पंजाबी लोकगीत-परंपरा, स्त्री व काव्य-संवेदना
- डॉ. कविता वाचक्नवी
- डॉ. कविता वाचक्नवी
पंजाबी लोकगीतों की परम्परा अत्यंत समृद्ध तथा अपने प्रतीकों व बिम्बों की दृष्टि से अत्यंत प्रकृष्टतर है. ऐसे ऐसे दुर्लभ प्रतीक और बिम्ब इन लोकगीतों में मिलते हैं जो काव्यपरम्परा में भी अतुलनीय ठहरते हैं. जिसे उर्दू में नाज़ुकी कहते हैं, वह इन गीतों की देखने लायक है और मानवीय संवेदना के ऐसे ऐसे रूप मिलते हैं कि यकायक सहजता से विश्वास नहीं होता.
भारतीय भाषाओं ही नहीं, विदेशी भाषाओं में भी, लोकगीतों में स्त्री की संवेदना के विविध रूप और विविध स्तर ही बहुधा मिलते हैं, या कहना चाहिए कि स्त्री ही लोकगीतों की आदि रचयिता और निर्मात्री है. इन अर्थों में स्त्री की अनुभूति की तरलता और गहनता ने ही और स्त्री ही के शब्दों और स्वरों ने ही परम्परा को कविता का अवदान दिया है, वरदान दिया है.
पंजाबी लोक परम्परा से आहूत यह संवेदना पंजाब की काव्य परम्परा को आज भी अपनी विशिष्टता के कारण अलगाती है. पंजाब के लोक नृत्यों व पुरुष प्रधान गीतों में जितना उत्साह उछाह है, स्त्री स्वरों में उसके एकदम विपरीत गहनता, सूक्ष्मता, तलस्पर्शिता और बुनावट की बारीकी है; सिसकियाँ हैं, विलाप हैं और चीखें हैं.
नई पीढी की काव्यधारा को पंजाब की विशिष्ट लोकगीत परम्परा से परिचित कराने व इस बहाने उन गीतों से पुन: अपने को सराबोर करने के उद्देश्य से पंजाबी लोकगीतों की यह शृंखला आज से प्रारम्भ कर रही हूँ.
ध्यान देने की बात है कि अविभाजित भारत का पंजाब यद्यपि २ भागों में विभक्त हो चुका है पुनरपि वे गीत अब भी दोनों ओर के साझे हैं. कुछ अंतरों के साथ दोनों ओर के पंजाब के गायकों ने उन्हें अपने स्वर दिए हैं. यह देखना रोचक होगा कि कैसे कुछ गीत भारत के इस ओर व भारत के उस ओर अपनी मर्मान्तकता के साथ सुरीले, भावविह्वल कर देने वाले व समान रूप से अगली पीढ़ियों के लिए मोह लेने वाले हैं.
इस क्रम में सर्वप्रथम एक अद्वितीय गीत सुनवा रही हूँ जो मेरी दादी जी का अत्यंत प्रिय गीत था और जिसे वे चरखा चलाते हुए गाया करती थीं. शादी ब्याह आदि आयोजनों में हर जगह लोग उनसे यह गीत सुनाने की जिद्द किया करते थे और वे अपने भरे हुए कंठ और प्रसिद्ध स्वर में इसे गाया करती थीं. वह गीत है -
"चन्न! कित्थाँ गुजारी अई रात वे, ओ मेरा जी दलीलां दे ...." (मूलतः यह गीत सरैईकी भाषा का लोकगीत है, पंजाबी और सरैईकी में अत्यंत कम अंतर हैं)। इस गीत में नायिका अपने प्रिय (जिसे वह चंद्रमा के तुल्य समझती और कहती है ) के द्वारा रात्रि कहीं अन्यत्र बिताए जाने को लेकर विचलित है और अपने मन में तरह तरह के संशयों को चुप कराती व प्रिय को बुलाने के तरह तरह के कारण गढ़ते मन की एक एक ऊहा को शब्द दे रही है कि मेरा मन तरह तरह की दलीलें देता है जब तुम कहीं और हो.... अब तो वापिस आ जाओ.... तुम जीते मैं हार गई .....
पहले इसका भारतीय रूप सुरिंदर कौर जी के स्वर में सुनें और उसके बाद इसका पाकिस्तानी रूप नीचे के (दूसरे ) वीडियो में सुनें -
पहले इसका भारतीय रूप सुरिंदर कौर जी के स्वर में सुनें और उसके बाद इसका पाकिस्तानी रूप नीचे के (दूसरे ) वीडियो में सुनें -