हिन्दी सम्मेलन : राजकिशोर (राग दरबारी)

राग दरबारी

हिन्दी सम्मेलन : राजकिशोर


अब मैंने तय कर लिया है कि किसी भी सभा-सम्मेलन में बैठूंगा तो इसका ध्यान रखूंगा कि मेरे दाएं और बाएं लड़के-लड़कियां न हों। आजकल यह युवा बिच्छुओं के बीच बैठना है। हो सकता है उनकी अपनी बिरादरी में छोटे-बड़े का लिहाज हो, पर सभा-सम्मेलन में वे किसी की इज्जत नहीं करते। बड़े-बड़े विद्वानों के लिए वे ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल कर देते हैं कि गंभीर हो कर सोचना पड़ता है। शायद यह उत्तर-आधुनिक समय की खूबी ही यह है कि सच मंच से नहीं, हॉल की कुरसियों से बोला जाता है।

उस दिन एक राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में चला गया था। इस सम्मेलन की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि यह सीधे जनता के पैसे से आयोजित नहीं किया गया था। जनता का पैसा पहले भारत सरकार के पास पहुंचा, भारत सरकार ने उसे वि·ाविद्यालय तक पहुंचाया और वि·ाविद्यालय के उच्चतम अधिकारी ने आयोजकों तक। इस तरह, आयोजक जनता के प्रति सीधे जिम्मेदार नहीं थे। जो उन्हें ठीक लगा वह वे कर सकते थे और जनता के कुबोल सुनने से पूरी तरह आजाद थे। उनकी एकमात्र चिंता ऑडिट विभाग के शिकारी कुत्तों से थी, जो जरा-सी अनियमितता देखते ही काट खाते हैं। काटते तो क्या हैं, दो-तीन पैराग्राफों में अपनी भौंक रिकॉर्ड कर देते हैं। हजारों ऑडिट रिकार्डों में उनकी लाखों भौंके दर्ज हैं। पर कम ही अधिकारियों के बारे में सुना गया कि उन्हें चौदह सुइयां लगवानी पड़ीं। रैबिट आजकल एक ऐसा रोग है जिसकी तुलना वायरल बुखार से की जा सकती है, जिसके लिए मूर्ख ही दवा लेते है, क्योंकि तीन या सात दिनों में यह अपने आप उतर जाता है।

हुआ यह कि तीन दिनों तक मैं उस हिन्दी सम्मेलन में बैठा रहा और दो दिनों तक अगल-बगल से तुर्की-बतुर्की सुनता रहा। यह पहले सत्र से ही शुरू हो गया था। शुरू में तो मन किया कि या तो जगह बदल लूं या घर चला जाऊं। पर सत्य मेरी कमजोरी है, इसलिए बैठा तो बैठा ही रह गया। तीसरे दिन जरूर शुद्ध हवा में सांस लेने के लिए अधेड़ श्रोताओं के बीच जा कर बैठ गया। वहां मैं पूर्णत: निरापद था।

मेरे बार्इं तरफ एक काली दाढ़ी वाला नौजवान था। दार्इं तरफ जींस-टॉप में एक कमसिन लड़की थी। वे दोनों आकाशवाणी की तरह लगातार चटर-पटर करते रहे। उद्धाटन सत्र में एक विद्वान कह रहा था कि हिन्दी के भविष्य को कोई बिगाड़ नहीं सकता, अगर वह अंग्रेजी लफ्जों को ग्रहण करती चले। लड़के की टिप्पणी सुनने को मिली कि यह तो हिन्दी को नहीं, अंग्रेजी को बचाने का नुस्खा है। दूसरे विद्वान ने कहा कि हिन्दी पचास करोड़ लोगों की भाषा है, इसे कौन मिटा सकता है? चुलबुली लड़की बोली, जरूर, गरीबी भी सत्तर करोड़ लोगों की किस्मत है, इनका कोई क्या कर लेगा? ये रहेंगे और मरते दम तक रहेंगे। एक और विद्वान बताने लगा कि हिन्दी तो अब वि·ा भाषा हो चली है, दुनिया के छिहत्तर देशों में बोली जाती है। पहले कहते थे, जहां न जाए गाड़ी, वहां जाए मारवाड़ी। आज कहा जा सकता है, जहां नहीं है चिन्दी, वहां भी है हिन्दी। मेरे बगल वाली लड़की ने कहा, हां, फैल तो रही है, बस फल-फूल नहीं रही है। लड़के ने ज्ञान बढ़ाया, आजकल हिन्दी किताबों का तीन सौ का एडिशन होता है और हर हिन्दी प्रेमी तीन सौ एकवां पाठक है।

सम्मेलन में मीठी ईद की लच्छेदार सेवइयां परोसनेवाले थे, तो कुछ मोहर्रमी भी घुस आए थे। इनमें से एक ने कहा, हम लोग संपन्न शुतुर्मुर्ग हैं, हकीकत यह है कि हिन्दी तिल-तिल कर मर रही है। डॉक्टर आते हैं, नब्ज देखते हैं और सिर हिलाते हुए चले जाते हैं। बहुत पूछने पर बताते हैं कि रोगी को बीस-पचीस साल से पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल रहा है। अब इसके फेफड़े इतने कमजोर हो चुके हैं कि परंपरागत दवाएं काम नहीं कर सकती। कोई नई दवा खोजनी होगी। यह कठिन काम मुझ अकेले के बस का नहीं। इसके लिए लाखों लोगों को जुटना होना पड़ेगा। इधर बगल के लड़के ने कहा, देश में हिन्दी प्रेमी तो इससे भी ज्यादा हैं, पर समाज के सभी ओनर चाहते हैं कि उनका ध्यान मरीज की ओर होने के बजाय जच्चा-बच्चा वार्ड की ओर केंद्रित रहे, जहां गर्भ से जमीन पर लैंड करते ही मम्मी-पापा बोलनेवाले शिशु जन्म ले रहे हैं। इस वार्ड में डॉक्टरनियों और मरीजाओं के लिए दिन-रात एफएम संगीत बजता रहता है। लड़की भी पीछे न रही। कूकी, फ्रेंडो और फ्रेंडियों, अब हम आपको एक ऐसे वंडरफुल गाना सुनाने जा रहे हैं जो सीधे आपके हार्ट को हिट करेगा।

विषय पर ज्यादा प्रकाश डाल दो, तो आंखें पहले चौंधियाने, फिर मुंदने लगती हैं। अंधेरे में आराम मिलता है। हम सभी लोग चौंक कर अपनी-अपनी कुरसी पर सीधे बैठ गए, जब एक सफेद दाढ़ी वाली सुंदर-सी आकृति ने (स्त्रीलिंग नहीं, पुंलिंग) पूछा कि यहां इतने प्रबुद्ध और हिन्दी-प्रेमी बैठे हुए हैं। आपमें से वे लोग हाथ उठाएं जिनके बेटे-बेटियां अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में नहीं पढ़ रहे हैं। यह प्रश्न पूछते समय प्रधान वक्ता ने यह नहीं देखा कि हॉल में आधे से ज्यादा विद्यार्थी थे, जिन्होंने अपनी प्रजनन क्षमता का विमोचन तक नहीं किया है। वक्ता बहुत खुश थे कि उन्हें हिन्दी की मृत्यु की अपनी थीसिस को साबित करने का एक और मौका मिल गया, क्योंकि एक भी हाथ नहीं उठा। मेरे दाएं बैठी लड़की ने बॉलिंग की, कम से कम प्रधान वक्ता तो अपना हाथ उठा सकते थे। बाएं बैठे लड़के ने बल्ला मारा, हो सकता है, बेऔलाद हों।

सम्मेलन खत्म होने पर लोग निकल रहे थे, तो शिशुपालगंज से आए एक विद्वान को यह शिकायत करते सुना -- तीन दिनों का सम्मेलन और मानदेय सिर्फ हजार रुपल्ली! ऐसे कहीं हिन्दी बचेगी! 000

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