वैश्वीकरण और हिन्दी की भूमिका



वैश्वीकरण और हिन्दी की भूमिका
=चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

वैश्वीकरण पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वेट्टे क्लेर रोस्सर ने कहा था कि यह प्रक्रिया अचानक बीसवीं सदी में नहीं उत्पन्न हुई। दो हज़ार वर्ष पूर्व भारत ने उस समय विश्व के व्यापार क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया था जब वह अपने जायकेदार मसालों, खुशबूदार इत्रों एवं रंग-बिरंगे कपडों के लिए जाना जाता था। भारत का व्यापार इतना व्यापक था कि एक बार रोम की सांसद ने एक विधेयक के माध्यम से अपने लोगों के लिए भारतीय कपडे़ का प्रयोग निषिद्ध करार दिया ताकि वहां के सोने के सिक्कों को भारत ले जाने से रोका जा सके। तभी से भारत की उक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ प्रचलित रही और इसीलिए आज भी भारत के लिए ‘वैश्वीकरण’ का मुद्दा कोई नया नहीं है।
प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोम चॉमस्की का मानना है कि ‘वैश्वीकरण’ का अर्थ अंतरराष्ट्रीय एकीकरण है। इस एकीकरण में भाषा की अहम्‌ भूमिका होगी और जो भाषा व्यापक रूप से प्रयोग में रहेगी, उसी का स्थान विश्व में सुनिश्चित होगा। नोम चॉमस्की के अनुसार जब विश्व एक बडा़ बाज़ार हो जाएगा तो बाज़ार में व्यापार करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग होगा उसे ही प्राथमिकता दी जाएगी और वही भाषा जीवित रहेगी। इस संदर्भ में यह भी भविष्यवाणी की जा रही है कि वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व की दस भाषाएं ही जीवित रहेंगी जिनमें हिन्दी भी एक होगी। जिस भाषा के बोलनेवाले विश्व के कोने-कोने में फैले हों, ऐसी हिन्दी का भविष्य उज्जवल तो होगा ही।
हिन्दी का महत्व वैश्वीकरण एवं बाज़ारवाद के संदर्भ में इसलिए भी बढे़गा कि भविष्य में भारत व्यवसायिक, व्यापारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से एक विकसित देश होगा। भाषावैज्ञानिकों को इस दिशा में अधिक ध्यान देना होगा कि हिन्दी की तक्नीकी शब्दावली विकसित करें और इसके लिए विज्ञान तथा भाषा में परस्पर संवाद बढें, जिससे हिन्दी तक्नीकी तौर पर भी एक सम्पूर्ण एवं समृद्ध भाषा बन सके।

भाषा को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक तो वह भाषा जो स्थान-स्थान पर कुछ देशज शब्दों और लहजे के साथ कही जाती हैं और दूसरी साहित्य की भाषा जो सारे देश में मानक की तरह लिखी व पढी़ जाती है। वैसे तो, अब साहित्य में भी बोलियों का प्रयोग स्वागतीय बन गया है ताकि कथन में मौलिकता बनी रहे और देशज शब्दावली जीवित रहे।
वैश्वीकरण के बाद भाषाओं को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। विश्वस्तर पर छः भाषाओं को सरकारी काम-काज के लिए अंतरराष्ट्रीय भाषाओ का दर्जा दिया गया है। ये भाषाएं हैं - अंग्रेज़ी, फ्रे़च, स्पेनिश, चीनी, रूसी और अरबी। और दूसरी -वो भाषाएं जो व्यापार में संपर्क भाषाओं [ग्लोबल लेंग्वेजस] के रूप में प्रयोग में आतीं है।

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जोर से माँग उठाई गई कि हिन्दी को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी जाय। वैसे, यह एक राजनीतिक मुद्दा है, जिसके लिए न केवल राजनीतिक इच्छा- शक्ति की आवश्यकता है बल्कि अपार धन व्यय की व्यवस्था भी करनी पडेगी। शायद इसीलिए हमारी सरकार का ध्यान इस ओर अभी नहीं गया है। परन्तु हिन्दी की उपयोगिता को विश्व का व्यापारिक समुदाय समझ चुका है और इसे अन्तरराष्ट्रीय वैश्विक भाषा [ग्लोबल लेंग्वेज] का दर्जा मिला है।

हिन्दी को वैश्विक दर्जा दिलाने में कई कारक हैं जो व्यवसाय और व्यापार को बढावा देने में सहायक होंगे। भारत एक बडा़ बाज़ार है जहाँ के सभी लोग हिन्दी में सम्प्रेषण कर सकते है। इसीलिए हिन्दी का महत्व व्यापारी के लिए बढ़ जाता है। निश्चय ही मीडिया और फिल्मों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार मे एक मुख्य भूमिका निभाई है। हिंदी का विरोध कर रहे कुछ क्षेत्रों में भी हिन्दी फिल्मों की मांग बढ़ रही है। देश में ही नहीं, विदेशों में भी टेलिविजन पर सबसे अधिक हिन्दी चैनल ही प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं और यह इस भाषा की लोकप्रियता व व्यापकता का प्रमाण है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिन्दी का स्थान प्रथम है। भूमंडलीकरण, निजीकरण व बाज़ारवाद ने नब्बे के दशक में हिन्दी पत्रकारिता में क्रांति लाई। रंगीन एवं सुदर साज-सज्जा ने श्वेत-श्याम पत्रकारिता को अलविदा कहा। अब दैनिक पत्र भी नयनाभिराम चित्रों के साथ प्रकाशित होते हैं। इसके साथ ही यह भी हर्ष का विषय है कि इन पत्रों के संस्करण कई स्थानों से एक साथ निकल रहे हैं। यह जानकर सुखद आश्चर्य भी होता है कि भारत में सब से अधिक बिकनेवाले समाचार पत्र हिन्दी के ही हैं जबकि अंग्रेज़ी के सबसे अधिक बिकनेवाले पत्र का स्थान दसवें नम्बर पर आता है। ‘दैनिक भास्कर’ समाचार पत्र की रोज़ १ करोड ६० लाख प्रतियां छपती हैं जबकि सर्वाधिक बिकनेवाले अंग्रेज़ी पत्र ‘टाइम्स आफ़ इण्डिया’ की ७५ लाख प्रतियां छपती हैं और वह दसवें स्थान पर है। इसी से हिन्दी के प्रभाव, प्रचार,प्रसार और फैलाव का पता आंका जा सकता है।

वैश्वीकरण की एक और देन होगी अनुवाद के कार्य का विस्तार। जैसे- जैसे विश्व सिकुड़ता जाएगा, वैसे-वैसे देश-विदेश के विचार, तक्नीक, साहित्य आदि का आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही सम्भव होगा। आज अनुवाद की उपयोगिता का सबसे अधिक लाभ फिल्मों को मिल रहा है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि हिन्दी अनुवाद के माध्यम से अंग्रेज़ी फिल्म ‘द ममी रिटर्न्स’ को सन्‌ २००१ में २३ करोड़ रुपयों का लाभ हुआ जबकी २००२ में ‘स्पैडरमैन’ को २७करोड़ का और २००४ में ‘स्पैडरमैन-२’ को ३४करोड का लाभ मिला। ये आंकडे एक उदाहरण है जिनसे अनुवाद की उपयोगिता प्रमाणित होती है।

कंप्युटर युग के प्रारंभ में यह बात अक्सर कही जाती थी कि हिन्दी पिछड़ रही है क्योंकि कंप्युटर पर केवल अंग्रेज़ी में ही कार्य किया जा सकता है। अब स्थिति बदल गई है। अंतरजाल के माधयम से अब हिन्दी के कई वेबसाइट, चिट्ठाकार और अनेकानेक सामग्री उपलब्ध है। य़ूनिकोड के माध्यम से कंप्युटर पर अब किसी भी भाषा में कार्य करना सरल हो गया है। गूगल के मुख्य अधिकारी एरिक श्मिद का मानना है कि भविष्य में स्पेनिश नहीं बल्कि अंग्रेज़ी और चीनी के साथ हिंदी ही अंतरजाल की प्रमुख भाषा होगी।

कंप्युटर युग में विश्व और सिकुड़ गया है। अब घर बैठे देश-विदेश के किसी भी कोने से संपर्क किया जा सकता है, वाणिज्य सम्बंध स्थापित किये जा सकते है। ऐसे में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा को प्राथमिकता मिलेगी ही क्योंकि बाज़ार में जाना है तो वहीं की भाषा के माध्यम से ही अपनी पैठ बना सकते हैं। ईस्ट इन्डिया कम्पनी के अंग्रेज़ भी आये तो हिन्दी सीख कर ही आये थे।

भारत की जनसंख्या को देखते हुए और यहाँ के बाज़ार को देखते हुए, विश्व के सभी व्यापारी समझ गए हैं कि हिन्दी के माध्यम से ही इस बाज़ार में स्थान बनाया जा सकता है। इसीलिए यह देखा जाता है कि अधिकतर विज्ञापन हिन्दी में होते हैं, भले ही देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग किया गया हो। रोमन लिपि का यह प्रयोग भी धीरे-धीरे नागरी को इसलिए स्थान दे रहा है कि विश्व का व्यापारी समझ चुका है कि व्यापार बढा़ना है तो उन्हीं की भाषा और लिपि के प्रयोग से ही अधिक जनसंख्या तक पहुँचा जा सकता है। वैज्ञानिक तौर पर भी नागरी अधिक सक्षम है और अब कंप्यूटर पर भी सरलता से प्रयोग में आ रही है।

वैश्वीकरण का जो प्रभाव भाषा पर पड़ता है, वह एकतरफा नहीं होता। विश्व की सभी भाषाओं पर एक-दूसरे का प्रभाव पड़ता है और यह प्रभाव पिछले दो हज़ार वर्षों के भाषा-परिवर्तन में देखा जा सकता है। विगत में यह प्रभाव उतना उग्र नहीं दिखाई देता था और यह मान लिया जाता था कि कोई भी शब्द उसकी ही भाषा का मूल शब्द है। ऐसे कई हिन्दी शब्द अंग्रेज़ी में भी पाए जाते हैं; जैसे, चप्पु-शेम्पु, दांत-डेंटल, पैदल-पेडल, सर्प-सर्पेंट आदि। लेकिन आज हमें पता चल जाता है कि किस शब्द को किस भाषा से लिया गया है।

अंततः यह कहा जा सकता है कि जो लोग पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण से आतंकित हैं, उन्हें यह देखना चाहिए कि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीय संस्कृति विश्व पर हावी हो रही है। आज के मानसिक तनाव को देखते हुए विश्व की बडी़ कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए योग एवं ध्यान के प्रशिक्षण के उपाय कर रहीं हैं। हमारे गुरू आज देश-विदेश में फैले हुए हैं और भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं जिनसे विदेशी समुदाय लाभान्वित हो रहे है। विदेशी कंपनियां व्यवसायिक लाभ के लिए हिन्दी का अधिकाधिक प्रयोग करके अपने उत्पादन को बढा़वा दे रहे हैं। भारत की सदियों पुरानी उक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ एक बार पुनः चरितार्थ हो रही है और वैश्वीकरण व बाज़ारवाद के इस युग में हिन्दी अपना सम्मानित स्थान पाने की ओर अग्रसर है।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. आभार इस आलेख को प्रस्तुत करने के लिए.

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  2. समीर जी,आपकी सक्रियता भली लगती है, आपकी नियमितता के लिए धन्यवाद.

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  3. इस लेख के लिए विशेष आभारी है ! धन्यवाद

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  4. आपकी साईट से उम्दा जानकारी मिली .......धन्यवाद् .....

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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