तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्‍य


पुस्तक समीक्षा 


तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्‍य
ऋषभदेव शर्मा







निखिलेश्‍वर (1938) तेलुगु साहित्य के दिगंबर कविता (अकविता) आंदोलन के छह प्रवर्तकों में से एक हैं. वे विप्‍लव रचयितल संघम (क्रांतिकारी लेखक संघ) के सक्रिय संस्थापक के रूप में भी जाने जाते हैं तथा मानवाधिकार संस्थाओं से जुडे़ रहे हैं. उनके सात कविता संकलन और पाँच गद्‍य रचनाएँ प्रकाशित हैं. निखिलेश्‍वर ने अन्य भाषाओं से तेलुगु में पाँच पुस्तकों का अनुवाद भी किया है. लंबे समय तक अंग्रेज़ी के अध्यापक रहे. निखिलेश्‍वर का मानना है कि भारतीय भाषाओं के आदान-प्रदान से ही भारतीय साहित्य सुसंपन्न हो सकेगा तथा अंग्रेज़ी द्वारा जो अनुवाद का कार्य चलता रहा, यदि वह हिंदी के माध्यम से फैलता जाए तो, आसानी से हम अपने आपको अधिक पहचान सकेंगे. उन्होंने इसी आशय से समकालीन तेलुगु साहित्य से विभिन्न विधाओं की रचनाओं का समय समय पर हिंदी में अनुवाद किया है. यही नहीं उन्होंने हिंदी की भी अनेक रचनाओं का तेलुगु में अनुवाद किया है. इस प्रकार वे सही अर्थों में अनुवादक के सेतु धर्म का निर्वाह कर रहे हैं. 




‘विविधा’ (2009) में निखिलेश्‍वर ने बीसवीं शताब्दी के तेलुगु साहित्य से चुनकर कतिपय प्रतिनिधि कविताओं और कहानियों के साथ एक एक नाटक और साक्षात्कार का अनुवाद हिंदी जगत्‌ के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस चयन की उत्कृष्‍टता स्वतः प्रमाणित है क्योंकि अनुवादक ने तेलुगु के श्रेष्‍ठ और सुंदर प्रदेय से हिंदी पाठकों को परिचित कराना चाहा है. यह सारी सामग्री समय समय पर हिंदी की प्रतिष्‍ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी है. इस चयन को परिपूर्णता प्रदान करता है स्वयं निखिलेश्‍वर द्वारा लिखित अठारह पृष्‍ठ का प्राक्कथन - "बीसवीं सदी का तेलुगु साहित्य". विगत शती के तेलुगु साहित्य की विकास प्रक्रिया और समृद्धि को समझने के लिए यह प्राक्कथन अत्यंत उपादेय है. इसमें लेखक ने निरंतर आलोचनात्मक दृष्‍टिकोण बनाए रखा है जिस कारण यह चयन तुलनात्मक भारतीय साहित्य के अध्‍येताओं के लिए संग्रह और चिंतन मनन के योग्य बन गया है. 




निखिलेश्‍वर का मत है कि तेलुगु साहित्यकार सामाजिक यथार्थ के प्रति अत्यंत सजग रहे हैं तथा पश्‍चिमी साहित्य में जो परिवर्तन 300 वर्षों में हुए, तेलुगु में वे 100 वर्ष में संपन्न हो गए. अभिप्राय यह है कि बीसवीं शती का तेलुगु साहित्य परिदृश्‍य अत्यंत तीव्र गति से परिवर्तित होता दिखाई देता है. समाज सुधारक कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ ने तेलुगु साहित्यभाषा को सरल बनाने का अभियान चलाया तो कालजयी नाटक ‘कन्याशुल्‍कम्‌’ के रचनाकार गुरजाडा अप्पाराव ने विधिवत व्‍यावहारिक भाषाशैली को साहित्य में प्रतिष्‍ठित किया. दूसरी ओर विश्‍वनाथ सत्यनारायण ने ‘वेयिपडगलु’ (सहस्रफण) जैसे उपन्यास के माध्यम से पुराने समाज का सशक्‍त दस्तावेज पेश किया तो भाव (छाया) वादी कविता ने प्रकृति प्रेम, अमलिन शृंगार और स्वदेशी चिंतन की धार बहायी. महाकवि श्रीरंगम श्रीनिवास राव (श्री श्री) ने ‘महाप्रस्थानम’ द्वारा साम्यवादी विचारधारा और जन आंदोलन से कविता को जोड़ा तो त्रिपुरनेनि ने पौराणिक प्रसंगों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया. इसी प्रकार समालोचना के शिल्प और रसविधान के विश्‍लेषण के आधुनिक प्रतिमान कट्टमंचि रामलिंगा रेड्डी ने स्थापित किए और लगभग तीस वर्ष तक अभ्युदय साहित्य (प्रगतिवाद) तथा साम्यवादी सौंदर्यशास्त्र का बोलबाला रहा. इसके बाद आए विद्रोह को अभिव्यक्‍त करनेवाले दिगंबर कवि और सशस्त्र क्रांति के समर्थक विप्लव [विरसम] कवि. परिवर्तन की तीव्रता को आत्मसात करते हुए तेलुगु साहित्य ने हाशियाकृत समुदायों के स्वर को स्त्री लेखन, दलित लेखन और अल्पसंख्यक मुस्लिम लेखन के माध्यम से बुलंद किया. 




भारतीय साहित्य के संदर्भ में तेलुगु की क्रांतिकारी कविता का अपना महत्व है. निखिलेश्‍वर याद दिलाते हैं कि जन संघर्ष से जुडी़ क्रांतिकारी कविता का सिलसिला ऐतिहासिक तेलंगाना किसान सशस्त्र आंदोलन से लेकर सातवें दशक के नक्‍सलवादी और श्रीकाकुलम आदिवासी आंदोलनों के साथ जुड़कर नए प्रतिमानों को कायम करता रहा. उन्होंने आगे बताया है कि जहाँ 'चेतनावर्तनम्‌' ने पुनरुथान की प्रवृत्ति अपनाई वहीं कवि सेना मेनिफेस्टो के साथ प्रकट हुए गुंटूर शेषेंद्र शर्मा ने चमत्कार और क्रांतिकारी आभास की कृत्रिम शैली को स्थापित किया, जबकि सी.नारायण रेड्डी नियोक्लासिकल धारा लेकर आए. 




कविता की ही भाँति कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी ऊपर वर्णित सारी प्रवृत्तियाँ जोरदार ढ़ंग से अभिव्यक्‍त हुईं. ‘मालापल्ली’ (चमारों का गाँव) उन्नव लक्ष्मीनारायण का ऐसा उपन्यास रहा जिसे उसी प्रकार मील का पत्थर माना जाता है जिस प्रकार हिंदी में प्रेमचंद और बंगला में शरत के उपन्यासों को. मनोवैज्ञानिक शिल्प के उपन्यासों में अल्पजीवी (रा वि शास्त्री), ‘असमर्थ की जीवन यात्रा’ (गोपीचंद), ‘अंतिम शेष’ (बुच्चिबाबु), ‘अंपशय्या’ (नवीन) तथा ‘हिमज्वाला’ (चंडीदास) उल्लेखनीय माने गए. परंतु सामाजिक उद्‍देश्‍यपरक उपन्यासों में विशेष रूप से चर्चित हैं - डॉ.केशव रेड्डी रचित ‘अतडु अडविनि जयिंचाडु’ (उसने जंगल को जीता), रामुडुन्नाडु-राज्यमुंडादी (राम है और राज्य भी है), बीनादेवी रचित ‘हैंग मी क्विक’ (मुझे तुरंत फाँसी दो) और अल्लम्‌ राजय्या रचित ‘कमला’ (उपन्यासिका). इन उपन्यासों की खास बात यह है कि इनमें तेलुगु भाषा की आंचलिक बोलियों का प्रयोग किया गया है. केशव रेड्डी रायलसीमा के चित्तूर जिले की बोली का इस्तेमाल करते हैं, बीनादेवी ने तटीय आंध्र की बोली का साहित्य में व्यवहार किया है तो अल्लम्‌ राजय्या ने तेलंगाना की बोली का. राजय्या की उपन्यासिका ‘कमला’ तेलंगाना के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों को लेखबद्ध करती है. इसमें दर्शाया गया है कि किस तरह एक बुद्धू सा नौकर किष्‍टय्या सारे रीति रिवाज तोड़कर दमित दलित से क्रांतिकारी में बदल जाता है. तेलंगाना प्रांत के जीवन और भाषा को इस उपन्यास में पढ़ा जा सकता है.




निखिलेश्‍वर ने तेलुगु साहित्य की दलित धारा के शीर्ष पर गुर्रम्‌ जाषुवा को स्थापित किया है जिन्होंने मेघदूत की भाँति उल्लू के माध्यम से संदेश भिजवाया है. उनके काव्य ‘गब्बिलम्‌’ (चमगादड) में निहित यह संदेश किसी यक्षिणी का प्रेमसंदेश नहीं है बल्कि दलितों की दुर्गति का शोकसंदेश है जो संदेशकाव्य में अपनी तरह का इकलौता प्रयोग है. तेलुगु के दलित साहित्यकार विगत इतिहास के साहित्य में निहित तथाकथित ब्राह्‍मणवाद को उखाड़कर दलित जातियों की मौलिक संस्कृति को आधार बनाने के लिए संकल्‍पित हैं. उनका यह संकल्प सभी विधाओं में प्रकट हो रहा है. स्त्री लेखन और अल्पसंख्यक मुस्लिम लेखन ने भी बीसवीं शती के तेलुगु साहित्य में अपनी अलग पहचान कायम की हैं. स्त्री लेखन जहाँ पुरुष घमंड को छेदने में कामयाब रहा है वहीं मुस्लिम लेखन ने मुस्लिम समाज के भीतरी अंतर्विरोध और शेष समाज के साथ अपने संबंधों का खुलासा किया है. अन्य विधाओं की तुलना में निखिलेश्‍वर को तेलुगु की आलोचना विधा कमजोर प्रतीत होती है. 




निखिलेश्‍वर ने एक बेहद जरूरी सवाल उठाया है कि उत्तर आधुनिक कहे जानेवाले पिछले तीस वर्षों के साहित्यिक आंदोलनों में राष्‍ट्रीयता की अभिव्यक्‍ति किस हद तक है ? उन्हें लगता है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उभरे इन विद्रोही आंदोलनों से जुडे़ साहित्यकार राष्‍ट्रीयता के प्रश्‍न को प्रायः नगण्य मानकर चलते हैं और मानवता को अपने अक्षरों द्वारा खोजना चाहते हैं. यदि ऐसा है तो यह सचमुच चिंता का विषय है क्योंकि राष्‍ट्र की उपेक्षा करके जिस मानवता का हित साधन ऐसा साहित्य करना चाहता है उसके राष्‍ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्य क्या होंगे , यह स्पष्‍ट नहीं है. क्या ढेर सारे उछलते हुए मेंढ़कों को एक टोकरी में भर देने भर से भारतीयता सिद्ध हो जाती है ? लेकिन फिलहाल यहाँ यह प्रश्‍न उपस्थित नहीं है. उपस्थित है तेलुगु की विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधि चयन ‘विविधा’ जिसमें 24 कविताएँ, 4 कहानियाँ, 1 नाटक और 1 साक्षात्कार शामिल हैं. 



अंततः जिंबो की एक कविता ‘हमारी नहर’ पाठकों के आत्म विमर्श हेतु प्रस्तुत है जो यह दर्शाती है कि कैसे एक हँसता गाता गाँव अपनी अस्मिता की तलाश में रणक्षेत्र बनने के लिए बाध्य हो जाता है  -



 "हमारी नहर -

अध्यापक की बेंत की मार से / 
आँख से टपक कर गालों पर फिसल कर, /
 सूखने वाले आँसुओं की धार जैसी, / 
बंजर बने खेत जैसे /
 गन्ने की मशीन के पास पडे़ निचोडे़ गए कचरे / 
बेजान सूखे साँप जैसी / 
आज हमारी नहर है. / 
पता नहीं कैसी अजीब बात है /
 इस पुल के बनने के पहले /
 हमारी नहर सोलहवें साल जवानी जैसी / 
तेज़ बह जाती थी / 
हमारे बतकम्मा फूलों को सिर पर सँवारे निकलती थी / 
तैरने के लिए अ आ ई सिखाती थी / 
हमारी गंदी नालियों को फिल्टर करती बह जाती थी / 
अब हमारी नहर की साँस में गूंगापन / 
हमारी  नहर की चाल में लंगडा़पन /  
पोखर की चारपाई के आधार पर / 
लटके बूढे़पन की भाँति / 
रह गई है हमारी नहर."
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* विविधा  (समकालीन तेलुगु साहित्य की विभिन्न विधाओं का विशिष्‍ट संकलन) /

 चयन एवं अनुवाद निखिलेश्‍वर /  2009 /

 क्षितिज प्रकाशन,
 वी - 8, नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110 032 / 
पृष्‍ठ - 144 / 
मूल्य - रु.220 /-


षड्यंत्र को `ज़रूरत’ बताने की मासूमियत का मर्म









गत दिनों हिन्दी भारत के अंक में जब मैंने माननीय राजकिशोर जी का रोष व  विचारपूर्ण लेख प्रकाशित किया रोमन कथा वाया बाईपास अर्थात् हिन्दी पर एक और आक्रमण तो मुझे कुछ ईमेल मिले जिनमें  लोगों ने लिखा/ पूछा कि असगर वजाहत जी ने हिन्दी को रोमन में लिखने की अनुशंसा व आवश्यकता कब व कहाँ व्यक्त की है,  कृपया उसका लिखित सन्दर्भ व प्रमाण दें|  ऐसा भी सन्देश एक आया कि असगर वजाहत के एक परिचित उक्त लेख  में दिए सन्दर्भ से आहत हुए और उस अविश्वसनीय वक्तव्य पर विश्वास ना कर सकने के कारण मुझे ईमेल लिख पूछा   कि क्या वास्तव में ऐसा हुआ / कहा  गया है, मुझे विश्वास नहीं हो रहा मैं देखना चाह रहा हूँ .... आदि आदि | ऐसे में मुझे राजकिशोर जी को सन्देश भेज कर पूछना भी पड़ा कि कृपया वे उक्त वक्तव्य / सन्दर्भ का कोई लिंक/ कतरन अथवा प्रमाण दें ताकि पाठकों की जिज्ञासा का समाधान हो सके|  


 इस बीच भाषा व पाठकीय जागरूकता का परिचय देते हुए सुमितकुमार कटारिया जी ( जयपुर ) ने २४ मार्च के दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पन्ने पर  एक लेख पढ़ा -  क्षितिज पर खड़ी है रोमन हिन्दी , जो उसी षड्यंत्र का अन्यत्र जीता जागता प्रमाण था | वह लेख पढ़ते ही उन्होंने दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादक को पत्र लिखा और हिन्दी भारत के राजकिशोर जी वाले लेख को पढ़ने व उसे भी  प्रकाशित करने का साहस दिखाने की अपेक्षा दैनिक हिन्दुस्तान से की , ताकि पाठकों को निष्पक्ष जानकारी और स्वविवेक से निर्णय का अधिकार मिल सके| अपने उस पत्र की एक प्रति उन्होंने मुझे भी अग्रेषित करते हुए लिखा -
"कविताजी, यह ई-मेल मैंने हिंदुस्तान दैनिक के संपादक को भेजा है। इसमें दिया गया लिंक पढ़ें:




---------- अग्रेषित संदेश ----------
प्रेषक: सुमितकुमार कटारिया 
दिनांक: २४ मार्च २०१० ८:१९ AM
विषय: रोमन हिंदी-- थू-थू
प्रति: 
संपादकजी और प्रमोदजी जोशी,
आज 24/03/2010 को आपके अख़बार के संपादकीय पृष्ठ पर यह लेख छपा है:
इस लेख का विचार निंदनीय है। 
इसी विचार का विरोध करता यह लेख पढ़ें, और अनुरोध करता हूँ कि, अगले अंक में छापें भी:
सादर,
सुमितकुमार कटारिया
          जयपु "  



इसी बीच मुझे सूचना मिली कि हिन्दी के रोमनीकरण के तथाकथित सुझावों वाले षड्यंत्रों की मीमांसा और काट करता हुआ एक लेख कथाकार प्रभु जोशी जी भी लिख रहे हैं | कल वह लेख मुझे प्राप्त भी हो गया जिसका अविकल पाठ यहाँ देते हुए मैं सभी से आग्रह करती हूँ कि जो भी हिन्दी की पत्रकारिता/ लेखन अथवा प्रकाशन से जुड़े प्रबुद्ध लोग इस प्रकरण को पढ़ रहे हैं वे सभी देवनागरी के विरूद्ध प्रारम्भ किए गए षड्यंत्र के विरोध में इन लेखों के सन्दर्भ देते हुए  इन्हें अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाए, छापें व जनमानस को जागरूक करने वाली मानसिकता का निर्माण करने में अपना सहयोग दें,  इस प्रकरण पर अपनी कलम चलाएँ,  इस रोमनीकरण की निंदा करें, प्रस्ताव पारित करें व अपने  विचारों  को  लिखित  रूप  दें| आप अपने विचार प्रकाशनार्थ सीधे मुझे भी भेज सकते हैं |


ऐसे  विचारोत्तेजक प्रश्न पर प्रभु जोशी जी के विचारों से अवगत होने के लिए पढ़ें उनका नवीनतम आलेख |

कविता वाचक्नवी 

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षड्यंत्र को `ज़रूरत’ बताने की मासूमियत का मर्म
- प्रभु जोशी



हिन्दी कथा-संसार के एक गंभीर नागरिक के ’जनसत्ता’ में क्रमशः दो क़िस्तों में प्रकाशित आलेख को आद्योपान्त पढ़ने के पश्चात, यह तथ्य हाथ लगा कि दिन-प्रतिदिन ’हिन्दी के विघटन की बढ़ती दर; और `दुरावस्था’ ने उन्हें काफी गहरे तक उद्वेलित कर रखा है- और, इसके परिणामस्वरूप वे अपने गहन चिन्तन मनन के उपरान्त, समस्या समाधान के रूप में अंततः सिर्फ एक ही कारगर युक्ति के पास पहुँचते दिखायी देते हैं कि यदि `दम तोड़ती हिन्दी के प्राण बचाना है तो, उसकी लिपि  `देवनागरी’ से बदल कर `रोमन’ कर दी जाये। 



लेखक ने अपने विचारपूर्ण लेख में, कठिन और कष्टदायक देवनागरी की वजह से परेशान आबादी की फेहरिस्त में, सबसे पहले मुम्बइया फिल्म-उद्योग से जुड़े एक निर्देशक की लाचारी का सहानुभूतिपूर्वक उल्लेख किया है और बताया कि `क्योंकि, अभिनेताओं में से कुछ हिन्दी बोलते-समझते तो हैं, लेकिन नागरी लिपि नहीं पढ़ सकते।’ 



वस्तुतः उनका कष्ट साफ-साफ समझ में आता है, क्योंकि पिछले दिनों मीडिया में ख़बर थी कि कैटरीना कैफ फिल्म के सेट पर बेहोश हो गयीं। सुनते हैं, कैटरीना को हिन्दी में सम्वाद बोलने से बहुत तनाव हो जाता हैं। 



देवनागरी जैसी लिखने-पढ़ने में दुरूह लिपि के कारण कष्ट भोगने वालों की पड़ताल करते हुए वे बताते हैं कि जो दूसरे क्रम पर आते हैं, वे, वे लोग हैं, जो विज्ञापन जगत में हैं। अर्थात् वे उन कारिन्दों के कष्ट को बड़ी शिद्दत से समझ रहे हैं, जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का माल बेचने के लिए अपनी भाषा से जनता में लालच गढ़ने का काम करते हैं। या कहें कि भारत की `अल्प-उपभोगवादी’ जनता को `पूर्णतः उपभोक्तावादी’ बनाने के पुण्य-कर्म में हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं। सहानुभूति हमें भी है कि आखिर अपने कारोबार से करोड़ों में कमाई करने वाले लोग ऐसे असहनीय कष्ट भी भोगने को क्यों बाध्य हों ?



लेख में, इनके अतिरिक्त आहतों की कोई अन्य आबादी नहीं गिनाई गयी है। हाँ अंग्रेजी भाषा की भूख के मारों का मार्मिक और सम्मानजनक उल्लेख जरूर है, जो `मांगे मोर’ की आवाज बुलंद किये जा रहे हैं और निश्चय ही एक अरसे से लगातार उनकी पुकार की एक निर्लज्ज अनसुनी की जा रही है। क्योंकि वे चाहते हैं कि न केवल बोलचाल, बल्कि लिखी जाने वाली भाषा में भी अंग्रेजी के शब्द 60 प्रतिशत हो जायें और हिन्दी के केवल 40 प्रतिशत रह जायें। क्योंकि, भाषिक-उपनिवेश बनाने के लिए यह प्रतिशत निर्धारित किया गया है। भाषा में मिश्रण की इस अवस्था तक पहुँच जाने पर कहा जाता है कि ‘लैंग्विज इज रेडी फॉर  स्मूथ ट्रांजिशन फ़्रॉम हिन्दी टू इंग्लिश।’



बहरहाल, वे ही वे तमाम लोग हैं, जिनके लिए हिन्दी की नागरी लिपि दुःखदायी बनी हुई है। और इनकी ही जरूरत है कि हिन्दी की लिपि नागरी से रोमन कर दी जाये। इनके लिए हिन्दी के अधिकांश शब्द ‘टंग-ट्विस्टर’ ही हैं। इसीलिए, तरह-तरह से ये लोग, हिन्दी के शब्दों को लगातार बेदखल करते हुए, उन्हें अपनी ही नहीं, बल्कि समूची हिन्दी भाषा-भाषी जनता की जबान से हटाने में जी जान से जुटे हुए हैं। इनके पास अपनी ही बनायी हुई एक छलनी है, जिससे वे पूरी भाषा को छानने में लगे हैं। 



इसके अलावा, जो हिन्दी के समकालीन स्वरूप से, सबसे ज्यादा परेशान हैं और उनके पास भी अपनी एक छलनी है, वे लोग हैं हिन्दी के अखबारों के युवा ‘मालिक-सम्पादक’। चूंकि, वे भी शब्दों को छान-छान कर अखबार की भाषा से बाहर फेंक रहे हैं। उन्हें ‘छात्र-छात्रा‘, ‘माता-पिता‘, ‘विश्वविद्यालय‘, ‘न्यायालय‘, ‘यातायात‘, ‘संसद‘, ‘राज्य-सभा‘, ‘विधान-सभा‘, ‘नगर पालिका‘, ‘अध्यापक‘, ‘वकील‘, ‘बाजार‘, ‘रविवार‘, ‘सोमवार‘, ‘मंगलवार‘ - यहां तक कि नहाते-धोते, खाते-पीते और कार्यालयों में काम करते हुए, जो शब्द बोले जाते हैं, वे कठिन लगते हैं। इनको अखबार के छापेखाने से खदेड़ कर बाहर करते हुए, वे इनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द ला रहे हैं। उनकी दृष्टि में ये तमाम शब्द ’बासी’ हो चुके हैं। वे भाषा को ‘फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ’ देना चाहते हैं। उन्होंने अपने अखबारी कर्मचारियों को सख्त हिदायत दे रखी है कि वे अखबार के तमाम रंगीन परिशिष्टों में हिन्दी-अंग्रेजी का वही चालीस तथा साठ का प्रतिशत बना कर रखें। इसके साथ-ही साथ वे एकाध पृष्ठ अंगे्रजी का भी छापते हैं, ताकि हिन्दी उसके पड़ोस में बनी रहने से आगे-पीछे अपना लद्धड़पन छोड़ कर थोड़ी बहुत सुधरने लगेगी। आखिर किसी भद्र-साहचर्य से ही तो गंवारों का परिष्कार होता आया है। यह भाषा के ‘उत्थान’ का आवश्यक उपक्रम है।



ब्रिटिश कौंसिल के एक चिंतक बर्नार्ड लॉट के शब्द की इमदाद ले कर कहें कि यह तो हिन्दी का ‘रि-लिंग्विफिकेशन’ है, जो ’सिन्थेसिस ऑफ़ वक्युब्लरि’ के जरिए ही तो संभव हो सकेगा। यह विचार ब्रिटेन के केबिनेट पेपर में था और जिसे तीस वर्षों तक गुप्त दस्तावेज की तरह रखा गया था।



खैर, अब तो ब्रिटेन और अमेरिका भारतीय भाषाओं के ध्वंस के समवेत-श्रम में जुट चुके हैं, जिसे भाषा के ‘क्रियोलाइजेशन’ कहा जाता है इस काम को ‘मेन-टास्क’ जैसा विशेषण दिया गया है। जिसके अन्तर्गत स्थानीय भाषा के व्याकरण को नष्ट करके उसमें वर्चस्वी-भाषा की शब्दावलि का मिश्रण किया जाता है। इस शब्दावलि को ‘शेयर्ड-वक्युब्लरि’ के सम्मानजनक विशेषण से नाथा जाता है। ताकि बदनीयत को छुपाया जा सके। यह हिन्दी-चीनी भाई-भाई की तरह की छद्म युति है। 



भाषिक-उपनिवेश के एक और शिल्पकार जोशुआ फिशमैन बड़ी उपयुक्त रणनीतिक बुद्धि रखते हैं। वे कहते हैं कि ‘भाषा को भाषा के हित में बढ़ाने के बजाय उसे वर्ग-हित में बदल कर बढ़ायी जाये, ताकि वह वर्ग ही भाषिक उपनिवेश के निर्माण के काम में स्वनियुक्त सहयोगी की भूमिका में आ जाये।’ आज के भारत का मेट्रोपॉलिटन कल्चरल एलिट (महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन) इसी कूटनीति के तैयार की गयी सैन्यशक्ति का प्रतिरूप है, जो देशज भाषाओं के विध्वंस के लिए स्वयं को तैयार कर चुका है। वह स्वीकार कर चुका है कि अब अंग्रेजी ही इस महादेश की अपराजेय भाषा बन कर रहेगी। और वे इस ऐतिहासिक काम में अपना पूर्ण समर्थन और सहयोग देंगे। भारत का सारा इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया, इसीलिए अब इस वर्ग की ‘जीवन शैली’ का ‘शेष-भारत‘ को उनकी जीवन शैली में ढालने के लिए पूरी शक्ति से, ‘भाषा, भूषा, भोजन’ सभी को सर्वग्राही बनाने का काम कर रहा है। यहाँ यह याद दिलाना उचित ही होगा कि शीतयुद्ध के दौरान ‘समतावादी-विचार’ के विरूद्ध ‘लाइफ-स्टाइल’ शब्द को लगभग विस्फोटक की तरह इस्तेमाल किया गया था। वह ‘समानता’ को ढहा कर ‘विशिष्टता’ को प्रतिष्ठित करता था। दुर्भाग्यवश, अब वह शब्द हिन्दी के अखबारों के चमकीले और चिकने पन्नों पर छप रहे ‘परिशिष्टों’ का ‘मास्ट हेड’ है। इन्हीं परिशिष्टों पर पश्चिम के उस संस्कृति-उद्योग’ की ‘समरगाथा’ चल रही है, जो अंग्रेजी भाषा से नालबद्ध है। इसलिए तीसरी दुनिया के देशों में अंग्रेजी भाषा की एक विराट् मार्केटिंग चल रही है, जिसका बजट रक्षा बजटों से ऊपर है और वे ‘कल्चरल-इकोनामी’ की तरह जाना जाता है। उनका स्पष्ट कथन है कि ‘नाऊ वी डोण्ट इण्टर अ कण्ट्री विथ गनबोट्स, रादर विथ लैंग्विज एण्ड कल्चर।’ बाद इसके तो वे पाते हैं कि लोगों ने हँस-हँस कर उनकी गुलामी का वरण कर लिया है। 



उनकी रणनीति है कि वर्ग-निर्माण के समानान्तर हाइब्रिड-आर्गेनाइजेशन पैदा किये जायें, जो ’अनालोच्य’ रह कर अंग्रेजी के साम्राज्य के निर्माण में अपनी अचूक और असंदिग्ध भूमिका अदा करेंगे। 



भूमण्डलीकरण की हवा के बाद से तो यह बार-बार प्रचारित किया जा रहा है कि अब हिन्दी पढ़ कर तो कोई आगे बढ़ ही नहीं सकता। इसलिए प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी धन से जो ‘एज्युकेशन फॉर आल’ की मुहिम चलायी गयी है, उस धन की अघोषित शर्त ही ’इंग्लिश फॉर आल’ की है। इसीलिए, हमारे देशभक्त सैम पित्रौदा लगातार कहते आ रहे हैं कि पहली कक्षा से ही ‘अंग्रेजी की पढ़ाई’ शुरू की जाये - क्योंकि, यह मुहिम पहली कक्षा से ‘अंग्रेजी की पढ़ाई’ के बजाय पहली कक्षा से अंग्रेजी में पढ़ाई में बदल जायेगी। यह देवनागिरि लिपि को रोमन में निर्विघ्न ढंग से बदलने की सबसे सुरक्षित युक्ति है। क्योंकि जब बच्चा पहली कक्षा से ही यह जान लेगा कि उसके लिए रोमन लिपि सरल और देवरागरी लिपि कठिन है, तो वह पीढ़ी रोमन को श्रेष्ठ और उसे ही हमेशा के लिए अपनाने वाली पीढ़ी के रूप में तैयार हो जायेगी। 



जोशुआ फिशमैन की विचार सारिणी बताती है कि ’भाषा’ को भाषा समस्या नहीं, बल्कि ‘शिक्षा-समस्या’ बनाकर रखो तथा अंग्रेजी बनाम यूथ-कल्चर की प्रतीति होनी चाहिए। इसी फण्डे के तहत प्रायवेट एफ.एम. तथा टेलिविजन चैनलों पर हिन्दी की  भर्त्सना  करते हुए अंग्रेजी की श्रेष्ठता का बखान करने वाले इंग्लिश गुरूओं के प्रायोजित कार्यक्रम छाये हुए हैं। ये सभी मुक्त भारत के शिल्पी है, जो अपनी प्रायोजित हथौड़ियों से एक विराट संघर्ष के बाद आजाद हुए मुल्क में नये भाषा-उपनिवेश का प्रारूप उकेर रहे हैं। ये सब युवा वर्ग को ही संबोधित है, जिसके भीतर स्थानीय भाषा के प्रति हेय दृष्टि पैदा की जा रही है। अर्थात् अपनी ही भाषा तथा अपनी परम्परागत जीवन-शैली के प्रति नफरत, यूथ-कल्चर का नाम है। 



कुल मिलाकर, हिन्दी की मौज़ूदा स्थिति को देख कर उसकी लिपि को बदल कर, उसे ‘फ्रेशलिंग्विस्टिक‘ लाइफ देने वाला चमत्कारिक ‘आइडिया’ लेखक के भीतर कौंधा और उसी कौंध में उन्होंने यह लेख भी लिख डाला- यह सब एक ऐसी मासूमियत है, जिसका मर्म उसी महानगरीय अभिजन के हित में ही स्वाहा हो जाता है। हालांकि, उन्होंने, जिन्हें ऐतिहासिक शक्तियां कहा है, दरअस्ल वे अपनी अथाह पंूजी से तीसरी दुनिया के मुल्कों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ढांचे को निर्दयता से नष्ट करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ही हैं। अब उन्हें सिर्फ एक ही भाषा और एक ही लिपि चाहिए।



बीसवीं शताब्दी में उन्होंने एफ.एम. रेडियो टेलिविजन या कहें कि अपने विकराल सूचना और संचार तंत्र के जरिये जिस तरह अफ्रीकी भाषाओं को नष्ट किया, उसी आजमायी हुई युक्ति से वे यहाँ  की भाषाओं का क्रियोलीकरण करते हुए, उनका संहार करने की तैयारी में है। पहले स्थानीय भाषाओं के भीतर अपनी साम्राज्यवादी भाषा की शब्दावली को बढ़ाना और अंत में उस बास्टर्ड-लैंग्विज को रोमन में लिखने की शुरूआत करना उनका अंतिम अभीष्ट होता है, जिसे वे ‘फाइनल असाल्ट ऑन नेटिव लैंग्विज’ कहते हैं। और निश्चय ही, जब हम यह भाषा लिखेंगे कि ‘यूनिवर्सिटी द्वारा अभी तक स्टूडेण्ट्स को मार्कशीट इश्यू न किये जाने को लेकर कैम्पस में वी.सी. के अगेंस्ट, जो प्रोटेस्ट हुआ, उससे ला एण्ड आर्डर की क्रिटिकल सिचएशन बन गई’, तो इसे रोमन के बजाय पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ने वाला अंग्रेजी में ही लिखेगा-हिंग्लिश या क्रियोल हो चुकी हिन्दी में नहीं लिखेगा। 



दरअस्ल, भाषा के लिए संघर्ष अपने समूचे अर्थ में स्मृति के विनाश के विरूद्ध संघर्ष होता है। रोमन में हिन्दी की शुरूआत के थोड़े से ही वर्षों में नई पीढ़ी के लिए करोड़ों पुस्तकें किसी जादुई लिपि में लिखी हुई लगने लगेगी। उन्हें लाल कपड़े में लिपटी पवित्र पुस्तकों की तरह संग्रहालय में रख देना होगा। यह निहायत ही विडम्बनापूर्ण है, कि हम अपने अन्तर्विरोधों से सिर उठा कर जब भी ऊपर देखते हैं, तो हमें अपना मोक्षदाता सिर्फ अंग्रेजी और पश्चिम में ही दिखाई देता है। 



यह चिन्तन की दरिद्रता है कि भारत के वैचारिक भूगोल में तमाम लडाइयाँ  इतिहास के संदर्भ में इतिहास को दुरूस्त करने की सौगंध के साथ शुरू की जाती है। लिपि के निर्धारण में आजादी के बाद लिये गये निर्णय को भूल बता कर उसे सुधारने का आह्वान, एक किस्म की विदूषकीय बुद्धि ही लगती है। हमारी नियति यहीं है कि हम एक अंधेरे से निकल कर, अपने द्वारा गढ़े जाने वाले नये अंधेरे में  खुद को हाँकने लगते हैं। जब चित्रात्मक लिपि वाली जापानी और चीनी भाषाओं में बीसवीं शताब्दी का सारा, न केवल ज्ञान-विज्ञान आ सकता है, बल्कि वे स्वयं को विश्व के श्रेष्ठतम और सफल राष्ट्र की तरह दुनिया के सामने गर्व से खड़ा कर सकते हों, तब नागरी लिपि जैसी दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक और समर्थ लिपि को हमेशा-हमेशा के लिए विदा करना कौन-से विवेक का प्रमाणीकरण होगा। यह भारत लगता है वस्तुतः महाभारत ही है, जिसमें धृतराष्ट्र का अंधापन भी है और संजय की दिव्यदृष्टि भी है। लेकिन, संजय तो बहुराष्ट्रीय कम्पनी के चलाये जा रहे मुजरे के ‘आँखों देखा हाल’ के बखान के लिए तैयारी में जुटे हैं। का करियेगा ?






ये दुर्लभ चित्र : जिन्हें देख कर आप अवश्य भावुक हो उठेंगे



  ये  दुर्लभ  चित्र : जिन्हें  देख कर आप अवश्य भावुक हो उठेंगे

 

बलिदान दिवस (23 मार्च ) पर विनम्र विश्व का बलिदानी भारतीयों को शत शत प्रणाम



परिचय पढ़ने के लिए चित्र पर कर्सर ले जाएँ- 









27th Feb,1931 Allahabad first photo after Martyrdom

Alfarad Park Allahabad now Shaheed Azad Park where Azad was martyred one close up photo

The Village Hut where Martyr Azad was born on 23 July, 1906 at Village Bhanwara distt. Jhabua M.P

Mother of Martyr Azad

Azad with family of a friend Master Rudar Naryan

A Friend tactically took this Picture in1927

Rare Photo of Azad 1924




At the age of 21+ years 1929

At the age of 20 years
first police arrest 1927

At the Age of 17 years






                                                     At the age of 11 years

Chander Shekhar Azad
Shaheed Sukhdev
Shaheed Bhagwati Charan Vohra
Shaheed RajGuru
Shaheed Jatinder Nath Das
Shaheed Mahabir Singh
Shaheed Ashfaqu Ulla Khan
Shaheed Ramprashad Bismal
Shaheed Thakar Roshan Singh
Shaheed Rajinder Lehri
Shaheed Hari Kishan Sarhadi
Comrade Ajay Ghosh
Shahid Bhagat Singh's house
B K Dutt
Shahid Mohamed Singh Azad urf Udham Singh

रोमन कथा वाया बाईपास अर्थात् हिन्दी पर एक और आक्रमण

रोमन का रोमांस


श्री असगर वजाहत के इस आह्वान को स्वीकार करते हुए मुझे प्रसन्नता है कि 'आज समय का तकाजा है कि हम हिन्दी भाषा की लिपि पर विचार करें और इस संबंध में जनमत बनाने पर विचार करें।' मेरा खयाल है, विचार करने पर कोई नई बात सामने आती है, तभी जनमत बनाने का सवाल उठता है। स्वयं असगर ने बताया है कि इस प्रश्न पर पहले भी काफी विचार हुआ था, लेकिन इस प्रस्ताव के पक्ष में कभी हवा नहीं बनी कि हिन्दी भाषा को रोमन लिपि में लिखा जाए। दरअसल, यह प्रस्ताव कमजोर और तर्कहीन होने के अलावा इतना बोदा और क्रूर था कि इस पर गंभीरतपूर्वक विचार करना बुद्धि का अपमान होता। तब हिन्दी की स्थिति आज जैसी बुरी नहीं थी । शेर पर वार करना कठिन होता है। चींटी को तो कोई भी कुचल देगा। हिन्दी अब गरीब की भौजाई हो चुकी है। यही वजह है कि आज हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने की सलाह दी जा रही है।


इस सिलसिले में प्रगतिशील लेखक संघ आंदोलन द्वारा कभी दी गई यह सलाह दिलचस्प है कि सभी भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि स्वीकार कर लेनी चाहिए। इस सलाह के बारे मे ज्यादातर लोगों को मालूम नहीं है, वरना इस किस्म की प्रगतिशीलता की आलोचना करने का एक और कारण उपलब्ध हो जाता। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रगतिशील लेखक संघ आंदोलन के दौरान सभी भारतीय भाषाओं को रूसी लिपि अपनाने की सलाह दी गई थी और असगर वजाहत की याददाश्त उन्हें धोखा दे रही है? लेकिन हो सकता है, असगर ठीक ही कह रहे हों, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी, देश की दूसरी पार्टियों की तरह ही, अंग्रेजीपरस्त रही है। कम्युनिस्ट पार्टियों के सभी दस्तावेज आज भी अंग्रेजी में ही तैयार होते हैं। यहाँ तक कि नक्सलवादी समूहों के भी, जो जमीन से ज्यादा जुड़े हुए हैं। कम्युनिस्टों की इस परंपरा पर ज्यादा चिंता इसलिए प्रगट की जानी चाहिए कि वे अपने को देश भर में सबसे ज्यादा लाकतांत्रिक और जन-हितैषी भी मानते हैं। काश, जिन प्रगतिशील लोगों ने रोमन लिपि अपनाने की सलाह दी थी, उन्होंने अपनी सलाह पर खुद अमल करना शुरू कर दिया होता। भारत का समकालीन इतिहास अनेक मजेदार दृश्यों से वंचित रह गया।


कमाल अतातुर्क एकमात्र शासक थे, जिन्होंने अपने देश की भाषा तुर्की के लिए रोमन लिपि अपनाने का चलन शुरू किया। जैसा कि असगर वजाहत ने खुद बताया है, यह किसी जन आंदोलन का परिणाम नहीं था। न ही इसके लिए व्यापक विचार-विमर्श किया गया था। कमाल अतातुर्क के मात्र एक आदेश से इतना मूलभूत परिवर्तन हो गया। उन्होंने तुर्की को एक आधुनिक - उनकी आधुनिकता पूर्ण पश्चिमीकरण पर आधारित थी - राष्ट्र बनाने की दिशा में अथक प्रयास किया, पर तुर्की को रोमन में लिखने का आदेश तानाशाही का एक उदाहरण है। किसी भी शासक को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भाषा की लिपि बदल डाले। यह सुधार नहीं, ज्यादती है। शुक्र है कि किसी और देश के शासक या शासकों ने यह ज्यादती दुहराने की हिम्मत नहीं की। यह भारत के नए तानाशाह मिजाज का ही एक उदाहरण है कि हिन्दी की लिपि बदलने की मुहिम शुरू हो गई दिखती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि या तो यह तानाशाही रहेगी या नागरी रहेगी।


दुख को कैसे खुशी में बदला जा सकता है, इसका उदाहरण भी असगर वजाहत के इस लेख में मिलता है। लेख के पहले भाग में बार-बार यह रोना रोया गया है कि हिन्दी की हालत रोज-ब-रोज खस्ता होती जा रही है। यह न अकादमिक भाषा बन सकी, न प्रशासनिक। विश्व भाषा बनने का तो सवाल ही नहीं उठता। हाँ, विज्ञापन जगत ने हिन्दी को जरूर अपना लिया है, जिसके बारे में बताया गया है कि यह तेरह हजार करोड़ रुपए का उद्योग है। लेकिन 'महत्वपूर्ण बात यह है कि विज्ञापन की भाषा में हिन्दी तो आई है, पर नागरी लिपि नहीं आई। विज्ञापन की हिन्दी रोमन लिपि में ही सामने आती है।' लेकिन इसमें खुश होने की बात क्या है? विज्ञापनदाता ठहरा व्यापारी। उसे न भाषा से मतलब है न लिपि से। वह सिर्फ एक भाषा जानता है - रुपए पर छापे गए अंकों की। उसके लिए भाषा की अपनी ध्वनियों का कोई महत्व नहीं है। वह सिर्फ एक ही ध्वनि को पहचानता है, वह है सिक्के की ठनठन। उसे तो अपना माल बेचना है। कल अगर भोजपुरी भारत की राष्ट्रभाषा हो गई, तो उसके विज्ञापन भोजपुरी में दिखाई-सुनाई देने लगेंगे। क्या अब वही हमारा एकमात्र पथ-प्रदर्शक रह गया है?


यह सूचना मानीखेज है कि '...पिछले पचीस-तीस सालों में हिन्दी समझनेवालों की संख्या में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है लेकिन नागरी लिपि का ज्ञान उतनी तेजी से नहीं बढ़ा है।' इस भयावह तथ्य के दो पहलू हैं। पहली बात का संबंध भारत में शिक्षा के कम फैलाव से है। जब भारत में साक्षरता निम्नतम स्तर पर थी, तब भी हिन्दी समझनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा थी, पर नागरी लिपि जाननेवाले बहुत कम थे। लोग रामचरितमानस और कबीर वाणी पढ़ते नहीं थे, सुनते थे। कहते हैं, कबीर तो नागरी क्या, किसी भी लिपि में नहीं लिख सकते थे, हालाँकि इस पर मुझे यकीन नहीं है। आज अगर देश में हिन्दी समझनेवालों की संख्या ज्यादा है, पर हिन्दी लिख सकनेवालों की संख्या कम, तो इसका मतलब यह है कि अब भी साक्षरता की कमी है। इतने करोड़ लोगों का हिन्दी जानना, पर उसकी लिपि से अपरिचित रहना कोई स्वाभाविक घटना नहीं है, लोगों को पिछड़ा रखने के राष्ट्रीय षड्यंत्र का नतीजा है।


दूसरा पहलू भी कम चिंताजनक नहीं है। सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, सैम पित्रोदा और प्रकाश करात जैसे लोग हिन्दी समझ लेते हैं, पर हिन्दी न ठीक से पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं। इनकी तिजारत हिन्दी से चलती है, इसलिए ये हिन्दी में बोल लेते हैं, पर हिन्दी के भले से इन्हें कोई मतलब नहीं है। टीवी पर विचार-विमर्श के दौरान अंग्रेजीदाँ लोगों को हम अकसर टूटी-फूटी हिन्दी में अपनी बात रखते हुए सुनते हैं। यह उनका हिन्दी-प्रेम नहीं, व्यावसायिकता का दबाव है। टीवी और एफएम चैनलों में भी तमाम फैसले अंग्रेजी में होते हैं, पर गाया-बजाया हिन्दी में जाता है। लेकिन हिन्दी प्रदेश के नेताओं का, जो अमूमन अंग्रेजी नहीं जानते, हाल भी अच्छा नहीं है। जहाँ तक मुझे पता है, लालू-मुलायम-मायावती जैसे नेता, जिनकी रोटी ही हिन्दी से चलती है, दो-चार लाइनें हिन्दी में भले ही लिख लें, पर बारह शब्दों की एक लाइन में पाँच में से सात गलतियाँजरूर होंगी। यह दुरवस्था किसी भी अन्य भारतीय भाषा में नहीं है। जहाँ तक भारत को त्याग कर विदेश में रहनेवाले तथाकथित सफल लोगों का सवाल है, उन्हें न अपने देश से प्यार है, न अपनी भाषा से। उनकी मजबूरी यह है कि भारत के अपने 'कम विकसित' रिश्तेदारों से संवाद करने के लिए हिन्दी में लिखना पड़ता है। यही वे विदेशी भारतीय हैं जो रोमन में हिन्दी लिखते हैं। रोमन में हिन्दी लिखवाने का कुछ दोष हिन्दीवालों का भी है। उन्होंने न वर्तनी का मानकीकरण किया न कंप्यूटर के कुंजी पटल का। ऐसे में और हो ही क्या हो सकता था? पर इस कारण हम भगोड़ों की नकल क्यों करने लगें? क्या हमें पागल कुत्ते ने काटा है?



मैं ठीक से नहीं जानता कि भाषा और लिपि का संबंध किस तरह का है। मुझे इतना जरूर पता है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा छपनेवाली किताब बाइबल, जो मूल रूप से हिब्रू (ओल्ड टेस्टामेंट) और ग्रीक (न्यू टेस्टामेंट) में है, का अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है, तो उस भाषा की लिपि को भी स्वीकार किया गया है। भारत की सभी भाषाओं में बाइबल का अनुवाद हो चुका है, पर एक भी अनुवाद रोमन लिपि में नहीं छपा है। यह फर्क तिजारत और राजनीति तथा समाज और संस्कृति का है। व्यापारी उस भाषा का इस्तेमाल करता है जिस भाषा में माल ज्यादा बिक सकता है। इसीलिए न केवल हिन्दी में अंग्रेजी डाली जा रही है (ये दिल माँगे मोर) बल्कि अंग्रेजी में भी हिन्दी डाली जा रही है -सन बोले हैव फन। । पत्रकारिता में टाइम्स ऑफ इंडिया ने सबसे पहले यह भाषाई संकरता शुरू की थी। अब उसकी नकल लगभग सारे अखबार कर रहे हैं । अंग्रेजी और वर्नाकुलर, दोनों का मजा एक साथ। कीमत सिर्फ तीन रुपए।


यह शुद्ध भ्रम है कि रोमन में लिखने से हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ेगी और उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल सकेगी। कहते हैं, एक अधेड़ आदमी को नजदीक का चश्मा देते हुए डाक्टर ने कहा, अब आप आसानी से पढ़-लिख सकते हैं। वह आदमी बहुत खुश हुआ। उसने जवाब दिया, आपकी मेहरबानी से यह सहूलियत हो गई, वरना मैं तो अनपढ़ हूं। चश्मा किसी को साक्षर नहीं बना सकता। मुझे नहीं लगता कि रोमन में लिखी हिन्दी को अमेरिका के ओबामा या फ्रांस के सरकोजी समझ जाएँगे। यही बात रोमन में लिखी चीनी या जापानी के बारे में भी कही जा सकती है। नागरी में लिखी उर्दू हम कुछ-कुछ समझ लेते हैं, क्योंकि इतनी उर्दू हमें पहले से ही आती है। यह जरूर है कि नागरी में लिखने पर विदेशियों को हिन्दी पढ़ाना आसान हो जाएगा, पर यह हमारा इतना बड़ा सरोकार क्यों हो कि हम अपनी लिपि ही बदल डालें? इसके पहले क्या यह जरूरी नहीं है कि हिन्दी बोलनेवालों को हिन्दी पढ़ा दी जाए? तब हो सकता है कि असगर वजाहत के खूबसूरत उपन्यासों और कहानियों को पढ़नेवालों की तादाद बढ़ जाए।


यह बात सही नहीं है कि 'नागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि भविष्य में चुनौतियाँ देगी।' ये चुनौतियाँ नहीं होंगी, नागरी लिपि के साथ बलात्कार होगा। इसे स्वीकार कर लेने के पीछे यही मनोभाव हो सकता है कि बलात्कार को रोक नहीं सको, तो उसका मजा लेना शुरू कर दो। इसी तरह यह व्याख्या भी उचित नहीं है कि 'ऐतिहासिक शक्तियाँ परिवर्तन की भूमिका निभाती रहेंगी।' ऐसा कहने के पीछे इतिहास की प्रभुतावादी अवधारणा है। हो सकता है, ऐतिहासिक शक्तियों ने भारत को अंग्रेजों का गुलाम बनाया, पर वे शक्तियाँ भी कम ऐतिहासिक नहीं थीं जिन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगा कर छोड़ा। 'अंग्रेजी हटाओ आंदोलन' के पीछे ऐतिहासिक शक्तियाँ हैं, तो कामनवेल्थ खेलों जैसी गुलामी की परंपरा को ढोनेवाली घटना के पीछे भी ऐतिहासिक शक्तियाँ हैं। सवाल यह है कि हमें किन ऐसिहासिक शक्तियों का साथ देना चाहिए और किन ऐतिहासिक शक्तियों का विरोध करना चाहिए। मार्क्स के अनुसार, इतिहास की गति इकहरी नहीं, द्वंद्वात्मक है। इतिहास उससे उलटी दिशा में भी जा रहा है जिसकी ओर असगर वजाहत ने संकेत किया है। इसका एक प्रमाण यह है कि जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ, तो उसका चार्टर पाँच भाषाओं (चीनी, फ्रेंच, अंग्रेजी, रूसी और स्पेनिश) में लिखा गया था। पर 1980 में अरबी को भी राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाना पड़ा।

एक बात मैं जरूर मानता हूँ और चाहता भी हूँ। किसी एक भाषा को विश्व भाषा बनाया जाना चाहिए। पता नहीं यह कभी संभव होगा या नहीं। जिस दिन यह होगा, वह दिन 'विश्व मानवता दिवस' मनाने लायक होगा। हो सकता है, उस भाषा की एक ही लिपि हो। तब तक मैं जीवित रहूँगा, तो इसका हार्दिक स्वागत करूँगा। एस्पेरेंटो को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने का प्रयोग किया गया है, पर यह प्रयास अभी भी शैशवावस्था में है। नोम चॉम्स्की की यह स्थापना सही है कि दुनिया की सभी भाषाओं का मूल ढांचा एक है। ऐसा इसलिए है कि दुनिया का ढांचा भी सभी जगह एक ही है। इस आधार पर भाषाई एकता की कल्पना की जा सकती है। जरूरी नहीं कि वह लिपि रोमन ही हो। किसी भी कसौटी का इस्तेमाल करें, नागरी लिपि रोमन लिपि से ज्यादा वैज्ञानिक है। यों ही नहीं था कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने अपनी वसीयत का एक हिस्सा अंग्रेजी भाषा को सुधारने के लिए रख छोड़ा था।


लेकिन आज के वातावरण में, जब अंग्रेजी और रोमन लिपि भारत में विध्वंसक की भूमिका निभा रही हैं तथा सभी भारतीय भाषाओं का भविष्य खतरे में है, हिन्दी को या कि किसी भी अन्य भारतीय भाषा को रोमन लिपि अपनाने की सलाह देना कटे में नमक छिड़कने की तरह है। मैं तो इसी विचार के विरोध में ही जनमत बनाने की कोशिश करूँगा। मैं समझता हूँ, यही वैज्ञानिक भी है। आज रोमन लिपि का इस्तेमाल करनेवालों के हाथ में विज्ञान की नियामतें केंद्रित हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि अमेरिका, इंग्लैंड या दूसरे यूरोपीय देश जो कुछ कर रहे हैं, वह भी वैज्ञानिक है। ऐसी वैज्ञानिकता से खुदा बचाए।
राजकिशोर

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पाठकों की अदालत में अपने दोषी या निर्दोष होने की अपील

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आतंकवादी ऐसे बनाती है पुलिस



मुझे इस बात के लिए माफ किया जाए कि मैं कई बार अपने खिलाफ चल रहे मामले की चर्चा कर चुका हूँ । मामला अब भी अदालत में हैं और वहाँ जो फैसला होगा सो होगा, मैं अपने पाठकों की अदालत में अपने दोषी या निर्दोष होने की यह अपील कर रहा हूँ ।


2005 के फरवरी महीने में दिल्ली के डिफेंस कॉलोनी थाने में मेरे खिलाफ एक मामला दर्ज हुआ था एफआईआर कहती है कि हेड कांस्टेबल मोहम्मद लोनी और हेड कांस्टेबल सलीम डिफेंस कॉलोनी क्षेत्र का दौरा कर रहे थे। वहाँ एक सिंह न्यूज एजेंसी पर उनकी नजर सीनियर इंडिया नामक पत्रिका पर पड़ी जिसके मुख पृष्ठ पर बापू की वासना शीर्षक से एक लेख छपा था। सलीम और लोनी को एफआईआर के अनुसार बहुत उत्सुकता हुई और उन्होंने पत्रिका पढ़ना शुरू कर दिया। अंदर सातवें पन्ने पर नीचे एक तीन पैराग्राफ का लेख था जिसका शीर्षक था `अपने अपने भगवान', जिसमें एक छोटी-सी फोटो भी छपी थी जिसमें पगड़ी पर पटाखा  बना हुआ था।


एफआईआर के अनुसार फोटो बहुत छोटा था लेकिन फिर भी इन गुणी हवलदारों ने पढ़ लिया कि पगड़ी के माथे पर कुरान की पहली आयत ला इलाह इल्लिलाह, या रसूल अल्लाह अरबी भाषा में लिखा है। दिल्ली पुलिस में अरबी भाषा के इतने विद्वान को सिर्फ हवलदार बना कर रखा गया है। यह हैरत की बात है एफआईआर कहती है कि कार्टून छापना मुस्लिम समुदाय का अपमान करना है और लेख की भाषा भी मुस्लिम संप्रदाय के खिलाफ है। इसलिए यह धारा 295 के तहत किया गया गंभीर अपराध था। इसकी सूचना सब इंस्पेक्टर के पी सिंह को दी गई और के पी सिंह ने थाने से एक बजे रवानगी डाल कर 22 फरवरी 2006 को खुद डिफेंस कॉलोनी में यह पत्रिका देखी और अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी जानकारी दी। वरिष्ठ अधिकारी यानी दिल्ली पुलिस के पुलिस आयुक्त डॉक्टर कृष्ण कांत पॉल तैयार बैठे थे। उन्होंने तुरंत दिल्ली के उप राज्यपाल के नाम एक संदेश बनाया जिसमें पत्रिकाएँ जब्त करने और संपादक यानी मुझे गिरफ्तार करने की अधिसूचना जारी करने का अनुरोध था। अधिसूचना फौरन जारी कर दी गई और इसे श्री पॉल ने गृह मंत्रालय से भी जारी करवा दिया। 


मेरे जिस लेख पर मुस्लिम भावनाएँ भड़कने वाली थीं, उसके तीन पैरे भी लगे हाथ पढ़ लीजिए। मैने लिखा था- हाल ही में पैगंबर हजरत मोहम्मद जो इस्लाम के संस्थापक हैं, के डेनमार्क में कार्टून प्रकाशित होने पर बहुत हंगामा और बहुत जुलूस निकले। इस अखबार ने इसके पहले जीसस क्राइस्ड के कार्टून छापने से इंकार कर दिया था क्योंकि उसकी राय में यह आपत्तिजनक हैं। 


इसके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का बयान आया जिसमें कहा गया कि वे डेनमार्क के साथ है और यूरोप तथा अमेरिका मे रहने वाले सभी इस्लाम धर्म के अनुयायियों को स्थानीय जीवन शैली और रिवाज मानने पड़ेंगे। सिर्फ इस बयान से जाहिर हो जाता है कि अमेरिका के असली इरादे क्या है? अमेरिका अपने स्वंयभू बुद्विजीवियों की मदद से संस्कृतियों के टकराव का सिद्वांत प्रचारित करने में लगा हुआ है और इस तरह के बयानाें के बाद किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि और भी जगह चिंगारिया भड़के। तथ्य यह है कि धर्म का मूल प्रश्न तेल और जमीन के मामले से हट कर अब धर्म के मूल आधार का माखौल उड़ाने पर आ कर
टिक गया है और स्वाभाविक है इस्लामी शक्तियां इसे पसंद नहीं करेगी। यह ठीक है कि किसी भी धर्म की महानता इस बात में निहित है कि वह मजाक को कितना सहन कर सकता है मगर यदि कोई धर्म या उसके अनुयायी इसे मंजूर नहीं करते तो उन्हें अपने रास्ते छोड़ देना चाहिए। 


यह वह लेख था जिसे इस्लामी भावनाए आहत करने वाला बताया जा रहा था। रातों रात मुझे गिरफ्तार किया गया, रात को तीन बजे तक पूछताछ की गई। पूछा गया कि डेनमार्क वाला यह कार्टून कितने में और कहां से खरीदा था? पूछने वाले एक पढ़े लिखे आईपीएस अधिकारी थे जिन्हें पता था कि इंटरनेट पर चार बटन दबाने से सारे कार्टून सामने आ जाते हैं और इन पर कोई कॉपीराइट नहीं है। मगर साहब तो बड़े साहब यानी के के पॉल का हुक्म बजा रहे थे और पॉल इसलिए दुखी थे क्योंकि हमने उनके वकील बेटे को दिल्ली पुलिस द्वारा वांछित तमाम अभियुक्तों को अदालत में बचाते और औकात से कई गुनी ज्यादा फीस वसूलते पकड़ लिया था।


तिहाड़ जेल में बारह दिन बंद रहने के बाद जमानत मिली और जमानत के आदेश में एक एक पैरा पर टिप्पणी की गई थी कि इससे कोई मुस्लिम भावना आहत नहीं होती। मगर पॉल तब भी दिल्ली पुलिस के आयुक्त थे और उनके आदेश पर जमानत रद्द करने की अपील की गई जो अब भी चल रही है। दिलचस्प बात यह है कि एफआईआर लिखवाने के लिए भी के के पॉल दो मुस्लिम हवलदारों को ले कर आए। अदालत में कहा गया कि इस लेख पर दंगा हो सकता है इसलिए अभियुक्त यानी मुझे सीधे तिहाड़ जेल भेज दिया जाए। यह सब गृह मंत्री शिवराज पाटिल की जानकारी में हो रहा था और यह बात खुद पाटिल ने बहुत बाद में अपने घर मेरे सामने स्वीकार की। संसद में सवाल किया गया मगर कोई जवाब नहीं मिला। कई पेशियाँ  हो चुकी हैं। एक सीधे सपाट मामले में चौदह जाँच अधिकारी बदले जा चुके हैं। जो चार्ज शीट दाखिल की गई है उसे अदालत ने बहस के लायक नहीं समझा। सबसे गंभीर धारा 295 उच्च न्यायालय ने पाया कि इस मामले में लागू ही नहीं होती। मगर मामला चल रहा है। 


मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ बहुत सारे मामले इन्हीं धाराओं में चले और खारिज होते रहे। हुसैन का बहुत
नाम हैं और उनका एक दस्तखत लाखों में बिकता है। मगर निचली से ले कर उच्च न्यायालय तक अब तक लाखों रुपए मैं अदालती ताम झाम में खर्च कर चुका हूँ । अब तो उच्च न्यायालय ने उस मामले को जिसमें मेरी गिरफ्तारी इतनी अनिवार्य मानी गई थी, साधारण सूची में डाल दिया है जिसमें तारीख दस साल बाद भी पड़ सकती है। आप ही बताए कि भारत की न्याय प्रक्रिया में मेरा विश्वास क्यों कायम रह जाना चाहिए? अभी तक तो कायम हैं लेकिन न्याय के नाम पर सत्ता और प्रतिष्ठान जिस तरह की दादागीरी करते हैं उसी से आहत और  हताश हो कर लोग अपराधी बन जाते हैं। 


दिलचस्प बात यह भी है कि मुझ पर इस्लाम के खिलाफ मामला भड़काने का आरोप लगा था। फिर भी तिहाड़ जेल में मुझे उस हाई सिक्योरिटी हिस्से में रखा गया जहाँ जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैयबा के खूंखार आतंकवादी भी मौजूद थे। ईमानदारी से कहे तो आतंकवाद के आरोप में बंद ये लोग पुलिस से ज्यादा इंसानियत बरतते नजर आए और उन्होंने बहुत गौर से मेरी बात सुनी और अपने साथ बिठा कर खाना खिलाया। फिर भी भारत सरकार का मैं अभियुक्त हूँ । उस सरकार का जो उस संविधान से चलती हैं जहाँ  अभिव्यक्ति की आजादी और न्याय नागरिक का मूल अधिकार है।

आलोक तोमर 

"सन्नाटे का छंद" : दुर्लभ डॉक्यूमेंट्री (अज्ञेय) : पहली बार नेट पर

 सन्नाटे का छंद  

 अज्ञेय जी से सीधा दृश्य-संवाद  :  जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेष
 कविता वाचक्नवी 


गत दिनों स्वर- चित्रदीर्घा के पाठकों के लिए कवि अज्ञेय के स्वर में  काव्यपाठ ( असाध्यवीणा ) प्रस्तुत किया था, जिसे मित्रों ने बहुत रोमांचकारी अनुभव की भाँति लिया| आज उस से और आगे बढ़ते हुए  अज्ञेय जी को साक्षात देख - सुन पाने का यह क्रम प्रस्तुत  कर रही हूँ | मुझे तो इन वीडियो में अज्ञेय जी को देखना अत्यंत  दुर्लभ रोमांच से भर गया|  उनकी कविता की प्रौढ़ता और गद्य की गंभीरता के अनुभवों के बीच से आगे बढ़ते आते, यकायक आज पर आ कर उन्हें  अपने सृजन के बहाने मन में झाँकते देखने का यह विरल अवसर पहली बार देखने पर आप को भी  मेरी तरह आलोड़ित करेगा व उनकी रचना प्रक्रिया को समझने की एक दृष्टि भी देगा | हर  नए पुराने  रचनाकार के लिए ये अनुभव पाथेय सिद्ध हो सकते हैं |


हिन्दी काव्यधारा के एक शीर्ष रचनाकार अज्ञेय की जन्मशताब्दी पर देश विदेश में बसे उनके प्रशसकों के लिए इला डालमिया  की ओर से ( ५ भागों में प्रस्तुत यह वृत्तचित्र  ( डॉक्यूमेंट्री ) एक विनम्र श्रद्धांजली तो है ही, साथ ही  समूचे काव्यजगत् / साहित्यजगत् को एक अनूठी  भेंट भी है|

उनके प्रति आभार व्यक्त करते  हुए साहित्यिक सेवा में प्रस्तुत हैं क्रमशः वे पाँचों भाग -


1)  :             एक  तनी  हुई  रस्सी  है जिस पर मैं नाचता हूँ   




2)  :          समाज में आने के लिए मुझे काफी प्रयत्न करना पड़ा


 



3)  :              मेरी घूमने की प्रवृत्ति और आज़ादी का आकर्षण









4)  :                   कवि एक साथ ही पुरुष और स्त्री दोनों होता है

 



5)   :   यों मत छोड़ दो मुझे, सागर! यों मत छोड़ दो  ...    











पंद्रह साल से क्या होगा

पंद्रह साल से क्या होगा



संसद में अल्पसंख्यकों के अलावा और किसी प्रकार का आरक्षण नहीं होना चाहिए, यह मानते हुए भी मेरी समझ में नहीं आता कि स्त्रियों के लिए आरक्षण के जिस विधेयक पर इतना शोर बरपा हुआ है, उसकी अवधि सिर्फ पंद्रह साल क्यों है। मजे की बात यह है कि इस पंद्रह साल वाले प्रावधान पर कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। मानो आरक्षण कोई हीरा हो जो अभी मिल रहा है तो ले लो -- पंद्रह साल बाद जब यह हीरा काँच में बदल जाएगा तब देखा जाएगा! लेनेवालों की जैसी मानसिकता है, पानेवालों की मानसिकता भी उससे कुछ कम अल्पकालिक नहीं लगती। महिला आरक्षण को सिर्फ पंद्रह साल तक सीमित करके (जिसमें दो या तीन टर्म तक ही साटें आरक्षित हो सकेंगी) सत्तारूढ़ दल ने यह साबित कर दिया है कि उसकी मंशा राजनीति में कोई टिकाऊ परिवर्तन लाना नहीं, बल्कि स्त्रियों को लॉलीपॉप थमा कर अपने को महिला-हितैषी साबित कर देना भर है।



संसद और विधान सभाओं में महिला आरक्षण की तुलना अकसर पंचायतों में महिलाओं को दिए गए आरक्षण से की जाती है। लेकिन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। खास तौर पर दो बातें गौर करने लायक हैं। पहली बात यह है कि पंचायतों में आरक्षण की कोई समय-सीमा तय नहीं की गई है। यानी जब तक पंचायतें हैं, तब तक उनमें महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण मिलता रहेगा। अपने आपमें यह व्यवस्था भी ठीक नहीं है, क्योंकि कुछ समय के बाद सामाजिक स्थितियाँ ऐसी हो जानी चाहिए कि पंचायत में चुने जाने के लिए किसी स्त्री को आरक्षण की बैसाखी की जरूरत न रह जाए। परमानेंट आरक्षण किसी भी वर्ग को पंगु ही बनाएगा। दूसरी तरफ, विधायिका में महिला आरक्षण की अवधि इतनी छोटी रखी गई है कि इससे सामाजिक समानीकरण को कोई विशेष फायदा नहीं पहुंचेगा। पंद्रह साल तो देखते-देखते बीत जाएँगे। उसके बाद महिलाएँ ठगी गई-सी महसूस करेंगी। तब फिर एक अभियान चलाया जाएगा कि आरक्षण की अवधि को और बढ़ाया जाए। यह काम अभी ही क्यों नहीं हो सकता?



दूसरी बात यह है कि गाँवों की सत्ता संरचना में फर्क इसलिए नहीं आया है कि एक-तिहाई सीटों पर महिलाएँ चुनी जा रही हैं। ज्यादा फर्क इस बात से आया है कि महिलाओं के लिए आरक्षण सभी पदों पर भी लागू किया गया है। यानी गाँव, ब्लॉक और जिला, तीनों स्तरों पर सभी पदों (अध्यक्ष और उपाध्यक्ष) का तैंतीस प्रतिशत भी महिलाओं के लिए आरक्षित है। किसी गाँव पंचायत में एक-तिहाई पंच महिलाएँ हैं, इसकी बनिस्बत यह ज्यादा असरदार होता है कि कोई महिला सरपंच हो। जहाँ भी उल्लेखनीय परिवर्तन आया है, इसलिए आया है कि सरपंच कोई महिला थी। इसके विपरीत, प्रस्तुत महिला आरक्षण विधेयक में सिर्फ सीटें आरक्षित की जा रही हैं, पद नहीं। इससे भी परिवर्तन होगा, लेकिन ज्यादा और तेज परिवर्तन इससे होगा कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, स्पीकर और मंत्रियों के पदों में भी एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाएँ। संसद और विधान सभाओं की सदस्यता में से कुछ हिस्सा महिलाओं के लिए छोड़ देना भी त्याग है, लेकिन असली त्याग तो वह कहलाएगा जो सत्ता के वास्तविक केंद्रों में किया जाएगा। प्रधानमंत्री के रूप में यह मनमोहन सिंह का दूसरा टर्म है। तीसरा टर्म किसी महिला को क्यों नहीं मिलना चाहिए ? क्या सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का कलेजा इतना बड़ा है?



अगर इस तर्क को मान लिया जाता है कि आरक्षण का उद्देश्य समानता लाना है, ताकि एक निश्चित समय के बाद किसी को भी आरक्षण की जरूरत न रह जाए, तो इस 'निश्चित समय' को परिभाषित करना भी जरूरी है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संसद में आरक्षण दिया गया था तो इसकी अवधि दस साल रखी गई थी। इसके पीछे उम्मीद यह थी कि दस साल में इन समूहों के लिए इतना सघन काम किया जाएगा कि इन्हें संसद में आने के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन आलम यह है कि हर दस साल के बाद संविधान में संशोधन कर आरक्षण की अवधि को बढ़ाया जाता रहा है। अब महिलाओं को सिर्फ पंद्रह वर्षों के लिए आरक्षण दिया जा रहा है। क्या यह अवधि ऊँट के मुंह में जीरे की तरह नहीं है ? मेरा अनुमान यह है कि यह अवधि पचीस साल से कम नहीं होनी चाहिए।



यह सुझाव मान लेने पर यादव बंधुओं को भी खुश किया जा सकता है। यों कि इन पचीस वर्षों में पहले दस वर्ष की आधी (मैं तो कहूँगा, सारी की सारी) सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित कर दी जाएँ। दस वर्ष की इस अवधि में ओबीसी कल्याण के लिए भरपूर प्रयास किए जाएँ। उसके बाद सारी आरक्षित सीटें सभी वर्गों के लिए खोल दी जाएँ। अगर इस पर भी यादव बंधु राजी नहीं होते हैं, तो इस फार्मूले के आधार पर महिला आरक्षण विधेयक पारित कर दिया जाए, चाहे इसके लिए मार्शल का ही सहारा क्यों न लेना पड़े।



आरक्षण अपने आपमें कोई लक्ष्य नहीं है। यह सामाजिक समता स्थापित करने का एक साधन है। इसलिए आरक्षण की अवधि का उपयोग महिलाओं की स्थिति को पुरुषों के समकक्ष लाने का आंदोलन चलाने के लिए होना चाहिए। यह आंदोलन सरकारी और गैरसरकारी, दोनों स्तरों पर चलाना होगा। तभी महिला आरक्षण टोटका मात्र न रह कर परिवर्तन का एक सक्षम औजार बन सकेगा। फिलहाल तो इसकी हैसियत झुनझुने से ज्यादा नहीं है।
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राजकिशोर

शमा पर क्यों जलते हैं परवाने




शमा पर क्यों जलते हैं परवाने


दाग का एक शेर इस विषय पर सटीक बैठता है जो उन्होंने तेरह वर्ष की उम्र में लिखा था :

शमा ने सर पे रखी आग कसम खाने को
बखुदा जलाया नहीं मैंने परवाने को।
तब परवान जला कैसे? परवाना खुद ही अपनी आग में जल गया। कम से कम शमा ने परवाने को नहीं जलाया। मैंने जब यह शेर पढ़ा था तब मैं कालेज में विज्ञान का विद्यार्थी था। मैंने भी सोचा कि परवाने को क्या पड़ी थी शमा पर जल जाने की। प्रकृति परवानों के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकती। तब यह क्या रहस्य है कि परवाने प्रकृति के नियमों के विरूद्ध शमा पर जल जाते हैं? मैंने सोचा कि परवानों को विशेषकर नर और मादा को रात में ही मिलना होता है तब वे किस तरह एक दूसरे से मिल सकते हैं। जब पतंगे शमा की लव के पास आते हैं तब वे अधिकांशतया उसमें सीधे न जाकर उसकी परिक्रमा अंडाकार में करते हैं कुछ उसी तरह कि जिस तरह पुच्छलतारे सूर्य के आकर्षण से खिचे चले आते हैं किन्तु परिक्रमा अंडाकार में करते हैं। उस समय मुझे नहीं मालूम था कि मादा कीट अपनी विशेष गंध के कण हवा में छोड़ती है। और नर अपनी तीव्र घ्राण शक्ति के बल पर उसे सैकड़ों मीटर दूर से सूंघ लेता है। मैंने सोचा था कि नर और मादा दोनों प्रकाश के तीव्र स्रोत के पास पहुँचते हैं अथार्त शमा उनका मिलन विन्दु होता है। वे वहाँ  अंडाकार में परिक्रमा करते हैं किन्तु कुछ परवाने अपनी व्याकुलता में और मिलन की आशा की तेजी में शमा से टकरा जाते हैं।
सक्रिय वैज्ञानिक और अधिक गहराई में सोचते हैं क्योंकि उन्हें अपनी अवधारणा को प्रयोगों द्वारा सिद्ध भी करना पड़ता है। जां हैनरी फाव्र उन्नीसवीं शती के बहुत प्रसिद्ध कीट विज्ञानी हो गये हैं। मई की एक सुबह उनके घर में अपने कोश में से एक अति सुन्दर पतंगा निकला। उसकी जाति का नाम ही सुन्दर है ‘ग्रेट पीकाक’ ‘बड़ा मयूर’। उन्होंने इसे तुरंत ही जली कक्ष में बन्द कर दिया। उस कक्ष की एक खिड़की खुली रह गई थी। रात के नौ बजे उस कमरे में पतंगे ही पतंगे भर गये यही कोई चालीस पतंगे। वे सब नर पतंगे थे जो उस नवयौवना ग्रेट पीकाक से मिलने आये थे। फाव्र ने प्रश्न किया कि वे पतंगे वहां किस तरह आये उन्हें मादा की उपस्थिति कैसे ज्ञात हुई? रात का अंधेरा थाク खिड़की भी हारियाली से ढंकी हुई थी और पतंगे पक्षियों की तरह गाना भी नहीं गाते। तब फाव्र ने सोचा कि इतनी सारी गंधों के बीच उनकी गंध भी काम नहीं कर सकती। अतएव अवश्य ही मादा ने कोई बेतार के समान संदेश भेजा होगा। उस समय बेतार द्वारा संदेश भेजना बहुत लोक प्रिय हो रहा था। फाव्र की इस अवधारणा को वैज्ञानिकों ने मान्यता नहीं दी किन्तु बाद में इस अवधारणा का एक अन्य रूप में जन्म होता है। फाव्र रात में पतंगों को देखने के लिये जब मोमबत्ती लेकर गये थे तब सारे पतंगे मादा के जालीदार कक्ष को छोड़कर मतवालों की तरह बत्ती की तरफ भागे थे। फाव्र को पतंगों का यह विचित्र व्यवहार समझ में नहीं आया कि क्योंकर पतंगे मादा को छोड़कर बत्ती के पास जाना चाहेंगे?  

पतंगों की कृत्रिम प्रकाश स्रोतों के लिये यह व्याकुलता वैज्ञानिकों की समझ में नहीं आती। पतंगे इस दुनिया में करोड़ों वर्षाें से हैं जब कि कृत्रिम प्रकाश स्रोत कुछ लाख वर्षों से ही हैं। अथार्त पतंगे करोड़ों वर्षों से बिना कृत्रिम प्रकाश के सफलतापूर्वक मिलते आये हैं। 1930 के दशक के अन्त में कीट विशेषज्ञ वान बुडेनब्रॉक ने एक अवधारणा प्रस्तुत की। पतंगे रात में दिकचालन के लिये चंद्रमा का उपयोग करते हैं। वे चन्द्रमा को एक उपयुक्त कोण पर रखकर उड़ते हैं और इस तरह वे सीधी रेखा में उड़ सकते हैं। पतंगे बत्ती को उपयुक्त परिस्थिति में चन्द्रमा समझ बैठते हैं। और उन्होंने आगे कहा कि जब वे ऐसा करेंगे तब वे उस बत्ती की परिक्रमा ही करेंगे न कि सीधी रेखा में उड़ेंगे और उनकी उड़ान कुण्डलीकार हो जायेगी तथा अन्त में वे बत्ती में जायेंगे। पतंगे का बत्ती की चांद मानकर उड़ने में गोलाकार या दीर्घगोलाकार उड़ान भरना तो गणित से सिद्ध किया जा सकता है किन्तु छोटी होती हुई कुण्डली में उड़ना तर्कसंगत नहीं है। 

इस दिशा में अंग्रेज कीट विज्ञानी राबिन बेकर ने बहुत चतुर प्रयोग किये। उन्होंने सिद्ध किया कि उजियारी रातों में ‘लार्ज यलो अडरविंग’ ‘विशाल पीत पंख’ जाति के पतंगे चांद की सहायता से सीधी रेखा में उड़ते हैं। उस प्रयोग में उन्होंने चांद के प्रकाश को एक विशाल पर्दे की सहायता से रोका था और देखा था कि तुरंत ही पतंगे भटकने लगे थे। उसी प्रयोग में जब चाँद घने वृक्षों के पीछे छिपा तब उन्होंने उपयुक्त स्थान पर एक बल्ब जलाया और तब उन पतंगों ने अपनी दिशा बदल दी थी। पतंगे ऐसा तब ही करते हैं जब कृत्रिम प्रकाश उन्हें चांद की तरह दिखे जो कि बत्ती के आकार और माप तथा पतंगे से दूरी और कोण पर निर्भर करता है।
  
एक अन्य कीट विज्ञानी एच एस सियाओ ने एक चतुर प्रयोग किया और सिद्ध किया कि अधिकांश पतंगे कृत्रिम स्रोत के चारों तरफ कुण्डलाकार में नहीं उड़ते वरन वे प्रकाश के निकट दो तरफ जाते हैं। पतंगे पकड़ने वाले पतंगे पकड़ने के लिये इस युक्ति का उपयोग करते हैं और दो बड़े थैलों में उन्हें एकत्रित करते हैं। किन्तु इस अवधारणा से यह समझ में नहीं आता कि पतंगे शमा की लव में अपने को क्यों जला देते हैं।
1960 के दशक में कीट विज्ञानी फिलिप कैलाहन ने इस विषय पर एक विचित्र अवधारणा प्रस्तुत की : मादा द्वारा छोड़े गये सुगiन्धत फैरोमोन के कण अवरक्त किरणों का विकिरण करते हैं। इन कणों पर जब रात की निम्न ऊर्जा वाली परावैंगनी किरणें गिरती हैं तब वे फैंरोमोन के कण उसे (पराबैंगनी किरणों को) अवरक्त किरणों में बदलकर पुनर्विकरित करते हैं। अवरक्त किरणों को हम ताप के रूप में अनुभव करते हैं। नर पतंगे इन किरणों के लिये विशेष संवेदनशील होते हैं और वे इन किरणों के सहारे मादा तक पहुंचते हैं। कैलाहन ने यह अवधारणा पतंगों के एंटैनाओं के सूक्ष्म वैज्ञानिक अध्ययन के बाद प्रस्तुत की थी। कैलाहन ने प्रस्तुत किया कि पतंगे शमा या बुनसैन बर्नर या मोमवत्ती पर आकर्षित होते हैं क्योंकि इनकी अवरक्त किरणें मादा द्वारा विकिरित किरणों के समान होती हैं। किन्तु नर पतंगे कोलमैन लैन्टर्न की तरफ आकर्षित नहीं होते। कैलाहन ने प्रयोगों द्वारा दशार्या कि इन लैंटर्न की अवरक्त किरणें बुनसैन बर्नर या मोमवत्ती द्वारा विकिरित किरणों से नितान्त भिन्न  होती हैं।

अधिकांश वैज्ञानिक कैलाहन की अवधारणा से सहमत नहीं हैं। अभी तक कैलाहन या अन्य वैज्ञानिक ने प्रयोगों द्वारा नहीं दशार्या है कि मादा द्वारा छोड़े गये फैरोमोन कणों से विशिष्ट अवरक्त किरणें विकरित होती हैं। साथ ही टौरेन्टो विश्वविद्यालय के मार्टिन मस्कोवित्स के तर्क है कि एक तो मादा ऐसे अनेक फैरोमेन कण हवा में छोड़ती है जिसके फलस्वरूप नर पतंगों को एक के स्थान पर सैकड़ों मादाएं दिखेंगी। और दूसरे अवरक्त किरणों से सारा वातावरण भरा पड़ा है अतएव पतंगों को मादा की वह विशेष अवरक्त किरण ढूढ़ने में बहुत कठिनाई होगी। उनका पहला तर्क तो सही है किन्तु दूसरा तर्क सही नहीं है क्योंकि उस विशेष अवरक्त किरण को पकड़ने के लिये प्रकृति एक विशेष फिल्टर बना सकती है जैसे रंगों से भरी दुनिया में कीट विशेष रंग चुन लेते हैं। प्रसिद्ध विज्ञान लेखक जे इन्ग्रैम का कहना है कि कैलाहन की अवधारणा यह तथ्य भी नहीं समझा पाती कि पतंगे अन्त में दिये की लव से हटकर थोड़े दूर क्यों चले जाते हैं।

जहाँ  विज्ञान ने ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति जैसे गूढ़ रहस्यों की खोज में आश्चर्यजनक प्रगति की है वहीं विज्ञान ने इस रहस्य को रहस्य ही रहने दिया है। विज्ञान में खोज करने के लिये अवसर हमेशा होते हैं।
                        विश्वमोहन तिवारी,  पूर्व एयर वाइस मार्शल

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