकर उनके भारतीय नामों को ही मान्य करना होगा। ‘इण्डियन आॅयल‘ तथा ‘एअर इण्डिया‘ जैसे सभी अंग्रेजी नामों को हटा कर उनकी जगह भारतीय नाम देने का काम तुरन्त हो।


भोपाल घोषणा-पत्र किसी प्रकार के ‘शुद्धतावाद‘ या इकहरेपन का आग्रही नहीं है, न ही यह भारत को बाकी दुनिया से काट कर रखने की हिमायत करता है। घोषणा-पत्र की समझ यह है कि भौतिक रूप से सम्पन्न तथा मजबूत और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रौढ़ एवं प्रगतिशील भारत ही विश्व बिरादरी में अपना उचित तथा गौरवपूर्ण स्थान बना सकता है। इसकी शुरुआत भारत की भाषाई अस्मिता की रक्षा के संघर्ष से ही हो सकती है। हमारी भाषाएं बचेंगी, तभी हम भी बचेंगे। अर्थात् हमें पूरे आदमी और पूरे समाज की तरह जीवित रहना है, तो अपनी भाषाओं की अस्मिता को बचाने तथा समृद्ध करने की लड़ाई उसकी तार्किक परिणति तक लड़नी ही होगी। भोपाल घोषणा-पत्र निष्ठा, दृढ़ता और विनम्रता के साथ इस लड़ाई के लिए सभी का आवाहन करता है। 


  सौजन्य :  कथाकार प्रभु जोशी 

लिपि-साहित्य-संस्कृति-शिक्षा







हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष 




लिपि-साहित्य-संस्कृति-शिक्षा

-  ओम विकास

लिपि : वाणी का दर्पण

जब तक सोया था मानव, अहसास नहीं था, कहाँ है ? क्या है ? किधर जाएगा ? पथ का पता नहीं। नयन उन्मेष पर संवेदनशील हु। प्रकृति की निरंतरता और विपुल भंडार को संजोए गत्यात्मकता मानव जिज्ञासा को उद्दीप्त करती रही है। संवेदनशीलता से विजय भावना भी प्रबलतर होती रही है। कभी आश्रय देकर और कभी आश्रित बनाकर सुखानुभूति। कृपा-क्रूरता का काल-क्रम चलता रहा। सहनशीलता के अतिक्रमण की सीमा बंधने लगीं, कुटुम्ब और समाज परिभाषित होने लगे। शब्द थे, अभिव्यक्ति की भाषा बनी। फिर समझ की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए नियम बने। अतीत-वर्तमान-भविष्य का ज्ञान सेतु लेखन पद्धति से संभव हुआ। उत्तरोत्तर प्रयोग और परिष्कार से भाषा का मान्य स्वरूप उद्भूत हुआ। वाणी और लेखन की सुसंगत एकरूपता के लिए पाणिनि जैसे मनीषियों ने लिपि का नियमबद्ध  निर्धारण किया। लिपि वाणी का दर्पण है  लिपि दर्पण से वाणी का प्रतिबिम्ब लेखन के रूप में दिखता है। धुंधला दर्पण तो धुंधला बिम्ब। दर्पण की संरचना पर निर्भर करता है कि बिम्ब की स्पष्टता किस कोटि की होगी।

इक्कीसवीं सदी आम लोगों की ?

इक्कीसवीं सदी आम लोगों की ? 
 -  डॉ. ओम विकास
Mobile : 098 6840 4129 
     



20वीं सदी में मशीनीकरण से मानव-शक्ति के परे सुनियोजित ढंग से अभिनव जटिल कार्य करना संभव हुआ । कुछ विचारकों ने प्रकृति को ध्यान से देखा, प्रकृति में गति है, घटनाओं में कुछ क्रम है, एक दूसरे पर प्रभाव है - कहीं आकर्षण / खिंचाव है, तो कहीं विकर्षण / हटाव है, आकार और स्वरूप में परिवर्तन भी । नियंता कोई एक होगा पता नहीं, लेकिन प्रकृति के व्यवहार में नियम अवश्य हैं । इन नियमों के आधार पर मानवकृत घटनाएं भी सम्भव हो सकती हैं । प्राकृतिक घटनाओं के अवलोकन, परीक्षण, सत्यापन के आधार पर नियम और उनके आधार पर अन्य घटनाओं का विश्लेषण अध्ययन विज्ञान कहलाया । विज्ञान के सहारे नए यंत्र, प्रविधि, उत्पाद बनने लगे, उद्योग विकसित हुए । इसे प्रौद्योगिकी/तकनीकी/ टैक्नोलॉजी कहा जाने लगा - प्राकृतिक नियमों के आधार पर मानवकृतियों के बनाने की युक्ति/यंत्रादि । 




शक्ति के मशीनीकरण से उद्योग धंधे बढ़े, कम कीमत पर रोजमर्रा के काम की चीज़ें सुलभ होने लगीं । इसे औद्योगिक क्रांति कहा गया । पश्चिमी देशों ने औद्योगिक क्रांति का खूब लाभ उठाया, दूसरे देशों में फैलने लगे, उपनिवेशवाद को पनपाया । विश्व स्तर पर सत्ता का केन्द्रीकरण बढ़ा, सत्ता में मानवीय मूल्यों का लोप होने लगा । परंपरागत ज्ञान का ह्रास हुआ, जनता की दुर्दशा बढ़ती गई। सामाजिक व्यवस्था में विषमता बढ़ी । इसे सोशल डिवाइड अर्थात् समाज विखंडन कह सकते हैं । 




20वीं सदी के उत्तरार्ध में सेमीकंडक्टर के आधार पर ऐसे इलेक्ट्रोनिक्स उपकरणों का अविष्कार हुआ जिनसे किसी इलेक्ट्रिक सिग्नल को नियमित ढंग से बढ़ाना, स्टोर करना और सुचारू तार माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजना आसान हुआ । सही और तेज गति से जटिल गणना करने के लिए कंप्यूटर विकसित हुए । 1980 के दशक से सूचना की उपयोगिता उद्योगों, प्रशासन और वैयक्तिक स्तर पर तेजी से बढ़ने लगी । इसे सूचना क्रांति कहा जाने लगा । सूचना संसाधन में मानव मस्तिष्क की विश्लेषणात्मक प्रतिभा की अनुकृति के प्रयास सघन होने लगे । मस्तिष्क के मशीनीकरण की दिशा में बढ़ रहे हैं । मानव जैसा सामान्य विवेक और ज्ञान कंप्यूटर में भी सुलभ होगा । 21वीं सदी में ‘ज्ञान पोषित समाज’(Knowledge based society) के उदय होने की अवधारणा के साथ ज्ञान तकनीकी/टैक्नोलॉजी (Knowledge Technology) का विकास तेजी से होने लगा है । 




‘ज्ञान पोषित समाज’ की अवधारणा पर आधारित नीतियों से सामाजिक व्यवस्था फिर चरमरायी । अब ज्ञान का पात्र भी धन और भाषा के आधार पर अवसर पाता है । वैश्वीकरण ने राज-नेतृत्व को वशीभूत ऐसा किया है कि अपनी सोच पर भरोसा नहीं । जिस तरह से टैक्नोलॉजी और अन्य उत्पादों का आयात करते हैं, उसी सहजता से ज्ञान/शिक्षा के मॉडल/प्रविधि के आयात के प्रयास होने लगे हैं । इंग्लिश कक्षा- 1 से और विज्ञान की पढ़ाई/रटाई इंग्लिश में राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बनते जा रहे हैं । परिवेश में पारस्परिक विनिमय से सीखने और ज्ञान वृद्धि का कोई अवसर नहीं । मनोगृंथि में परिवेश पिछड़ा है । वैश्वीकरण का चोला पहने योजनाकार बगुला भगतों की पोल तब खुलेगी, जब विदेश के वैज्ञानिकों के सम्मुख नई पीढ़ी के अधिकांश विज्ञानियों में न तो अविष्कारोन्मुखी नवाचार (Innovation) प्रवृत्ति होगी और न ही आधारभूत संकल्पनाओं की सही समझ । नवाचार के अभाव में कोई भी समाज अग्रणी नहीं बन पाता । घर पर मां ने प्राकृतिक घटनाओं को निकट परिवेश की चीजों के माध्यम से मातृभाषा में समझाया, जिसे बालक ने परिवेश में लोगों से मिलते-जुलते लोकभाषा में दुहराया, परिमार्जित किया । मुस्कराता बड़ा हुआ । बालक स्कूल में जाते ही इंग्लिश में शब्द ज्ञान करता है, पहाड़े-पोइम इंग्लिश में रटता है, घर लौट कर परिवेश में घूमते हुए क्लास में रटे हुए शब्द सुनाई नहीं देते । वह भी बोले तो किससे बोले, क्योंकि परिवेश तो अपना है, ज्ञान अन्य भाषा में थोपा हुआ । कॉलेज में ज्ञान की तह पर तह जुड़ती हैं, ढहती हैं, जैसे बालू पर भवन निर्माण किया जा रहा हो । देश-विदेश के मनोवैज्ञानिकों का स्पष्ट अध्ययन है कि प्राथमिक शिक्षा लोकभाषा में दी जानी चाहिए, अन्यथा सार्थकता कम होगी, नवाचार भी कम अथवा नगण्य होगा । 




वैश्वीकरण के मंच पर जल्दी पहचान बने इसलिए शासक और प्रशासक वर्ग पश्चिमी ज्ञान मॉडल को उपयुक्त मानते हैं । बिल्लियों की लड़ाई का लाभ बंदर को होता है । भारत में भाषा वैविध्य है, सो लाभ इंग्लिश को होता है । समाज में विषमता बढ़ती जा रही है । समाज बंटने लगा - अवसरवादी, बेवस और परंपरावादी । बेवस जनता का हिस्सा तीन चौथाई से अधिक होता जा रहा है। यानि 75 करोड़ लोगों को ज्ञान सुलभ नहीं, जो ज्ञान मिला वह उपयोगी कम है, उससे नवाचार और उद्यमिता की संभावनाएं भी कम हैं । संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) की 2004 की (HDI) रिपोर्ट के अनुसार मानव विकास सूचकांक (HDI) भारत का 0.559, जबकि प्रतिद्वंदी चीन का 0.745 और संयुक्त राज्य अमेरिका का 0.939 है। HDI की गणना औसत आयु, ज्ञान और आय के आधार पर करते हैं । इन आँकड़ों से यह बात स्वयं सिद्ध है ।




NASSCOM रिपोर्ट के अनुसार केवल 15-20 प्रतिशत ग्रेज्युएट ही इन्फोर्मेशन टैक्नोलॉजी इंडस्ट्री में काम करने लायक निकलते हैं । शिक्षा में गुणवत्ता का अभाव है । INSDOC की रिपोर्ट के अनुसार भारत के वैज्ञानिकों का जो दुनिया की तीसरी तादाद हैं, शोध-परक प्रकाशन 1.6 प्रतिशत से कम है । यहां के लेवर (श्रमिक) की कुशलता में गुणवत्ता का अभाव है । कारण पढ़ाई-प्रशिक्षण परिवेश से काटकर कराते हैं । इन्फॉरर्मेशन टैक्नॉलोजी में हमारे उद्यमी लागों ने नाम कमाया - मुख्यत: कार्मिक की तरह, अविष्कारक की तरह नहीं नगण्य, विश्व स्तरीय नया उत्पाद/सेवा देकर नहीं । कारण परिवेश से कटकर पढ़ाई की । नवाचार एवं उद्यमिता पनपने का अवसर न मिला । वैश्विक समस्या पर्यावरण प्रदूषण की है ।‘पर्यावरण विज्ञान’ विषय स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ाया जाने लगा , लेकिन उदाहरण विदेशी मॉडल से ही । पहले भाषा और विज्ञान में मेल-जोल था, कवियों ने पेड़, पौधों, मौसम, प्रकृति आदि के सुन्दर वर्णन किए हैं । अब इन कवियों को पढ़ने, सुनने का भी अवसर नहीं, पाठ्यक्रम इतना भारी बना दिया कि बिना यतन के परिवेश से कटने लगे । भाषा में वर्ण, अक्षर और शब्द के गुणबोधक अर्थ होते हैं । मूल संकल्पनाओं से जटिल संश्लेषित संकल्पनाओं की समझ शब्दों के सहारे आसान होती है । फूल-पौधों के नाम लैटिन में रटाते हैं, अपनी भाषा में नहीं । संस्कृत शब्द सभी भारतीय भाषाओं में 40-80% तक मिल जाते हैं । इसका लाभ उठाना आवश्यक है । हिन्दी 60% से अधिक लोग समझते हैं । देश की इतनी बड़ी आबादी (600 मिलियन से अधिक) हिन्दी में काम कर सकती है, लेकिन सरकारी विकास कार्य सीमित ही रह जाते हैं । जनगणना के रिकोर्ड अंग्रेजी और स्थानीय भाषा में होते हैं । नाम–पते अंग्रेजी में सही उच्चरित न होने पर भी मान्य हैं, लेकिन राजभाषा हिन्दी में नहीं । न्याय भी अंग्रेजी में मान्य है । सिफारिश भी अंग्रेजी में चलती है । मीडिया भी आम आदमी की आपदा-घटनाओं को अंग्रेजी शब्दों से संवेष्टित कर परोसता है, जो आम आदमी की समझ के परे है । 




अभी तक द्विलिपिक (नागरी-रोमन) की-बोर्ड बाजार में बिकते नहीं । सरकारी दफ्तरों में भी इनकी जरूरत महसूस नहीं होती । हिंदी के सॉफ्टवेयर अलग-अलग, फाइलों की अदला-बदली सुगम नहीं, प्रिंट अलग-अलग कंप्यूटर पर अटपटा से, टूटे अक्षर-मात्राएं आदि। मुफ्त सॉफ्टवेयर (FOSS) का डंका पिटा जाता है, लेकिन काम लायक कम । वह भी कंप्यूटरों पर ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ पूर्व लोडित नहीं । स्पीच टैक्नोलॉजी पर काम हो रहा है । अमेरिका और जापान के विज्ञानियों के द्वारा इंग्लिश के लिए विकसित मॉडल पर ही काम करते हैं । संस्कृत में ध्वनि विज्ञान पर शिक्षा शास्त्र प्रातिसाख्य पर लगभग 60 पुस्तकें हैं । भारतीय विज्ञानियों को इस भारतीय ज्ञान को जानने, परखनें की कोई चाह नहीं । वैश्वीकरण की होड़ में परिवेश से कटे हैं, विदेश भ्रमण और (शोध) प्रकाशन की अवसरवादिता की होड़ और दौड़ में व्यस्त हैं । कंप्यूटर विज्ञान का भावी विकास श्रुति (Speech) और संज्ञानिक (Cognition) तकनीकी पर केन्द्रित होगा । 




डिजिटल डिवाइड का भय दिखाकर विदेशी कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर का बाजार बढ़ाते जा रहे हैं । विदेशी डिजिटल डिवाइड की अवधारणाओं और तदनुसार समाधान से समाज विश्रृंखलित होता जा रहा है । साधनयुक्त एवं साधनहीन के बीच की विषमता खाई बढ़ती जा रही है । साधनहीन 80 प्रतिशत होते जा रहें हैं, यह खतरे का चिह्न है – सामाजिक क्रांति का पूर्व संदेश । ‘डिजिटल डिवाइड’ के बजाय ‘डिजिटल यूनाइट’ अर्थात् इलेक्ट्रॉनिक सूचना को ज्ञान-गैप को कम करने, विषमता को मिटाने और समाज को जोड़ने में उपयोगी बनाने पर बल दिया जाए, तदनुसार परियोजनाएं चलाएं । ‘ज्ञान पोषित समाज’ की रचना और संवर्धन अपने परंपरागत ज्ञान को जोड़ते हुए नवाचार के साथ करें । सामाजिक और आर्थिक प्रगति के लिए यही एक व्यावहारिक उपाय है । 




UNDP मानव विकास रिपोर्ट 2010 के लिए सदस्य देशों के बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (MPI) शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि दस मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर Oxford Poverty & Human Development Initiative (OPHI) ने तैयार किए हैं । इसके अनुसार भारत के 55% यानि लगभग 64.5 करोड़ लोग गरीब हैं । अधिकांश स्कूली बालक कुपोषण के शिकार हैं । गरीब लोग बिहार में सर्वाधिक 81.4% हैं, उत्तर प्रदेश में 59.6%, उत्तर-पूर्वी प्रांतों में 60% हैं । गौरतलब है कि योजना आयोग के गरीबी के आँकड़ों (29%) से दुगनी जनसंख्या (55%) गरीब है ।( संदर्भ : TOI, 15 जुलाई, 2010). आम आदमी के विकास के लिए बहुत अधिक प्रयास किए जाने की जरूरत है । जनसंख्या को जनशक्ति बनाने की आवश्यकता है । 




संवेदनशून्य औद्योगिकीकरण और पूंजीवाद के एकत्व और प्रकृति दोहन से समाज और प्रकृति का संतुलन बिगड़ा है, विकृतियां त्रास और आपदाओं में मुखरित हैं । 21वीं सदी में सामाजिक आलोडन होगा, वैश्विक स्तर पर चर्चाएं आम आदमी की भागेदारी पर केन्द्रित होंगी । विषमता-वैविध्य समता-रचनात्मकता को स्वर देगा । समवेत स्वर गूंजेगा, ‘व्यवस्था आम आदमी पर केन्द्रित लोकपरक हो ‘। बहुत हुआ अंतर-विखंडन देखने और पाटने के प्रयासों का, अब समानता-एकता देखें और तदनुसार प्रयास करें । समेकित टैक्नोलॉजी से सुविधा और संस्कृति से रचनात्मकता का समष्टिगत सुख भोग संभव है। टैक्नोलॉजी का विकास संस्कृति की संरक्षा और संवर्धन को लक्षित हो । संस्कृति आम आदमी की अभिव्यंजना है । आज जो नेतृत्व में हैं विचार करें, 21वीं सदी का विकास आम आदमी पर केन्द्रित हो । अन्य विकल्प कारगर न होंगे ।




एफ.एम. प्रसारण बनाम भूमण्डलीकरण का भक्तिगीत




एफ.एम. प्रसारण बनाम भूमण्डलीकरण का भक्तिगीत
-प्रभु जोशी




ये आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध' के आरम्भिक वर्ष थे और श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त' के बाद अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से सत्ता में लौटी थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के ‘धोखादेह’ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ मुँह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य’ का नया ‘मानचित्र’ गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल रहीं थीं-‘टेक्नालॉजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनॉलॉजी को गाँवों की तरफ पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट ब्रॉडकास्ट’ की बात भी करना शुरू कर दी थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।




कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही है। चूँकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक’ क्षेत्र तथा ‘इंजीनियरिंग’ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी’ तकनॉलॉजी से काम चला रहे हैं।’




बहरहाल, पता नहीं तब, ‘सत्ता के गलियारों’ में क्या कुछ घटा और वह योजना फाइलों के अम्बार में अचानक कहीं ‘दफ्न’ हो गई। निश्चय ही इसकी वजह जानने की कोशिश, उस समय की ‘नीतिगत-उलझनों’ को रौशनी में ला सकती है। क्योंकि, ‘सूचना’ स्वयं धीरे-धीरे एक ‘सत्ता’  बन जाती है - और वह ‘राजनीतिक‘सत्ता‘ को ही सबसे पहले आघात पहुँचाती है।




दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना’ और ‘संचार’ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले, ‘सूचना-सम्राटों’ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के प्रिण्ट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी’ के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो ‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है। अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय भाषाओं का ‘कम विकसित’ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात थी। चूँकि, वह (हॉफ लिविंग एण्ड हाफ फ़ॉरगॉटन’) अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी। नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग ‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों’ के निर्माण जैसा काम करना शुरू कर दिया।




इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘ में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का दीवाना बनाना ‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण’, उस आबादी के लिए एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ‘भाषा रूप’ को ‘यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये। इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन’ की सैद्धान्तिकी कहा जाता है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ‘समय और समाज’ के अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ‘घटनाओं-परिघटनाओं’ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर’ से नाथ देने के कारण यह ‘अविवेकवाद’ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की यह अचूक युक्ति मानी जाती है।




बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण अफ्रीकी समाज में अपने ‘प्रिमिटव कल्चर’ और उसके ‘पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ‘नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ‘दे आर वॉलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता’  उठ चुकी है।




बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम ‘धूर्त-व्याख्याएँ’ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के कार्यक्रम संचालकों को कहा जाता था कि इसे भूल जाइये कि ‘जनता माध्यम के साथ क्या करती है’, बस यह याद रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर सकते हैं।’  नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय ‘अर्थहीन-प्रसन्नता’  बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी विजय माना।




निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम’ तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह ‘भाषा रूप’ जिसे ‘लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए तैयार किया गया था और उसे ‘बोलचाल का नैसर्गिक रूप’ कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों ने ‘मॉस-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना भाग्यलेख बदल लिया है।’




भूमण्डलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से दिये चले आ रहे हैं।




बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का पारस्परिक कामकाज निबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल ‘मनोरंजन’ और ‘कामकाजी-सम्पर्क’ भर का है। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर में, आवारा- पूँजी के सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी ‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो ‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों’ को उसकी पूर्णता तक पहुँचाने के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘ में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं - यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना अयोग्यता की निशानी है।




अब यह बहुत साफ हो चुका है कि इनका श्रीमती गाँधी की उस ‘डिस्ट्रिक्ट-ब्रॉडकास्ट’ की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं है, जो मूलतः ‘ग्रामीण-भारत’ के लिए थी और जिसकी प्रतिबद्धता ‘विल्बर श्राम’ के ‘विकासमूलक-प्रसारण’ की थी। यह सिर्फ ‘महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली’, ‘रहन-सहन’, ‘बोलचाल’ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड’ में, इस देश से तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि ‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ ’ का ‘हल्लाबोल’  इस दोगले मीडिया ने शुरू कर दिया है।




आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से ‘आर्थिक’ क्षेत्र में भूमण्डलीकरण की शुरूआत की गयी, ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों’ में, ‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की रक्षा के प्रश्न’  बना दिये गये। मराठी या कन्नड़ में उठे विवादों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक ‘साम्प्रदायिक’  भाषा करार दिया जा रहा है। अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित’ किया जा रहा है। बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त’  करने का अभियान आरंभ है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं। जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा’, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी’, ‘छत्तीसगढ़ी’, ‘हरियाणवी’, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें। संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी, किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग बनाने का काम करने वाला है।




इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में ‘उधार की चंचला लक्ष्मी’ से खुल रहे, इन तमाम निजी एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री’ का आकलन किया जाये तो पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती हुई, ‘मसखरी के कारोबार’ में जुटी टुकड़ियाँ हैं, जिनका मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर’ के लिए जगह बनाना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार’ नहीं, ‘वाचालता’ आधार है। उन्हें ‘बोलना’ और ‘बिना रूके बोलते रहना’, बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार’ एक गरिष्ठ और अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे’ चाहते हैं। रोट्टी कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बॉस को खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता’, ‘समाज’ या ‘समूह’ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता’ को हासिल करने के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये। इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है ? इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी ‘प्रसारण-संस्कृति’ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी’ क्या है ? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह’ हैं ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है’, जिन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक ‘ब्रॉडकास्टिंग इन थर्डवल्र्ड में बहुत सूक्ष्मता के साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में ‘सूचना-साम्राज्यवादियों’ ने घुस कर उनकी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’  को तहस-नहस किया।




इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम. रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आयडल’ बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया, गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी गोरखा जन्म से चौकीदार ‘होने’ और ‘बने रहने’ के लिए होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी’ में गुल खिला दिये। यह भाषा की वही भर्त्स्ना  योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि’  है, जो बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।’ अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार’ बन गया। वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस ‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती’, ‘मजा’, या ‘फन’ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी हथियारों द्वारा सफल दमन’ कार्यक्रम चल रहा है। फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में, तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद’ बनाते हैं, जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख’ हो और उसका कोई अन्य ‘मूल्य’ न हो। ये ‘मुक्त भारत’ के नये शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति’ के शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और आकाशवाणियाँ, तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन गाते हुए, उनकी ‘खामखाह’ याद दिलाती रहती हैं। ठीक उस वक्त भी इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता रहता है।




समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का रेडियो जॉकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गॉरमेण्ट्स का कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्रॉण्ड का नाम) और हाँ, तो आप अपने अण्डर गॉरमेण्ट्स के लिए कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला’ है। ओह! यू आर सो शॉय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आॅफ एन ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह शायद आपके फ़्रेण्ड को पता होगा.... शॉपिंग उन्हीं के साथ करती हैं- कौन से मॉल में ?’




प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये, आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नॉट कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नॉट यट.... (उधर से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी....... चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़ा करो इंतजार.............। )




जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता’ है। रेडियो जॉकी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ ‘कामुकता’ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ? ये नया ‘यूथ-कल्चर’ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को ‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम. प्रसारण में ‘बिन्दास है’, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘




दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड’ नहीं, ‘सोल्ड’ है। उसकी ‘जबान’, उसकी ‘भाषा’, उसका ‘समय’, उसकी ‘वफादारी’, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा’ भी। वह सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन’ नहीं ‘सुपारी’ लिए हुए है। वह पैकेज पर है।




अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता’ का लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने ‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक’ की चिंता है, ना ‘शास्त्र’ की। ‘लोक-नियंत्रण के अभाव में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी को भी ‘दरिद्र समझ’ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है। वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे, हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं’ - वे अब एफ.एम. की होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं। जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ ‘प्रसारण-बिल’, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है, जहाँ से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है। वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे। क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध’ पसंद नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन’ लगता है। ‘उदारवाद’ के (जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया है-कि ‘राष्ट्र’, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ‘स्थानीयता’ की ‘वर्चस्ववादी’ एवम् ‘दमनकारी’ व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी। भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ’ जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्र सिर्फ बौड़मों की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।’ जो जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब में होगी।




निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं- ‘भूमण्डलीकरण भक्तिगीत’। 




4, सम्वाद नगर,
नवलखा, इन्दौर


FM Radio : Language/Cultural crisis & So-called Globalization



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