हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध


पुस्तक चर्चा : ऋषभदेव शर्मा




हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध*





साहित्य विमर्श की ऐतिहासिक कसौटी के रूप में प्रायः परंपरा, युगबोध और रचनाक्षण की चर्चा की जाती है। विशेष रूप से युगबोध को किसी रचना की शाश्वतता और समकालीनता को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। युगीनपरिस्थिति यों और उनके प्रभावस्वरूप परिवर्तित जनता की चित्तवृत्ति साहित्यिक आंदोलनों, विधाओं तथा प्रवृत्तियों के परिवर्तन के लिए आधार प्रदान करती हैं। यही कारण है कि आधुनिक काल में तीव्रता से बदलते हुए परिवेश और उसके प्रति सामान्य नागरिक से लेकर रचनाकार तक की प्रतिक्रियाके परिवर्तनशील स्वरूप के कारण अनेक प्रकार के बदलाव हिंदी साहित्य में परिलक्षित किए जा सकते हैं। इसीलिए किसी विधा विशेष और युगबोध के आपसीसंबंध का अध्ययन करना अत्यंत रोचक और चुनौतीपूर्ण कार्य है। डॉ. मृगेंद्र राय ने अपने शोधग्रंथ ‘हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध’ (2008) में इसी चुनौती का सामना किया है और आधुनिक काव्य नाटकों को पारंपरिक नाट्य प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर परीक्षित करते हुए इस विधा के भावी संकेतों को समझने की कोशिश की है।



इस कृति में हिंदी के महत्वपूर्ण काव्य नाटकों के स्वरूप, उनमें निहित युगबोध, उनकी विशिष्ट रचनात्मक भूमिका और मंचन की संभावनाओं के विविध आयामों पर विशद विवेचन किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि स्वातंत्र्योत्तर हिंदी काव्य नाटकों में कथ्य और शिल्प की अन्यान्य नूतन सरणियों के साथ युगचेतना की गहन संपृक्ति और दायित्वपूर्ण सरोकारों पर विशेष बल दिया गया है।


स्वातंत्र्योत्तर काव्य नाटकों का ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन करने के लिए डॉ. मृगंेद्र राय ने समकालीन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण उपजे युगबोध को सफलतापूर्वक कसौटी बनाया है। वे मानते हैं कि इस
काल में जैसे-जैसे मोहभंग की स्थिति स्पष्ट होती गई वैसे-वैसे काव्य नाटकों के रचनाकार भी तत्कालीन परिस्थिति से असंतुष्ट और क्षुब्ध होकर युगीन विसंगतियों और विकृतियों को रूपायित करने के प्रति सचेत होते गए। इसमें संदेह नहीं कि इस काल में युवा पीढ़ी ने जिस बेचैनी और छटपटाहट का अनुभव किया, देश के आम जन के मन में भ्रष्ट राजनीति के प्रति जो आक्रोश क्रमशः उग्र होता गया, परंपरागत मूल्यों और नैतिक आस्थाओं के प्रति जिस प्रकार की भ्रमपूर्ण स्थिति बनती गई, उस सबसे निर्मित बीसवीं शती के उत्तरार्ध के युगबोध को तत्कालीन हिंदी काव्य नाटकों में सफल और सशक्त अभिव्यक्ति मिली। लेखक के अनुसार डॉ. धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ इस विकास क्रम में सर्वाधिक सशक्त काव्य नाटक है।


इस के बाद 1960 से 1975 के मध्य मोहभंग के साथ बौद्धिक आग्रह के बढ़ने का परिणाम यह हुआ कि लोग विज्ञान, वैश्विकता और स्थानीयता के संदर्भ में भारतीय परंपराओं और मूल्यांें के पुनः परीक्षण की जरूरत महसूसने लगे। दूसरी ओर जनवाद के आकर्षण ने साहित्य में आमआदमी को प्रतिष्ठित किया। यही वह समय था जब मनोविज्ञान से लेकर अस्तित्ववाद तक की विविध विचारधाराएँ स्वतंत्र भारत को आंदोलित कर रही थीं। इससे निर्मित नए युगबोध को नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’ और ‘महाप्रस्थान’, दुष्यंत कुमार ने ‘एक कंठ
विषपायी’ तथा विनोद रस्तोगी ने ‘सूत पुत्र’ जैसे काव्य नाटकों के माध्यम से व्यक्त किया। लेखक ने दिखाया है कि इन रचनाकारों ने युद्ध की समस्या, शासन और जनता के संबंध, निरंकुश सामंती व्यवस्था के विरुद्ध जनतंत्र की
चेतना तथा जातिगत रूढ़ियों के दारुण परिणामों को गहरी संसक्ति के साथ उभारा है।


1975 के बाद व्यवस्था और जनता का संघर्ष जिस रूप में भारतीय लोकतंत्र में मुखर हुआ, लेखक ने तत्कालीन काव्य नाटकों में उसकी अभिव्यक्ति के उदाहरण के रूप में प्रभात कुमार भट्टाचार्य के ‘काठमहल’, ‘पे्रत शताब्दी’, ‘आगामी आदमी’, महेंद्र कार्तिकेय के ‘प्रतिबद्ध’ और ‘खंडित पांडुलिपि’ तथा अनूप अशेष के ‘अंधी यात्रा में’ जैसे काव्य नाटकों को युगीन सत्य की मार्मिक अभिव्यंजना में समर्थ माना है। इसी प्रकार वे यह स्पष्ट करते हैं कि देवेंद्र दीपक कृत ‘भूगोल राजा का खगोल राजा का’ आपात्काल की त्रासदी को बड़ी सफलता से व्यंजित करता है।


इस प्रकार लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि हिंदी काव्य नाटकों में विशेष रूप से स्वातंत्र्योत्तर काल में सामाजिक संपृक्ति, दायित्व चेतना, वैज्ञानिक बोध, नारी मुक्ति, जनचेतना, शोषितों की पक्षधरता, कुशासन के प्रति विद्रोह, परंपरा और मूल्यांे के पुनर्परीक्षण तथा इतिहास चेतना की कार्य कारण प्रक्रिया पर पुनर्विचार जैसी प्रवृत्तियों के माध्यम से युगबोध को व्यापक अभिव्यक्ति का अवसर मिला है।


इससे यह भी स्पष्ट हुआ है कि यद्यपि अपने समकालीन परिवेश की विशेषताओं से अवगत होने को युगबोध कहा जाता है तथापि साहित्य का युगबोध एकांतिक नहीं होता, वह अतीत और भविष्य दोनों में आवाजाही करता दीखता है। यही कारण है कि युगबोध से गहरे जुड़े हुए काव्य नाटक साहित्य का न तो विषय क्षेत्र ही सीमित या एकायामी है और न ही रूप किसी एक खाँचे में बँधा हुआ है। बल्कि अपने समय की जमीन पर पैर जमाए हुए ये रचनाकार अपनी वस्तु का चयन पौराणिक, मिथकीय, ऐतिहासिक, लोककथात्मक, यथार्थवादी और वैज्ञानिक क्षेत्रों से करते हैं और उसके सहारे किसी युगीन समस्या को उद्घाटित करते हैं। यह समस्या ‘अंधायुग’ की तरह वैश्विक और राजनैतिक भी हो सकती है तथा ‘उर्वशी’ की तरह मानसिक और आध्यात्मिक भी।


लेखक ने विचारधाराओं और युगबोध के संबंध को भी ध्यान में रखा है। माक्र्सवाद, अस्तित्ववाद,मनोविश्लेषणवाद आदि की जो ध्वनियाँ इन काव्य नाटकों में सुनाई पड़ती हंै वे इस बात का उदाहरण है कि कोई सिद्धांत जब रचनात्मक रूप में कृति में गुँथा हुआ होता है तो उसकी संपे्रषणीयता बढ़ जाती है। यहाँ दिनकर की रचना ‘उर्वशी’ का उल्लेख किया जाता है कि नर नारी संबंध के विषय में इस कृति में रचनाकार ने कामाध्यात्म के जटिल दर्शन को सहज संपे्रषणीय बनाकर प्रस्तुत किया है। अपने समय की अन्य कृतियों के बीच ‘उर्वशी’ इसलिए भी विशिष्ट है कि इसके कवि की रचनात्मक मानसिकता छायावादोत्तर काल की है और उसमें राष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टियों का घनत्व लक्षित किया जा सकता है। यही कारण है कि इसमें मिथकीय पात्रों की संवेदना का वह आधुनिक रूप नहीं मिलता जो ‘अंधायुग’, ‘महाप्रस्थान’ और ‘संशय की एक रात’ जैसी रचनाओं में मिलता है। लेखक की मान्यता है कि दिनकर की ‘उर्वशी’ का कामाध्यात्म पुनरुत्थान के संदर्भ में एक नया बोध है, एक स्वतंत्र नवीन मूल्य की स्थापना है, जिसमें अतीत की ग्राह्य सामग्री ‘अनासक्ति’ और ‘निष्काम भाव’, नवीन की भौतिकता में अपने लौकिक प्रवृत्तिमय रूप के साथ मिलकर ‘विश्वबंधुत्व’ के विस्तार का आलोक समेटे हुए है।


जैसा कि आरंभ में ही कहा गया कि युगबोध की अभिव्यक्ति वस्तु चयन के स्तर पर ही नहीं होती, बल्कि शिल्पगत प्रयोग भी उसे प्रकट करते हंै। आधुनिक मानसिकता का यह प्रतिफलन काव्य नाटकों के शिल्प में भी दिखाई देता है। आधुनिक काव्य नाटकांे के मुख्यतः तीन वर्ग हंै जो क्रमशः पुराकथा, इतिहास और वर्तमान समस्याओं के यथार्थ पर आधारित हंै। ये आधार निश्चय ही आधुनिक युगबोध से पे्ररित हैं। इसी प्रकार ये काव्य नाटक मंच विधान संबंधी नए प्रयोगों को ध्यान में रखकर रचे गए है जिस कारण आधुनिक युगबोध इनमें शिल्पित दिखाई देता है। लेखक ने लक्षित किया है कि मंच की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आधुनिक काव्य नाटकों में स्वगत कथनों के बहिष्कार की प्रवृत्ति बढ़ी है। साथ ही कविता की लयात्मकता और गद्य की प्रभावशीलता को अर्थ पर विशेष बल देते हुए साधने का प्रयास दिखाई देता है। इतना ही नहीं, भाव के आधार पर पात्र की लय का परिवर्तन भी अत्यंत महत्वपूर्ण शिल्पगत प्रयोग है। इसी प्रकार समकालीन विषय पर आधारित काव्य नाटकों में भाषा की काव्यात्मकता क्रमशः कम होती गई है और गद्यात्मकता का आधिक्य दिखाई देता है। लेखक का मत है कि भाषा की बिंबात्मकता ऐसे अवसर पर विशेष नाटकीयता उत्पन्न करती है। इस प्रकार डॉ. मृगेंद्र राय की ‘‘हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध’’ शीर्षक इस कृति को वस्तु और शिल्प के स्तर पर स्वातंत्र्योत्तर काव्य नाटकों की उपलब्धियों को युगबोध के निकष पर परखने वाली प्रामाणिक शोध कृति माना है। इसमें संदेह नहीं कि लेखक के निष्कर्ष मौलिक और भावी शोध को नई दिशा प्रदान करने वाले हंै। निश्चय ही, हिंदी जगत में इस वैदृष्यपूर्ण ग्रंथ को पर्याप्त सम्मान प्राप्त होगा।


*हिंदी काव्य-नाटक और युगबोध /
डॉ.मृगेंद्र राय /
नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
23, दरियागंज, दिल्ली-110 002 /
संस्करण 2008 / 595 रुपये /
३३२ पृष्ठ सजिल्द।


1 टिप्पणी:

  1. काव्य नाटक की परम्परा तो भारत में पुरानी है ही। इस पर डॊ.मृगेंद्र राय की कृति पर डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी की यह समीक्षा न केवल पुस्तक का, बल्कि इसके माध्यम से काव्य नाट्य इतिहास का अच्छा परिचय देती है। आभार॥

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