स्त्री मुक्ति का संघर्ष और मीरा (पुस्तक-चर्चा)

पुस्तक-चर्चा






स्त्री मुक्ति का संघर्ष और मीरा
*
गणेशलाल मीणा


मीरा भक्तिकाल की सबसे बड़ी कवि हैं। वे मूलतः कृष्ण भक्त के रूप में विख्यात हुईं लेकिन इधर विमर्शों के नये दौर में उनका पुनर्पाठ हो रहा है और उन्हें स्त्री मुक्ति के संघर्ष के बड़े प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है। वैसे तो मीरा पर समय-समय पर अनेक अध्ययन और उनके पदों के सैकड़ों संग्रह प्रकाशित होते रहे हैं किन्तु अभी हाल में डॉ. पल्लव द्वारा सम्पादित पुस्तक “मीराः एक पुनर्मूल्यांकन" अपनी नयी आलोचना दृष्टि के कारण उल्लेखनीय बन पड़ी है। प्रस्तुत पुस्तक में लगभग पच्चीस विद्वानों ने मीरा के व्यक्तित्व और प्रदाय पर आलेख लिखे है


पुस्तक की खास बात यह है कि समकालीनता की दृष्टि से मीरा का पुनर्पाठ किया गया है। प्रस्तावना में डॉ. पल्लव ने लिखा है कि मीरा की कविता की अर्थवत्ता इसलिए उनकी निजी अनुभूतियों, उनके अनन्य समर्पण और वियोग की एकांत संवेदना से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि उसका मूल्य आधुनिक है। भारतीय स्त्री की अस्मिता का प्रतीक है मीरा, जिसका स्वरूप आधुनिक चेतना से उपजा है और जिसकी रोशनी में भारतीय स्त्री तो क्या समूचा स्त्री मुक्ति आन्दोलन राह पा सकता है। मीरा कविता का ऐसा संसार रचती हैं जिसमें तमाम मध्ययुगीन जकड़बन्दी और कल्पनातीत घुटन के बावजूद नयी चेतना के विकास की पूरी गुंजाइश मौजूद है। चार सौ-पाँच सौ तो क्या हजार वर्ष पुरानी समस्याओं में भी आज की समस्याएँ ढूँढनी होंगी क्योंकि मानसिक जकड़बन्दी अभी पूरी तरह टूटी नहीं है।


पुस्तक का पहला अध्याय सुप्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का है, ‘‘वर्ण व्यवस्था, नारी और भक्ति आन्दोलन‘‘ में उन्होंने विस्तार से मध्यकालीन सामंती दौर में स्त्री की पराधीनता का वर्णन करते हुए मीरा के महत्व का उद्घाटन किया है। वे भक्ति कवियों के अन्तर्विरोधों को देखने से परहेज नही करते और यहाँ उन्होंने तुलसीदास व कबीर जैसे कवियों की भी प्रकारान्तर से चर्चा की है। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने अपने लेख ‘‘मीरा की कविता और मुक्ति की चेतना‘‘ में मीरा के बहाने प्रेम जैसे गूढ़ और कोमल विषय पर बड़ी सुन्दर टिप्पणी की है - प्रेम स्वभाव से ही सत्ताविरोधी और स्वतंत्र होता है। वह अपने प्रिय को छोड़कर और किसी की सत्ता स्वीकार नहीं करता। सत्ता से प्रेम के संघर्ष की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी मानव-समाज में प्रेम की कहानी है। यह आवश्यक नहीं कि प्रेम की कविता में विरोधी सत्ता हमेशा सामने हो। वह कहीं प्रत्यक्ष होती है, कहीं परोक्ष भी। प्रेम ही मीरा के सामाजिक संघर्ष का साधन है और साध्य भी। यद्यपि कबीर भी कहते हैं कि प्रेम का घर खाला का घर नहीं है, लेकिन मीरा की प्रेम साधना कबीर से भी अधिक कठिन है। पाण्डेय जी ने मीरा की कविता में उपजे विद्रोह के संबंध में लिखा है कि मीरा का विद्रोह एक विकल्पहीन व्यवस्था में अपनी स्वतंत्रता के लिए विकल्प की खोज का संघर्ष भी है। उनको विकल्प की खोज में संकल्प की शक्ति भक्ति से मिली है। मीरा की कविता में सामंती समाज और उसकी संस्कृति की जकड़न आध्यात्मिक है उतनी ही सामाजिक भी। मीरा का जीवन-संघर्ष, उनके प्रेम का विद्रोही स्वरूप और उनकी कविता में स्त्री-स्वर की सामाजिक सजगता भक्ति आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि है, जिसकी ओर हिंदी आलोचना में अब ध्यान दिया जा रहा है।


विमर्शवादी चर्चाओं के बीच मीरा का सहज मूल्यांकन अवश्य ही एक बड़ी चुनौती है। वरिष्ठ समालोचक नवलकिशोर ने अपने आलेख ‘‘मीरा चर्चा में जैनेन्द्रीय सुनीता प्रसंग‘‘ में इस सवाल पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। यहाँ वे एक ओर जैनेन्द्र के चर्चित उपन्यास सुनीता का प्रसंग लाकर मीरा की नयी अर्थवत्ता की तलाश करते हैं तो दूसरी ओर विमर्श प्रसंग पर उनका मत है - ‘‘मीरा का साहित्येतर अनुशीलन कितना ही वांछनीय हो - उनके समग्र अध्ययन के लिए वह बहुत जरूरी भी है - उनके काव्य का सौन्दर्यात्मक अनुभव हम काव्य रसिक के रूप में ही कर सकेंगे। इस दिशा में हमारी आलोचना - परंपरा हमारे लिए साधक और बाधक दोनों हैं। हम उनके काव्य को भक्ति काव्य की परिधि में ही पढ़ते और सुनते हैं तो उनके काव्य में मन्द-मुखर आत्मकथा और समाजाख्यान को सुन ही नहीं पाएँगी लेकिन उनके प्रेम निवेदन का उनकी भक्ति और उसकी परंपरा से उसे अलगा कर विखंडन करते हैं तो हमारी सारी उद्घोषणाएँ आरोपणाएँ ही होंगी - मीरा के काव्य और काल से संदर्भित स्थापना नहीं।‘‘ इस संदर्भ में रमेश कुन्तल मेघ, शिवकुमार मिश्र, अनुराधा और चन्द्रा सदायत के आलेख देखे जा सकते हैं। अच्छी बात यह है कि सम्पादक ने एक तरह का खुलापन लाने की कोशिश पुस्तक में की है, जिसमें वे एक दूसरे आलेखों में परस्पर बहस की गुंजाइश पैदा करते हैं।


बहस को जीवंत करता हुआ आलेख माधव हाड़ा का है, ‘‘मीरा की निर्मित छवि और यथार्थ‘‘ में वे लिखते है कि उन्नीसवीं सदी में जेम्स टॉड और उनके अनुकरण पर श्यामलदास और बीसवीं सदी के आरंभ में गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने मीरा की जो लोकप्रिय संत-भक्त महिला छवि निर्मित की, कालांतर में साहित्य सहित दूसरे प्रचार माध्यमों में यही छवि चल निकली। मीरा ने राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष किए और इन संघर्षों के लिए ही वह भक्ति का एक खास ढंग गढ़ती है, यह तथ्य लगभग भुला दिया गया। प्रेम, रोमांस, भक्ति, अध्यात्म और कविता आदि से मिला-जुला मीरा का इतिहास से कटा हुआ स्त्री रूप ही सब जगह लोकप्रिय हो गया। हिन्दी के अधिकांश साहित्यिक मीरा की इसी निर्मित छवि का विश्लेषण करते रहे। डॉ. हाड़ा इस आलेख में विस्तार से चर्चा करने के बाद मत देते है कि दरअसल भक्ति मीरा के यहां लैंगिक दमन और शोषण के विरुद्ध स्त्री के निरंतर संघर्ष की युक्ति मात्र है। मीरा की कविता में, संत-भक्तों से अलग, एक पीड़ित-वंचित स्त्री का दुःख और असंतोष इतना मुखर है कि यह उसकी निर्मित छवि को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है। डॉ. आशीष त्रिपाठी का आलेख भी पर्याप्त बहस का अवसर देता है क्योंकि वे जहाँ मीरा के भक्ति तत्व का विश्लेषण करते है वही मीरा की मध्यकालीन सीमाओं को पहचान कर उनके भाग्यवाद की आलोचना भी करते हैं। इस अन्तर्विरोध का कारण वे यह बताते हैं कि मीरा की वैचारिकता आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण सी नहीं हो सकती थी और उनका प्रेम भी एक हद तक भावावेशी था। लेकिन डॉ. त्रिपाठी लिखते है कि अपनी सीमित क्रान्तिकारिता के बावजूद आज भी मीरा के विद्रोह का आत्यंतिक महत्व है क्योंकि मीरा का समाज एक मायने में आज भी मौजूद है। जिस समाज ने आज से लगभग पांच सौ बरस पहले मीरा को बिगड़ी हुई लोक लाज हीन, कुलनासी, भटकी हुई और बावरी कहा था, वही समाज आज तसलीमा नसरीन को ‘नष्ट लड़की‘ तथा किश्वर नाहिद को ‘बुरी औरत‘ कहकर संबोधित कर रहा है।


युवा आलोचना का एक भिन्न आस्वाद हिमांशु पण्ड्या के आलेख ‘‘मीरा की कविता : प्रेम के निहितार्थ‘‘ में मिलता है। इस आलेख में पण्ड्या ने हिन्दी आलोचना की मीरा संबन्धी असफलता को प्रकाशित किया है। वे मीरा की छवि के मिथकीयकरण का हवाला देते हुए लिखते हैं कि समाज में अपनी सजग उपस्थिति के कारण मीरा को साहित्यिक इतिहास में मिटाया नहीं जा सकता था। अतः उनके कामनामूलक निहितार्थों को - जिनसे ग्लानिबोध उपजता था - दबाया गया और सामंती विरोध जैसे पक्षों को, जो नवीन मध्यवर्ग के आधुनिक बोध को गौरव से भर देता था, आगे किया गया।


अनुवाद के माध्यम से मधु किश्वर और रुथ वनिता का चर्चित आलेख पुस्तक में मिलता है तो परिता मुक्ता की प्रसिद्ध पुस्तक ‘अपहोल्डिंग दि कॉमन लाइफ : दि कम्यूनिटी ऑफ़ मीराबाई‘ पर सुरेश पण्डित का आलेख भी विशेष तौर पर पुस्तक का महत्व बढ़ाने वाला है। पंकज बिष्ट का यात्रावृत्त पुस्तक में शामिल किया गया है जो एक संवेदनशील कथाकार की आँख से मीरा के जीवन और उसके देश को देखता है। मीरा की भाषा और कविता के सौन्दर्य को जीवन सिंह, सत्यनारायण व्यास और निरंजन सहाय के आलेखों में देखा गया है। परिशिष्ट रूप में मिश्र बन्धु विनोद और हिन्दी साहित्य का इतिहास जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थों से मीरा संबंधी टिप्पणियाँ पुस्तक को शोध की दृष्टि से भी सम्पूर्णता देती है।


कहना न होगा कि मीरा का यह पुनर्पाठ स्त्री विमर्श के चालू दौर में एक गंभीर अध्ययन है और इस अध्ययन में वरिष्ठ समालोचकों के साथ युवा आलोचकों की नयी पीढ़ी ने भी सार्थक हस्तक्षेप किया है। उम्मीद की जा सकती है कि यह पुस्तक मीरा पर नये सिरे से विचार करने का अवसर देगी।


(शोध छात्र, हिन्दी विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर - 313001 मो. ०९४६०४८८५२९)


पुस्तक
- मीरा एक पुनर्मूल्यांकन/
सम्पादक - पल्लव /
आधार प्रकाशन, पंचकूला
/
मूल्य - 450 रुपये

4 टिप्‍पणियां:

  1. पुस्तक समीक्षा बढ़िया रही, लेकिन मूल्य अधिक है।

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  2. मीरा के पुनर्पाठ का अच्छा विश्लेषण। आभार।

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  3. कृपया अपने चिट्टे पर कॉपीराइट की सूचना देखें। मेरे विचार से यह भ्रामक है।

    एक जगह तो आप इसे पुनः प्रकाशित करने से मना करती हैं और दूसरी जगह इस क्रिएटिव कॉमन के २.५ लाइसेन्स के अन्दर प्रकाशित करती है। क्रिएटिव कॉमन २.५ लाइसेन्स की शर्ते कुछ प्रतिबन्ध के साथ पुनः प्रकाशित करने की अनुमति देता है।

    मेरे विचार से यदि आप चाहती हैं कि कोई भी बिना आपकी अनुमति के आपकी रचना न छापे तो आपको क्रिएटिव कॉमन की नोटिस हटा लेना चाहिये।

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  4. मीरा का सम्पूर्ण जीवन सामंती संस्कारों के प्रति विद्रोह का प्रतीक है.
    सटीक पुस्तक चर्चा पर बधाई.यह क्रम बना रहे-ऐसी अपेक्षा चर्चाकार से है.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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