प्रभाषजी, आप समुद्र थे, हैं, रहेंगे

प्रभाषजी, आप समुद्र थे, हैं, रहेंगे

आलोक तोमर



फिराक गोरखपुरी के शेर को अगर थोड़ा सा मोड़ कर कहा जाय तो मै यह कहूँगा कि ''आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी, हम असरों, जब तुम उनसे जिक्र करोगे कि तुमने प्रभाष को देखा था।'' हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्य से भी दो कदम आगे है कि हममे से ज्यादातर ने इस और बीती हुई शताब्दी के सबसे बड़े संपादकों राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जी को देखा है और कई ने उनके साथ काम भी किया है। प्रभाष जोशी बहत्तर के हो गये, मगर मुझे चालीस पार के वे ही प्रभाष जी याद हैं जो दीवानों की तरह जनसत्ता निकाल रहे थे। वे हम बच्चों को सिखाते भी थे और करके दिखाते भी थे। संपादक जी कब समाचार डेस्क पर उप-संपादक बनकर बैठे हैं, कब प्रूफ पढ़ रहे हैं, कब संपादकीय लिख रहे हैं, कब प्रधानमंत्री के घर भोजन करके आ रहे हैं और कब देवीलालों और विश्वनाथ प्रताप सिंहों को हड़का रहे हैं कि अपनी राजनीति सुधार लो।




हर वक्त कभी न कभी ऐसा होता ही रहता था। लिखावट ऐसी जैसे मोती जड़े हों। आज भी कोई फर्क नहीं आया। अब अगर आपको ये बताया जाए कि एक बार फेल होकर मेट्रिक के आगे नहीं पढ़ने वाले प्रभाष जोशी भरी जवानी में लंदन के बड़े अखबारों में काम कर आये थे और इसके पहले इंदौर के चार पन्ने के नई दुनिया में संत बिनोवा भावे के साथ भूदान यात्रा में शामिल भी रहे थे और इस भूदान यात्रा की डायरी से ही नई दुनिया से उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो आप चाहें तो मुग्ध हो सकते हैं या स्तब्ध हो सकते हैं। प्रभाष जी दोनों कलाओं में माहिर हैं। लिख्खाड़ इतने कि चार पन्नों का अखबार अकेले निकाल दिया और घर जाकर कविताएँ लिखीं।



सर्वोदय के संसर्ग से जिंदगी शुरू की थी और जिंदगी के साथ जितने प्रयोग प्रभाष जोशी ने किए उतने तो शायद महात्मा गांधी ने भी नहीं किए होंगे। जन्म हुआ आष्टा में जो तब उस सीहोर जिले में आता था जिसमें तब भोपाल भी आता था। पढ़ाई छोड़ी और माता पिता जाहिर है कि दुखी हुए मगर प्रभाष जी बच्चों को पढ़ाने सुनवानी महाकाल नाम के गाँव में चले गये। वहाँ सुबह सुबह वे बच्चों के साथ पूरे गाँव की झाड़ू लगाया करते थे और खुद याद करते हैं कि खुद चक्की पर अपना अनाज पीसते थे। गाँव की कई औरतें भी अनाज रख देती थीं, उसे भी पीस देते थे। राजनैतिक लोगों को लगने लगा कि बंदा चुनाव क्षेत्र बना रहा है। मगर प्रभाष जी पत्रकारिता के लिए बने थे। यहाँ यह याद दिलाना जरुरी है कि संत बिनोवा भावे के सामने चंबल के डाकुओं ने पहली बार जो आत्मसमर्पण 1960 में किया था उसके सहयोगी कर्ताओं में से प्रभाष जी भी थे और हमारे समय के सबसे सरल लोगों में से एक अनुपम मिश्र भी।



प्रभाष जी इंदौर से निकले और दिल्ली आ गये और गाँधी शांति प्रतिष्ठान में काम करने लगे। एक पत्रिका निकलती थी सर्वोदय उसमें लगातार लिखते थे। गाँधी शांति प्रतिष्ठान के सामने गाँधी निधि के एक मकान में रहते थे। रामनाथ गोयनका खुद घर पर उन्हे बुलाने आये। प्रभाष जी ने उन्हे साफ कह दिया कि वे बँधने वाले आदमी नहीं हैं। मगर रामनाथ गोयनका भी बाँधने वाले लोगों में से नहीं थे । वे अपनाने वाले लोगों में से थे। प्रभाष जोशी और रामनाथ गोयनका ने एक दूसरे को अपनाया और सबसे पहले प्रजानीति नामक साप्ताहिक निकाला और फिर जब आपातकाल का टंटा हो गया तो आसपास नाम की एक फिल्मी पत्रिका भी निकाली। क्रिकेट के उनके दीवानेपन के बारे में तो खैर सभी जानते ही हैं । वे जब टीवी पर क्रिकेट देख रहे हों तो आदमी क्रिकेट देखना भूल जाता है। फिर तो प्रभाष जी की अदाएँ देखने वाली होती है। बालिंग कोई कर रहा है, हवा में हाथ प्रभाष जी का घूम रहा है। बैटिंग कोई कर रहा है और प्रभाष जी खड़े होकर बैट की पोजीशन बना रहे हैं। कई विश्वकप खुद भी कवर करने गये। कुमार गंधर्व जैसे कालजयी शास्त्रीय गायक से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक से दोस्ती रखने वाले प्रभाष जोशी के सामाजिक और वैचारिक सरोकार बहुत जबरदस्त हैं औऱ उनमें वे कभी कोई समझौता नहीं करते। जनसत्ता का कबाड़ा ही इसलिए हुआ कि प्रभाष जी उस पाखंडी कांग्रेसी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में जुटे हुए थे। इसके पहले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शरीक थे और जे पी जिन लोगों पर सबसे ज्यादा भरोसा करते थे उनमें से एक हमारे प्रभाष जी थे।




प्रभाष जी ने जिंदगी भी आंदोलन की तर्ज पर जी। आखिर अपना वेतन बढ़ने पर शर्मिंदा होने वाले और विरोध करने वाले कितने लोग होंगे। जिस जमाने में दक्षिण दिल्ली और निजामुद्दीन में रहने के लिए पत्रकारों में होड़ मचती थी उन दिनों उन्हे भी किसी अभिजात इलाके में रहने के लिए कहा गया मगर वे जिंदगी भर यमुना पार रहे और अब तो गाजियाबाद जिले में घर बना लिया है। आष्टा से इंदौर होते हुए गाजियाबाद का ये सफर काफी दिलचस्प है। मगर जो आदमी भोपाल जाकर सिर्फ वायदों के भरोसे दैनिक अखबार निकाल सकता है और वहाँ खबर लाने वाले चपरासी का नाम पहले पन्ने पर संवाददाता के तौर पर दे सकता है और अखबार बंद न हो जाय इसलिए अपनी मोटरसाइकिल बेच सकता है, पत्नी के गहने गिरवी रख सकता है वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं। सब प्रभाष जोशी नहीं होते जो जिसे सही समझते हैं उसके लिए अपने आपको दाँव पर लगा देते हैं। यह उनकी चकित करने वाली विनम्रता है कि वे कहते हैं कि दिल्ली में आकर वे कपास ही ओटते रहे। यही उनकी प्रस्तावित आत्मकथा का नाम भी है। हिंदी पत्रकारिता का इतिहास दूसरे ढ़ंग से लिखा जाता अगर प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और उनके बाद की पीढ़ी में उदयन शर्मा और सुरेंद्र प्रताप सिंह पैदा नहीं हुए होते ।



ये प्रभाष जी का ही कलेजा हो सकता है कि पत्रकारिता में सेठों की सत्ता पूरे तौर पर स्थापित हो जाने के बाद भी वे मूल्यों की बात करते हैं और डंके की चोट पर करते हैं। अखबार मालिक या संपादक दलाली करें, पैसे लेकर खबरें छापे ये सारा जीवन सायास अकिंचन रहने वाले प्रभाष जी को मंजूर नहीं। इसके लिए वे दंड लेकर सत्याग्रह करने को तैयार हैं और कर भी रहे हैं। इन दलालों में से कुछ नये प्रभाष जी की नीयत पर सवाल उठाया है लेकिन वे बेचारे यह नहीं जानते कि प्रभाष जी राजमार्ग पर चलने वाले लोगों में से नहीं हैं और बीहड़ों में से रास्ता निकालते हैं। उन्होने सरोकार को थामकर रखा है और जब सरकारें उन्हे नहीं रोक पायी तो सरकार से लाइसेंस पाने वाले अखबार मालिक और उनके दलाल क्या रोकेंगे।



आखिर में प्रभाष जी को जन्मदिन की बधाई के साथ याद दिलाना है कि आप समुद्र थे, समुद्र हैं लेकिन अपन जैसे लोगों की अंजुरी में जितना आपका आशीष समाया उसी की शक्ति पर जिंदा हूँ ।





प्रभाषजी, आपने तो 'बिगाड़' दिया था!

सुमंत भट्टाचार्य


मैं शायद प्रभाष जोशी जी की छौनों वाली टीम का हिस्सा था। पहली मुलाकात उनसे कलकत्ता (अब कोलकाता) के ताज बंगाल होटेल में हुई। जनसत्ता कोलकाता के लिए मुझे चुन लिया था और नियुक्ति पत्र देने वाले थे। ना तो प्रभाषजी के सहयोगी रामबाबूजी के पास टंकण सुविधा थी और ना ही प्रभाषजी ने कभी लेखन की इस आधुनिक कारीगरी का इस्तेमाल किया। तब लैपटॉप भी दूर की चीज थे, प्रभाष जी के लिए तो शायद आज भी है। बोले, भैया नियुक्ति पत्र कहां से दूँ? मैं बोला कि ताज होटेल के इसी लेटरहेड पर लिख कर दे दीजिए। सलाह पसंद आ गई और 3300 रुपए में जनसत्ता कोलकाता में उप संपादक पद पर काम करने का हुक्म दे दिया। सन 1991 की बात है यह। वह नियुक्ति पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित रखा है प्रभाषजी। एक धरोहर की तरह। एक और चीज है मेरे पास, बाद में बताऊँगा।



अखबार की लांचिंग के कुछ रोज पहले फिर कोलकाता आए और किसी काम से इंडियन एक्सप्रेस के अशोक रोड वाले गेस्ट हाउस तक अपनी गाड़ी में साथ ले गए। पता नहीं क्यों पहले ही दिन से प्रभाषजी के करीब पहुँच कर लगा ही नहीं कि देश के इतने बड़े संपादक हैं। मुझे तो हमेशा लगा कि इनके पास जो चाहे बतिया लीजिए, खुद ही छान कर काम का निकाल लेंगे, बकिया फेंक देंगे। ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं।



रास्ते में प्रभाष जी ने पूछा, और भैया कैसा काम चल रहा है? सर्तक होते हुए मैं बोला, ठीक-ठाक। थोड़ा गौर से मेरा चेहरा देखा और दूसरा सवाल फेंका, लोग ठीक से काम कर रहे हैं ना? और चौकन्ना हुआ, जवाब दिया, मैं कैसे बता सकता हूं, मैं तो सबसे नीचे वाली पायदान का चोबदार हूँ। मुझे लगा कि जासूसी करा रहे हैं। उस दिन पत्रकारिता का पहला सबक सीखा, एक संपादक को कैसा होना चाहिए। प्रभाषजी मेरे मन की संशय को ताड़ गए। बोले,,।भैया मेरे पूछने का मतलब है कि लोग मन लगा कर काम कर रहे हैं ना। फिर बोले देखो भैया, अपन तो एक चीज जानते हैं, बस आदमी सही होना चाहिए...पत्रकार तो संपादक बना लेता है। फिर एक अच्छे संपादक के एक और गुर को पेश किया पलथी मार कर बैठे प्रभाषजी ने। हम दोनों के बीच एक गाव तकिया था, सफेद कपड़े से ढका। उस पर धौल मार प्रभाषजी बोले, देखों भैया, हम तो एक बार जोड़ते हैं, छोड़ते कभी नहीं। पूछा, ऐसा क्यों? प्रभाषजी बोले, हम इतना बिगाड़ देते हैं कि कहीं जाने लायक नहीं रहता। तब नहीं समझा था प्रभाषजी, बाद में जब जनसत्ता से बाहर आया तो समझ में आया, वाकई कितना बिगाड़ दिया था आपने। कहीं का नहीं छोड़ा। जनसत्ता में मेरे पहले की पीढ़ी तो बेहतरीन उदाहरण हैं। सोच के एक नाम बताइए। प्रभाषजी के जनसत्ता से निकला एक भी शख्स बाहर किसी दूसरे अखबार में फिट हो पाया हो? आलोक भाई (तोमर), सुशील भाई (सुशील कुमार सिंह) दुरुस्त हूँ ना मैं? यह क्या दंभ था या एक संपादक का खुद पर विश्वास? यकीकन विश्वास। प्रभाषजी के साथ मेरी स्मृतियाँ टुकड़ों में हैं। पर इन सभी में एक अंतर्संबंध पाता हूँ । जो कुछ भी उनसे सीखा, गाँठ बांधी, उनसे भोगा ज्यादा पाया कम।



जनसत्ता में शायद ही किसी संवाददाता की खबर रुकी हो। बस तथ्यों के लिहाज से दुरुस्त होना चाहिए। सन 1996 में जब दिल्ली जनसत्ता में आया तो लगा, हर कोई हाँका लगा रहा है। सब्जी मंडी सरीखा माहौल। धीरे-धीरे समझ में आया, यहाँ हांके का नहीं, निथारने का शोर है। हर किसी को अपनी बात करने की बेलगाम आजादी। चाहे अभय भाई (अभय दुबे) से भिड़ लीजिए या फिर अपने मित्र संजय सिंह (अब अनुवाद कम्युनिकेशन वाले) से देर तक बहसिया लें। पर जो भी कहें, तथ्यों के साथ कहें। विरोध में एक तर्क हो। जनसत्ता में जब तक रहा, पीछे छूटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों की कमी नहीं महसूस की।



दिल्ली जनसत्ता में रात में श्रीशजी (श्रीश मिश्र) प्रभाषजी का हाथ का लिखा कागद कारे थमा दिया करते थे और कहते थे संपादित कर लो। मेरी औकात! प्रभाषजी के लिखे का संपादन करुँ। एक बार कुछ हो ही गया। रात को डेढ़ बजे थे प्रभाषजी का कागद कारे टाइप होकर आया। नीचे अभय भाई संस्करण निकलवा रहे थे। श्रीशजी ने कहा, पढ़ लो। पढ़ने लगा तो पाया कि प्रभाषजी ने हर जगह त्योहार को त्यौहार लिख रखा है। श्रीश जी से पूछा तो मुस्करा (बहुत साजिश वाली मुस्कराहट होती है श्रीश जी आपकी) बोले, बुढ़ऊ (प्रभाष जी के लिए दुलार वाला संबोधन था यह जनसत्ता के साथियों के बीच) को फोन कर लो। ताव में आकर मैंने भी फोन लगा दिया, रात डेढ़ बजे भी फोन प्रभाषजी ने फोन उठाया। आवाज में दिन वाली ताजगी। कहीं कोई खीज नहीं। बोले, हाँ भैया बोलो। मैं बोला, सर आपके कागद कारे में त्योहार की जगह त्यौहार लिखा है। उधर से आवाज आई, तो भैया होता क्या है? एक क्षण के लिए लगा, बुढऊ खींच रहे हैं। मैं बोला, जहाँ तक मैं जानता हूं त्योहार होता है, त्यौहार नहीं। साथ में नए मुल्ले की तरह दलील दी, फादर (कामिल बुल्के) में भी यही लिखा है। इस पर प्रभाषजी ने जो कहा, उस समय तो उनकी बात घर वाली बात लगी पर वक्त के साथ समझ में आया किस हिमालय के साथ हमने काम किया है। प्रभाष जी आप घर के बुढ़ऊ थे हम सब के लिए। इस जीवन में अब तक तो दूसरे प्रभाषजी नहीं मिले। प्रभाषजी बोले, भैया रात का संस्करण जो निकालता है वही संपादक होता है, अपन तो कल 11 बजे संपादक होंगे। अभी तो हमें भी अपना संवाददाता या कॉलम लिखने वाला समझो। मैंने त्यौहार को त्योहार कर दिया। दूसरे दिन प्रभाषजी कुछ नहीं बोले। उनकी चुप्पी को अपनी भारी जीत समझी मैंने। बहुत बाद में समझा, यह तो प्रभाषजी की अपनी मालवी शैली का लेखन था और कागद कारे उनका अपना स्थान था। और मैंने उनके घर में सेंध मारी थी। अब इस बात पर नहीं जाऊँगा कि आज का संपादक क्या करता इस पर।



बातें तो बहुत है प्रभाषजी पर एक बात जरूर कहना चाहूँगा। एक पूरी नस्ल को खराब कर दिया आपने। आपके बताए राह पर चला तो धकिआया गया। सुधरने की कोशिश कर रहा हूँ पर सुधरने की उम्मीद कम ही है। जयपुर में राजस्थान पत्रिका और मिड डे (मुंबई) का साझा दोपहर का अखबार न्यूज़ टुडे निकाला। मुख्यमंत्री वसुंधरा के खिलाफ दीन दयाल उपाध्याय ट्रस्ट में जमीन हड़पने की खबर हो या तिरंगा मुद्दा खड़ा कर आईपीएल चेयरमैन ललित मोदी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी करवाने का मसला। आप की सीख पर चल 26 साल पुराने यूनिवर्सिटी के दोस्त राजेश्वर सिंह को नहीं छोड़ा, जो उस वक्त जयपुर के कलेक्टर थे। क्योंकि खबर रिपोर्टर लाया था। हर मुकाम पर जन को आगे रख सत्ता को ठोका। पर क्या हुआ, सत्ता और सत्ता में समझौता हुआ और अपन एक गैर दुनियादार संपादक करार दे बाहर कर दिए गए। यह दीगर है, इसमें मालिकों की कम बीच के लोगों की भूमिका ज्यादा रही। ऐसे लोगों की जो आपके सिपाहियों से सीधे टकराने की बजाय खाने में जहर मिलाकर मारने में यकीन रखते हैं। जहर मिलाने की यह कला आपने हमें क्यों नहीं सिखाई?



प्रभाषजी एक पूरी नस्ल खराब कर दी आपने, फिर भी आपसा कोई नहीं। आप शतायु हों। आपसे मिलूँ भले नहीं पर एकलव्य की तरह आपकी द्रोण प्रतिमा ही मेरे लिए प्रेरणा है।



हाँ, एक बात और। आपकी दी एक और चीज मेरे पास है। शादी के बाद जब मैं और सौम्या आपसे मिलने गए थे तो आपने बतौर आशीर्वाद पाँच सौ रुपए का नोट सौम्या के हाथों में थमाया था। आग्रह पर आपने लिखा था, पैसा हाथ का मैल है जो मिलाने से मिलता है, 15 जुलाई 1996, प्रभाष जोशी। इस नसीहत पर बढ़ा जा रहा हूँ । हाथ मिलाए जा रहा हूँ , पर पैसा है कि जमीन पर झरा जा रहा है। हाथ नहीं आ रहा है। यह भी आपकी ही सीख है ना?


3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रभाष जी के व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला, तभी तो जनसत्ता की एक अलग पहचान है।

    जब तक हम किसी बड़ी शख्सियत के साथ काम नहीं करते तब तक हमें आभास ही नहीं होता है या वे होने नहीं देते हैं, पर हमें जो सीखने को मिलता है वह किसी स्कूल में पढ़ने को नहीं मिलता है।

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  2. जनसत्ता के दीवाने तो हम भी रहे हैं। सम्पादकीय के अलावा प्रभाष जी की क्रिकेट सम्बन्धी रविवारीय रिपोर्ट और कमेण्टरी पढ़ने का बहुत शौक हुआ करता था। स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के कद का यदि कोई सम्पादक जीवित है तो वे प्रभाष जी ही हैं।

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  3. प्रभासजी को उनके जन्मदिन की बधाई। वे उन पत्रकारों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं जिनमें विष्णु पराडकर जी आते हैं। उन्हें ईश्वर शतायु बनाएं।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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