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आतंकवादी अड्डों की शल्यक्रिया जरूरी



आतंकवादी अड्डों की शल्यक्रिया जरूरी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक




पाकिस्तान ने युद्ध की पूरी तैयारी कर ली है। लाहौर, कराची और इस्लामाबाद पर उसके हवाई जहाजों ने पहरा देना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी और सेनापति अशफाक परवेज कयानी ने खुले-आम घोषणा कर दी है कि वे किसी भी हमले का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। तालिबान और इस्लामी तत्वों ने भारत के विरूद्ध पाकिस्तान सरकार का साथ देने का एलान किया है। पाकिस्तान के सभी राजनीतिक दल मिलकर दुश्मन' के विरूद्ध एकजुट हो गए हैं। उन्हें आशंका है कि भारत हवाई हमला करेगा। आतंकवादी अड्डे जहाँ-जहाँ होंगे, भारत वहाँ मिसाइल और बम गिराएगा। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने तो घुमा-फिराकर यह भी कह दिया है कि यह मत भूलो कि पाकिस्तान के पास भी परमाणु बम है।



भारत के प्रधानमंत्री ने बार-बार कहा है कि हम युद्ध नहीं करना चाहते। इसके बावजूद पाकिस्तान में युद्व के नगाड़े क्यों बजने लगे हैं ? इसके तीन मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि अगर पाकिस्तान में युद्ध का माहौल खड़ा नहीं किया गया तो फौज और आईएसआई को कौन पूछेगा ? लोगों का ध्यान आतंकवादियों पर केंद्रित हो जाएगा और अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुकना पड़ेगा। गैर-फौजी सरकार का पलड़ा भारी हो जाएगा। आतंकवाद से त्रस्त पाकिस्तान की जनता आसिफ़ जरदारी जैसे नाम-मात्र के राष्ट्रपति को सचमुच इस लायक बना देगी कि वह अपने फैसले खुद कर सकें। युद्ध के नगाड़े बजते ही आतंकवाद का मुद्दा दरकिनार हो गया और राष्ट्ररक्षा मुख्य मुद्दा बन गया। लोकतांत्रिक सरकार नीचे चली गई और फौज दुबारा ऊपर आ गई। युद्ध के माहौल का दूसरा लाभ यह है कि अंतरराष्ट्रीय जगत को गुमराह किया जा सकता है। पाकिस्तान सारे संसार के सामने यह यक्ष-प्रश्न खड़ा करना चाहता है कि पहले आप परमाणु-युद्ध रोकेंगे या आतंकियों को पकड़ेंगे ? आतंकियों को तो हम पकड़ ही रहे हैं। आप पहले भारत को थामिए। युद्ध का खतरा दिखाकर पाकिस्तान सारे विश्व में भारत-विरोधी हवा फैलाना चाहता है। युद्ध के खतरे को भुनाने का एक तीसरा दांव भी है। वह यह कि यदि हमें भारत से लड़ना पड़ा तो अफगान-सीमांत पर डटी हमारी फौजों को भारतीय सीमांत पर तैनात करना होगा याने पिछले आठ साल से वहाँ अमेरिका की जो सेवा हो रही थी, वह बंद हो जाएगी। इसका कारण भारत की धमकी ही है। इसलिए, हे कृपानिधान, बुश महोदय, भारत को धमकाइए। हमारे खातिर नहीं, अमेरिका की खातिर धमकाइए !



पाकिस्तान की यह चाल सफल हुए बिना नहीं रहेगी। पाकिस्तानी नेताओं को यह पता है कि हिंदुस्तानी नेता कितने पानी में हैं। अमेरिका को नाराज करने की हिम्मत भारत के नेताओं में नहीं है। अमेरिका किसी भी क़ीमत पर भारत-पाक युद्ध नहीं चाहता है। भारत जब-जब भारी पड़ा, अमेरिका ने पाकिस्तान को टेका लगाया है। अब भी अमेरिका चाहेगा कि सिर्फ गीदड़भभकियों से काम चल जाए। अब मुंबई-हमले को एक माह हो रहा है, कौनसी धमकी काम आ रही है ? इस बीच अमेरिकी सेनापति मुलेन दो बार पाकिस्तान हो आए हैं। उनकी कौन सुन रहा है ? ओबामा, बुश, राइस - सबकी गुहार चिकने घड़े पर से फिसलती जा रही है। पाकिस्तान की सरकार ने सुरक्षा परिषद् को भी चकमा दे दिया है। आतंकवादी अड्डों को खत्म करने और चारों कुख्यात आतंकवादियों को पकड़ने की बजाय वह रोज आँख मिचौनी खेल रही है। जरदारी और गिलानी सारी दुनिया को बेवकूफ बनाने में लगे हुए हैं। दोनों की छवि मसखरों की-सी हो गई है। पाकिस्तानी जनता भी उन पर हँस रही है। वे दोनों भारत से अब भी प्रमाण माँग रहे हैं। उनके अपने अखबारों और चैनलों ने जो प्रमाण जग-जाहिर किए हैं, उन्हें भी वे झुठला रहे हैं। मियाँ नवाज शरीफ तक पल्टी खा गए हैं।



ऐसी स्थिति में भारत क्या करे ? क्या वह पाकिस्तान पर सीधा हमला बोल दे ? यदि भारत सरकार सिर्फ गीदड़भभकियाँ ही देती रही तो हमारे मंत्रियों और नेताओं का घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। कुछ ही हतों में ऐसे हालात बन जाएँगे कि खाली-पीली बोम मारनेवाले नेताओं को जनता पकड़-पकड़कर मारेगी। नेताओं को यह पता है। इसीलिए वे गरम-नरम, दोनों धाराएँ साथ-साथ चलाते रहते हैं। वे स्वयं काफी दिग्भ्रमित मालूम पड़ते हैं। प्रधानमंत्री एक बात कहते हैं तो विदेश मंत्री दूसरी बात और रक्षा मंत्री तीसरी ! ये सब नेता यह क्यों नहीं कहते कि हमें पाकिस्तान से युद्ध नहीं करना है। हमें सिर्फ आतंकवाद से लड़ना है। पाकिस्तान हमारा साथ दे। भारत और पाकिस्तान, हम दोनों मिलकर आतंकवाद का सफाया करेंगे। वास्तव में प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे एक विशेष दूत पाकिस्तान भेजें, जो वहाँ के सभी प्रमुख नेताओं से मिले और उनके गले यह तर्क उतारे। आज टीवी चैनल ऐसे माध्यम हैं, जिनसे लाखों पाकिस्तानी घरों में सीधे पहुँचा जा सकता है। यदि भारत सरकार सचमुच आतंकवादी अड्डों पर शल्य-क्रिया करना चाहती है तो उसे विश्व जनमत के साथ-साथ पाकिस्तानी जनता और नेताओं को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए। यदि पाकिस्तान की सरकार युद्ध का हौवा खड़ा करने में सफल हो गई तो आतंकवादियों के विरूद्ध की जानेवाली शल्य-क्रिया को लकवा लग सकता है और बाद में भारत को कूटनीतिक मात खाने के लिए भी तैयार रहना होगा।


फिलहाल आतंकवादी अड्डों पर शल्य-क्रिया करने के पहले भारत को पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद करना होगा। उससे सारे संबंध तोड़ने होंगे। उसे विश्व-समाज के सामने पाकिस्तानी सरकार और आतंकवादियों की मिलीभगत का भंडाफोड़ करना होगा। पाकिस्तान को आतंकवादी राज्य घोषित करवाना होगा। भारत को पाकिस्तान के विरूद्ध सुरक्षा परिषद से वैसे ही प्रतिबंधों की माँग करनी चाहिए, जैसे कि तालिबानी अफगानिस्तान, सद्दामी एराक और ईरान पर लगाए गए थे। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिका से मिलनेवाले अरबों डॉलरों की आवक जैसे ही बंद हुई, पाकिस्तान की फौज और सरकार, दोनों के होश फाख्ता हो जाएँगे। पाकिस्तान की बेकसूर जनता को कुछ तक्लीफ़ तो भुगतनी होगी लेकिन उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। निकम्मे नेताओं और निरंकुश फौज को अपनी छाती पर बिठाने का कुछ खामियाजा तो उसे भुगतना ही होगा।


पिछले एक माह का सबक यह है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। भारत की क्या, अमेरिकियों की बातों का भी कोई असर नहीं हो रहा है। यह भी ठीक से पता नहीं कि अमेरिकी नेता जो माइक पर बोलते हैं, वही बात क्या वे पाकिस्तानी नेताओं के कान में भी बोलते हैं ? अगर बोलते हैं तो उसका पालन न होने पर वे क्या कर रहे हैं ? अब उन्हें कुछ करने के लिए मजबूर किया जाए। पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद करने के लिए अगर वे तैयार न हों तो भारत अपना वक्त खराब क्यों करे ? भारत शल्य-क्रिया की तैयारी करे, कम से कम तथाकथित आजाद कश्मीर में तो करे ही, जिसे पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र' कहता है। वह न राष्ट्र है, न राज्य है। वह संप्रभु क्षेत्र भी नहीं है। वह अराजक क्षेत्र है। वह आतंकवाद का विराट् अड्डा है।

लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्‍यक्ष है।

पुरु, गोडसे और कसाब - समान हैं ?





पुरु
, गोडसे और कसाब : सम्यकद्रष्टा हम


- कविता वाचक्नवी






अभी भारत पर हुए आतंकी हमले के बाद जीवित पकड़े गए आतंकी पर अभियोग व न्यायिक प्रक्रिया का प्राम्भ भारत में होने जा रहा है| चैनलों की हर चीज को उत्सव की तरह मनाने की परम्परा के चलते आज लगातार बहस गर्म रही कि कसाब को अपना पक्ष रखने या कहें कि न्यायिक सहायता पाने का अधिकार है या नहीं, पैरवी का अधिकार मिलना चाहिए या नहीं|

भारत में क्योंकि प्रत्येक नागरिक को न्यायिक मामलों में कानूनगो से कानूनी सहायता प्राप्त करने का मौलिक अधिकार है, इसलिए यह भी कहा जाना स्वाभाविक है कि क्या हमें अपने क़ानून को अपमानित करने का अधिकार है?

दूसरी और मुम्बई के वकीलों ने विधिक सहायता देने से पूरी तरह मना कर दिया, विधिक सहायता पैनल ने भी हाथ खड़े कर दिए और भी इसी प्रकार के विरोध के स्वर आए, आ रहे हैं|

अशोक सरावगी को लिखित बयान देकर स्पष्टीकरण देना पड़ा -

कुछ ग़लतफहमी हुई है. मैंने कहा था कि अगर किसी वकील की मौजूदगी के बिना अदालत की कार्रवाई पूरी नहीं होती हो, तो ज़रूरत पड़ने पर मैं स्वयं पेश होने के लिए तैयार हूँ ताकि मुक़दमे में रुकावट न आए और कसाब को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले
अशोक सरोगी, प्रसिद्ध वकील


दूसरी ओर


मुंबई बार एसोसिएशन के फ़ैसले के बावजूद पूर्व अतिरिक्त एडवोकेट जनरल पी जनार्दन ने घोषणा की है कि अगर पाकिस्तान उच्चायुक्त उनसे संपर्क करेगा, तो वे कसाब का मुक़दमा लड़ने को तैयार हैं.
बी.बी.सी.


हिन्दी ब्लॉगजगत में विधिविशेषज्ञ दिनेशराय द्विवेदी भी इसी पक्ष में लिखते हैं -


चलिए हम उसे मृत्यु दंड दे ही दें, यदि इस से आतंकवाद या उस के विरुद्ध लड़ाई का अंत हो जाए। आज कसाब भारत का अपराधी तो है ही। लेकिन उस से अधिक और भी बहुत कुछ है। वह इस बात का सबूत भी है कि आतंकवाद किस तरह पाकिस्तान की धरती, पाकिस्तान के साधनों और पाकिस्तान के लोगों का उपयोग कर रहा है। वह आतंकवाद की जड़ों तक पहुँचने का रास्ता भी है। वह आतंकवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष में एक मार्गप्रदर्शक भी है। वह हमारा हथियार बन चुका है। ऐसी अवस्था में हमारे इस सबूत, रास्ते, मार्गप्रदर्शक और हथियार को सहेज रखने की जिम्मेदारी भी हमारी है।
.....
मैं सोचता हूँ कि भारत इतना कमजोर नहीं कि वह इतना भी न कर सके, और अपना और अपने न्याय का ही सम्मान न बचा सके। कोई भी पैरोकार कसाब को उस के अपराध का दंड पाने से नहीं बचा सकता। फिर हम क्यों उसे पैरवी का अधिकार नहीं देना चाहते? केवल भावनाओं में बह कर या फिर एक अतिवादी राजनीति का शिकार हो कर?




भावना, तर्क व मर्यादा की बात पर पर जहाँ कुछ लोगों ने मर्यादा को महत्व देने की पैरवी की तो कुछ ने विधिक सहायता के लिए कानूनी तर्क भी दिए| पी. जनार्दन की घोषणा के बाद निरंतर विरोध प्रदर्शन आदि हो रहे हैं।बहस चल रही है व सभी अपने अपने मत दे रहे हैं। किंतु ऐसी घड़ी में कुछ सहज प्रश्न अपने आप से करने हमें अनिवार्य क्यों नहीं लगते?


जेठमलानी ने सीधी बातचीत में एक चैनल पर दो तीन तर्क दिए, कसाब को कानूनी सहायता दिए जाने के पक्ष में| एक बड़ा तर्क था कि जब गाँधी के हत्यारे (?) को कानूनी सहायता मिल सकती है, इन्दिरा के हत्यारे को कानूनी सहायता मिल सकती है या रजाकार मूवमेंट में कानूनी सहायता दी जा सकती है तो इसे क्यों नहीं |


इस पूरे प्रकरण में विधिक सहायता के पैरोकार जिन तर्कों का पक्ष ले रहे हैं, उन तर्कों की स्थिति ज़रा देखें -


१)
- "गाँधी पर गोली चलाने वाले को अभियोगी बनाने पर भी उसे कानूनी सहायता दी गयी"


गधे लोग! इतना भी नहीं जानते कि गाँधी पर गोडसे द्वारा गोली चलाने के उस कार्य को भारतीय अस्मिता को बचाने व राष्ट्रीय हित की रक्षा प्रक्रिया में उठाए गए गए कदम के रूप में बड़ा समर्थन वाली विचारधारा के लोग इसी देश के वासी हैं, और गोडसे भारतीय थे, भारत की सुरक्षा हित और राष्ट्रीयता से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा कदम उठाया थाउस कदम के अच्छे या बुरे होने पर बहस हो सकती है, होती रही है, होगीकिंतु कोई भी सहज बुद्धि वाला गोडसे को आतंकी तो क्या राष्ट्रद्रोही भी नहीं प्रमाणित कर सकता. वह दो भिन्न भारतीय विचारधाराओं के टकराव का फल अवश्य माना जा सकता है, या अतिरेकी प्रतिक्रिया, या ऐसा ही कुछ और परन्तु कदापि राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता


- दूसरे, ऐसा कहकर क्या हम गोडसे कसाब को एक बराबर तराजू पर नहीं तोल रहे हैं? ऐसा करने वाली निर्लज्जता पर क्या लिखूँ ? केवल धिक्कारा ही जा सकता है|


२)
- " इंदिरा के हत्यारों को वकील दिया गया"


अरे भई, इन्दिरा जी की हत्या भी भारत के ही एक वर्ग और विचारधारा द्वारा उन्हें भारतीय जनता के विरुद्ध होकर घात करने का परिणाम के रूप में आँकी गई थी। स्वर्णमंदिर के अतिक्रमण वाले मुद्दे पर तत्कालीन विघटनकारी तत्वों द्वारा इसे सिखों के पूजास्थल पर किया गया आक्रमण निरूपित करना इसके कारणों में निहित था। यद्यपि वह आक्रमण भारत के हित में उठाया गया इंदिरा जी का एक बड़ा महत्वपूर्ण व आवश्यक कदम था, आज काश कोई ऐसा दबंग नेता अस्तित्व में होता। इंदिरा जी के उस कदम की चर्चा के साथ इसे जोड़ने पर मामला बारीकी खो देता है। यहाँ बात इंदिरा जी की ह्त्या की न होकर हत्यारों के उद्देश, नागरिकता, व्यक्ति पर आक्रमण वर्सेज़ राष्ट्र पर आक्रमण की होनी चाहिए।


- इंदिरा जी भले ही प्रधानमंत्री थीं, किंतु वे राष्ट्र नहीं।


- इंदिरा जी व उनके हत्यारे, दोनों पक्ष भारतीय नागरिक थे, अत: दोनों पर भारतीय संविधान के प्रावधान लागू होते थे, होने चाहिए थें व हुए भी।


- इंदिराजी की ह्त्या और राष्ट्रद्रोह की बारीकी व फिर इसमें भी दूसरे देश द्वारा भारत पर आक्रमण की बारीकी व पेचीदगी को बड़ी सफाई से नजरंदाज किया जा रहा है। इसे ध्यान रखने की जरूत है।


- युद्ध यदि भौगोलिक सीमा पर लड़ा गया होता, तो सेना आक्रमणकारी शत्रु से / का क्या करती ?


- यहाँ एक पेचीदगी और है, वह यह कि यह आक्रमण संवैधानिक दृष्टि से भारत पर पाकिस्तान का आक्रमण नहीं है , क्योंकि ये आतंकवादी पाकिस्तानी सेना द्वारा विधिवत् किए जाने वाले सैनिक युद्ध का हिस्सा नहीं थे, न हैं| पाकिस्तान स्वयं स्वीकारता- कहता आ रहा है। अत: इनके प्रति युद्धबंदियों वाला वैधानिक व किंचित् मानवीय रवैय्या अपनाने -दिखाने का औचित्य ही नहीं बनता। ध्यान रखना चाहिए कि ये किन्ही दो देशों के बीच युद्ध के लिए वैधानिक रूप से नियुक्त किए गए अपने अपने देश के लिए बलिदान भावना लेकर जूझने वाले सैनिक नहीं हैं।इस प्रकरण में केवल भारत की ओर से नियुक्त किए गए कमांडो, पोलिस या सैनिक ही इस श्रेणी में आते हैं।


- भारतीय सेना, पुलिस, कमांडो व इनके विरूद्ध टक्कर लेने वाले नागरिकों के आत्मबल को क्या हम क्षति नहीं पहुँचाएँगे?


- पाकिस्तानी मीडिया ने स्वयं गत दिनों भारत को ऐसा लचर देश बताया है कि जो अपनी संसद पर आक्रमण करने वाले को अब तक पाल रहा है। ऐसे में इस लचर व्यवस्था द्वारा एक और अफजल को पालने का यह षड्यंत्र नहीं दिखाई देता? शहीदों के परिवारों के प्रति कितने अनुत्तरदायी हैं हम, इसे समझने की आवश्यकता दिखाई नहीं देती?


- जो लोग पेट में गोली खाकर बचाने वाले की दुहाई दे रहे हैं, वे उस बचाने वाले शहीद के बलिदान को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। उसके बचाने का उद्देश्य इसे न्यायिक समानता या सहायता दिलाना नहीं था, अपितु जानकारियाँ जुटाना भर था। यहाँ कौन नहीं जानता कि जानकारियाँ जुटाने के लिए बचाव का वकील देने की अनिवार्यता नहीं होती है।


- जो लोग इसे न्यायिक सहायता का विरोध कर रहे हैं, वे ऐसा कदापि नहीं कह रहे कि बिना जाँच में सहयोग लिए इसे फांसी दे दी जाए। जितना व जैसा सहयोग सरकार, न्यायपालिका या संविधान को अपेक्षित है,वह बिना बचाव पक्ष के वकील रखे भी हो सकता है। उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं।


- अब रही मर्यादा, भावना या मानवीयता की बात। ऐसी बातें बोलना भी किसी राष्ट्रप्रेमी को नहीं शोभता। जो ऐसा कह रहे हैं उनके परिवार पर एक बार हत्यारों की खुली छूट का प्रयोग करवा कर देखें, उनके घर में चोर, डाकू, लुटेरे,आक्रान्ता, बलात्कारी का तांडव उनके अपनों के साथ होने पर उनकी राय व उदारता जानी जाए। जिनके परिवार उजड़ गए हैं, उनकी पीडा तो जाने दीजिए, वे तो ऐसे लोगों के अपने थे ही नहीं, पर यह देश भी अवश्य आज तक उन लोगों ने अपने परिवार की तरह वास्तव में नहीं माना है। कहने - या बोलने की बात और है।


- क्या ऐसा करके हम भविष्य में सदा के लिए अपनी सेना और पुलिस का मनोबल नहीं तोड़ रहे हैं?


- क्या ऐसा दयालुतापूर्ण होने का नाटक करना छद्म रूप से आतंकवादियों को प्रश्रय देना नहीं है ?क्या उनके ग़लत, अनैतिक ,बर्बर , कामों को गति, बल व बढ़ावा देना नहीं है?


- जब इस देश में युवकों के लिए अनिवार्य सैनिक शिक्षा की आवश्यकता की बातें हो रही हैं, उसे रेखांकित किया जा रहा है, ऐसे में शहीदों की संतानें, संबन्धी या अन्य सामान्य परिवार के बच्चे अथवा युवक क्या सेना का अंग होना स्वेच्छा से स्वीकारेंगे?


- क्या यह न्यायिक सहायता भारतीय मनोबल को तोड़ने वाली नहीं है? वह भी ऐसे समय पर जब देश का आमआदमी पहली बार अपने किसी भी प्रकार के वर्ग चरित्र से उबर कर एक साथ इसके विरोध की प्रबल शक्ति के साथ उठ-जुड खड़ा हुआ है।


- क्या आप अपने नगर,मोहल्ले में इस अनथक विस्फोट, आतंक श्रृंखला का परिणाम व मृत्य झेलने को आगे भी इसी प्रकार अभिशप्त रहना चाहते हैं?


- अपनी माँ, बेटी, पत्नी, बहन से बलात्कार कर उनकी ह्त्या करने वाले के साथ आप कितनी मानवीयता बरते जाने के पक्ष में हैं? उन्हें कानूनी सहायता देने के लिए आप कितना व क्या-क्या करना चाहेंगे ?कृपया सच बोलें, क्योंकि उदारता दिखाने के चक्कर में बोला गया झूठ आपको अपनी पत्नी,परिवार,माँ, बहन , व बेटी सभी की नजरों में गिरा ही देगा ..और एक दिन स्वयं आपकी नजरों में भी।


- एक अन्तिम प्रश्न और। क्या आप कसाब को अपने इतिहास-पुरूष व पूर्वज राजा पुरु का दर्जा देना चाहते हैं? क्योंकि केवल आक्रमणकारी द्वारा बंदी बनाए जाने पर वे ही शत्रु राजा से अपेक्षा कर सकते थे कि - " वह व्यवहार, जो एक राजा को दूसरे राजा से करना चाहिए" गर्वोक्ति कर सकें?


यदि अभी भी आप सहायता के पक्ष में हैं तो आप को अपना अभिनंदन अवश्य करवा लेना चाहिए क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि अभिनंदन की किसी भावी घड़ी से पहले ही अभिनंदनीय व अभिनन्दनकर्ता दोनों पर किसी आतंकी हमले की काली छाया पड़ जाए और हम जैसे बधाई देने वाले भी संसार में न रहें ।



डिस्क्लेमर
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मेरी बातों से यदि किसी की भावना आहत हुई हो तो कृपया उदार मानवीय रवैया अपनाने वाली अपनी बात को वास्तव में मेरे व अपने प्रति भी अपनाने पर बल दीजिएगा और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिएगा.
- कविता वाचक्नवी




भारत अब बदले अपना इतिहास : डॉ. वेदप्रताप वैदिक





भारत अब बदले अपना इतिहास

डॉ. वेदप्रताप वैदिक



केन्द्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर. पाटिल के इस्तीफे लगभग निरर्थक है। इस इस्तीफे से सरकार या सत्तारूढ़ दल के प्रति जनता में जरा भी सहानुभूति पैदा नहीं हुई है। मुंबई के आतंक ने सरकार का ग्राफ इतना नीचे गिरा दिया है कि पूरी सरकार भी इस्तीफा दे देती तो लोगों का गुस्सा कम नहीं होता। यह भी सच है कि वर्तमान सरकार की जगह यदि विरोधियों की सरकार होती तो उसका भी यही हाल होता। पिछले आठ-दस साल में जितनी भी सरकारें आईं, उन सबका रवैया आतंकवाद के प्रति एक-जैसा ही रहा है। ढुल-मुल, घिसा-पिटा, रोऊ-धोऊ और केवल तात्कालिक ! उन्होंने आतंकवाद को अलग-अलग घटनाओं की तरह देखा है। एक सिलसिले की तरह नहीं ! आकस्मिक दुर्घटनाओं का मुकाबला प्रायः जैसे किया जाता है, वैसे ही हमारी सरकारें करती रही हैं। उन्होंने आज तक यह समझा ही नहीं कि आतंकवाद भारत के विरूद्ध अघोषित युद्ध है। युद्ध के दौरान जैसी मुस्तैदी और बहादुरी की ज+रूरत होती है, क्या वह हम में है ? हमारी सरकार में है ? हमारी फौज और पुलिस में है ? गुप्तचर सेवा में है ?


नहीं है। इसीलिए हर आतंकवादी हादसे के दो-चार दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है। लोग यह भी भूल जाते हैं कि कौनसी घटना कहाँ घटी थी। वे यह मानकर चलते हैं कि जो हो गया सो हो गया। अब आगे कुछ नहीं होनेवाला ! आतंकवाद केवल उन्हीं के लिए भयंकर स्मृतियाँ छोड़ जाता है, जिनके आत्मीय लोग मारे जाते हैं या घायल होते हैं। ऐसे समय में हम राष्ट्र की तरह नहीं, व्यक्ति की तरह, परिवार की तरह सोचते हैं। हम भारत की तरह नहीं सोचतें। हमें भारत कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बस व्यक्ति और परिवार दिखाई पड़ता है। इसीलिए हम युद्ध को दुर्घटना की तरह देखते हैं। यह भारत-भाव का भंग होना है। मुंबई ने इस बार इस भारत-भाव को जगाया है। तीन-चार दिन और रात पूरा भारत यों महसूस कर रहा था, जैसे उसके सीने को छलनी किया जा रहा है। ऐसा तीव्र भागवेग पिछले पाँच युद्धों के दौरान भी नहीं देखा गया और संसद, अक्षरधाम और कंधार-कांड के समय भी नहीं देखा गया। भावावेग की इस तीव्र वेला में क्या भारत अपनी कमर कस सकता है और क्या वह आतंकवाद को जड़ से उखाड़ सकता है ?


क्यों नहीं उखाड़ सकता ? यह कहना गलत है कि भारत वह नहीं कर सकता, जो अमेरिका और ब्रिटेन ने कर दिखाया है। यह ठीक है कि इन देशों में आतंकवाद ने दुबारा सिर नहीं उठाया लेकिन हम यह न भूलें कि ये दोनों देश बड़े खुशकिस्मत हैं कि पाकिस्तान इनका पड़ौसी नहीं है। यदि पाकिस्तान-जैसा कोई अराजक देश इनका पड़ौसी होता तो इनकी हालत शायद भारत से कहीं बदतर होती। जाहिर है कि भारत अपना भूगोल नहीं बदल सकता। लेकिन अब मौका है कि वह अपना इतिहास बदले।

क्या भारत की जनता अपना इतिहास बदलने की क़ीमत चुकाने को तैयार है ? यदि है तो वह माँग करे कि भारत के प्रत्येक नौजवान के लिए कम से कम एक साल का विधिवत सैन्य-प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए और प्रत्येक नागरिक को अल्पकालिक प्रारंभिक सैन्य प्रशिक्षण दिया जाए। यदि ताज और ओबेराय में घिरे लोगों में फौजी दक्षता होती तो क्या वे थोक में मारे जाते ? उनमें से एक आदमी भी झपटकर आतंकवादी की बंदूक छीन लेता तो उन सब आतंकवादियों के हौसले पस्त हो जाते। 500 लोगों में से एक भी जवान क्यों नहीं कूदा ? इसलिए नहीं कि वे बहादुर नहीं थे। इसलिए कि उन्हें कोई सैन्य-प्रशिक्षण नहीं मिला था। वे बरसती गोलियों के आगे हक्के-बक्के रह गए थे। देश की रक्षा का भार फौजियों पर छोड़कर हम निश्चिंत हो जाते हैं। राष्ट्रीय लापरवाही का यह सिलसिला भारत में हजारों साल से चला आ रहा है। अब उसे तोड़ने का वक्त आ गया है। भारत के सिर पर रखा इतिहास का यह कूड़ेदान हम कब तक ढोते रहेंगे ? अपने भुजदंडों को अब हमें मुक्त करना ही होगा, क्योंकि हम लोग अब एक अनवरत युद्ध के भाग बन गए हैं। लगातार चलनेवाले इस युद्ध में लगातार सतर्कता परम आवश्यक है। ईरान, इस्राइल, वियतनाम, क्यूबा और अफगानिस्तान-जैसे देशों में सैन्य-प्रशिक्षण इसलिए अनिवार्य रहा है कि वे किसी भी भावी आक्रमण के प्रति सदा सतर्क रहना चाहते हैं।


जो भी आतंकवादी हमला करते हैं, वे पूरी तरह से एकजुट हो जाते है। आतंकवादियों को विदेशी फौज, पुलिस, गुप्तचर सेवा, स्थानीय दलालों और विदेशी नेताओं का समर्थन एक साथ मिलता है। जबकि आतंकवादियों का मुकाबला करनेवाले हमारे लोग केंद्र और राज्य, फौज और पुलिस, रॉ और आईबी तथा पता नहीं किन-किन खाँचों में बँटे होते हैं। इन सब तत्वों को एक सूत्र में पिरोकर अब संघीय ढाँचा खड़ा करने का संकल्प साफ दिखाई दे रहा है लेकिन वह काफी नहीं है। जब तक हमलों का सुराग पहले से न मिले, वह संघीय कमान क्या कर पाएंगी ? क्या यह संभव है कि सवा अरब लोगों पर गुप्तचर सेवा के 20-25 हजार लोग पूरी तरह नजर रख पाएँ ? यह तभी संभव है कि जब प्रत्येक भारतीय को सतर्क किया जाए। प्रत्येक भारतीय पूर्व-सूचना का स्त्रोत बनने की कोषिष करे। यह कैसे होगा ? यह प्रवचनों से नहीं होगा। इसके लिए जरूरी यह है कि सूचना नहीं देनेवालों पर सख्ती बरती जाए। जो भी आतंकवादी पकड़ा जाए, उसके माता-पिता, रिष्तेदारों, दोस्तों, अड़ौसी-पड़ोसियों, सहकर्मियों, दतरों और बैंकों को भी पूछताछ और जाँच के सख्त दायरे में लाया जाए। प्रत्येक भावी आतंकवादी को यह मालूम पड़ जाना चाहिए कि उसकी करनी का खामियाजा किस-किसको भुगतना पड़ेगा। आतंक की दहलीज पर कदम रखनेवालों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ना बहुत जरूरी हैं। आतंक का मुकाबला आतंक से ही किया जा सकता है। जैसे आतंकवादी किसी कानून-कायदे और मर्यादा को नहीं मानते, राज्य को भी उतना ही निर्मम होना होगा। उसे आतंकियों की जड़ें उखाड़ने में किसी तरह का कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कानून कठोर है या नरम, यह बहस बाद में होती रहने दें। फौज और पुलिस पहले यह देखे कि आतंकियों का काम तमाम कैसे हो ? आतंकियों का मुकाबला करने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर हो, उनकी उदासीनता और अकर्मण्यता के लिए उन्हें तुरंत दंडित करने की व्यवस्था भी हो। यदि आतंक का सुराग छिपाना दंडनीय अपराध हो तो सुराग मिलने पर भी अकर्मण्यता दिखाना तो अक्षम्य अपराध होना चाहिए। इन कठोर प्रावधानों पर तथाकथित लोकतंत्रवादियों को आपत्ति हो सकती हैं लेकिन कोई उनसे पूछे कि यदि यह देश ही नहीं रहा तो वे लोकतंत्र कहाँ स्थापित करेंगे। आतंकवाद तो लोक और तंत्र, दोनों को ध्वस्त करता हैं। आतंकवाद को ध्वस्त किए बिना न भारत की रक्षा हो सकती है और न ही लोकतंत्र की। क्या हमारे नेता इतिहास द्वारा दिए गए इस अपूर्व दायित्व को संभालने लायक है ?



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