गाँव आखिर किसके लिए हैं

परत-दर-परत
गाँव आखिर किसके लिए हैं


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दिल्ली में ऐसे लेखक और कवि बहुतायत में हैं जो शहर को मिथ्या और गाँव को सत्य मानते हैं। इन्होंने दर्जनों उपन्यास, सैकड़ों कहानियाँ और हजारों कविताएँ लिखी हैं जिनमें पीछे छूट गए गाँव की जबरदस्त कसक दिखाई देती है। इनमें से सभी कृतिकार ग्रामीण परिवेश से ही आए हैं और उसके प्रति ममता इनके हृदय से गई नहीं हैं। इनके लेखन के मर्म में देहात का रोमांस उसी तरह अंकित है जैसे हनुमान के हृदय में राम बसा करते थे। गाँव की बड़ाई या अपने खोए हुए गाँव की स्मृतियाँ ही वह पूँजी है जिसके बल पर बार-बार एक ऐसी रामांटिक कविता या कहानी लिखी जाती है जो उन्हें धिक्कारती-सी प्रतीत होती है जो शहर में रहते हैं और शहर के बारे में ही लिखते या पढ़ते हैं। इन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे गाँव अपनी सादगी, ईमानदारी और भावमयता के साथ लौट आया, तो भारत फिर एक रहने लायक देश हो जाएगा।


बहुत पहले जब मैथिलीशरण गुप्त ने वह अमर कविता लिखी थी जिसकी यह पंक्ति मुहावरे में तब्दील हो चुकी है कि अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, तो शुरू में तो वह बहुत पसंद की गई (यह कविता मैंने कक्षा सात या आठ के कोर्स में पढ़ी थी), लेकिन बाद में सादगी के महान कवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य प्रतिभा की हँसी उड़ाने या ग्रामीण जीवन की नई जटिलताओं की ओर ध्यान खींचने के लिए इसका व्यापक उपयोग होने लगा। गुप्त जी ने जब यह कविता लिखी थी, उस समय हमारे गाँव लगभग ऐसे ही थे -- गुप्त जी के शब्दों में 'यहाँ गँठकटे चोर नहीं हैं, तरह-तरह के शोर नहीं हैं'। इस कविता के दो और प्रयोजन थे। एक तो गाँधी जी की आस्थाओं का प्रचार करना। महात्मा आधुनिक युग में गाँवों के सबसे बड़े वकील थे। उनकी नजर में कोई भी सभ्य देश गाँवों का समूह ही हो सकता है। दूसरे, यह आडंबरयुक्त शहरी जीवन की आलोचना भी थी। गुप्त जी के आलोचकों को भूलना नहीं चाहिए कि मैथिलीशरण भी मूलत: एक ग्रामीण आत्मा थे - थोड़ा और बढ़ कर कहना चाहें, तो एक हिन्दू ग्रामीण आत्मा। वे एक ठेठ देहाती आदमी की तरह ही गाँव की तारीफ में सहजता से लिखे जा रहे थे । इसलिए उन पर हँसना गाँव मात्र पर हँसना है, जो सभ्यता के दायरे में नहीं आता।


परवर्ती कवियों और लेखकों ने गाँव की बड़ाई कुछ इसलिए की कि वहाँ बहुत कुछ बचा हुआ है और कुछ इसलिए कि वहाँ से बहुत कुछ विलुप्त हो चुका है। स्वर कुछ यों होता है -- वहाँ अभी भी टोपियाँ सिलते हैं कासिम चाचा, ईद की सेवइयाँ होड़ करती हैं दीवाली की मिठाइयों से, यहाँ एक नदी थी, कहाँ गए वे जंगल जहाँ हम पाँच दोस्त तितलियाँ पकड़ते थे आदि। ऐसी रचनाओं को पढ़ते हुए लगता है कि दिल्ली या मुंबई जैसे महानगर के प्रदूषित और छल-कपटमय वातावरण में रहते हुए कवि या कथाकार की साँस घुट रही है और वह अपने गाँव लौट जाना चाहता है। वे कविताएँ और कहानियाँ झूठी हैं, ऐसा कहने वाला मैं कौन होता हूँ? लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहता हूँ कि ऐसे सभी लेखक नौकरी से रिटायर होने के बाद दिल्ली या मुंबई में ही बस गए हैं। यहाँ उन्होंने फ्लैट या घर बनवा लिए हैं । इनमें कई लेखक ऐसे भी हैं जिनका शेष परिवार गाँव में ही रहता है और ये स्वयं महानगर की प्रदूषित हवा से मुक्त होना नहीं चाहते। अनुमान किया जा सकता है कि उनकी अरथी यहीं से उठेगी।



स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गाँवों के बारे में दो तरह की धारणाएँ थीं। गाँधी मानते थे कि भारत की सभ्यता गाँव में ही बची हुई है -- जितनी बची हुई है। लेकिन देश के तत्कालीन गाँवों को वे आदर्श नहीं मानते थे। वे गाँवों को आत्मनिर्भर, सुंदर और सुविधा-संपन्न बनाना चाहते थे। इस तरह गाँव के यथार्थ और आदर्श, दोनों के प्रति वे संबोधित थे। लेकिन आंबेडकर और नेहरू गाँवों को बहुत ही नापसंद करते थे। उनके हिसाब से ये ऐसी जगहें नहीं थीं जहाँ सभ्य और शिक्षित आदमी रह सकते हैं। दलितों के लिए तो गाँव बूचड़खाना ही थे। पिछले साठ वर्षों में गाँवों का विकास करने के प्रयत्न किए गए हैं और देश के एक बहुत बड़े हिस्से में उनका कायाकल्प हो गया है। लेकिन आज भी एक शिक्षित रिटायर्ड आदमी के लिए वहाँ कुछ है नहीं। यहाँ तक कि वह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी नहीं हैं जिसकी कामना एक पढ़ा-लिखा आदमी करता है। इस बीच शहरों की सुविधाएँ तथा वहाँ उपलब्ध अवसर तेजी से बढ़े हैं। कुछ मामलों में गाँव और शहर के बीच का अंतराल कम हुआ है, तो कुछ मामलों में बढ़ा भी है। लेकिन कुल मिला कर गाँवों की हालत बेहद नागवार है। बताते हैं कि वहाँ रहना जीवन को नष्ट करना है।


तो गाँव किसके लिए हैं? जवान वहाँ रहना नहीं चाहते। अवसर की तलाश में वे शहर भागते हैं। गाँव से आ कर जिन्होंने अपनी जवानी शहर में बिता दी, वे अंत समय में गाँव लौटना नहीं चाहते। ये लौटते, तो ग्रामीण समाज को एक नई दिशा दे सकते थे। किसान भी नहीं चाहते कि उनके बेटे-बेटियाँ गाँव में सड़ती रहें। इस तरह, आज गाँव में वही रहता है जो वहाँ रहने के लिए मजबूर है या कहिए अभिशप्त है। यह इतना बड़ा क्षेत्र नए भारत का कालापानी है। एक विशालकाय आजाद जेल है, जिसके दंडित बाशिंदे खुलेआम घूम-फिर सकते हैं। यह आजादी उन्हें इसलिए दी गई है कि भारत भाग्य विधाताओं को पता है कि ये जाएँगे भी तो कहाँ जाएँगे? ये गाँव न तो महात्मा के सपनों के गाँव बन पाए हैं न आधुनिक शहरों में बदल सके हैं जैसा कि नेहरू चाहते थे। ये एक ऐसी अंधी गली में फँसे हुए हैं जहाँ से कोई रास्ता खुलता दिखाई नहीं देता। अगर हमारे विरोधी राजनीतिक दलों का गाँव के लोगों से थोड़ा भी संबंध होता, तो वहाँ से कभी-कभी नहीं, रोज संघर्ष की लपटें निकलती होतीं। नक्सलवादी कई इलाकों में ये लपटें पैदा कर रहे हैं, लेकिन इन लपटों की रोशनी में इन गाँवों के भविष्य का कोई सुंदर चित्र दिखाई नहीं देता। इस गतिरोध के सामने उदीयमान भारत (जिसे पहले चमकता भारत कहते थे), जो हमारे शासकों को और अंधा कर रही है, क्या एक बहुत बड़ा फ्रॉड नहीं है?

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- राजकिशोर

8 टिप्‍पणियां:

  1. नए भारत का कालापानी| मानने को दिल नही करता लेकिन हम जानते हैं की सत्य यही है| आज की भागा दौडी में गाँव क्या परिवार,अपने तक पीछे छुट चुके हैं|

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  2. वाह जी वाह बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने सच में गांवों में पता नहीं लोग क्‍या समझते हैं लेकिन भारत में गांव ही बहुतायत में हैं और आज भी मानवता गांवों में ही बसती है

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  3. गाँवों की स्थितियां अब उतनी भयावह नहीं रह गयीं हैं जितना लेखक ने पता नहीं किस अभिप्राय से प्रोजेक्ट किया है ! उनमें बड़ी तेजी से बदलाव आ रहा है !

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  4. सही कहा...गाांव बहुत अच्‍छे होते है...पर कोई वहां रहना नहीं चाहता....सही प्रश्‍न है...गांव आखिर हैं किस‍के लिए ?

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  5. शायद हम सब विकास की इस अंधी दौड़ में कंक्रीट की इमारतों में अपने भीतर का मनुष्य छोड़ गए है ....ओर दुर्भाग्य से इसके अंश अब गाँवों में भी दिखने लगे है

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  6. मुझे तो गावं ओर शहर दोनो ही एक से लगते है,
    धन्यवाद

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  7. गाँव मे प्रेम और भाईचारा है .पर ये भी सच है की लोग यहाँ रहना नहीं चाहते .लोग भाग दौड़ मे लगे हैं
    आपने बहुत अच्छा लिखा है
    सादर
    रचना

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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