हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध


पुस्तक चर्चा : ऋषभदेव शर्मा




हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध*





साहित्य विमर्श की ऐतिहासिक कसौटी के रूप में प्रायः परंपरा, युगबोध और रचनाक्षण की चर्चा की जाती है। विशेष रूप से युगबोध को किसी रचना की शाश्वतता और समकालीनता को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। युगीनपरिस्थिति यों और उनके प्रभावस्वरूप परिवर्तित जनता की चित्तवृत्ति साहित्यिक आंदोलनों, विधाओं तथा प्रवृत्तियों के परिवर्तन के लिए आधार प्रदान करती हैं। यही कारण है कि आधुनिक काल में तीव्रता से बदलते हुए परिवेश और उसके प्रति सामान्य नागरिक से लेकर रचनाकार तक की प्रतिक्रियाके परिवर्तनशील स्वरूप के कारण अनेक प्रकार के बदलाव हिंदी साहित्य में परिलक्षित किए जा सकते हैं। इसीलिए किसी विधा विशेष और युगबोध के आपसीसंबंध का अध्ययन करना अत्यंत रोचक और चुनौतीपूर्ण कार्य है। डॉ. मृगेंद्र राय ने अपने शोधग्रंथ ‘हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध’ (2008) में इसी चुनौती का सामना किया है और आधुनिक काव्य नाटकों को पारंपरिक नाट्य प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर परीक्षित करते हुए इस विधा के भावी संकेतों को समझने की कोशिश की है।



इस कृति में हिंदी के महत्वपूर्ण काव्य नाटकों के स्वरूप, उनमें निहित युगबोध, उनकी विशिष्ट रचनात्मक भूमिका और मंचन की संभावनाओं के विविध आयामों पर विशद विवेचन किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि स्वातंत्र्योत्तर हिंदी काव्य नाटकों में कथ्य और शिल्प की अन्यान्य नूतन सरणियों के साथ युगचेतना की गहन संपृक्ति और दायित्वपूर्ण सरोकारों पर विशेष बल दिया गया है।


स्वातंत्र्योत्तर काव्य नाटकों का ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन करने के लिए डॉ. मृगंेद्र राय ने समकालीन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण उपजे युगबोध को सफलतापूर्वक कसौटी बनाया है। वे मानते हैं कि इस
काल में जैसे-जैसे मोहभंग की स्थिति स्पष्ट होती गई वैसे-वैसे काव्य नाटकों के रचनाकार भी तत्कालीन परिस्थिति से असंतुष्ट और क्षुब्ध होकर युगीन विसंगतियों और विकृतियों को रूपायित करने के प्रति सचेत होते गए। इसमें संदेह नहीं कि इस काल में युवा पीढ़ी ने जिस बेचैनी और छटपटाहट का अनुभव किया, देश के आम जन के मन में भ्रष्ट राजनीति के प्रति जो आक्रोश क्रमशः उग्र होता गया, परंपरागत मूल्यों और नैतिक आस्थाओं के प्रति जिस प्रकार की भ्रमपूर्ण स्थिति बनती गई, उस सबसे निर्मित बीसवीं शती के उत्तरार्ध के युगबोध को तत्कालीन हिंदी काव्य नाटकों में सफल और सशक्त अभिव्यक्ति मिली। लेखक के अनुसार डॉ. धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ इस विकास क्रम में सर्वाधिक सशक्त काव्य नाटक है।


इस के बाद 1960 से 1975 के मध्य मोहभंग के साथ बौद्धिक आग्रह के बढ़ने का परिणाम यह हुआ कि लोग विज्ञान, वैश्विकता और स्थानीयता के संदर्भ में भारतीय परंपराओं और मूल्यांें के पुनः परीक्षण की जरूरत महसूसने लगे। दूसरी ओर जनवाद के आकर्षण ने साहित्य में आमआदमी को प्रतिष्ठित किया। यही वह समय था जब मनोविज्ञान से लेकर अस्तित्ववाद तक की विविध विचारधाराएँ स्वतंत्र भारत को आंदोलित कर रही थीं। इससे निर्मित नए युगबोध को नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’ और ‘महाप्रस्थान’, दुष्यंत कुमार ने ‘एक कंठ
विषपायी’ तथा विनोद रस्तोगी ने ‘सूत पुत्र’ जैसे काव्य नाटकों के माध्यम से व्यक्त किया। लेखक ने दिखाया है कि इन रचनाकारों ने युद्ध की समस्या, शासन और जनता के संबंध, निरंकुश सामंती व्यवस्था के विरुद्ध जनतंत्र की
चेतना तथा जातिगत रूढ़ियों के दारुण परिणामों को गहरी संसक्ति के साथ उभारा है।


1975 के बाद व्यवस्था और जनता का संघर्ष जिस रूप में भारतीय लोकतंत्र में मुखर हुआ, लेखक ने तत्कालीन काव्य नाटकों में उसकी अभिव्यक्ति के उदाहरण के रूप में प्रभात कुमार भट्टाचार्य के ‘काठमहल’, ‘पे्रत शताब्दी’, ‘आगामी आदमी’, महेंद्र कार्तिकेय के ‘प्रतिबद्ध’ और ‘खंडित पांडुलिपि’ तथा अनूप अशेष के ‘अंधी यात्रा में’ जैसे काव्य नाटकों को युगीन सत्य की मार्मिक अभिव्यंजना में समर्थ माना है। इसी प्रकार वे यह स्पष्ट करते हैं कि देवेंद्र दीपक कृत ‘भूगोल राजा का खगोल राजा का’ आपात्काल की त्रासदी को बड़ी सफलता से व्यंजित करता है।


इस प्रकार लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि हिंदी काव्य नाटकों में विशेष रूप से स्वातंत्र्योत्तर काल में सामाजिक संपृक्ति, दायित्व चेतना, वैज्ञानिक बोध, नारी मुक्ति, जनचेतना, शोषितों की पक्षधरता, कुशासन के प्रति विद्रोह, परंपरा और मूल्यांे के पुनर्परीक्षण तथा इतिहास चेतना की कार्य कारण प्रक्रिया पर पुनर्विचार जैसी प्रवृत्तियों के माध्यम से युगबोध को व्यापक अभिव्यक्ति का अवसर मिला है।


इससे यह भी स्पष्ट हुआ है कि यद्यपि अपने समकालीन परिवेश की विशेषताओं से अवगत होने को युगबोध कहा जाता है तथापि साहित्य का युगबोध एकांतिक नहीं होता, वह अतीत और भविष्य दोनों में आवाजाही करता दीखता है। यही कारण है कि युगबोध से गहरे जुड़े हुए काव्य नाटक साहित्य का न तो विषय क्षेत्र ही सीमित या एकायामी है और न ही रूप किसी एक खाँचे में बँधा हुआ है। बल्कि अपने समय की जमीन पर पैर जमाए हुए ये रचनाकार अपनी वस्तु का चयन पौराणिक, मिथकीय, ऐतिहासिक, लोककथात्मक, यथार्थवादी और वैज्ञानिक क्षेत्रों से करते हैं और उसके सहारे किसी युगीन समस्या को उद्घाटित करते हैं। यह समस्या ‘अंधायुग’ की तरह वैश्विक और राजनैतिक भी हो सकती है तथा ‘उर्वशी’ की तरह मानसिक और आध्यात्मिक भी।


लेखक ने विचारधाराओं और युगबोध के संबंध को भी ध्यान में रखा है। माक्र्सवाद, अस्तित्ववाद,मनोविश्लेषणवाद आदि की जो ध्वनियाँ इन काव्य नाटकों में सुनाई पड़ती हंै वे इस बात का उदाहरण है कि कोई सिद्धांत जब रचनात्मक रूप में कृति में गुँथा हुआ होता है तो उसकी संपे्रषणीयता बढ़ जाती है। यहाँ दिनकर की रचना ‘उर्वशी’ का उल्लेख किया जाता है कि नर नारी संबंध के विषय में इस कृति में रचनाकार ने कामाध्यात्म के जटिल दर्शन को सहज संपे्रषणीय बनाकर प्रस्तुत किया है। अपने समय की अन्य कृतियों के बीच ‘उर्वशी’ इसलिए भी विशिष्ट है कि इसके कवि की रचनात्मक मानसिकता छायावादोत्तर काल की है और उसमें राष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टियों का घनत्व लक्षित किया जा सकता है। यही कारण है कि इसमें मिथकीय पात्रों की संवेदना का वह आधुनिक रूप नहीं मिलता जो ‘अंधायुग’, ‘महाप्रस्थान’ और ‘संशय की एक रात’ जैसी रचनाओं में मिलता है। लेखक की मान्यता है कि दिनकर की ‘उर्वशी’ का कामाध्यात्म पुनरुत्थान के संदर्भ में एक नया बोध है, एक स्वतंत्र नवीन मूल्य की स्थापना है, जिसमें अतीत की ग्राह्य सामग्री ‘अनासक्ति’ और ‘निष्काम भाव’, नवीन की भौतिकता में अपने लौकिक प्रवृत्तिमय रूप के साथ मिलकर ‘विश्वबंधुत्व’ के विस्तार का आलोक समेटे हुए है।


जैसा कि आरंभ में ही कहा गया कि युगबोध की अभिव्यक्ति वस्तु चयन के स्तर पर ही नहीं होती, बल्कि शिल्पगत प्रयोग भी उसे प्रकट करते हंै। आधुनिक मानसिकता का यह प्रतिफलन काव्य नाटकों के शिल्प में भी दिखाई देता है। आधुनिक काव्य नाटकांे के मुख्यतः तीन वर्ग हंै जो क्रमशः पुराकथा, इतिहास और वर्तमान समस्याओं के यथार्थ पर आधारित हंै। ये आधार निश्चय ही आधुनिक युगबोध से पे्ररित हैं। इसी प्रकार ये काव्य नाटक मंच विधान संबंधी नए प्रयोगों को ध्यान में रखकर रचे गए है जिस कारण आधुनिक युगबोध इनमें शिल्पित दिखाई देता है। लेखक ने लक्षित किया है कि मंच की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आधुनिक काव्य नाटकों में स्वगत कथनों के बहिष्कार की प्रवृत्ति बढ़ी है। साथ ही कविता की लयात्मकता और गद्य की प्रभावशीलता को अर्थ पर विशेष बल देते हुए साधने का प्रयास दिखाई देता है। इतना ही नहीं, भाव के आधार पर पात्र की लय का परिवर्तन भी अत्यंत महत्वपूर्ण शिल्पगत प्रयोग है। इसी प्रकार समकालीन विषय पर आधारित काव्य नाटकों में भाषा की काव्यात्मकता क्रमशः कम होती गई है और गद्यात्मकता का आधिक्य दिखाई देता है। लेखक का मत है कि भाषा की बिंबात्मकता ऐसे अवसर पर विशेष नाटकीयता उत्पन्न करती है। इस प्रकार डॉ. मृगेंद्र राय की ‘‘हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध’’ शीर्षक इस कृति को वस्तु और शिल्प के स्तर पर स्वातंत्र्योत्तर काव्य नाटकों की उपलब्धियों को युगबोध के निकष पर परखने वाली प्रामाणिक शोध कृति माना है। इसमें संदेह नहीं कि लेखक के निष्कर्ष मौलिक और भावी शोध को नई दिशा प्रदान करने वाले हंै। निश्चय ही, हिंदी जगत में इस वैदृष्यपूर्ण ग्रंथ को पर्याप्त सम्मान प्राप्त होगा।


*हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध /
डॉ.मृगेंद्र राय /
नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
23, दरियागंज, दिल्ली-110 002 /
संस्करण 2008 / 595 रुपये /
३३२ पृष्ठ सजिल्द।


एक पत्र पढने का सुयोग


एक पत्र पढने का सुयोग




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क.वा.





मित्रो



“नरसी भगत” नाम की फिल्म में हेमंत कुमार आदि का गाया “दरशन दो घनश्याम नाथ” भजन बहुत लोकप्रिय हुआ है। रचनाकार जाने माने कवि गोपाल सिंह नेपाली हैं। इस भजन के बोल पत्र के अन्त में दे रहा हूं।


नेपाली जी द्वारा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना “उर्वशी” का बंगला से हिन्दी में सुन्दर अनुवाद/भाष्यांतर १९६० में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में देखा तो मुझे इतना अच्छा लगा कि पूरी लम्बी कविता को कण्ठस्थ कर लिया। तब मुझे बंगला नहीं आती थी। नेपाली जी ने कई हिन्दी फिल्मों के लिये गाने लिखे हैं और उनका नाम बम्बई के साहित्यकारों में अनजाना नहीं होना चाहिये।


इधर लगभग ६-८ सप्ताह से एक फिल्म “स्लमडौग मिलियनेयर” की बहुत चर्चा सुन रहा था। लोग कहते थे कि इसे सर्वश्रेष्ठ चलचित्र की श्रेणी में ऑस्कर के लिये मनोनीत किये जाने की संभावना है। सो, चार दिन पहले अपने राम बहुत दिनों के बाद एक सिनेमा हॉल में घुस गये इसे देखने के लिये।


संभव है कि यह औसत हिन्दी फिल्मों की अपेक्षा अच्छी फिल्म कहलाये। कुछ कैमरा तकनीक के आधार पर, कुछ निर्देशन के कारण। लेकिन कुछ बातें ऐसी खलीं कि सिनेमा हॉल से निकलते समय मन थोड़ा खिन्न था कि ऐसा अनुभव नहीं हुआ जिसकी भीतर जाते समय कल्पना की थी।


बाकी बातें अलग, ई-कविता में यह सब लिखने का उद्देश्य यह है कि फिल्म में एक प्रश्न उठाया गया कि “दरशन दो घनश्याम नाथ” यह भजन लिखने वाले कवि कौन थे। चार विकल्प दिये गये: सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, और कबीर। फिर बताया गया कि सही उत्तर है: सूरदास। ऐसा लगता है कि फिल्म के साहित्यिक सलाहकार (ऐसा कोई व्यक्ति होता होगा, नहीं तो होना चाहिये) महाशय ने सूरदास की रचना “अँखियां हरि दर्शन की प्यासी” कभी देखी होगी और वो उससे भ्रमित हो गये। कारण चाहे जो हो, एक गंभीर व महत्त्वाकांक्षी चलचित्र के निर्माता से ऐसी भूल अपेक्षित नहीं है। एक ओर तो नेपाली जी को उनकी रचना के लिये उपयुक्त श्रेय नहीं मिल, दूसरी ओर अब इस फिल्म के माध्यम से और तत्पश्चात अन्तर्जाल पर लोगों को तथ्य से दूर रखा जा रहा है।

पाठकों से निवेदन है कि वे विचार करें कि क्या इसका प्रतिवाद करना उचित व आवश्यक है और, यदि हां, तो किस प्रकार?

- घनश्याम




दरशन दो घनश्याम नाथ मोरी, अँखियाँ प्यासी रे

मन मंदिर की ज्योति जगा दो, घट घट बासी रे

मंदिर मंदिर मूरत तेरी

फिर भी ना दीखे सूरत तेरी

युग बीते ना आई मिलन की

पूरणमासी रे ...

द्वार दया का जब तू खोले

पंचम सुर में गूंगा बोले

अंधा देखे लंगड़ा चल कर

पहुँचे कासी रे ...

पानी पी कर प्यास बुझाऊँ

नैनों को कैसे समझाऊँ

आँख मिचौली छोड़ो अब

मन के बासी रे ...

निबर्ल के बल धन निधर्न के

तुम रखवाले भक्त जनों के

तेरे भजन में सब सुख पाऊँ

मिटे उदासी रे ...

नाम जपे पर तुझे ना जाने

उनको भी तू अपना माने

तेरी दया का अंत नहीं है

हे दुख नाशी रे ...

आज फैसला तेरे द्वार पर

मेरी जीत है तेरी हार पर

हार जीत है तेरी मैं तो

चरण उपासी रे ...

द्वार खड़ा कब से मतवाला

मांगे तुम से हार तुम्हारी

नरसी की ये बिनती सुनलो

भक्त विलासी रे ...

लाज ना लुट जाये प्रभु तेरी

नाथ करो ना दया में देरी

तीन लोक छोड़ कर आओ

गंगा निवासी रे ...



तालिबान पर मेहरबान




15 लाख लोग अब 8वीं और 9वीं शताब्दी में धकेल दिए जाएँगे। लड़कियों के स्कूल बंद कर दिए जाएँगे। सारी औरतों को बुर्का पहनना पड़ेगा। सड़क पर वे अकेली नहीं जा सकेंगी। स्कूटर और कार चलाने का तो सवाल ही नहीं उठता। छोटी-मोटी चोरी करनेवालों के हाथ काट दिए जाएँगे। मर्द चार-चार औरतें रख सकेंगे। बात-बात में लोगों को मौत की सजा दी जाएगी। ये सारे काम स्वात में पहले से हो रहे हैं। स्वात के मिंगोरा नामक कस्बे में एक चौक का नाम ही खूनी चौक रख दिया गया है, जहाँ लगभग एक-दो सिर कटी लाशें रोज ही टाँग दी जाती हैं।

तालिबान पर मेहरबान
डॉ. वेदप्रताप वैदिक

पाकिस्तान सरकार की क्या इज्जत रह गई है ? क्या कोई उसे संप्रभु राष्ट्र की सरकार कह सकता है ? राष्ट्रपति जरदारी अमेरिकी टीवी चैनल से एक दिन कहते हैं कि तालिबान पाकिस्तान पर बस अब कब्जा करनेवाले ही हैं। वे सबसे बड़ा खतरा हैं। और दूसरे दिन वे तालिबान के आगे घुटने टेक देते है। स्वात घाटी में तालिबान के साथ 10 दिन के युद्ध-विराम समझौते पर दस्तखत कर देते है। पता ही नहीं चलता कि वे आतंकवाद से युद्ध लड़ रहे है या हाथ मिला रहे है। या तो पहले दिन वे झूठ बोल रहे थे या अब वे कोरा नाटक कर रहे हैं।


शायद वे दोनों कर रहे हैं। पहला बयान झूठा इसलिए था कि पाकिस्तानी फौज के मुकाबले तालिबान आतंकवादी मच्छर के बराबर भी नहीं है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर के सभी आतंकवादियों की संख्या कुल मिलाकर 10 हजार भी नहीं है। उनके पास तोप, मिसाइल, युद्धक विमान आदि भी नहीं हैं। वे फौजियों की तरह सुप्रशिक्षित भी नहीं हैं। लगभग 14 लाख फौजियों और अर्द्ध-फौजियोंवाली पाकिस्तानी सेना दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी सेना है। इतनी बड़ी सेना को 10 हजार अनगढ़ कबाइली कैसे पीट सकते हैं ? जो सेना भारत जैसे विशाल राष्ट्र के सामने खम ठोकती रहती है, जिसने धक्कापेल करके अफगानिस्तान को अपना पाँचवाँ प्रांत बना लिया था, जो जोर्डन के शाह की रक्षा का दम भरती रही है, वह तालिबान के आगे ढेर कैसे हो सकती है ? जिस सेना को बलूचिस्तान और सिंध के लाखों बागी डरा नहीं सके, वह क्या कुछ पठान तालिबान के आगे से दुम दबाकर भाग खड़ी होगी ? जरदारी का बयान सच्चाई का वर्णन नहीं कर रहा था, वह अमेरिकियों को धोखा देने के लिए गढ़ा गया था। जरदारी यदि तालिबान का डर नहीं दिखाएँगे तो अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को मदद क्यों देगी ? तालिबान का हव्वा खड़ा करके भीख का कटोरा फैलाना जरा आसान हो जाता है।


यदि तालिबान सचमुच इतने खतरनाक थे तो जरदारी सरकार को चाहिए था कि वह उन पर टूट पड़ती, खास तौर से तब जबकि ओबामा के विशेष प्रतिनिधि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में थे। लेकिन हुआ उल्टा ही। स्वात घाटी और मलकंद संभाग के क्षेत्र में अब शरीयत का राज होगा। तहरीके-निफाजे-शरीयते-मुहम्मदी के नेता सूफी मुहम्मद को इतनी ढील बेनजीर और नवाज ने कभी नहीं दी थी, जितनी जरदारी ने दे दी है। सूफी ने अपना शरीयत आंदोलन तालिबान के पैदा होने के पहले से शुरू कर रखा था। अफगानिस्तान में अमेरिकियों के आने के बाद सूफी की तहरीक में हजारों लोग शामिल हो गए। मुशर्रफ-सरकार ने सूफी को पकड़कर जेल में बंद कर दिया था। लेकिन उसे पिछले साल एक समझौते के तहत रिहा कर दिया गया। पाकिस्तानी सरकार मानती है कि सूफी नरमपंथी है और उसे थोड़ी-सी रियायत देकर पटाया जा सकता है। उसे मलकंद के तालिबान के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है। मलकंद के तालिबान के नेता हैं, मौलाना फजलुल्लाह, जो कि सूफी के दामाद हैं। पिछले साल पाकिस्तान सरकार के साथ हुए छह सूत्री समझौते को जब फजलुल्लाह ने तोड़ा तो सूफी ने फजलुल्लाह से कुट्टी कर ली लेकिन लगता है कि ससुर-दामाद ने अब यह नया नाटक रचा है।



स्वात के समझौते का यह नाटक पाकिस्तान की सरकार को काफी मँहगा पड़ेगा। इस समझौते के तहत सरकारी अदालतें हटा ली जाएँगी। उनकी जगह इस्लामी अदालतें कायम होंगी। जजों की जगह काजी बैठेंगे। वे शरीयत के मुताबिक इंसाफ देंगे। उनके फैसलों के विरूद्ध पेशावर के उच्च-न्यायालय या इस्लामाबाद के उच्चतम न्यायालय में अपील नहीं होगी। दूसरे शब्दों में स्वात के लगभग 15 लाख लोग अब 8वीं और 9वीं शताब्दी में धकेल दिए जाएँगे। लड़कियों के स्कूल बंद कर दिए जाएँगे। सारी औरतों को बुर्का पहनना पड़ेगा। सड़क पर वे अकेली नहीं जा सकेंगी। स्कूटर और कार चलाने का तो सवाल ही नहीं उठता। छोटी-मोटी चोरी करनेवालों के हाथ काट दिए जाएँगे। मर्द चार-चार औरतें रख सकेंगे। बात-बात में लोगों को मौत की सजा दी जाएगी। ये सारे काम स्वात में पहले से हो रहे हैं। स्वात के मिंगोरा नामक कस्बे में एक चौक का नाम ही खूनी चौक रख दिया गया है, जहाँ लगभग एक-दो सिर कटी लाशें रोज ही टाँग दी जाती हैं। लगभग पाँच लाख स्वाती लोग अपनी जान बचाकर वहाँ से भाग चुके हैं। तालिबान ने घोषणा कर रखी है कि उस क्षेत्र के दोनों सांसदों के सिर काटकर जो लाएगा, उसे 5 करोड़ रू. और जो सात विधायकों के सिर लाएगा, उसे दो-दो करोड़ का इनाम दिया जाएगा। स्वात के जो निवासी ब्रिटेन और अमेरिका में नौकरियाँ कर रहे हैं, उनके रिश्तेदारों को चुन-चुनकर अपहरण किया जाता है और उनसे 5-5 और 10-10 लाख की फिरौती वसूल की जाती है। तालिबान के आतंक के कारण स्वात, जिसे एशिया का स्विटजरलैंड कहा जाता था, अब लगभग सुनसान पड़ा रहता है। पर्यटन की आमदनी का झरना बिल्कुल सूख गया है। यह स्वात, जिसे ऋग्वेद में सुवास्तु के नाम से जाना जाता था और जो कभी आर्य ऋषियों की तपोभूमि था, आज तालिबानी कट्टरपंथ का अंधकूप बन गया है। प्राचीन काल के अनेक अवशेषों को कठमुल्ले तालिबान ने ध्वस्त कर दिया है। इस्लाम के नाम पर वे इंसानियत को कलंकित कर रहे हैं। वे सिर्फ स्वात पर ही नहीं, पूरे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और भारत पर भी अपना झंडा फहराना चाहते हैं। स्वात के तालिबान कोई अलग-थलग स्वायत्त संगठन नहीं हैं। वे बेतुल्लाह महसूद के तहरीक़े-तालिबाने-पाकिस्तान के अभिन्न अंग है। यह महसूद वही है, जिसे बेनजीर भुट्टो का हत्यारा माना जाता है। आसिफ जरदारी की मजबूरी भी कैसी मजबूरी है ? अपनी बीवी के हत्यारों से उसे हाथ मिलाना पड़ रहा है।


इससे भी ज्यादा लज्जा की बात यह है कि यह समझौता सरहदी सूबे की नेशनल आवामी पार्टी की देख-रेख में हुआ है। आवामी पार्टी अपने आपको सेक्युलर कहती है। यह बादशाह खान, उनके बेटे वली और उनके पोते असफंदयार की पार्टी है। इस पार्टी ने हमेशा मजहबी कट्टरवाद के खिलाफ जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं। पिछले साल के आम चुनावों में अवामी पार्टी ने सारी मजहबी पार्टियों के मोर्चे को पछाड़कर पेशावर में अपनी सरकार कायम की है। यह सरकार पीपल्स पार्टी के समर्थन से चल रही है। जनता का इतना बड़ा समर्थन होते हुए भी आवामी पार्टी को तालिबान के आगे घुटने क्यों टेकने पड़ रहे हैं ? अवामी पार्टी का कहना है कि इस समझौते के कारण आम आदमियों को न्याय मिलने में आसानी होगी और प्रशासन सुचारू रूप से चल सकेगा।


आवामी पार्टी का यह आशावाद साबुन के झाग-जैसा है। इसमें कोई दम दिखाई नहीं देता। यह तर्क बहुत बोदा है कि इस पहल के कारण तालिबान में फूट पड़ जाएगी और यह समझौता पाकिस्तान में नई सुबह का आगाज करेगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी कह रहे हैं कि यह संवाद, विकास और सजा की त्रिमुखी नीति है। इस समझौते के कारण तालिबान से संवाद कायम हो रहा है। वास्तव में यह समझौता पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अन्य तालिबान की हौसला-आफजाई करेगा। वजीरिस्तान के जिन तालिबान ने पिछले साल डेढ़ सौ फौजियों को गिरफ्तार कर लिया था, अब उनके हौंसले पहले से भी अधिक बुलंद हो जाएँगें। तालिबान को अब समझ में आ गया है कि पाकिस्तानी फौज के घुटने कैसे टिकाएँ जाते हैं। ध्यान रहे कि पिछले तीन-चार साल में जितने भी समझौते तालिबान के साथ हुए हैं, वे सब बीच में ही टूटते रहे और उस ढील का फायदा उठाकर तालिबान ने अफगानिस्तान में अपनी आतंकी गतिविधियों को काफी जोर-शोर से बढ़ा दिया।


इस समझौते से अमेरिका और भारत दोनों ही खुश नहीं हो सकते। ओबामा ने अपने विशेष प्रतिनिधि रिचर्ड होलब्रुक को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और भारत आखिर किसलिए भेजा था ? क्या इसलिए नहीं कि वे मालूम करें कि अल-क़ायदा और तालिबान का समूलोच्छेद कैसे करें ? पाक और अफगान सरकार के हाथ कैसे मजबूत करें लेकिन होलबु्रक क्या सबक अपने साथ लेकर गए ? तालिबान का नाश करनेवाली पाकिस्तानी सरकार उन्हीं तालिबान के साथ बैठकर एक ही थाल में जीम रही है। होलब्रुक को बताया गया कि अफगानिस्तान में फौजें बढ़ाने की क्या जरूरत हैं ? देखिए न, स्वात में तो हमने तालिबान को पटा ही लिया है। अब यही मॉडल हम पूरे सरहदी सूबे और बलूचिस्तान में भी लागू कर देंगे और हामिद करजई चाहें तो वे भी अपने तालिबान-प्रभावित प्रांतों में यही कर सकते हैं। जो काम बोली से हो सकता है, उसके लिए गोली क्यों चलाई जाए ? यह चकमा ओबामा-प्रशासन क्यों खाएगा ? होलब्रुक को पता चल गया है कि तालिबान और पाकिस्तानी फौज का चोली-दामन का साथ है। उनकी मिलीभगत है। वे कभी-कभी नूरा कुश्ती का नाटक भी रचाते हैं ताकि दुनिया उन पर पैसे उछाले लेकिन यह खेल अब लंबा चलनेवाला नहीं है। यह असंभव नहीं कि होलब्रुक पर इस मामले का उलटा असर पड़ा हो। यदि वे पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की चालबाजी ठीक से समझ गए तो अब उन्हें पाक-अफगान गुत्थी को सुलझाने के लिए एकदम नई रणनीति पर विचार करना होगा। ओबामा-प्रशासन ने दक्षिण एशियाई विशेषज्ञ ब्रूस राइडल को 60 दिनों में जो नई पाक-अफगान नीति तैयार करने का ठेका दिया है, उस काम में स्वात-समझौता अपना अलग योगदान करेगा। स्वात-समझौता फौज और तालिबान की मिलीभगत का ठोस प्रमाण हैं। ब्रूस राइडल को यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि पाकिस्तान की फौज और सरकार तालिबान आतंकवादियों से अपने दम-खम पर कभी नहीं लड़ेगी। वह उनसे खुले या गुप्त समझौते करते रहेगी।


जैसे मुंबई-हमले के सवाल पर अमेरिकी डंडा बजते ही जरदारी-सरकार ने सच उगल दिया, वैसे ही जब तक अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को सीधी कार्रवाई की धमकी नहीं देगी या मदद बंद करने का डर पैदा नहीं करेगी, तालिबान दनदनाते रहेंगे। यह कड़वा सच है लेकिन इसे ओबामा-प्रशासन को मानना होगा कि पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान और तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें गहरी सांठ-गाँठ है। पाकिस्तान की बेकसूर जनता और भोले नेताओं में इतना दम नहीं कि वे इस सांठ-गाँठ को तोड़ सकें। वे बेचारे तो अपने उच्चतम न्यायालय में इतिखार चौधरी को भी वापस नहीं ला पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में अमेरिका को यह भूलना होगा कि पाकिस्तान आतंकवादी-विरोधी युद्ध में उसका सहयोद्धा है। वास्तव में वह आतंकवाद-विरोधी युद्ध में भितरघाती की भूमिका निभा रहा है। भितरघाती को सहयोद्धा समझने की भूल बुश-प्रशासन निरंतर करता रहा। इसी का परिणाम है कि मुशर्रफ की बिदाई के बावजूद पाकिस्तान के लोगों पर फौज का शिकंजा अभी तक ढीला नहीं पड़ा है। अमेरिका उसी फौज की मांसपेशियों का मजबूत बनाता रहा, जो तालिबान को प्रश्रय देती रही और पाकिस्तान के लोकतंत्र की जड़ें खोदती रही। यदि अमेरिका चाहता है कि दक्षिण एशिया से आतंकवाद का उन्मूलन हो, पाकिस्तान में स्वस्थ लोकतंत्र कायम हो और पाकिस्तान की जनता सुख-चैन से जी सके तो उसे पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान को गहरे शक की नजर से देखना होगा। इस सैन्य-प्रतिष्ठान ने पाकिस्तान की संप्रभुता को तालिबान और अल-क़ायदा के हाथों गिरवी रख दिया है। इस पैंतरे का इस्तेमाल करके पाकिस्तान भारत से बदला निकालता है और अमेरिका से अरबों डॉलर झाड़ता है। इसलिए ओबामा प्रशासन को जरा भी नहीं झिझकना चाहिए। उसे आतंकवादियों के विरूद्ध सीधी कार्रवाई करनी चाहिए। पाकिस्तान की संप्रभुता तो कोरी कपोल-कल्पना है। उसे सच्चे अर्थों में पुनर्जीवित करने और उसे पाकिस्तान की जनता को सौंपने के लिए अमेरिकी नीतियों में बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है।


(लेखक पाक-अफगान मामलों के विषेषज्ञ हैं)

मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में



गतांक से आगे


मणिपुरी कविता :
मेरी दृष्टि में
- डॉ. देवराज
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द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता: एक दृष्टि
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विश्व युद्ध के दौरान मणिपुर वासियों में एक अजब सी दुविधा थी। एक ओर तो वे अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता की लडा़ई लड रहे थे तो दूसरी ओर अंग्रेज़ी सेना के साथ विश्व युद्ध में भाग ले रहे थे! इसी कशमकश को डॉ। देवराज ने यूँ बयान किया:"द्वितीय विश्व युद्ध का एक हिस्सा मणिपुर की भूमि पर लडा़ गया। उस युद्ध के अनेक प्रत्यक्षदर्शी अभी भी जीवित हैं और वे उस समय के लोमहर्षक वर्णन सुनाते हैं। इम्फ़ाल निवासी दूर-दूर गाँवों की ओर भाग गये थे। युद्ध समाप्ति पर जब लोग अपने घरों को लौटे तो उनका बहुत कुछ नष्ट हो चुका था। फ़िर से उन्हें अपने को व्यवस्थित करने में लम्बा समय लगा। "विश्वयुद्ध लड़ने वाले देशों को मित्र-राष्ट्र और शत्रु-राष्ट्र कहा गया था। मणिपुर में युद्ध करनेवाला मित्र-राष्ट्र ब्रिटेन था और शत्रु-राष्ट्र जापान। अब ज़रा मणिपुर के सन्दर्भ में इन देशों की स्थिति को देखा जाए। ब्रिटेन, जिसे मित्र राष्ट्र कहा गया [यह शब्द ब्रिटेन ने इसे अपने लिए गढा़ और वह न्याय के लिए फासीवाद के विरुद्ध दूसरे देशों का अगुआ बन गया], मणिपुर की सम्प्रभुता का विनाशक था। इस कारण मणिपुर की आम जनता अपने मन में अंग्रेज़ों के विरुद्ध घृणा रखती थी। अतः ब्रिटेन से उसका कोई मानसिक लगाव नहीं था। उधर जापान, जिसे शत्रु देश घोषित किया गया था, सुभाषचन्द्र बोस के भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष का सबसे बडा़ सहायक था। सुभाषचन्द्र बोस, भारतीय की अंग्रेज़ों से मुक्ति के लिए, स-शस्त्र संघर्ष कर रहे थे और माणिपुर की जनता उस संघर्ष के द्वारा अंग्रेजी साम्राज्यवाद से अपनी मुक्ति भी देख रही थी। यदि उस समय जापान पर बमबारी न की जाती और सुभाष अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध जीत जाते तो सबसे पहले मणिपुर राज्य ही गुलामी से मुक्त होता। इस स्थिति में यहाँ की जनता किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई; क्योंकि उसके लिए एक ओर ब्रिटेन था, जिसे केवल गांधीजी के आग्रह पर सारे भारत ने मित्र राष्ट्र माना था। दूसरी ओर जापान था, जो भारतीय स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहा था, किन्तु जिसे शत्रु राष्ट्र की कोटि में रखा गया था और फासीवाद का हिमायती देश माना गया था। ऐसे मोड़ पर मणिपुर की आम जनता की शारीरिक और मानसिक किसी भी स्तर पर युद्ध में भागीदारी नहीं रही।"
....क्रमशः



प्रस्तुति सहयोग : चंद्र मौलेश्वर प्रसाद


मेरी आहत भावनाएँ


दुनिया मेरे आगे


मेरी आहत भावनाएँ




मंगलूर में पेयशाला में स्त्रियों के जाने और कोलकाता में धार्मिक रूढ़ियों की आलोचना से लोगों की भावनाएँ आहत हुईं। कोलकाता में पुलिस ने आहत भावनाओं को शांत करने के लिए संपादक और प्रकाशक को गिरफ्तार कर लिया, तो मंगलूर में जिनकी भावनाएँ आहत हो रही थीं, वे खुद हाथ-पैर चलाने लगे। यह देख कर मैं सोचने लगा कि मुझे भी अपनी आहत भावनाओं का कुछ करना चाहिए। ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, तो उनकी सूची बना कर जनता जनार्दन के समक्ष पेश तो कर ही सकता हूँ।


सुबह उठते ही मेरी भावनाओं के आहत होने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिन की पहली चाय के साथ अखबारों का बंडल जब बिस्तर पर धमाक से गिरता है, तो तुरंत खयाल आता है कि सुबह-सवेरे मेरे घर के दरवाजे पर अखबार पहुँचाने के लिए लिए कितने लोगों को रात भर काम करना पड़ा होगा। सबसे ज्यादा अफसोस होता है अपने हॉकर पर। वह बेचारा चार-पाँच बजे तड़के उठा होगा, अखबारों के वितरण केंद्र पर गया होगा, वहाँ से अखबार उठाए होंगे और अपनी साइकिल पर रख कर उन्हें घर-घर पहुँचाता होगा। यहाँ तक कि साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता, जिसे दुनिया भर में मजदूरों का मूल अधिकार माना जाता है।


अखबार पढ़ने लगता हूं, तो कम से कम दो चीजें मुझे आहत करती हैं। पहली चीज हत्या और आत्महत्या के समाचार हैं। सभी हत्याओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन ऐसी हत्या-निरोधक संस्कृति तो बनाई ही जा सकती है जिसमें रोज इतनी मारकाट न हो। आत्महत्याओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे व्यक्ति की नहीं, समाज की विफलता के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। व्यवस्था को सुधार कर ये आत्महत्याएँ भी रोकी जा सकती हैं। जो दूसरी चीज मेरी भावनाओं को आहत करती है, वह है देशी-विदेशी सुंदरियों की सुरुचिहीन तसवीरें। यह देख कर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं कि भगवान द्वारा दिए गए सौंदर्य के अद्भुत उपहार का कैसा भोंडा इस्तेमाल करने के लिए इन्हें प्रेरित और विवश किया जा रहा है।


जब तैयार हो कर काम पर निकलता हूँ, तो भावनाओं का आहत होना फिर शुरू हो जाता है। जब अपनी सोसायटी के सफाईकर्ता पर नजर उठती है, तो शर्मशार हो जाता हूँ। वह दिन भर घर-घर से कूड़ा-कचरा जमा करता है, सोसायटी की सीढ़ियों और सड़कों को झाड़ू से बुहारता है और बदले में उसे महीने में तीन-चार हजार भी नहीं मिलते। यही दुर्दशा चौकीदारों की है, जो सोसायटी में रहनेवाले परिवारों की सुरक्षा का खयाल रखते हैं। सोसायटी से बाहर आने पर गली में कई ऐसे बच्चे मिलते हैं जिन्हें देख कर कुपोषण की राष्ट्रीय समस्या का ध्यान आता है। वे कामवालियाँ भी दिखाई देती हैं जो एक ही दिन में कई घरों की साफ-सफाई, चौका-बरतन आदि करती हैं और हमारा जीवन आसान बनाती हैं, फिर भी जिन्हें देख कर लगता नहीं है कि इससे होनेवाली आमदनी से उनके परिवार का काम अच्छी तरह चल जाता होगा।


सड़क पर आने के बाद दाएँ-बाएँ कचरे के ढेर मेरी भावनाओं को आहत करते हैं। फिर मिलती हैं सिगरेट और गुटके की एक के बाद एक चार दुकानें। इन्हें देखते ही गुस्सा आ जाता है कि हमारा स्वास्थ्य मंत्री अपना काम क्यों नहीं कर रहा है। वह सिगरेट और गुटकों के कारखाने बंद नहीं करा सकता, तो कम से कम इतना तो कर ही सकता है कि इन दुर्पदार्थों की दो दुकानों के बीच कम से कम एक किलोमीटर का फासला रखे। दफ्तर जाने के लिए ऑटोरिक्शा लेने की कोशिश करता हूं, तो पाँच में से चार मीटर पर चलने से इनकार कर देते हैं। हर बार मेरी भावनाएँ बुरी तरह आहत होती हैं। तब तो होती ही हैं जब मैं देखता हूं कि पाँच-पाँच, छह-छह लाख की बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग अकेले भागे जा रहे हैं और उनसे तीन गुना बड़े आकार की बसों में सौ-सौ आदमी-औरतें ठुंसे हुए हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब सड़क पर हफ्तों से नहाने के अवसर से वंचित, दीन-हीन चहरे कुछ बेचते हुए या सीधे भीख माँगते हुए न दिखाई पड़ते हों। फुटपाथ पर लेटी हुई ऐसी मानव आकृतियाँ भी दिखाई देती रहती हैं जिनका अहस्ताक्षरित बयान यह है कि इस दुनिया में हमारे लिए कोई जगह नहीं है।


क्या-क्या बयान करुँ। रास्ते में कई आलीशान होटल पड़ते हैं। इनके एक कमरे का एक दिन का किराया आठ-दस हजार रुपए है। यह याद कर मेरा खून खौलने लगता है। एक सरकारी अस्पताल भी पड़ता है। उसमें दाखिल रोगियों के हालात की कल्पना कर मन अधीर हो जाता है। कभी-कभी रास्ता कुछ देर के लिए बंद कर दिया जाता है, क्योंकि कोई वीआइपी गुजर रहा होता है। दफ्तर में कुछ लोगों को पाँच हजार रुपए महीना मिलता है, तो कुछ को पचास हजार। शाम को घर लौटता हूं, तो जगह-जगह जाम मिलता है। घर पहुँच कर टीवी खोलता हूँ तो फिर भावनाएँ आहत होने लगती हैं। इस बेईमान, बदमाश, अपराधी, फूहड़ और विज्ञापनी दुनिया में रहने के लिए हमें कौन बाध्य कर रहा है?


- राजकिशोर




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चाटुकारिता के बदले : अपील? सर, एव्रीबॉडी इज हैप्पी.....

राग दरबारी


चाटुकारिता के बदले





काँग्रेस के केंद्रीय कार्यालय में राहुल गाँधी पार्टी के काम-काज में मशगूल थे। बायीं ओर की दीवार पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे चार्ट लग हुए थे। एक चार्ट में लोक सभा के चुनाव क्षेत्रों का नक्शा था। दूसरे चार्ट में पिछले दो चुनावों में काँग्रेस पार्टी के हारने-जीतने का ब्यौरा था। तीसरे चार्ट पर कुछ नारे लिखे हुए थे, जैसे झोपड़ियों में जाएँगे, भारत नया बनाएँगे; दलित जगेगा देश जगेगा, बेशक इसमें वक्त लगेगा; काम करेंगे, नाम करेंगे, चाटुकार आराम करेंगे आदि-आदि। सामने तीन लैपटॉप खुले हुए थे। राहुल गाँधी कभी इस लैपटॉप पर, कभी उस लैपटॉप पर काम करने लगते। मेज पर दो मोबाइल फोन रखे हुए थे। तीसरा उनकी जेब में था। हर चार-पाँच मिनट पर कोई न कोई मोबाइल बज उठता। काम करते-करते राहुल गाँधी मोबाइल पर बात भी करते जाते थे। वे सुनते ज्यादा थे, बोलने के नाम पर हाँ, हूँ, क्यों, कैसे, कब, अच्छा कहते जाते थे। चेहरे पर मुसकराहट कभी आती, कभी चली जाती।

तभी इंटरकॉम बज उठा। उधर से आवाज आई -- सर, एक नौजवान आपसे मिलना चाहता है।

राहुल गाँधी – कह दो, इस समय मैं किसी से नहीं मिल सकता।

उधर से -- सर, मैं कई बार कह चुका हूँ। पर मानता ही नहीं है।

राहुल गाँधी – नो वे। इस वक्त बहुत बिजी हूँ।

उधर से -- सर, इसे दो मिनट टाइम दे दें। नहीं तो यह यहीं पर सत्याग्रह पर बैठ जाएगा। प्रेसवाले इधर-उधर घूमते ही रहते हैं ....

राहुल गाँधी -- ओके, ओके, भेज दो। पर दो मिनट से ज्यादा नहीं।


दरवाजा खटखटा कर नौजवान ने कमरे में प्रवेश किया। देखने से ही छँटा हुआ गुंडा लग रहा था। झक्क सफेद खादी का कुरता-पाजामा। गले में सोने की चेन। कलाई पर मँहगी घड़ी। चप्पलें ऐसी मानो अभी-अभी कारखाने से आई हों। नौजवान ने पहले राहुल गाँधी को सैल्यूट जैसा किया और मेज पर फूलों का गुलदस्ता रख दिया। राहुल गांधी सिर उठा कर एकटक देखे जा रहे थे।

नौजवान कुछ बोल नहीं रहा था। उसकी नजर राहुल के सौम्य चेहरे पर टँगी हुई थी, जैसे वह आह्लाद के आधिक्य से चित्र-खचित हो गया हो। इसके पहले उसने किसी बड़े नेता को इतनी नजदीकी से नहीं देखा था। एक मिनट इसी में बीत गया।

राहुल ने मुसकरा कर पूछा – टिकट चाहिए? कहाँ के हो?

नौजवान -- अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। आपके दर्शन पाने के बाद मेरी हर इच्छा पूरी हो गई।

राहुल – चापलूसी कहाँ से सीखी? क्या तुम्हारा परिवार पुराना काँग्रेसी है?

नौजवान -- सर, हम लोग तीन पुश्तों से काँग्रेसी है। मेरे दादा ने साल्ट मार्च में हिस्सा लिया था।

राहुल -- साल्ट मार्च? यह कब की बात है?

नौजवान -- सर, द फेमस दांडी मार्च...

राहुल -- ओह। अब तुम जा सकते हो। दो मिनट हो गए।

नौजवान – थैंक्यू सर। लेकिन असली बात तो रह ही गई।

राहुल – तीस सेकंड में बोलो और चलते बनो। मैं बहुत बिजी हूँ।

नौजवान -- सर, मैं अपने क्षेत्र की तरफ से आपको बधाई देने आया हूँ कि...

राहुल – किस बात की बधाई?

नौजवान – कि आपने चापलूसी कल्चर के खिलाफ आह्वान कर एक क्रांतिकारी काम किया है। यह तो महात्मा गाँधी भी नहीं कर सके।

राहुल – तो तुम्हें यह बात पसंद आई?

नौजवान -- बहुत, बहुत पसंद आई। मैं तो शुरू से ही आपकी रिस्पेक्ट करता आया हूँ। लोक सभा में आपका भाषण सुनने के बाद तो मैं आपका मुरीद हो गया। सर, आपका भाषण सबसे डिफरेंट रहा। मैंने तो उसका वीडियो बनवा कर रख लिया है।

राहुल -- हूँ...

नौजवान -- सर, आप एकदम नई लाइन पर जा रहे हैं। दलितों की झोपड़ियों में जाना, वहाँ खाना खाना, रात भर सोना... काँग्रेस में नई जान फूँक दी है आपने।

राहुल गाँधी असमंजस में पड़ जाते हैं। कभी दीवार पर लगे चार्टों को देखते हैं कभी सामने पड़े लैपटॉप पर।

नौजवान -- सर, चापलूसी खत्म करने की आपकी बात तो एकदम निराली है। आज तक किसी भी दल के नेता ने इतनी ओरिजिनल बात नहीं कही है। देश से चापलूसी का कल्चर खत्म हो जाए तो हम देखते-देखते अमेरिका और जापान से कंपीट कर सकते हैं।

राहुल – तुम्हारा मतलब है, आम जनता को मेरा यह मेसेज अपील कर रहा है?

नौजवान -- अपील? सर, एव्रीबॉडी इज हैप्पी। चापलूसी के चलते ही हमारा देश आगे नहीं बढ़ पा रहा है। जैसे खोटा सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है, वैसे ही चापलूस लोग योग्य आदमियों को पीछे धकेल देते हैं। ऐसे में तरक्की कैसे होगी?

राहुल -- अच्छा, ठीक है। अब तुम...

नौजवान – नो सर, इस मामले में आपको लीड लेना ही होगा। आप ही काँग्रेस से चापलूसी का कल्चर खत्म कर सकते हैं। देश का यूथ आपके साथ है। आप सिर्फ नेतृत्व दीजिए। काम करने के लिए हम लोग हैं न।

राहुल – यू आर राइट। यूथ को एक्टिव किए बिना कुछ नहीं होगा।

नौजवान -- सर...

राहुल -- ओके, योर टाइम इज ओवर।

नौजवान राहुल के पाँवों की धूल लेने के लिए गुजाइश खोजता है। पर राहुल जहाँ बैठे हैं, उसे देखते हुए यह मुश्किल लगता है। सो वह प्रणाम-सा करते हुए दरवाजे की ओर मुड़ता है।

राहुल -- बाइ द वे, तुम अपना सीवी सेक्रेटरी के पास छोड़ते जाना। देखता हूँ...

नौजवान पहले से अधिक आत्म-विभोर हो जाता है। कार्यालय के बाहर उसके दोस्त-यार उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। नौजवान अपनी दो उँगलियों को वी की शक्ल में उन्हें प्रदर्शित करता है। सभी एक बड़ी गाड़ी में बैठते हैं। नौजवान ड्राइवर को आदेश देता है -- होटल अशोका।


- राजकिशोर


पब,शराबबंदी, गुंडागर्दी और गांधीगीरी : लड़कियाँ और विरोध


"राम के नाम पर यह कैसा काम ? लड़के पिएँ तो कुछ नहीं और लड़कियाँ पिएँ तो हराम ? पब से सिर्फ़ लड़कियों को पकड़ना, घसीटना और मारना - इसका मतलब क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हिंसा करने वाले को शराब की चिंता नहीं है बल्कि लड़कियों की चिंता हैवे शराब-विरोधी हीं हैं, स्त्री-विरोधी हैं। यदि शराब पीना बुरा है, मदिरालय में जाना अनैतिक है, भारतीय सभ्यता का अपमान है, तो क्या यह सब तभी है, जब स्त्रियाँ वहाँ जाएँ? यदि पुरुष जाए तो क्या यह सब ठीक हो जाता है? इस पुरुषवादी सोच का नशा अंगूर की शराब के नशे से ज्यादा खतरनाक है. शराब पीकर पुरुष जितने अपराध करते हैं, उस से ज्यादा अपराध वे पौरुष की अकड़ में करते हैंइस देश में पत्नियों के विरूद्ध पतियों के अत्याचार की कथाएँ अनंत हैंकई मर्द अपनी बहनों और बेटियों की हत्या इसलिए कर देते हैं कि उन्होंने गैर-जाति या गैर- मजहब के आदमी से शादी कर ली थीजीती हुई फौजें हारे हुए लोगों की स्त्रियों से बलात्कार क्यों करती हैं ? इसलिए कि उन पर उनके पौरुष का नशा छाया रहता हैबैगलूर के तथाकथित राम-सैनिक भी इसी नशे का शिकार हैंउनका नशा उतारना बेहद जरूरी हैस्त्री-पुरुष समता का हर समर्थक उनकी गुंडागर्दी की भर्त्सना करेगा"


सामयिक घटना पर केंद्रित विचारोत्तेजक संतुलित लेख -


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पुस्तक चर्चा : "समाज-भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य"

पुस्त चर्चा : डॉ. ऋषभदेव शर्मा





समाज भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य*

वाक् और अर्थ की संपृक्तता को स्वीकार करने के बावजूद प्रायः दोनों का अध्ययन अलग-अलग खानों में रखकर अलग-अलग कसौटियों पर किया जाता है। इससे अर्थ की, भाषिक कला के रूप में, साहित्यिक अभिव्यक्ति के रहस्यों को समझने में दिक्कत पेश आती है। संभवतः इसीलिए साहित्य-अध्ययन के ऐसे प्रतिमानों की खोज पर बल दिया जात है जिनके सहारे अर्थ की अभिव्यक्ति में निहित वाक् के सौंदर्य को उद्घाटित किया जा सके। इसके लिए अंतरविद्यावर्ती दृष्टिकोण को विकसित करना आवश्यक है। समाज भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग द्वारा साहित्यिक कृतियों का विश्लेषण करना भी इस प्रकार की अध्ययन दृष्टि का एक उदाहरण है।

समाज भाषाविज्ञान भाषा को सामाजिक प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था के रूप में देखता है जिसमें निहित समाज और संस्कृति के तत्व उसके प्रयोक्ता की अस्मिता का निर्धारण करते हैं। भाषा का सर्वाधिक सर्जनात्मक और संश्लिष्ट प्रयोग साहित्य में मिलता है। अतः समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से किसी कृति के पाठ विश्लेषण द्वारा उसके संबंध में सर्वाधिक सटीक निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं। समाज भाषाविज्ञान एक प्रकार से भाषाविज्ञान को मानक भाषा की बँधी-बँधाई लीक से निकालकर समाज-सांस्कृतिक सच्चाइयों के आकाश में मुक्त उड़ान के लिए स्वतंत्र करता है। जैसा कि हिंदी के प्रतिष्ठित समाज- भाषाविज्ञानी प्रो। दिलीप सिंह कहते हैं, भाषा के समाजकेंद्रित अध्ययन द्वारा यह संभव हुआ कि ‘‘अब नाते-रिश्ते के शब्द, सर्वनाम और संबोधन प्रयोगों, शिष्ट और विनम्र अभिव्यक्तियों के साथ-साथ आशीष देने, सरापने, विरोध प्रकट करने, सहमत-असहमत होने, यहाँ तक कि गरियाने और अश्लील प्रयोगों तक को समाज की संरचना और उसके लोगों की मनोवैज्ञानिक बनावट के संदर्भ में देखा-परखा जाने लगा। स्वाभाविक ही है कि इस शृंखला में रंग शब्द भी चौतरफा विचारों के घेरे में आते चले गए। मूल रंग शब्दों की परिकल्पना ने भिन्न समाजों में इनकी प्रतीकवत्ता को देखने से अध्ययन की शुरुआत की थी। हिंदी में ही लाल के साथ अनुराग, हरे के साथ खुशहाली, पीले के साथ शुभ जैसे सामाजिक अर्थों का जुड़ते चले जाना हमारी लोक-संस्कृति का ही नहीं, जीवन को देखने की एक खास दृष्टि का भी परिचायक है।’’ ये विचार उन्होंने डॉ। कविता वाचक्नवी (1963) की पुस्तक ‘‘समाज भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य’’ (2009) के प्राक्कथन के तौर पर व्यक्त किए हैं और बताया है कि इस पुस्तक में हिंदी रंग-शब्दों की समाज-सांस्कृतिक संबद्धता को देखने का सराहनीय प्रयास किया गया है।


डॉ. कविता वाचक्नवी की यह कृति समाज भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं की हिंदी भाषासमाज के संदर्भ में व्याख्या करते हुए रंग शब्दावली के सर्जनात्मक प्रयोग के निकष पर निराला के काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इस विश्लेषण की ओर बढ़ने से पहले विस्तारपूर्वक भाषा-अध्ययन की समाज- भाषावैज्ञानिक दृष्टि की व्याख्या की गई हैं। इस व्याख्या की विशेषता यह है कि लेखिका ने विविध समाज भाषिक स्थापनाओं की पुष्टि रंग शब्दावली के मौलिक दृष्टांतों द्वारा की हैं। जैसे ‘‘भाषा, समाज में ही बनती है’’ कि व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि नाते-रिश्तों के शब्दों की भाँति रंग शब्द भी सामाजिक संरचना के अनुसार निर्मित होते हैं। यही कारण है कि एक ही रंग को कहीं जोगिया, कहीं भगवा, कहीं केसरिया, कहीं बसंती तो कहीं वासंती कहा जाता है। इनमें जोगिया / भगवा का संबंध वैराग्य संन्यास से है तो केसरिया / बसंती / वासंती का बलिदान और राष्ट्रप्रेम से। इसी प्रकार ‘‘भाषा और समाज का अन्योन्याश्रय संबंध बताते हुए रंगों के लिंग और वचन बदलने को व्याकरण की अपेक्षा लोक व्यवहार पर आधारित दिखाया गया है। यहीं ललछौंही और हरियर जैसे तद्भव रंग-शब्दों के सहारे यह दिखाया गया है कि समाज में यह शक्ति होती है कि वह व्याकरणिक रूपों का भी व्यवहार के स्तर पर अतिक्रमण कर सकता है। यह भी दर्शाया गया है कि भाषा में विविध प्रकार के विकल्प समाज द्वारा पैदा किए जाते हैं जैसे दूध से दूधिया, फालसा से फालसाई और किशमिश से किशमिशी रंग-शब्द समाज ने बनाए हंै, व्याकरण ने नहीं। ऐसे अनेक उदाहरण समाज भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की पुष्टि के स्तर पर इस कृति को सर्वथा मौलिक सिद्ध करने में समर्थ है।


प्रयोक्ता, क्षेत्र और परिवेश के अनुसार भाषा प्रयोग में भिन्नता के अनेक दृष्टांत साहित्यिक लेखन में भी प्राप्त होते हैं। उनकी भी एक अच्छी खासी सूची लेखिका ने दी है। काले हर्फ, गुलाबी गरमी, नीलोत्पल चरण, साँप के पेट जैसी सफेदी, काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दंत-पंक्ति, उजले हरे अँखुवे, रक्तकलंकित, हल्दी रंगी पियरी और लोहित चंदन जैसे प्रयोग इसके उदाहरण हैं । यह भाषा का संस्कृति से संबंध नहीं तो और क्या है कि भारतीय संस्कृति में देवताओं के स्वरूप, वस्त्र और पुष्प तक के रंग निर्धारित हैं। विष्णु और उनके अवतार नीलवर्ण के हैं , पीतांबर और वैजयंती धारण करते हैं तो शिव कर्पूर गौर हैं, गला नीला, ऊपर सफेद चंद्रमा, गंगा का धवल जल, शिव पत्नी का गोरा रंग और शिव का वस्त्र बाघम्बर ! देवियों के साथ भी सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण वाचक रंग जुड़े हैं। यह रंग का सांस्कृतिक संदर्भ ही है कि भारत में मृत्यु पर श्वेत तो पश्चिमी देशों में काले वस्त्र पहने जाते हैं। ईसाई दुल्हन श्वेत परिधान पहनती है और हिंदू विधवा श्वेत वस्त्र। लेखिका के अनुसार संस्कृति में रंग और भाषा में उनकी अभिव्यक्ति जिस सांस्कृतिक चेतना का दिग्दर्शन कराती है वह लोक जीवन और साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है।



लेखिका ने सामाजिक संरचना में शब्द अध्ययन की पद्धति और प्रकारों का विवेचन करते हुए पहले तो शब्द अध्ययन की अवधारणा को स्पष्ट किया है। इसके अनंतर किसी समाज की भाषाई सामाजिकता की परख के तीन आधार प्रस्तुत किए हैं - ये हैं संबोधन शब्द, वर्जित शब्द और रंग शब्द। इतना ही नहीं, उन्होंने हिंदी भाषासमाज में प्रयुक्त होने वाले रंग शब्दों की सूची देते हुए यह दर्शाया है कि ये शब्द समाज, संस्कृति और परिवेश से किस प्रकार संबद्ध है। लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ‘‘कोई भी भाषा समुदाय एक विशिष्ट सांस्कृतिक भावबोध से परिपूर्ण भाषासमाज होता है। हिंदी भाषा के वैविध्यपूर्ण समाज की सांस्कृतिकता में महत्वपूर्ण है - उसकी शैलीगत विशिष्टता और लोक बोलियों से उसकी संबद्धता। रंग शब्दों को भी हिंदी भाषासमाज ने नए व्यावहारिक संदर्भ दिए हैं और इन्हें अपनी संप्रेषण - व्यवस्था का अनिवार्य अंग बनाया है।’’



कहने की आवश्यकता नहीं कि आधुनिक साहित्य में छायावादी काव्य प्रकृतिचेतस काव्य के रूप में स्वीकृत है तथा रंगों के प्रति अत्यंत जागरूक है। इस संदर्भ में निराला की भाषाई अद्वितीयता को उनके रंगशब्दों के आधार पर विवेचित करने वाली यह पुस्तक अपनी तरह की पहली पुस्तक है। इसमें संदेह नहीं कि निराला ने अपने काव्य में रंगशब्दों का अनेकानेक अर्थछवियों के साथ सर्जनात्मक उपयोग किया है। शब्द, अर्थ और प्रोक्ति के स्तर पर उनकी अभिव्यक्ति का यह विश्लेषण सर्वथा मौलिक और मार्गदर्शक है, इसमें भी दो राय नहीं। ‘‘रंगों का जीवन और शब्दों का जीवन इस अध्ययन में एकरस हो गए हैं। हिंदी भाषा की शब्द संपदा और इस संपदा में आबद्ध लोकजनित, मिथकीय और सांस्कृतिक अर्थवत्ता की पकड़ से यह सिद्ध होता है कि भाषा की व्यंजनाशक्ति का कोई ओर-छोर नहीं है। इस फैलाव को पुस्तक में मानो चिमटी से पकड़कर सही जगह पर रख दिया गया है। भाषा अध्ययन को बदरंग समझने वालों के लिए रंगों की मनोहारी छटा बिखेरने वाला कविताकेंद्रित यह अध्ययन किसी चुनौती से कम नहीं।’’ (प्रो. दिलीप सिंह)।



इस पुस्तक में निराला के काव्य की रंग शब्दावली का विवेचन करते हुए रंगशब्दों के प्रत्यक्ष प्रयोग के साथ-साथ प्रकृति और मनोभावों को प्रकट करने के लिए उनके अप्रत्यक्ष प्रयोगों का भी विश्लेषण किया गया है। मूल रंगशब्दों में लाल, हरा, नीला और पीला निराला के प्रिय है। श्वेत और काले का द्वंद्व भी उनके यहाँ खूब उभरकर आया है। पुस्तक में यह प्रतिपादित किया गया है कि अप्रत्यक्ष रंग प्रयोग के संदर्भ में निराला अद्वितीय हैं ; जैसे वे स्वर्णपलाश और कनक से माध्यम से सुनहले रंग के अर्थ को अनेक प्रकार से प्रकट करते हैं। काले रंग के माध्यम से अंधकार और रात्रि ही नहीं, मनोदशाएँ भी व्यक्त की गई है। निराला द्वारा व्यवहृत अंधकार, अंधतम, तिमिर, निशि, अँधेरा, छाया, श्याम, मलिन, अंजन, तम जैसे अंधकार के अनेक प्रर्याय इसका प्रमाण हैं। यहाँ लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ये सभी रंग-संदर्भ कवि ने अपने अनुभव - संसार से निर्मित किए हैं तथा इनके संयोजन से वे प्रकृति, मानव और मानसिक स्थितियों से उन परिवर्तनों को भी दिखा पाने में समर्थ हुए है जो अत्यंत धीमीगति से या किसी विशिष्ट प्रभाव से घटित होती हैं।



वस्तुतः रंगशब्दों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयोग, रंगाभास और रंगाक्षेप की स्थिति, सादृश्य विधान में रंगों का संयोजन, रंग आधारित मुहावरों के नियोजन तथा कवि की विश्वदृष्टि के प्रस्तुतीकरण में रंगावली के आलंबन के सोदाहरण विवेचन से परिपुष्ट यह कृति हिंदी काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में समाज-भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग का अनुपम उदाहरण है। इतना ही नहीं, परिशिष्ट में डॉ. विद्यानिवास मिश्र के रंग संबंधी दो निबंधों ‘छायातप’ और ‘रंगबिरंग’ तथा वास्तुविचार में रंगों की भूमिका से संबंधित सामग्री के साथ डॉ. रघुवीर के कोश (ए कम्प्रेहेंसिव इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी आफ गवर्नमेंटल एंड एजूकेशन वर्ड्स एण्ड फ्रेजिस (1955) के रंग संबंधी खंड की अविकल प्रस्तुति भी इस पुस्तक को संग्रहणीय और संदर्भयोग्य पुस्तक बनाने में समर्थ है।




*समाज-भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य,
डॉ. कविता वाचक्नवी,
हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद,
२००९,
150 रु.,
232 पृष्ठ (सजिल्द)|




संपर्क:
सचिव,
हिन्दुस्तानी एकेडेमी
१२-डी, कमला नेहरू मार्ग, इलाहाबाद
उत्तर प्रदेश (भारत)
पिन-२११००१


ई-मेल:
hindustaniacademy@gmail.com


समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य




हिन्दुस्तानी
एकेडेमी का साहित्यकार सम्मान समारोह आयोजित



समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य




इलाहाबाद, 6 फ़रवरी 2009 । (प्रेस विज्ञप्ति)।

"साहित्य से दिन-ब-दिन लोग विमुख होते जा रहे हैं। अध्यापक व छात्र, दोनों में लेखनी से लगाव कम हो रहा है। नए नए शोधकार्यों के लिए सहित्य जगत् में व्याप्त यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है।" उक्त विचार उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा मन्त्री डॊ.राकेश धर त्रिपाठी ने हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा आयोजित सम्मान व लोकार्पण समारोह के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए। उत्तर प्रदेश भाषा विभाग द्वारा संचालित हिन्दी व उर्दू भाषा के संवर्धन हेतु सन् 1927 में स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी की श्रेष्ठ पुस्तकों के प्रकाशन की श्रृंखला में इस अवसर पर अन्य पुस्तकों के साथ एकेडेमी द्वारा प्रकाशित डॊ. कविता वाचक्नवी की शोधकृति "समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य" को लोकार्पित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यह पुस्तक अत्यन्त चुनौतीपूर्ण विषय पर केन्द्रित तथा शोधकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक है। इस अवसर पर एकेडेमी के सचिव डॉ. सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय द्वारा सम्पादित 'सूर्य विमर्श' तथा एकेडेमी द्वारा वर्ष १९३३ ई. में प्रकाशित की गयी पुस्तक 'भारतीय चित्रकला' का द्वितीय संस्करण (पुनर्मुद्रण) भी लोकार्पित किया गया। किन्तु जिस पुस्तक ने एकेडेमी के प्रकाशन इतिहास में एक मील का पत्थर बनकर सबको अचम्भित कर दिया है वह है डॉ. कवितावाचक्नवी द्वारा एक शोध-प्रबन्ध के रूप में अत्यन्त परिश्रम से तैयार की गयी कृति "समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य"। इस सामग्री को पुस्तक का आकार देने के सम्बन्ध में एक माह पूर्व तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। स्वयं लेखिका के मन में भी ऐसा विचार नहीं आया था। लेकिन एकेडेमी के सचिव ने संयोगवश इस प्रकार की दुर्लभ और अद्‌भुत सामग्री देखते ही इसके पुस्तक के रूप में प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिसे सकुचाते हुए ही सही इस विदुषी लेखिका द्वारा स्वीकार करना पड़ा। कदाचित्‌ संकोच इसलि था कि दोनो का एक-दूसरे से परिचय मुश्किल से दस-पन्द्रह मिनट पहले ही हुआ था। यह नितान्त औपचारिक मुलाकात अचानक एक मिशन में बदल गयी और देखते ही देखते मात्र पन्द्रह दिनों के भीतर न सिर्फ़ बेहद आकर्षक रूप-रंग में पुस्तक का मुद्रण करा लिया गया अपितु एक गरिमापूर्ण समारोह में इसका लोकार्पण भी कर दिया गया। रंग शब्दों को लेकर हिन्दी में अपनी तरह का यह पहला शोधकार्य है। इसके साथ ही साथ महाप्राण निराला के कालजयी काव्य का रंगशब्दों के आलोक में किया गया समाज-भाषावैज्ञानिक अध्ययन भावी शोधार्थियों के लिए एक नया क्षितिज खोलता है। निश्चय ही यह पुस्तक हिदी साहित्य के अध्येताओं के लिए नयी विचारभूमि उपलब्ध कराएगी।



इस समारोह में एकेडेमी की ओर से हिन्दी, संस्कृ एवम उर्दू के दस लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों प्रो. चण्डिकाप्रसाद शुक्ल, डॉ. मोहन अवस्थी, प्रो. मृदुला त्रिपाठी, डॉ. विभुराम मिश्र, डॉ. किशोरी लाल, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. दूधनाथ सिंह, डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ. अली अहमद फ़ातमी और श्री ए.ए.कदीर को सम्मानित भी किया गया। यद्यपि इनमें से डॉ. दूधनाथ सिंह, डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ. अली अहमद फ़ातमी और श्री एम.ए.कदीर अलग-अलग व्यक्तिगत, पारिवारिक या स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से उपस्थित नहीं हो सके, तथापि सभागार में उपस्थित विशा विद्वत्‌ समाज के बीच छः विद्वानों को उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए शाल, नारियल, व सरस्वती की अष्टधातु की प्रतिमा भेंट कर सम्मानित किया गया। प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किए गए। एकेडेमी द्वारा अन्य अनुपस्थित विद्वानों के निवास स्थान पर जाकर उन्हें सम्मान-भेंट व प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर दिया जाएगा।


सम्मान स्वीकार करते हुए अपने आभार प्रदर्शन में डॊ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि इस लिप्सापूर्ण समय में कृति की गुणवता के आधार पर प्रकाशन का निर्णय लेना और रचनाकार को सम्मानित करना हिन्दुस्तानी एकेडेमी की समृद्ध परम्परा का प्रमाण है, जिसके लिए संस्था व गुणग्राही पदाधिकारी निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।


आरम्भ में हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सचिव डॊ. एस. के. पाण्डेय ने अतिथियों का स्वागत किया। उल्लेखनीय है कि वे स्वयं संस्कृत के विद्वान हैं , उनके कार्यकाल में एकेडेमी का सारस्वत कायाकल्प हो गया है। इस अवसर पर समारोह के अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने सरस्वती दीप प्रज्वलित किया और सौदामिनी संस्कृत विद्यालय के छात्रों ने वैदिक मंगलाचरण प्रस्तुत किया। एकेडेमी के ही अधिकारी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने खचाखच भरे सभागार में उपस्थित गण्यमान्य साहित्यप्रेमियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। *














भारत का यौवन रहस्य

रसांतर


भारत का यौवन रहस्य







दुनिया भर के मंचों पर भार को युवाओं का देश बताया जा रहा है, क्योंकि आँकडे ऐसा ही कहते हैं। सभी समृद्ध देशों में वृद्धजनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने उन्हें जीवन भर स्वस्थ रहना भले ही न सिखाया हो, पर लंबी से लंबी आयु में भी और तरह-तरह की बीमारियों से ग्रस्त रहते हुए भी मरने का विकल्प बंद कर रखा है। ऐसा भी नहीं है कि इन वृद्ध लोगों से समाज कुछ सार्थक काम ले रहा हो। आधुनिक जीवन व्यवस्था में इसकी कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ बच्चों और बूढ़ों से काम लेना मना है। भारत में भी यही संस्कृति रोपने का दौर शुरू हो चुका है। ऐसे में कार्यशाली आबादी युवाओं की ही रह जाएगी। यहाँ भारत की स्थिति बहुत शानदार है। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, जापान आदि की तुलना में हमारे यहाँ प्रति लाख आबादी में युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है। हमारे कई मंत्री और उद्योगपति इस तथ्य पर खुशी और गर्व का इजहार कर चुके हैं। उनका कहना है कि भारत अगर अपनी इस विशाल युवा शक्ति का ठीक से इस्तेमाल करे. तो हमारी विकास दर तेजी से बढ़ सकती है। विश्व की अन्य सभ्यताएँ बुढ़ा रही हैं, भारत युवा हो रहा है।



यह भारत की शक्ति है या उसकी कमजोरी है? इससे हमारे विकास का पता चलता है या अविकास का? भारत की इस युवा तस्वीर का सत्य बहुत खतरनाक है। पहली बात यह है कि भारत की शिशु मृत्यु दर समृद्ध देशों की तुलना में काफी ज्यादा है। यहाँ तक कि यह श्रीलंका और पाकिस्तान की तुलना में भी अधिक है। पूरी आबादी में बच्चों का प्रतिशत कम हो, तो युवा लोगों का प्रतिशत अपने आप बढ़ जाता है। दूसरी ओर, हमारे देश में बूढ़े लोगों की संख्या भी समृद्ध लोगों की तुलना में कम है। उनके बूढ़े बहुत देर से मरते हैं, हमारे यहाँ बूढ़ा होने का मौका सभी को नहीं मिलता। संपन्न शहरी आबादी में बूढ़े और अति बूढ़े ज्यादा संख्या में हैं, क्योंकि जीवन की डोर को बढ़ानेवाली पद्धतियाँ उनकी पहुँच के भीतर हैं। लेकिन गाँवों और कस्बों में साठ-सत्तर के बाद जीवित बचे रहने की कोई गारंटी नहीं है। न डॉक्टर हैं, न अस्पताल। कोई ऐसा सपोर्ट सिस्टम नहीं है जो बूढ़े लोगों की देखभाल कर सके। इसलिए हमारे यहाँ वृद्ध मृत्यु दर भी काफी ज्यादा है। यह तथ्य भी भारत में युवा आबादी के अनुपात को बढ़ाने में मदद करता है। इसलिए इस बात पर कोई खास उत्साह नहीं होता कि हम दुनिया के युवतर देशों में एक हैं। बल्कि दुख होता है -- अरे, बच्चे और वृद्ध कहाँ चले गए?



भारत की युवा आबादी को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक वर्ग उन युवाओं का है जो अपनी आनुवंशिक स्थितियों के परिणामस्वरूप अच्छी आधुनिक शिक्षा पा जाते हैं और इसके बल पर आधुनिक क्षेत्र के रोजगार भी। ये ही आईएएस-पीसीएस--आईएफएस बनते हैं, सूचना उद्योग में स्थान पाते हैं डॉक्टर-इंजीनियर बनते हैं, पुलिस विभाग में ऊँचे पद संभालते हैं या विदेश चले जाते हैं। इनमें गरीब परिवारों से आए हुए कुछ युवा भी होते हैं जो अपनी मेधा और परिश्रम के बल पर इस अल्पसंख्यक समूह में शामिल होने में सफलता हासिल कर लेते हैं। इसी वर्ग के कुछ लड़के-लड़कियों की तस्वीरे छाप कर अंग्रेजी के स्मार्ट माने जानेवाले साप्ताहिक समय-समय पर बताते रहते हैं कि आर्थिक सफलता के मामले में रिक्शावालों या खेतिहर मजदूरों के बच्चे अब किसी से पीछे नहीं हैं यानी भारत में ज़ात-पाँत और वर्ग की दीवारें टूट रही हैं। सच यह है कि ये दीवारें टूट नहीं, मजबूत हो रही हैं। कहीं-कहीं उनमें दरकन जरूर दिखाई देती है, लेकिन ऐसा कब नहीं था? कभी मुरा नाम की दासी का पुत्र चंद्रगुप्त मौर्य भी भारत का सम्राट बन गया था। इन असाधारण तथ्यों से इस साधारण तथ्य पर परदा नहीं डाला जा सकता कि भारत के अधिकांश पिछड़े परिवार ऐसे ही युवक पैदा करते हैं जो अपने आर्थिक पिछड़ेपन को थोड़ा कम कर सकते हैं, खत्म नहीं कर सकते।


भारत में ऐसे युवाओं की संख्या सर्वाधिक है जिन्हें भविष्यहीन, या सोच कर देखिए तो वर्तमानहीन, कहा जा सकता है। ये खेतों में काम या मजदूरी करते हैं, लघु इकाइयों में खून-पसीना एक करते हैं, साइकिल की मरम्मत करते हैं, टायर के पंक्चर ठीक करते हैं, बस, ट्रक, टेम्पो, ऑटोरिक्शा, साइकिल रिक्शा आदि चलाते हैं, मध्य और उच्च वर्ग के लोगों की गाड़ी ड्राइव करते हैं, सिनेमाहॉलों की गेटकीपरी करते हैं, रेल यात्रियों का भारी-भारी सामान ढोते हैं, नालियाँ साफ करते हैं, मकानों और बिÏल्डगों के निर्माण में पैदल सैनिकों की विशाल फौज में शामिल हो जाते हैं, र्इंट ढोते हैं, पलस्तर करते हैं, धोबी, नाई और बिजली मिस्त्री का काम करते हैं, फर्श साफ करते हैं, दुकानें चलाते हैं, सामान यहाँ से वहाँ ले जाते हैं, मेन होल में घुस कर उसकी सफाई का खतरनाक काम करते हैं, दरबानी करते हैं, चायखानों और ढाबों में बेयरा बनते हैं, पानी भरते हैं, रेलगाड़ियों, रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों की सफाई करते हैं, गली-गली जा कर कूरियर की चिट्ठियाँ और पैकेट बाँटते हैं, यानी वे सारे जरूरी काम करते हैं जो न किए जाएँ तो देश ठप हो जाए। जब हम देश की युवा शक्ति के बारे में सोचते हैं, तो यह विशाल युवा आबादी ही हमारी चिंता के केंद्र में रहनी चाहिए। नहीं तो कहना पड़ेगा कि इस देश का मीडिया अपने देश को बिलकुल नहीं जानता।


उन युवाओं की चर्चा करना बहुत जरूरी है जो युवा संस्कृति की तीसरी धारा की रचना करते हैं। इनमें भाँति-भाँति के लोग हैं। नक्सलवादी युवकों को इसी धारा में रखा जा सकता है। अनेक युवा नर्मदा बचाओ आंदोलन की तरह की गतिविधियों में लगे हुए हैं। कुछ गाँधीवादी कार्रवाइयों में मशगूल हैं, तो कुछ आदिवासियों तथा अन्य वंचित वर्गों की सेवा में लगे हुए हैं। ये वे आधुनिक युवक हैं जिनका आधुनिकता से मोहभंग हो चुका है। बहुत-से युवक जेपी, आंबेडकर, मार्क्स आदि की शिक्षाओं से प्रभावित हैं और छोटे-छोटे संगठनों के माध्यमों से महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष में भी युवाओं की उल्लेखनीय भूमिका है। पोस्टर लगाना, परचे बाँटना, नारेबाजी करना, धरना देना, जुलूस निकालना - ये वे गतिविधियाँ हैं जिनसे भारतीय समाज में आंदोलन का भाव बचा हुआ है। कुछ ने राजनीतिक कार्य और कॅरियर का अद्भुत संगम बनाने में प्रशंसनीय सफलता प्राप्त की है। युवाओं का एक वर्ग एनजीओगीरी को समर्पित है और समाज सेवा के माध्यम से उद्यमी बनने का ख्वाब देखता है। जैसा कि हर समाज में होता है, युवाओं का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा साहित्य, नाटक, चित्रकला, संगीत, नृत्य, फिल्म निर्माण आदि के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को विकसित और अभिव्यक्त कर रहा है। इन पेशों में शुरू में साधना है और बाद में पैसा और शोहरत, दोनों। खेलकूद युवा वर्ग का राष्ट्रीय मनोरंजन तथा मुट्ठी भर खुलाड़ियों के लिए बेहतरीन धंधा है। बहुत-से युवा कम उम्र में ही सिनिकल हो चुके हैं और कुछ भी करने को व्यर्थ मानते हैं, लेकिन इसका ध्यान रखते हैं कि वे उचित स्थानों पर देखे जाएँ कुछ ऐसे भी हैं, जो रंगीन या संगीन नशों की संकुचित दुनिया में मस्त और आगे-पीछे के बारे में सोचने के अभिशाप से मुक्त हैं। ऐसे में समझ में नहीं आता कि भारत के यौवन पर गर्व करें या नहीं और गर्व करें तो कितना।

- राजकिशोर
(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में वरिष्ठ फेलो हैं।)

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