एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी (५)

गतांक (४) में आपने पढ़ा -

भैया ने जाने के तीसरे ही दिन बाद ख़त डाला था, अमि के नाम, जिसमें जिक्र था कि वे बम्बई में ही अपने एक इंजीनियर दोस्त के पास पवई के होस्टल में रुके हुए है।


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एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी ()
प्रभु जोशी


कुछ दिनों बाद ही भैया ने अमि के लिए एक उपहार भेजा था। पापा ने उसे उठा कर खिड़की के बाहर फेंक दिया था। अमि रोने लगी थी, तो शाम को पापा ऑफिस से लौटते समय उसके लिए ढेर सारे स्कर्ट व कुर्तियों के पीसेज़ उठा लाये थे। और बाद इसके पापा हमेशा लाने लगे थे, कुछ न कुछ। अमि को खुश करने के लिए। मगर अमि को वे तोहफ़े कभी अच्छे नहीं लगे। उसे हमेशा लगता, जैसे पापा के द्वारा लायी गयी इन तमाम चीज़ों में, उनका तनाव और उनका निर्मम पितृत्व लिपटा है। उनकी संजीदगी और गुस्सा लिपटा है। फ़्रॊक से चल कर, इस वर्ष से वे साड़ियाँ लाने लगे हैं। उसे इन तोहफ़ों के बदलाव से अपनी बढ़ती उम्र का एहसास होने लगा है। मसलन अब वह बच्ची नहीं, बड़ी हो गयी है। अमि को लगता है ठीक इसी प्रकार साड़ियाँ लाते-लाते पापा उसके लिए ऑफिस से लौटते समय एक दिन कोई लड़का ला देंगे, संजीदगी व गुस्से से भर कर, `कर लो इससे शादी......। आय’म गिफ्टिंग यू अ ब्राइडग्रूम !..... देट्स ऑल !’

मगर, ऐसा नहीं हुआ। पापा में धीरे-धीरे बदलाव आता गया। चेहरे पर की संजीदगी का थक्का कभी-कभी पिघलता दीखने लगता। पापा कभी-कभी एकाएक बहुत खुश लगते। कई बार पापा के इस बदलाव की छाया के पीछे छुपे कारणों को जानने की तीव्र उत्कण्ठा ने अमि को काफी हद तक बेचैन बनाया है। भला ऐसा क्या काम्प्लेक्स या कन्फ्लिक्ट रहा होगा पापा व भैया के बीच, जो पापा ने उनको एकदम काट कर अलग फेंक दिया, जैसे हम फेंक देते हैं, त्वचा की भीतरी सतहों के भीतर से उगने वाला टूटा बाल या कि नाख़ून का सिरा। क्या पापा भैया की अनुपस्थिति से वाकई ख़ुश हैं ? कौन बतायेगा ? किससे पूछेगी यह सब? अमि बेकल हो उठती।

और आखि़र धीरे-धीरे अपने आप ही उम्र की यात्रा के ठहराव का ऐसा फोकल-प्वाइंट आ गया, जहाँ खड़े हो कर अमि को सारा यथार्थ एकदम साफ व उजला दीख गया। अब वह पूरी तरह इतने लम्बे समय से प्रश्नचिन्ह बनी आ रही स्थिति को बड़ी सरलता से समझ चुकी थी। ममी की पापा से दूसरी शादी थी व भैया पहली शादी के थे। यह जान कर अमि को एकाएक ऐसा पहली बार लगा था, जैसे वह अचानक सयानी और बड़ी हो गयी है। बड़ी व अकेली। पापा व भैया के होते हुए भी अकेली। भैया ने एक दिन अवसादग्रस्त आवाज़ में, आँसुओं को पलकों के भीतर ही रोक कर कहा था-‘अमि, कभी-कभी माँ को याद करते हुए लगता है कि मुझे इतनी ममतामयी माँ देकर ईश्वर ने कुछ ज़्यादा ही दे दिया- और बाद देने के ईश्वर को लगा होगा कि वह उतावली में कुछ अधिक उदार हो गया है, नतीज़तन उसने मुझसे माँ को वापस छीन लिया- बस यही समझ लो तुम।’

खट.... खट्..... खट्..... खट्....। शायद पापा अमि के कमरे की ओर चढ़े चले आ रहे थे। उसे समझ में नहीं आ पा रहा था कि अब वह क्या करे ? खिड़की में खड़ी-खड़ी इसी तरह बाहर देखती रहे या फिर बालों में कंघी करने लगे या चुपचाप यों ही खड़ी रहे। क्या वह पापा की उन तीखी नज़रों का सामना कर पायेगी ? इतने में पापा आ ही गये। अमि अपराधी मन में आतंकित भाव लिये फ़र्श की ओर ताकती रही। वहाँ एक चींटी सरकती चली जा रही थी।


चींटी सरकती गयी। क्षण भी सरकते गये। मगर पापा वहीं ठहरे रहे। इतने क्षणों तक कुछ भी नहीं बोले। ‘‘अमि, तुम्हारा कमरा कितना गंदा हो रहा है। रम्मी से कह के साफ करवा लो।’’ एक विराम के बाद यह वाक्य उगला और टैरेस की ओर मुड़ गये। अमि ने सोचा, भाषा, पापा और उसके बीच कितना छोटा पुल बनाती है। छोटा और अस्थायी कि अपने उपयोग के बाद अपने आप ही समाप्त हो जाता है। अमि ने अपने कमरे पर एक नज़र डाली। ग़ालिबन मुआयना कर रही हो। उसका पूरा कमरा साफ व व्यवस्थित ही तो है।

मगर, पापा को पुलिसवालों की-सी व्यवस्था चाहिए। पापा टैरेस की ओर मुड़े। अमि झट से नीचे उतर आयी। लेकिन, कुछ क्षणों के बाद ही पापा भी नीचे आ गये। अमि ऊपर जाने का रुख करने लगी, तो पापा बोले, ‘‘खाना लग गया है। पहले खाना खा लो।’’ एक विराम के बाद यह वाक्य उगला और अंदर ड्राइंग रूम की ओर निकल गए।


अमि ने चाहा कि वह कह दे, ‘‘पापा, मुझे अभी भूख नहीं है।’’ मगर चाह कर भी कुछ नहीं कह पायी। चुपचाप वॊश -बेसिन का नल खोल कर हाथ धोने लग गयी। हाथ धोते हुए सोचने लगी। वह इतना छोटा-सा प्रतिकार भी क्यों नहीं कर पाती ? ज़्यादा से ज़्यादा पापा का चेहरा तनाव भरा हो जाता। या डाँट देते। और अच्छा ही होता न यह सब। पापा का डाँटना पिछले समय से चले आ रहे तनाव को इस हद तक खींच देता, जहाँ आकर वह टूट भी सकता था।

अमि के भीतर कभी-कभी इसी तरह के प्रतिरोधों के ख़याल की लौ उठती है, जो लपट बनना चाहती है। वह ख़ुद को उकसाती भी है कि वह क्यों नहीं इस घर की दीवारों को तोड़ कर बाहर निकल जाती- जैसे कि परिन्दों के चूज़े तोड़ देते हैं, अण्डे की दीवारों को- पर, ऐसे ख़यालों की लौ धीरे-धीरे धुँधुआने लगती है। फिर चुपचाप बुझ जाता है, सब कुछ। अमि हाथ धोकर डाइनिंग-टेबुल के सामने बैठ गयी। पापा ड्राइंगरूम से लौट कर उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गए। फिर खाना खाते हुए पापा बोले, ‘‘अमि बेटे, ख़ुद को सँभाल कर रखो। देख रहा हूँ, तुम दिन-ब-दिन बीमार-बीमार और सुस्त होती जा रही हो।’’ अमि ने पापा के मुख से ‘बेटा’ सम्बोधन सुनकर बहुत धीमे से सिर उठा कर उनकी ओर देखा। पापा का चेहरा पहली बार उसे इतना सपाट व निर्विकार लगा। ऐसा चेहरा देख कर उसे कॉलेज की लेबोरेटरी का वह फ्लास्क याद हो उठा, जो बाहर से सख़्त लेकिन भीतर कण-कण में टूट जाने वाले शीतल द्रव से भरा है। पापा के प्रति न चाहते हुए भी वह सहानुभूति से भर उठी। अमि की इच्छा होने लगी, देखे एक बार उस भीतर के द्रव को छूकर तो देखे। मगर, वह बाहर की सख़्ती की कल्पना से ही डर कर रह गयी। ‘बेटे’ सम्बोधन की अनुगूँज भी उसे फलाँग कर पापा के निकट जाने के लिए वाँछित हिम्मत नहीं भर पाई।

रम्मी ने एक चपाती और परोस दी। वह खाती रही। चुपचाप। प्लेट की चपाती ख़त्म हो गयी, तो दूसरी उठायी भी नहीं। और रम्मी ने आवश्यकता न होने पर भी रख दी, तो मना नहीं किया। अंत में उठ गयी। चढ़ कर फिर अपने कमरे में बंद हो गयी। फिर कॉलेज से लायी गई किताब में से एक कहानी पढ़ने की कोशिश की। मगर, उसमें भी ख़ुद को ज़्यादा देर तक न डुबो पायी। अमि को लगा, वह बरसों से उदास और चुप है तथा अब उदासी इतनी गहराई पकड़ चुकी है कि कम से कम पापा के साथ रहते हुए तो वह जनम भर न हँस सकेगी....। ग़ालिबन, अब वह हँसी को ग़ुमशुदा चीज़ों की फेहरिस्त में दर्ज़ कर चुकी है।

ऐसे समय में उसे भैया पर भी गुस्सा आता है। वे क्यों नहीं उबार लेते इस अंधेरे तहख़ाने से? क्यों नहीं लिख देते कि अमि, तू, यहाँ चली आ मेरे पास। बम्बई। पहली बार भैया का ख़त आया था, तब पापा का चेहरा कैसा-कैसा तो भी हो उठा था। अमि को लगा था अब तो वे उसे भी भैया की तरह पीट-पाट कर निकाल देंगे। तब वह क्या करेगी ? और उसने भीतर ही भीतर अपनी भीरूता को फलांगने की कोशिश में एक कमज़ोर निर्णय लिया था कि यदि पापा कुछ कहेंगे, तो वह भी बहस पर उतर आयेगी और कहेगी-‘पापा ये भाई-बहन के रिश्ते हैं। आप इसमें क्यों खाई पैदा करना चाहते हैं ?’ मगर, पापा कुछ नहीं बोले थे, तो उसने ख़ुद रह कर ही भैया को लिख दिया था कि आगे से ख़त वे उसके स्कूल के पते पर ही लिखा करें। और ख़त स्कूल से अब कॉलेज के पते पर आने लगे थे। स्कूल से कॉलेज तक की यात्रा के बीच भैया अपने ख़तों में वैसे ही थे। मगर, पापा बदल गये थे। अमि ने भैया को इस बदलाव का संकेत लिख भेजा था। मगर, भैया ने कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। गोया उन्हें पहले से ही इस सारी परिणति का पता हो।

अमि सोचते-सोचते घुटने लगी, तो खिड़की पर खड़ी हो गयी। बाहर रोज़ की तरह धुँएली शाम उतर आयी थी। लॊन में कुर्सी डाले पापा व लोकेश बैठे बतिया रहे थे। अमि जब भी पापा व लोकेश को बातें करते देखती है, तो उसे लगता है, जैसे दोनों कोई भयंकर षड्यंत्र रचने में लगे हैं। लोकेश मिसेज नरूला के भाई का लड़का है। पिछले कुछ महीनों से यहीं है और अमि को घूर-घूर कर देखा करता है। अमि ने देखा, मिसेज नरूला भी लॊन में आकर एक खाली कुर्सी पर पसर गयी हैं। खिड़की में खड़े उसे देखा, तो मिसेज नरूला ने अमि को आवाज़ लगा ली, ‘‘अमिया, नीचे आओ न !’’ अमि बहुत अरूचि से नीचे पहुँच गयी। अमि को यह मार्क करके बहुत खीझ होती है कि ये मिसेज नरूला हमेशा ही पापा की ओर कैसे-कैसे तो भी देखा करती हैं ! हँसती भी तो कैसी-कैसी हैं ! मिसेज नरूला को हँसते हुए देखकर उसे हमेशा लगता है, जैसे प्रकृति किसी से जन्म के साथ ही कुछ चीज़ें निर्ममता से छीन लेती है। और, प्रकृति ने मिसेज नरूला से, जो चीज़ छीनी है, वह है, हँसी की निश्छलता। और पापा भी मिसेज नरूला की उपस्थिति में एकदम अजनबी व अनपहचाने-से लगते हैं। वह तअज़्जुब से घिर जाती है कि क्या पापा का मूँछोंवाला चेहरा इतना कोमल-कोमल व प्यारा भी लग सकता है ?

अमि चुपचाप रम्मी द्वारा लाये गये एक मोढ़े पर बैठ गयी।

मिसेज नरूला कह रही है, ‘‘अमिया, भई तुम कितनी रिज़र्व्ड नेचर की हो। बिल्कुल मिस्टिक-रिक्लूज़। घर से कॉलेज और कॉलेज से घर। चलो, आज शॊपिंग कर आओ, लोकेश के साथ।’’ मिसेज नरूला का यह वाक्य सुन कर अमि का चेहरा विकृत हो आया। भीतर से इच्छा हुई कि कह दे-‘भला आप मेरे लिए इतनी चिंतित क्यों हैं ? मुझे नहीं जाना शॊपिंग के लिए।’ क्या करूँगी कुछ ख़रीद कर। सब कुछ तो भरा है, मेरी अल्मारियों में। और दरअसल, जिस चीज़ की मुझे ज़रूरत है, उसके लिए शापिंग नहीं होती।’

अमि ने पापा की ओर देखा।

पापा की विस्फारित आँखों में लिखा पाया, एक सख़्त आदेश कि हो आओ और वह कपड़े बदल कर लोकेश के साथ चली गयी। सारी शाम लोकेश की बदबूदार पसीने से लथपथ पीठ से सटी स्कूटर पर घूमती रही। लोकेश ने कुछ सामान दिलवाया, तो अरुचि से पैक करवा लिया। बोली एक भी शब्द नहीं। भीतर ही भीतर उसका मौन तराशता रहा, उसके लिए कुछ शब्द, जिन्हें वह संकट की स्थिति में शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर लेगी। शब्द भी शस्त्र होते हैं और उनके जरिए ही खींची जाती है। लक्ष्मण रेखाएँ।

पूरे समय अलगाव की तीव्र यातना भोग कर लौटी, तो पापा रसोई में थे। पापा का चेहरा अतिरिक्त प्रसन्न था। वे ख़ुद रम्मी के पास खड़े होकर गरम-गरम पकौड़े उतरवा रहे थे। अमि को देखते ही बोले, ‘‘अमि तुम्हें ये खूब पसंद हैं न ! आज मैंने तुम्हारे लिए ख़ुद खड़े रह कर बनवाये हैं। खाओगी न !’’ अमि क्षण भर को, यह दृश्य, पापा का यह वाक्य, यह आग्रह, देख कर स्तंभित रह गयी। अमि की समझ में ही न आया कि इन क्षणों में वह क्या करे ? खूब ज़ोरों से हँसना शुरू कर दे या कमरे में जाकर फूट-फूट कर रोना। उसे लगा, लेबोरेटरी का वह सख़्त फ्लास्क आज अचानक टूट गया है और वह उसकी ममताली तरलता में सराबोर हो उठी है। अमि ने ख़ुद को कोसा कि भला वह कितनी मूर्ख है, जो पापा से जानबूझ कर डरी-डरी व दूर रही। उनका इतना प्यार न पा सकी। पापा कितने प्यारे हैं ! अमि के आनन्द का यह एक अकल्पित चरम बिन्दु था। उसका मन होने लगा, शहर के सबसे ऊँचे मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से खिल खिलाकर हँसे। हाँ, खूब ज़ोर से। आकाश की ओर मुँह करके।

मगर, जब डाइनिंग टेबुल पर बैठे, तो पापा ने रम्मी से कह कर लोकेश व मिसेज नरूला को बुला लिया। अमि को लगा, जैसे अचानक गर्म काँच पर किसी ने पानी की बूँदें छींट दी हैं। कुछ क्षणों पहले पापा के विषय में उपजे ख़याल टूट कर छार-छार हो गये। उसे पापा के चेहरे पर रिसती आत्मीयता मात्र एक वहम लगी। एक स्पष्ट धोखा। पापा वही हैं। एकदम वही। अमि से अनकंसर्ड, अनलिंक्ड और षड्यंत्रकारी। अमि वापस ख़ुद की पहली स्थिति में लौट आयी। लोकेश व मिसेज नरूला ठहाकों के साथ पकौड़े खाते रहे। अमि को लगता रहा, यह सब अमि के लिए नहीं था, इनके लिए था। लोकेश व मिसेज नरूला के लिए। वह सोचने लगी, क्या उसके तमाम सुख ऐसे ही होते हैं कि उनके आखि़री सिरे से लटकता रहता है कोई न कोई अचीन्हा दुःख ?

अमि दो-चार पकौड़े उगल-निगल कर उठ गयी।
अमि सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर आ गई।
कमरा खोला तो अंधेरा उससे ऐसे लिपट गया, जैसे वह उससे लिपटने के लिए बहु-प्रतीक्षित हो। वह कमरे में बत्ती जलाए बिना खड़ी रही, जैसे अंधेरे को अनुमति दे रही हो कि वह उससे जितना लिपटना चाहे लिपट ले। वह चाहे तो उसकी देह के रन्ध्र-रन्ध्र में उतर कर उसकी आत्मा को भी लील जाए। बाद इसके बिस्तरे पर पड़ी-पड़ी पता नहीं कब तक रोती रही। काफी देर बाद उठ कर देखा, तो लॊन में ड्राइंग-रूम में जलती बत्ती के प्रकाश का हाशिया चुपचाप घास पर उसी तरह लेटा था। और अब केवल आ रही थीं, कुछ आवाज़ें, जिनमें शब्द थे, ध्वनि थी, मगर अर्थ नहीं थे। अमि को लगा, उसकी संवेदनाओं की गीली ज़मीन पर कोई भयंकर तीखी चीज़ घसीट रहा है। फिर पता नहीं, अमि कब सो गयी। अब सिर्फ सन्नाटे को गाते झींगुर- भर जाग रहे थे।

क्रमश:



आगामी अंक () में पढ़ें
आँख खुली, तब सुबह हो चुकी थी। धूप चढ़ने लगी व चढ़ती चली गयी। मगर अमि नहीं उठी। रम्मी ऊपर आकर आवाज़ देने लगा। उसके जी में आया कि वह जवाब ही न दे और न ही दरवाज़ा खोले। आखि़र उठना ही पड़ा। झुंझलाहट में भरकर सिटकनी हटायी.....





इस जुए में दाँव पर स्वयं हम हैं

रसांतर

सारे विश्व की धराशायी हुए जाती अर्थव्यवस्था पर और सबसे बढ़ कर उसके भारतीयों के जीवन क्रम पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर लिखे इस लेख में वित्तीय समस्याओं से दो-चार होते समाज ही की नहीं अपितु उस सामाजिक चक्र की चाल से बदलते सामाजिक मूल्यों की भी मीमांसा की गयी है| कैसे अर्थव्यवस्था सामाजिक मूल्यों की चाल को प्रभावित करती छीजती चलती है - इसे जानने के लिए आप यह आलेख अवश्य पढ़ें
. वा.


संपत्ति का मूल्य
- राजकिशोर

दीपावली की रात को जुआ खेलने का महत्व है। कब और क्यों, जुए को हिन्दुओं के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली का अंग बना दिया गया, पता नहीं। शायद इस तथ्य को सामाजिक रूप से आत्मसात कराने के लिए कि धन-संपत्ति आनी-जानी चीज है या जिंदगी एक जुआ भी है। जिंदगी एक जुआ है या कहिए महज एक संयोग है, यह बात बहुत शुरू में ही मेरी समझ में आ गई थी। लेकिन हाल ही में मेरी समझ में यह बात आई कि मेरे पास जो धन-संपत्ति है, वह भी जुआ है या उसका मूल्य मेरे अधीन नहीं है। और तभी से मैं भीतर ही भीतर काँप रहा हूँ .

इसका पहला एहसास तब हुआ जब मेरे फ्लैट की कीमत अचानक कई गुना बढ़ गई। पूर्वी दिल्ली के एक साधारण-से इलाके में यह फ्लैट मैंने 1996 में सवा छह लाख रुपए में खरीदा था। संपत्ति बनाने की इच्छा मेरे मन में कभी नहीं रही। लेकिन जब नवभारत टाइम्स ने छह साल की नौकरी के बाद अचानक मुझे विदा कर दिया और उसके साथ ही मकान किराया भत्ता जाता रहा, तो समस्या हुई कि कहाँ रहा जाए। तब मैं अपने छोटे-से जीवन में नौवीं बार किराए का घर खोजने के लिए निकल पड़ा। तब तक दिल्ली में किराए इतने बढ़ गए थे कि किसी साधारण आदमी के लिए किराए पर घर लेना असंभव हो चुका था। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया कि सब कहीं से कर्ज ले कर एक छोटे-से फ्लैट को अपना बनाया जाए। उस विकट स्थिति में कई मित्रों का उदार सहयोग आजीवन अविस्मरणीय रहेगा।

इससे भी ज्यादा मजेदार बात यह हुई कि वही फ्लैट कुछ ही वर्षों में चौदह-पंद्रह लाख का हो गया। यह मेरे लिए एक आँख खोल देने वाली विस्मयकारी घटना थी। यानी उस फ्लैट में रहते हुए भी मैं सात या आठ लाख रुपए कमा चुका था। इस कमाई के लिए मैंने कुछ भी नहीं किया था। दूसरी ओर, लगभग तीस साल तक नौकरी करने के बाद भी मेरी कुल बचत मुश्किल से तीन लाख रुपए थी। मैंने बहुत ही तकलीफ के साथ यह महसूस किया कि मेरी योग्यता (वह जैसी और जितनी भी हो) तथा बाजार को स्वीकार्य श्रम करने की क्षमता की तुलना में यह बात ज्यादा कीमती थी कि मैं एक ऐसे शहर में और एक ऐसे इलाके में रह रहा था, जहां संपत्ति का मूल्य इतनी तेजी से बढ़ता है।

आज बताते हैं कि उस फ्लैट का मूल्य पचास लाख के आसपास है। यानी बिना कुछ करे-धरे मैं पचास लाख रुपए का स्वामी हो चुका हूँसंपत्ति का मूल्य इसी गति से बढ़ता रहा, तो अनुमान किया जा सकता है कि दस साल बाद मैं करोड़पति हो जाऊँगा। क्या विडंबना है ! क्या मजाक है! बाजार नामक अदृश्य शक्ति मेरे पास जो है, उसकी कीमत तय कर रही है और उस मामले में मुझे पूरी तरह से बाहर कर दिया गया है। ऐसे समाज में जीने का औचित्य क्या है जहाँ आपके रहने के घर तक की कीमत भी दूसरे ही लगा रहे हों ?

मामला सिर्फ कीमत के बढ़ने का नहीं है। कम होने का भी है। जब पंजाब में आतंकवाद का बोलबाला था, तब वहाँ संपत्ति का मूल्य बहुत अधिक गिर गया था। कल अगर दिल्ली में भी आतंकवाद फैल जाए या किसी और वजह से यहाँ जीना असुरक्षित हो जाए, तो यहाँ भी संपत्ति का मूल्य गिरता जाएगा। उसके लिए भी मैं स्वयं कहीं से भी जिम्मेदार नहीं होऊँगा। पर मैं गरीब जरूर हो जाऊँगा

हाल ही में मेरे एक सहकर्मी (जाहिर है, कहीं पढ़ कर या टीवी से सुन कर ) बता रहे थे कि शेयर बाजार के गिरने से अनिल अंबानी की कुल संपत्ति का मूल्य गिर कर इतने अरब रुपए से इतने अरब रुपए ही रह गए हैं। इसी तरह, जिन लोगों की भी पूँजी शेयरों में लगी हुई थी, वे सब कुछ ही दिनों में पहले से कम अमीर हो गए हैं। क्या इसीलिए कहा गया है कि धन-संपत्ति माया है? माया शायद इसलिए कहा गया था कि उससे लगाव एक मरीचिका है। वह स्थायी नहीं है। आती-जाती रहेगी। या, वह जो भी है, तुम्हारी नहीं है। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी है -- उसे बचाओ। बाकी चीजें बाहरी हैं और उन पर तुम्हारा ध्यान जमा रहा तो जो वास्तव में तुम्हारा है, उसकी रक्षा तुम नहीं कर सकोगे। आज आत्मा को चरित्र या व्यक्तित्व कहा जा सकता है।

लेकिन हम जिस तरह की व्यवस्था में और जिस समय में रह रहे हैं, उसमें सचमुच ऐसा लगता है कि कोई भी भौतिक चीज हमारे कब्जे में नहीं छोड़ी गई है। पूँजीवाद के आने के पहले जिंदगी में ऐसी अस्थिरता सिर्फ उन्हीं इलाकों में थी जो राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, सूखा, बाढ़ आदि से पीड़ित रहा करते थे। बाकी इलाकों में धन-संपत्ति का मूल्य स्थिर था। सोने का मूल्य सैकड़ों वर्षों तक स्थिर रहा करता था। इसलिए तब अपनी बचत को सोने में ढाल कर भविष्य के प्रति निश्चिंत रहा जा सकता था। आज सोना भी सोना नहीं है। कभी उसकी कीमत तेजी से चढ़ने लगती है तो कभी तेजी से लुढ़कने लगती है। बेशक सोने की कीमत शेयरों की तुलना में अपेक्षाकृत स्थिर रहती है। लेकिन अमेरिका जैसे देश में अगर कोई अधेड़ आदमी अपनी बचत सोने में लगा कर रखता है, तो उसे मूर्ख माना जाएगा। सोना पेंशन नहीं दे सकता। शेयरों में लगा हुआ पैसा मासिक पेंशन का इंतजाम कर सकता है। पर शेयर खुद लुढ़कने लगे, तब ? आज अमेरिका के लाखों परिवारों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा गई है, तो इसका कारण यह है कि वहाँ भयानक मंदी छाई हुई है। मनमोहन सिंह कहते हैं कि उस मंदी का असर हम पर भी पड़ रहा है। यानी अमेरिका के कुछ मनचले बैंकरों की बेवकूफियों ने भारत के लाखों लोगों की कुल संपत्ति की कीमत गिरा दी है और इनमें अनिल अंबानी जैसे उद्योगपति भी हैं।

इस अनिश्चितता का कोई इलाज होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मुझे शेयर बाजार के धराशायी होने से कोई तकलीफ नहीं है। जब शेयरों के भाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे थे, तब जो लोग अनाप-शनाप कमाई कर रहे थे, वे ही आज संकट में हैं। जिन्होंने दिन देखा है, उन्हें रात भी देखनी चाहिए -- यह प्राकृतिक न्याय है। लेकिन उनसे जरूर गहरी सहानुभूति है जो इस प्राकृतिक न्याय की चक्की में पिस कर अचानक कंगाल हो गए हैं या अपने को आत्महत्या करने के लिए विवश पा रहे हैं। पूँजीवादी विचारक कहते हैं, यह असुरक्षा लाइलाज है। असमर्थ लोगों को बचे रहने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन धरती पर अनिल अंबानी या रतन टाटा जैसे समर्थ लोगों की संख्या कितनी है? बाकी लोगों के लिए एक ही विकल्प बचा है कि वे ऐसी अर्शनीतियों का जी-जान से विरोध करें जो हमारे जिंदा रहने के साधनों के मूल्य में अनिश्चितता लाती हैं और ऐसी अर्थनीतियों के पक्ष में काम करें जिनसे जीवन में कुछ निश्चितता, स्थिरता और सुरक्षा आती हो। जीवन होगा मूलत: जुआ, पर हमारा घर, हमारी कमाई, हमारा पेंशन -- सब कुछ जुए पर लगा हुआ हो और यह जुआ हम नहीं, ऐसे लोग खेल रहे हों, जिनका हमारे हिताहित से कोई संबंध नहीं है, यह बात पूरी तरह से समाज और मानव विरोधी है और इसे एक दिन के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

प्रिय पाठक, इस बारे में आपकी क्या राय है?


(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

भेज रही हूँ नेह निमंत्रण




हिन्दी भारत
समूह को आरम्भ हुए आज २३ अक्तूब को पूरा एक वर्ष हो गया । इसके इस कार्यकाल को समूह के साथियों की उपस्थिति ने अत्यन्त जीवन्त व प्राणवान् बनाए रखा है।

मैं एक वर्ष के अतीत में आज देखती हूँ तो वे कुछ दिन स्मरण हो आते हैं जब इसके गठन के लिए मूल चिन्ताओं से व्यग्र हो यह प्रयास आरम्भ किया था। भविष्य में देखती हूँ तो आने वाले समय के लिए बहुत -सी सुखद कल्पनाओं से भर जाती हूँ। किसी भी संस्था अथवा संगठन का अस्तित्व उसके बने रहने मात्र में नहीं निहित होता अपितु प्रकारान्तर में उसके मन्तव्यों के सफलीभूत होने में निहित रहता है। जैसे जैसे सामूहिक चिन्ताओं पर सामूहिक सम्वाद की स्थितियाँ बनती हैं तैसे तैसे उनके निराकरण की दिशाएँ व मार्ग भी प्रशस्त होने की सम्भावनाएँ प्रबल होती चली जाती हैं। यों होना तो उस से अधिक चाहिए, अपेक्षित भी होता है किन्तु यही क्या कम हर्ष का विषय है कि किसी मुद्दे को लेकर कम से कम देश दुनिया में रहने वाले कुछ मुट्ठीभर लोग तो एकत्र हुए! बस, इसी सामूहिकता के बूते बड़ी बड़ी सुलझनें भी पा ही ली जा सकती हैं; आशा बल देती है.

अस्तु!
इस प्रथम वर्षगाँठ को वार्षिक अधिवेशन के रूप में २५ अक्टूबर, शनिवार को नेट पर एक सामूहिक चर्चा के माध्यम से सम्पन्न करने का विचार बन रहा है। यदि आप में से कोई नया विचार सु्झाएँ तो उसका भी स्वागत है। इसे भारतीय समय से रात्रि बजे व यूके (लंदन समय) .३० बजे दोपहर को आरम्भ करने की योजना है ; लगभग दो घंटे का कार्यक्रम रहेगा । इसे याहू के मैसेंजर के माध्यम से चित्र व ध्वनि-कॊन्फ़्रेन्सिंग के रूप में सम्पन्न किया जाएगा । जिसमें एक हेडफ़ोन ( माईक सहित) की आवश्यकता होगी। परिचर्चा को सम्बोधित करने के लिए ३-४ वक्ताओं की अभी योजना है, जो १५1 मिनट हमें सम्बोधित करेंगे। शेष एक घंटा हम परस्पर सम्वाद का सुख लेंगे। (- यह अभी तक ऐसी इच्छा है।) आप सभी किसी भी प्रकार का सुझाव देना चाहें तो स्वागत है। तुरत प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा है। नेट पर भाषा, संस्कृति, सामाजिक प्रश्न व साहित्य आदि में रुचि रखने वालों से निवेदन है की अपनी उपस्थिति से इसे सफल व सार्थक बनाएँ | इसा खुले मंच पर सभी का स्वागत कर हर्ष होगा |

इसके तकनीकी पक्ष के लिए नीचे दी गई जानकारी देखें -
विस्तृत जानकारी


सामूहिक चर्चा में भाग लेने के लिये :
  1. आप को याहू id और याहू मेसेन्जर सौफ़्ट्वेयर की ज़रूरत होगी । यदि आप के पास याहू id नहीं है तो एक नया id बनायें । याहू मेसेन्ज़र सौफ़्ट्वेयर यहाँ उपलब्ध है , download करें और स्थापित करें http://messenger.yahoo.com/
  2. याहू मेसेन्ज़र पर logon करें (याहू id का प्रयोग करते हुए).
  3. याहू मेसेन्ज़र में Contacts और फ़िर Add a Contact पर click करें | email address की जगह bharathindi@yahoo.co.uk टाइप करें और next पर Click करें । एक बार फ़िर next पर Click करें और फ़िर finish पर ।
  4. निर्धारित समय (भारतीय समय रात बजे, न्यूयार्क समय सुबह ११:३० बजे लन्दन समय दोपहर .३० बजे) याहू मेसेन्ज़र पर logon करें । आप को एक Conference Call में शामिल होने का निमंत्रण मिलेगा , उसे स्वीकार करें ।
  5. Chat Window में आवाज के लिये Call और यदि आप के पास web camera है तो webcam पर Click करें ।
  6. आप को आवाज़ सुनने के लिये speakers और बोलने के लिये Microphone की ज़रूरत होगी । यदि आप के पास headphone है तो वह speaker और Microphone दोनों का काम कर सकते हैं। यदि आप के पास web camera है तो और लोग आप को देख सकेंगें ।
  7. पूर्व में इस तरह के प्रयोग में देखा गया था कि यदि आप के पास Vista Operating Systsem है तो आप को शायद Conference call में न जोड़ा जा सके ।
  8. वार्ता शनिवार को करना तय हुआ है । इस की तैयारी के लिये शुक्रवार को ठीक उसी समय एक प्रयोग किया जा सकता है ।
  9. यदि आप के पास कोई प्रश्न हो तो इस ब्लॉग पर टिप्पणी के रूप में लिखें। यदि अपना ईमेल यहाँ न देना चाहें तो आपको उत्तर भी यहीं प्राप्त होगा ।
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बाँदा में सम्पन्न हुआ सम्मान-समारोह,पुस्तक-विमोचन व कविसम्मेलन

बाँदा में सम्पन्न हुआ सम्मान-समारोह, पुस्तक-विमोचन व कविसम्मेलन :केदारसम्मान २००७






प्रगतिशील हिन्दी कविता के शीर्षस्थ कवि केदारनाथ अग्रवाल की स्मृति में दिया जानेवाला चर्चित 'केदार सम्मान- २००७' २७ सितम्बर २००८ को बान्दा नगर के आर्य कन्या इन्टर कॊलेज के हॊल में समकालीन हिन्दी कविता की चर्चित कवयित्री अनामिका को उनके कविता संकलन "खुरदुरी हथेलियाँ" के लिए, प्रख्यात आलोचक डॊ।मैनेजर पाण्डेय के हाथों प्रदान किया गया।

इस अवसर पर बोलते हुए डॊ.मैनेजर पाण्डेय ने कहा " खुरदुरी हथेलियाँ" की कविताओं में भारतीय समाज एवम् जनजीवन में जो हो रहा है और होने की प्रक्रिया में जो कुछ खो रहा है उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति है। अनामिका की कविता में सामान्य जन के जीवन और उनके दु:ख-सुख को दर्ज करने की भावना प्रबल है, इसलिए केदारनाथ अग्रवाल के वैचारिक मूल्यों के बहुत करीब हैं। मैनेजर पान्डेय के अतिरिक्त जितेन्द्र श्रीवास्तव व पत्रकार अंजना बख्शी ने भी अनामिका को सम्मान हेतु शुभकामनाएँ दीं।

सम्मान ग्रहण करते हुए अनामिका ने कहा कि यह क्षण मुझे अभिभूत कर रहा है। केदारनाथ अग्रवाल को याद करते हुए अनामिका ने कहा - वे सहज जीवन और सहज कविता के अद्भुत चितेरे कवि थे।

केदार सम्मान के इसी क्रम में डॊ। मैनेजर पाण्डेय द्वारा युवा आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव को 'डॊ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान' से सम्मानित किया। इस अवसर पर जितेन्द्र श्रीवास्तव को बधाई देते हुए डॊ. रघुवंशमणि त्रिपाठी ने कहा कि जितेन्द्र श्रीवास्तव ने स्त्री, दलित, साम्प्रदायिकता और किसान समस्या से जुड़े मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचन्द के लेखन को देखने का नूतन प्रयास किया है, यह आकलन इन्होंने ऐसे समय में प्रस्तुत किया जब प्रेमचन्द को स्त्रीविरोधी बताया जा रहा है।जितेन्द श्रीवास्तव ने समकालीन हिन्दी कविता को उसकी समग्रता में विभिन्न कवियों के माध्यम से देखने का प्रयास किया है जिससे एक नई दृष्टि विकसित होती नजर आ रही है। तत्पश्चात जितेन्द्र श्रीवास्तव ने केदार शोध पीठ न्यास, 'उन्नयन' पत्रिका व मैनेजर पाण्डेय का आभार प्रदर्शित किया।

इन दोनों सम्मानों के पश्चात डॊ। मैनेजर पाण्डेय द्वारा केदारनाथ अग्रवाल की चुनी हुई कविताओं का विमोचन किया गया। इस महत्वपूर्ण चयन का सम्पादन व चयन 'केदार शोध पीठ न्यास' के सचिव एवम् समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि नरेन्द्र पुण्डरीक ने किया है। इस चयन का प्रकाशन अनामिका प्रकाशन इलाहाबाद द्वारा किया गया है। साथ ही इस अवसर पर लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी के गज़ल-संग्रह का विमोचन भी डॊ. पाण्डेय द्वारा किया गया। इसका प्रकाशन भी अनामिका प्रकाशन द्वारा किया गया है।

केदार सम्मान के अवसर पर हैदराबाद से पधारे डॊ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा आने का सबसे बड़ा उद्देश्य कवि केदार की इस पावनभूमि को प्रणाम निवेदित करना था। आगे बोलते हुए उन्होंने कहा कि केदार की कविता मानवीय संघर्षों के प्रति अखण्ड विश्वास की कविता है। केदार से हुई अपनी भेंट के संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया कि केदार बाबू आयु के जिस शिखर पर बैठे थे, उनसे चर्चा के बाद यह उभर कर आया कि उस समय वे मृत्यु के विषय में अधिक सोचते थे।जनवाद उन्हें नहीं सुहाता। डॊ. शर्मा ने बल दिया कि केदार जी की कविताओं के कुछ नए पाठ तैयार किए जाने की आवश्यकता है,जिन्हें उनके अलग अलग काल से जोड़ कर देखे जाने से कुछ नए तथ्य उद्घाटित होंगे।

केदार शोधपीठ व सम्मान समिति के निमन्त्रण पर पधारीं "विश्वम्भरा" की संस्थापक महासचिव डॊ. कविता वाचक्नवी ने केदार के व्यक्तित्व एवम् कृतित्व पर अपना मत व्यक्त किया व उन्हें जातीय परम्परा का कवि बताया और कहा कि जातीय परम्परा में देश की धरती, धरती पर रहने वाले लोग और उन लोगों की सांस्कृतिक विरासत, मूल्य व सभ्यता आदि सभी गिने जाने चाहिएँ । यह भी रेखांकित किया कि एक या दो या दस संकलन या पुरस्कार आ जाने से कोई रचनाकार बड़ा नहीं होता है अपितु अपनी जातीय परम्परा में अपने सकारात्मक अवदान से उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। डॊ. वाचक्नवी ने केदार के व्यक्तित्व में निहित औदात्य की चर्चा की और उसे वह मूल तत्व बताया जिससे रचना वास्तव में कालजयी हो जाती है। केदार जी के व्यक्तित्व व कृतित्व में निहित पारदर्शिता का उन्होंने विशेष उल्लेख किया।

इस अवसर पर बोलते हुए केदार शोध पीठ के सचिव नरेन्द्र पुण्डरीक ने कहा कि केदार की कविता में चाहे केन नदी के सौन्दर्य के उद्दाम चित्र हों, वासन्ती हवा हो, गाँव का महाजन हो, बुन्देलखंड के लोग हों, पैतृक सम्पत्ति हो या मजदूर के जन्म की कविता हो , सभी कविताओं की भाव छवियाँ और सौन्दर्य बिम्ब अपनी धरती कमासिन में रहते हुए उनके मन में खचित हो चुके थे।

अध्यक्ष पद से बोलते हुए डॊ। मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि कविता एवम् साहित्य के क्षेत्र में सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है। उन्होंने कहा कि केदार जी साहित्य के बहुत बड़े पुरोधा हैं। केदार की कविता में विविधता एवम् व्यापकता है। कविता संस्कृति का निर्माण करती है और उसका संरक्षंण करती है। केदार जी अपने क्षेत्र की प्रकृति के कवि हैं। प्रकृति का संस्कृति से गहरा रिश्ता होता है।चूंकि केदार प्रकृति के कवि हैं अत: वे संस्कृति का निर्माण करते हैं। केदार जी की कविताएँ मनुष्य को सामाजिक बनाती हैं।

आयोजन के इस सत्र में मुख्य रूप से इनके अतिरिक्त ज्योति अग्रवाल (केदार जी की बहू), लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी, द्वारका प्रसाद मायछ( हैदराबाद), डॊ। रामगोपाल गुप्ता, योगेश श्रीवास्तव, चन्द्रपाल कश्यप, पवन कुमार सिंह, श्री अरुण निगम (चेयरमैन के.सी.एन.आई.टी.), विजय गुप्त आदि ने सक्रिय भागीदारी निभाई। इस सत्र का संचालन 'वचन' पत्रिका के सम्पादक प्रकाश त्रिपाठी ने किया और आभार श्री प्रकाश मिश्र सम्पादक 'उन्नयन' एवम् विनोद शुक्ल 'अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद' ने किया।

आयोजन के सायंकालीन चरण में कविसम्मेलन सम्पन्न हुआ। जिसका संचालन डॊ। अश्विनी कुमार शुक्ल ने किया । नगर पधारे साहित्यिक आगन्तुकों को विशेष रूप से केदार जी के आवास पर भी रात्रि में ले जाया गया। जीर्ण शीर्ण दशा में पड़े उस आवास व केदार जी की सामग्री आदि को देख कर सभी ने अत्यन्त चिन्ता प्रकट की व स्थानीय प्रशासन द्वारा सरकार की सहायता से इस स्थल को केदार स्मारक के रूप में विकसित करने की माँग करते हुए कहा कि शीघ्रातिशीघ्र ऐसा किया जाना अपेक्षित है।
- योगेशश्रीवास्तव
बाँदा

कथा संग्रह ‘जीनकाठी’ का लोकार्पण


एस. आर. हरनोट के कथा संग्रह ‘जीनकाठीका लोकार्पण


कथाकार एस. आर. रनोट की कथा पुस्तक ‘जीनकाठीका लोकार्पण शिमला में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॊ. गिरिराज किशोर ने 22 सितम्बर, 2008 को श्री बी. के. अग्रवाल, सचिव (कला, भाषा एवं संस्कृति) हि.प्र.व 150 से भी अधिक साहित्यकारों, पत्रकारों व पाठकों की उपस्थिति में किया। ‘जीनकाठी तथा अन्य कहानियाँ’ आधार प्रकाशन प्रा0लि0 ने प्रकाशित की है। इस कृति के साथ हरनोट के पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और पाँच पुस्तकें हिमाचल व अन्य विषयों पर प्रकाशित हो गई हैं।


कानपुर(0प्र0) से पधारे प्रख्यात साहित्यकार डॊ. गिरिराज किशोर ने कहा कि सभी भाषाओं के साहित्य की प्रगति पाठकों से होती है लेकिन आज के समय में लेखकों के समक्ष यह संकट गहराता जा रहा है। बच्चे अपनी भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ते जो भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। डॊ. गिरिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की कि उन्हें भविष्य के एक बड़े कथाकार के कहानी संग्रह के विस्तरण का शिमला में मौका मिला। उन्होंने हरनोट की कहानियों पर बात करते हुए कहा कि इन कहानियों में दलित और जाति विमर्श के उम्दा स्वर तो हैं पर उस तरह की घोर प्रतिबद्धता, आक्रोश और प्रतिशोध की भावनाएं नहीं है जिस तरह आज के साहित्य में दिखाई दे रही है। उन्होंने दो बातों की तरफ संकेत किया कि आत्मकथात्मक लेखन आसान होता है लेकिन वस्तुपरक लेखन बहुत कठिन है क्योंकि उसमें हम दूसरों के अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात करके रचना करते हैं। हरनोट में यह खूबी है कि वह दूसरों के अनुभवों में अपने आप को, समाज और उसकी अंतरंग परम्पराओं को समाविष्ट करके एक वैज्ञानिक की तरह पात्रों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि इतनी गहरी, इतनी आत्मसात करने वाली, इतनी तथ्यापरक और यथार्थपरक कहानियाँ बिना निजी अनुभव के नहीं लिखी जा सकतीं। उन्होंने शैलेश मटियानी को प्रेमचंद से बड़ा लेखक मानते हुए स्पष्ट किया कि मटियानी ने छोटे से छोटे और बहुत छोटे तपके और विषय पर मार्मिक कहानियाँ लिखी हैं और इसी तरह हरनोट के पात्र और विषय भी समाज के बहुत निचले पायदान से आकर हमारे सामने अनेक चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं। हरनोट का विजन एक बडे़ कथाकार का है। उन्होंने संग्रह की कहानियों जीनकाठी, सवर्ण देवता दलित देवता, एम डॊट काम, कालिख, रोबो, मोबाइल, चश्मदीद, देवताओं के बहाने और माँ पढ़ती है पर विस्तार से बात करते हुए स्पष्ट किया कि इन कहानियों में हरनोट ने किसी न किसी मोटिफ का समाज और दबे-कुचले लोगों के पक्ष में इस्तेमाल किया है जो उन्हें आज के कहानीकारों से अलग बनाता है। हरनोट की संवेदनाएँ कितनी गहरी हैं इसका उदाहरण माँ पढ़ती है और कई दूसरी कहानियों में देखा जा सकता है।

जानेमाने आलोचक और शोधकर्ता और वर्तमान में उच्च अध्ययन संस्थान में अध्येता डॊ0 वीरभारत तलवार का मानना था संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों-’जीनकाठी’ और ’दलित देवता सवर्ण देवता’ पर बिना दलित और स्त्री विमर्श के बात नहीं की जा सकती। ये दोनों कहानियां प्रेमचंद की ’ठाकुर का कुआँ’ और ’दूध का दाम’ कहानियों से कहीं आगे जाती है। उन्होंने हरनोट के उपन्यास हिडिम्ब का विशेष रूप से उल्लेख किया कि दलित पात्र और एक अनूठे अछूते विषय को लेकर लिखा गया इस तरह का दूसरा उपन्यास हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता। माऊसेतु का उदाहरण देते हुए उनका कहना था कि क्रान्ति उस दिन शुरू होती है जिस दिन आप व्यवस्था की वैधता पर सवाल खड़ा करते हैं, उस पर शंका करने लगते हैं। जीनकाठी की कहानियों में भी व्यवस्था और परम्पराओं पर अनेक सवाल खडे किए गए हैं जो इन कहानियों की मुख्य विशेषताएँ हैं। उन्होंने कहा कि वे हरनोट की कहानियाँ बहुत पहले से पढ़ते रहे हैं और आज हरनोट लिखते हुए कितनी ऊँचाई पर पहुँच गए हैं जो बड़ी बात है। उनकी कहानियों में गजब का कलात्मक परिर्वतन हुआ है। उनकी कहानियों की बॊडी लंग्वेज अर्थात दैहिक भंगिमाएं और उनका विस्तार अति सूक्ष्म और मार्मिक है जिसे डॊ. तलवार ने जीनकाठी, कालिख और माँ पढ़ती है कहानियों के कई अंशों को पढ़ कर सुनाते प्रमाणित किया। हरनोट के अद्भुत वर्णन मन को मुग्ध कर देते हैं। ’माँ पढ़ती हुई कहानी’ को उन्होंने एक सुन्दर कविता कहा जैसे कि मानो हम केदारनाथ सिंह की कविता पढ़ रहे हो। हरनोट की कहानियों की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि वे बाहर के और भीतर के वातावरण को एकाकार करके चलते हैं जिसके लिए निर्मल वर्मा विशेष रूप से जाने जाते हैं।

कथाकार और उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो डॊ0 जयवन्ती डिमरी ने हरनोट को बधाई देते हुए कहा कि वह हरनोट की कहानियों और उपन्यास की आद्योपांत पाठिका रही है। किसी लेखक की खूबी यही होती है कि पाठक उसकी रचना को शुरू करे तो पढ़ता ही जाए और यह खूबी हरनोट की रचनाओं में हैं। डॊ. डिमरी ने हरनोट की कहानियों में स्त्री और दलित विमर्श के साथ बाजारवाद और भूमंडलीकरण के स्वरों के साथ हिमाचल के स्वर मौजूद होने की बात कही। उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित करने की दृष्टि से हरनोट की कहानियों पर प्रख्यात लेखक दूधनाथ सिंह के लिखे कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत किए। वरिष्ठ कहानीकार सुन्दर लोहिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि हरनोट की कहानियों में जिस तरह की सोच और विविधता आज दिखाई दे रही है वह गंभीर बहस माँगती है। हरनोट ने अपनी कहानियों में अनेक सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने चश्मदीद कहानी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कचहरी में जब एक कुत्ता मनुष्य के बदले गवाही देने या सच्चाई बताने आता है तो हरनोट ने उसे बिन वजह ही कहानी में नहीं डाला है, आज के संदर्भ में उसके गहरे मायने हैं जो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। इस तरह हरनोट की कहानियाँ समाज के लिए कड़ी चुनौती हैं जिनमें जाति और वर्ग के सामंजस्य की चिंताएँ हैं, नारी विमर्श हैं, बाजारवाद है और विशेषकर हिमाचल में जो देव संस्कृति के सकारात्मक और नकारात्मक तथा शोषणात्मक पक्ष है उसकी हरनोट गहराई से विवेचना करके कई बड़े सवाल खड़े करते हैं। लोहिया ने हरनोट की कहानियों में पहाड़ी भाषा के शब्दों के प्रयोग को सुखद बताते हुए कहा कि इससे हिन्दी भाषा स्मृद्ध होती है और आज के लेखक जिस भयावह समय में लिख रहे हैं हरनोट ने उसे एक जिम्मेदारी और चुनौती के रूप में स्वीकारा है क्योंकि उनकी कहानियाँ समाज में एक सामाजिक कार्यवाही है-एक एक्शन है।

हिमाचल विश्वविद्यालय के सान्ध्य अध्ययन केन्द्र में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर व लेखक डॊ0 मीनाक्षी एस. पाल ने हरनोट की कहानियों पर सबसे पहले अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हरनोट जितने सादे, मिलनसार और संवेदनशील लेखक है उनकी रचनाएँ भी उतनी ही सरल और सादी है। परन्तु उसके बावजूद भी वे मन की गहराईयों में उतर जाती है। इसलिए भी कि आज जब साहित्य हाशिये पर जाता दिखाई देता है तो वे अपनी कहानियों में नए और दुर्लभ विषय ले कर आते हैं जो पाठकों और आलोचकों का स्वतः ही ध्यान आकर्षित करती हैं। उनकी कहानियों में हिमाचल की विविध संस्कृति, समाज के अनेक रूप, राजनीति के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू, दबे और शोषित वर्ग की पीड़ाएं, गाँव के लोगों विशेषकर माओं और दादी-चाचियों का जुझारू और अकेलापन बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गए हैं। उनकी कहानियों में पर्यावरण को लेकर भी गहरी चिन्ताएँ देखी जा सकती हैं। वे मूलतः पहाड़ और गाँव के कथाकार हैं।

लोकापर्ण समारोह के अध्यक्ष और कला, भाषा और संस्कृति के सचिव बी.के अग्रवाल जो स्वयं भी साहित्यकार हैं ने हरनोट की कथा पुस्तक के रिलीज होने और इतने भव्य आयोजन पर बधाई दी। उन्होंने हरनोट की कहानियों को आज के समाज की सच्चाईयाँ बताया और संतोष व्यक्त किया कि हिमाचल जैसे छोटे से पहाड़ी प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर पर भी यहाँ के लेखन का नोटिस लिया जा रहा। उन्होंने गर्व महसूस किया कि हरनोट ने अपने लेखन से अपनी और हिमाचल की देश और विदेश में पहचान बनाई है। उन्होंने हरनोट की कई कहानियों पर विस्तार से विवेचना की। उन्होंने विशेषकर डॊ0 गिरिराज किशोर के इस समारोह में आने के लिए भी उनका आभार व्यक्त किया।

मंच संचालन लेखक और इरावती पत्रिका के संपादक राजेन्द्र राजन ने मुख्य अतिथि, अध्यक्ष और उपस्थिति लेखकों, पाठकों, मीडिया कर्मियों का स्वागत करते हुए हरनोट के व्यक्तित्व और कहानियों पर लम्बी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए किया।




पुस्तक चर्चा : आलूरि बैरागी चौधरी का कवि कर्म - 2



पुस्तक चर्चा : प्रो.ऋषभ देव शर्मा



आलूरि बैरागी चौधरी का कवि कर्म - २




आलूरि बैरागी चौधरी ने अपनी तीव्र संवेगात्मक प्रकृति के अनुरूप सटीक अभिव्यक्ति के लिए गीत विधा को सफलतापूर्वक साधा था। उनके एक सौ गीतों के संकलन ''प्रीत और गीत’’* (2007) में उनकी आत्मनिष्ठ तीव्र भावानुभूति के दर्शन किए जा सकते हैं। इसे उन्होंने कल्पना की सृजनात्मक शक्ति द्वारा मार्मिक अभिव्यंजना प्रदान की है। गीत विधा की सहज उद्रेक , नवोन्मेष, सद्यःस्फूर्ति, स्वच्छंदता और आडंबरहीनता जैसी सभी विषेषताएँ ए बी सी के गीतों में सहज उपलब्ध हैं। उनके गीत किसी न किसी तीव्र अनुभूति या भाव पर केंद्रित हैं, जिसका आरंभ प्रायः वे या तो किसी संबोधन के रूप में करते हैं या भावोत्तेजक स्थिति के संकेत से करते हैं अथवा उसके मूल में निहित विचार या स्मृति के कथन से। इसके अनंतर गीत के विभिन्न चरणों में वे इस भाव को क्रमिक रूप से विकसित करते है जो अंत में चरम सीमा पर पहुँचकर किसी स्थिर विचार, मानसिक दृष्टिकोण या संकल्प के रूप में साधारणीकृत हो जाता है। वस्तुतः आलूरि बैरागी चौधरी के गीतों में उपलब्ध यह स्वतःपूर्णता का गुण उन्हें विशेष प्रभविष्णुता प्रदान करता है। भावानुभूति और भाषाभिव्यंजना के इस सुगढ़ मेल के संबंध में प्रो। पी. आदेश्वर राव का यह मत सटीक है कि ‘‘उसमें व्यंजना और संकेत की प्रधानता रहती है। पूर्वापर प्रसंग-निरपेक्षता के कारण सांकेतिकता उसकी प्रमुख विशेषता होती है। वास्तव में गीत का आनंद उसके गाने से ही प्राप्त होता है, उसके द्वारा रस-चर्वण होता है और श्रोताओं में रस-संचार होता है। गीति काव्य की सभी विशेषताएँ बैरागी के गीतों में पूर्ण रूप में पाई जाती हैं।’’

विषय वैविध्य की दृष्टि से बैरागी का गीत संसार अत्यंत विशद और व्यापक है। मानव जीवन के सुख-दुःख, राग-द्वेष, आशा-निराशा और उत्कर्ष तथा पराभव सभी को इन गीतों में देखा जा सकता है। कवि की अभिलाषा है कि उसे सूरदास जैसी दिव्यदृष्टि मिल जाए ताकि वह अनंत सत्य का साक्षात्कार कर सके। उसका विश्वास है कि भौतिक चक्षुओं से न तो सुषमा का द्वार खुल सकता है, न ज्योतिष्पथ का पार मिल सकता है। इतना ही नहीं, कवि ऐसी ज्वाला की कामना करता है जो भले ही जीवन को जलाकर राख कर दे लेकिन सब कुछ को इस तरह मिटाए कि केवल प्यार बचे। तभी यह संभव होगा कि जो उड़ान अभी अर्थहीन प्रतीत होती है वह ज्योतित-नीड़ तक पहुँचकर सार्थकता प्राप्त करेगी। सूर के अंधत्व और पंछी की उड़ान के रूपक को कवि ने सुषमा, ज्योति और ज्वाला जैसी प्रकाशवाची संकल्पनाओं के सहारे रोमांचकारी परिपूर्णता प्रदान की है -

‘‘मुझे सूर की आँख चाहिए।
फूट गई जब आँख काँच की
खोली मन की आँख साँच की
हो उड़ान जिसकी अनंत उस मन-पंछी की पाँख चाहिए।
यंत्र-नयन , इनसे क्या होगा
कैसे सुषमा-द्वार खुलेगा ?
ज्योतिष्पथ का पार मिलेगा
जिस ज्वाला के शलभ-नयन में उसकी तिल भर राख चाहिए।
वह ज्वाला जिसका खुमार हो
जिसमें जीवन क्षार-क्षार हो
मिटे सभी जो बचे प्यार हो
अर्थ-हीन मेरी उड़ान को नीड ज्योति की शाख चाहिए।’’

बैरागी के इन गीतों में मानव और प्रकृति स्वतंत्र रूप में भी और परस्पर संबद्ध रूप में भी अनेक प्रकार से चित्रित हैं। कवि ने मानव के प्रकृतीकरण और प्रकृति के मानवीकरण दोनों ही में अचूक सफलता पाई है। प्रकृति उनके काव्य में आलंबन और उद्दीपन बनकर भी आई है तथा उसकी कोमलता और क्रूरता दोनों ही को कवि ने सुन्दरता और उदात्तता का आधार बनाकर चित्रित किया है। इन गीतों में कहीं काजल सा छाया हुआ अंधकार है, जिसमें उर के पागल खद्योत प्रकाश के क्षीण स्रोत बनकर भटक रहे हैं परंतु यह कज्जल-तम इतना सघन है कि उनकी सारी जलन भी निष्फल और असार सिद्ध हो रही है, तो अन्यत्र इस कालरात्रि पर विजय पाने का आश्वासन भी मुखर है। कवि को प्रतीक्षा है उस क्षण की जब किसी अपरिचित ज्योतिपथ में रश्मियों के रथ में इंद्रधनुष प्रकट होगा तथा जीवन के अभियान की सफलता के रूप में किरणें विजयहार पहनाएंगी -

‘‘क्या जाने किस ज्योतिष्पथ में
सुरचाप विलोल रश्मि -रथ में
जीवन अभियान सफल होगा पाकर किरणों का विजय-हार।’’

प्रेम की स्थितियाँ भी कुछ गीतों में मर्मस्पर्शी बन पड़ी हैं । कवियों की एक प्रिय स्थिति यह है कि रात बीत रही है और प्रेमीयुगल को न चाहते हुए भी एक दूसरे से अलग होना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में आलूरि बैरागी को प्रभात की प्रथम मधु किरण भी कृपाण सरीखी प्रतीत होती है तो इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं दीखती -

‘‘वह प्रभात की प्रथम मधु-किरण
रक्त-राग-रंजित कृपाण बन
मेरा मरण संदेश लिखेगी
कर देगी विक्षुब्ध हृदय तव।’’

मिलन और विछोह की एक अन्य स्थिति यह भी है कि कोई अचानक मिल जाता है - क्षण भर के लिए। और बिछुड जाता है। पर यह क्षणिक मिलन, क्षणिक दर्शन, क्षणिक चितवन, सदा के लिए अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है, संपदा बन जाता है, जीवन का संबल बन जाता है। यह अनुभव तब एक भिन्न प्रकार की कसक से भर उठता है जब बिछोह का कारण वर्ग-वैषम्य हो। कवि को याद है कि

‘‘जीवन पथ के किसी मोड पर तू क्षण भर के लिए मिली थी।
तेरे जीवन का राज-यान
था लक्ष्य-हीन मेरा प्रयाण
क्षण भर तो सामने हुए थे, चितवन भर के लिए मिली थी।’’


और फिर सारा जीवन किसी की प्रतीक्षा में बीत जाता है। लेकिन राजयान से जाने वाले कभी वापस लौटते थोड़े ही हैं -

‘‘किसकी राह देखता पगले!
इधर नहीं कोई आएगा
खबर नहीं कोई लाएगा
संध्या की लज्जित लाली में
किसकी चाह देखता पगले!’’


इसके बावजूद कवि की जिजीविषा अदम्य है। वह महाकाल से भिडने और यम से ताल ठोंक कर लड़ने को तत्पर है। तलवार की धार पर भी दौड़ना पड़े तो परवाह नहीं। दोनों पंख घायल हों पर उड़ना पड़े तो परवाह नहीं। जाना-पहचाना सब त्याग कर स्वयं से भी बिछुड़ना पड़े तो परवाह नहीं। परवाह है तो बस इस बात की कि आकाश को छूना है और इससे पहले पीछे नहीं मुड़ना है। देह भले हारी हुई और लाचार हो। नियति और विधि भले ही विपरीत हो। सारी परिस्थितियाँ शत्रुता पर उतारूँ हों। तब भी हड्डियों में लोहे की आवाजों के साथ चरम द्वंद्व छिड़ जाए तो पीछे नहीं हटना है। तभी यह संभव होगा कि काल के वक्ष पर ज्वाल के शूल से मनुष्य अपनी मुद्रा अंकित कर सके -

‘‘ज्वलित गलित दारुण मारण-भय
क्षार-क्षार सब मृण्मय संशय
शेष स्वीय सत्ता का विस्मय
काल-वक्ष पर ज्वाल-शूल से चिर मुद्रा निज गढ़ना मीत !’’
आज इतना ही।
ए बी सी की तीसरी काव्य कृति ‘वसुधा का सुहाग’ पर चर्चा अगली बार
*प्रीत और गीत (गीत संकलन)/
आलूरि बैरागी/
मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद/
2007/
125 रुपये/
पृष्ठ 100/सजिल्द।




अ-मानव - एस. आर. हरनोट

-मानव
एस. आर. हरनोट



समय के विकराल जबड़ों में अपना अस्तित्व खोए वह एक उजाड़ गांव था। वहां न अब कोई घर था और न खेत खलिहान। किसी अजीब सी कंटीली झाड़ियों का साम्राज्य वहां फैला था। उसके आसपास और दूर-दूर तक जहां भी आंखें देखतीं वीरानगी के सिवा कुछ नजर न आता। घाटियां निपट नंगी दिखतीं। उन पर न घास, न हरी भरी झाड़ियां और न कहीं पेड़-पौधों का नामोनिशां। उनके पीछे के पर्वत डायनासोरों जैसे डरावने दिखते। उनके गर्भ से बाहर झांकती चट्टानें मगरमच्छों के जबड़ों की तरह दिखतीं। तराईयों में बहते नदी-नाले ऐसे सूखे थे मानों कोई भयंकर अजगर अपने शिकार की ताक में चुप पड़ा हो। यह पच्चीसवीं-छब्बीसवीं शताब्दी के बीच का कोई समय था।

कालांतर में वह गांव भारत के अन्य गावों की तरह सुन्दर और जीवन्त रहा होगा। उसके खेत और क्यार गेहूं, जौ, मक्की और धान की फसलों से लहलाते होंगे। खलिहान में बीनने के लिए रखी फसलों पर जब कोई चाचा, ताया या दादा बैलों को घुमाता होगा तो बैलों के गले की धण्टियों की मधुर आवाजों से वातावरण संगीतमय हो जाया करता होगा। आंगन और खलिहान की मुंडेर पर बैठा दादा हुक्का गुड़गुड़ाते जब खांसता होगा तो गांव की औरतों और बच्चों में एक उत्साह और सुरक्षा का भाव जाग जाता होगा। किम्मू और पीपल के पेड़ के नीचे दोपहर और ढलती शामों के वक्त जब चैपालें सजती होंगी तो गांव बड़े-बुजुर्गों के ठहाकों से आच्छादित हो जाया करता होगा। उसके साथ की कुफ्फर-पोखर के किनारे चरांदों से लौटते सुस्ताते, पानी पीते पशु और भेड़-बकरियांे के रेवड़ जब अपनी-अपनी गौ शालाओं को जाते होंगे तो पगडंडियांे में जीवन लौट जाता होगा। प्राइमरी स्कूल के बच्चे आधी छुट्टी में जब उस पोखर के किनारे तख्तियां धोते-सुखाते होंगे तो उनकी किलकारियां पंछियों की चहचाहटों के साथ मिलकर मधुर संगीत पैदा करती रहती होंगी। सुबह-शाम गांव की औरतों और लड़कियों के टोले जब घास काटने जाते होंगे तो उनकी बाहों में सजी कांच की चूड़ियां और पैरों में बंधी पायजेबों की खनखनाहट से घाटियां गूंज जाया करती होंगी। जब वे बांवड़ियों के पास पानी भरने जातीं होंगी तो सिर पर उठाए घड़े और तांबे की टोकणियों की खनखनाहटें भी मन को मोह लिया करती होंगी। किसी के घर जब कन्या जन्म लेती होंगी तो उसे लक्ष्मी या देवी मान कर उत्सव मनते रहते होंगे। गांव में वर्ष भर मेले और त्यौहार मनते होंगे। देवताओं की जातरे होती रहती होंगी। हर सक्रांत को देवता के मंदिर के पास देव पंचायतें लगती होंगी जहां गावों के लोग अपने दुख-दर्द की फरियादें देवता के पास सुनाते होंगे। फसल काटने के बाद जब दूसरी फसल बीजने का मौसम आता होगा तो किसान अपने बैलों को लेकर जब खेत जोतने जाते होंगे तो हलों की फाटों के बीच उनके शरीर से बहती पसीने की बूंदो से धरती नम हो जाया करतीं होंगी।

लेकिन अब ये सभी अतीत हो गया था और टाइम मशीन के जरिये कुछ लोग उस काल में जाने की तैयारियां कर रहे थे। लेकिन उससे पहले इस काल में एक चुनौती उनके सामने मुंह बाएं खड़ी हो गई थी।

अति आधुनिक व विकसित वैज्ञानिकों ने एक दिन उपग्रह से भेजी तस्वीरों से उस उजाड़ जगह को जब चिन्हित किया तो झंखाड़ों के बीच एक जगह उन्हें उसी तरह की मानव आकृति दिखी जैसे मंगल ग्रह पर कभी दिखी थी। मशीनों की मदद से यह पता लगा लिया गया कि वह इक्कीसवीं सदी का कोई मानव है जो अभी तक ज़िन्दा है। उन्होंने कुछ बची-खुची प्राचीन इतिहास की पुस्तकों से इक्कीसवीं सदी के भारत के बारे में जो कुछ जाना-समझा था उसकी हल्की फुल्की तस्वीरें उनके जहन में थीं। इस पांच-छः सौ साल की अवधि में देश की तस्वीर बिल्कुल बदल गई थी। पहले जहां भ्रष्ट और स्वार्थी राजनीति और धर्मान्धता ने सबकुछ नष्ट कर दिया था, वहां एक ऐसी नई पीढ़ी बिल्कुल नए दिमाग के साथ पैदा हो रही थी जो उम्र से पहले ही जवान और स्याने हो जाते थे। उनकी उम्र तीस से पैंतालीस साल मुश्किल से होतीं, लेकिन वे इतने जी लेते मानो कई सदियों के मानव हों। सब कुछ मशीनी। इक्कीसवीं सदी जैसा कुछ नहीं। न दिन और न रात। न कोई मौसम। न नींद न भूख। न धर्म न संस्कृति। न लेखक न कोई साहित्य। न दलित विमर्श न स्त्री विमर्श। न बाजारवाद न भूमंडलीकरण। मां और पिता भी नहीं। न दादी-नानी, न कोई चाची ताई। भाई-बहन भी नहीं। न किसान न उनके गांव। न कोई फसलें। न चैपालें न पोखरें। गरीब और बूढ़े भी नहीं। न पक्षियों के कलरव और न पशु-जानवरों की हुंकारे और दहाड़ें।

रहने-जीने के अति आधुनिक तरीके। हर व्यक्ति के पास भूख-प्यास बुझाने के लिए नए-नए साधन। बच्चे पैदा करने के लिए इंजैक्शन। उठने, बैठने और चलने के लिए इंजैक्शन। उस युग में औरतों की कोई जरूरत नहीं रह गई थी। वैसे भी पहले लड़कियों को पेट में मार दिया जाता था। इसलिए इस युग तक महिलाएं जैसे नदारद हो गईं थीं। किसी भी मर्द में जरूरत के मुताबिक इंजैक्शन ठूंसों और बच्चा पैदा कर लो। उनके कदकाठी भी बहुत छोटे होते। कुल मिलाकर वे रोबोट या एलियन की ही तरह लगते। सब के पास छोटी-छोटी जहाजनुमा उड़न तश़्तरियां थीं जो लेजर तकनीक से सम्पन्न होतीं। जहां चाहें जाएं। चांद-सितारे और दूसरे ग्रहों पर तो लोग ऐसे जाते मानो ससुराल जा रहे हों। इसके बावजूद भी सबकुछ नया-नया करने की होड़।

उस मानव की खोज में एक दल निकल पड़ा था। ....और एक दिन वे उस चिन्हित खंडहर में उतर गए। आवाज सुन कर एक बूढ़ा झाड़ियों के बीच से बाहर निकल आया। उसने देखा कि एक कटोरेनुमा कोई चीज उसके कुछ दूर उतरी है जिसने स्वतः ही वहां की झाड़ियों को जला कर एक साफ सुथरी जगह बना ली है। वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुआ। एक गहरी सांस ली। आंखों में खून तैर आया। सिर सहित पूरे बदन पर झाड़ों की तरह उगे बाल खड़े हो गए। तभी धीरे-धीरे उस कटोरे से पांच छोटे-छोटे लोग उतरे। उनके हाथों में सूक्ष्म लेजर बंदूकें थीं। वह बूढ़ा नहीं समझ पाया कि ये क्या चीजें हैं। सभी उसकी ओर बढ़ने लगे। जैसे वह कोई खतरनाक आतंकी हो। अपनी गनों को सावधान करते हुए। हांालाकि उन्हें किसी खतरे की आशंका नहीं थी फिर भी इस पांच सौ बरस से ज्यादा उम्र के उस आदमी से वे भीतर ही भीतर घबराए हुए थे। उसके पास कुछ नहीं था। न कोई हथियार और न कुछ और। वह तकरीबन सात फुट का आदमी था जिसके सिर और दाढ़ी के बाल घुटनों तक थे। उसके शरीर को उन्हीं बालों ने ढक रखा था। उसने कभी जो कपड़े पहने थे वे मोसमों के साथ गल-सड़ गए थे। पर अजीब बात थी कि उसके शरीर को कुछ नहीं हुआ था। आंखों की नजर ठीक थीं। सांस ठीक थीं। पर उसने पिछले पांच सौ सालों में न कुछ खाया था न बोला ही था। वह भूल गया था कि शब्द भी कोई चीज होते हैं। लेकिन उड़न तश्तरी के उतरते ही उसके कानों में इतने दिनों बाद कोई आवाज गूंजी थी।

वे लोग उसके पास पहुंचे और सभी ने अपनी-अपनी गनें उस निहत्थे पर तान दीं। उसने झटपट उन्हें ऐसे पटक दिया मानों अपने शरीर पर पड़ा घास-फूस झाड़ दिया हो। वे सभी हैरान परेशान। एक ने हिम्मत जुटाई और विनती के स्वर में कहने लगा,

’देखो, हम से डरो नहीं। हम तुम्हारे दोस्त हैं। हम तुम्हें नुकसान पहुंचाने नहीं आए हैं। बस हम यह जानना चाहते हैं कि क्या तुम्हारे पास अभी भी अनाज है ? क्योंकि तुम जिन हालातों में रहते हो, जरूर कोई ऐसी चीज होगी जो तुम्हें इतने बरसों ज़िन्दा रखे हुए है। देखो, हम अति आधुनिक युग के आदमी हैं। हमने अनाज के बारे में सुना है। रोटी के बारे में सुना है। पर उसका स्वाद नहीं चखा है। किसानों के बारे में सुना है। पर उन्हें कभी देखा नहीं है। हमने यह भी सुना है कि इस देश में कभी अनाज के लिए बहुत बड़ा गृहयुद्ध हुआ था। हम गांव नहीं जानते। हम पशु जानवर नहीं जानते। ये सभी हमने एक किताब में पढ़ा है जो मुश्किल से बची थीं।’

वह बूढ़ा उनकी बातों को सुन कर पहले हल्का सा मुस्कुराया और फिर इतनी जोर से हंसा कि मानो उसकी हंसी उस पूरे युग में छा गई हो। हंसी के साथ उसके भयानक और डरावने चेहरे पर कई सदियों की जमीं परतें अजीबो गरीग ढंग से उघड़ने लगीं। उसने अपने को संयत किया। संभाला। वे हतप्रद से उसे देखते रहे।

वह कुछ बोलना चाहता था पर तत्काल बोल नहीं पाया। उसका मुंह फूलता रहा जैसे कोई बड़े गुब्बारे में जबरदस्ती हवा भरने की कोशिश कर रहा हो। अचानक एक भारी भरकम आवाज निकली,

’तुम्हे अनाज चाहिए। पर क्यांे ? इस युग में तुम्हें उसकी क्या आवश्यकता..? तुम्हारे पास तो अति आधुनिक तकनीके हैं। मशीनी मानव है। सुइयां हैं। दवाईयां हैं। जिन्हें लगा-खाकर न भूख लगती है न प्यास। फिर तुम्हें अनाज-रोटी की क्या जरूरत..?’

उन में से एक ने उसकी बातों का जवाब दिया,

’जरूरत नहीं है, पर हम देखना चाहते हैं कि वह होता कैसा है ? उसका स्वाद कैसा है ? उसमें शक्ति कैसी है।’

बूढ़ा दहाड़ा,

’उसकी शक्ति ? देख नहीं रहे हो।’

उसने कुछ इस तरह से बाहें फैलाई जैसे उनकी इस दुनिया को वह अपनी बाहों में समेट लेगा। ऐसा करते ही उसकी बाहों से कई मन मिट्टी, घास, पत्थर नीचे गिरते रहे। उसने हुंकारते हुए कहना शुरू किया,

’तुम सभी ने उसकी शक्ति मिटा दी। नया और अति नया करने के चक्कर में सब कुछ नष्ट कर दिया। अपने देश को नया युग बनाने के लिए तुमने गरीबी के बदले गरीब मिटा दिए। कामगरों को नई-नई मशीने विकसित करके समाप्त कर दिया। देवता और भगवान बनने के लिए मन्दिर, मस्जिद और गुरूद्वारे नष्ट कर दिए। जवान दिखने के लिए बूढ़े नहीं रहने दिए। रिश्ते खो दिए। संस्कृति मिटा दी। धर्म नहीं रहने दिया। यहां तक कि अ-मनुष्य पैदा कर दिए। माताओं की ममता नहीं रहने दी, जो किसी भी युग में सर्वोपरि होती थीं। जो संसार की रचना करती थी। तुमने उस मां को भी नहीं रहने दिया। तुमने जो कुछ पाया वह अप्राकृतिक था और आज भी है......तुम यहां से चले जाओ.........नहीं तो तुम बचोगे नहीं।’

वे उसकी बातें सुन कर चुपचाप खड़े रहे। उन्हें कुछ समझ नहं आ रहा था। थोड़ी देर बाद उन सभी ने अपने हाथ जोड़ दिए। यह तरीका भी उन्होंने उस पुरानी किताब में कहीं पढ़ा था.........।

इस विनम्रता से उस बूढ़े के हृदय में वह पुराना सोया प्यार जाग गया। वह प्यार जो पिता या मां के हृदय में अपने बच्चों के लिए छिपा रहता है।

उसने अजीब तरीके से आंखों की पुतलियां घुमाई। फिर जमीन पर हाथ मारा। कई मन मिट्टी निकल कर बाहर आई, जिनमें असंख्य काली चींटियां थीं। वे सभी उन चींटियों को देख कर हैरान रह गए कि इस धरती पर आज भी कोई इतना सूक्ष्म जीव रहता है। पहले वे पगलाई सी बाहर आई। फिर जमीन के भीतर कहीं लोप हो गई। थोड़ी देर बाद कतारों में निकलने लगीं। सभी के मुंह में अनाज के दाने थे। किसी के मुंह में गेहूं का दाना, किसे के चावल का तो कोई बथ्थू-बाजरा लेकर आ रही थीं। देखते ही देखते उन्होंने एक तरफ अनाज का ढेर लगा दिया।

’लो! उठा लो, जितना चाहिए। उठा लो। यही अनाज है। इसी से रोटी बनती है। किसान इसे ही पैदा करता था। लेकिन तुमने सबकुछ खत्म कर दिया। बस, चींटियों ने अपने घरों में इसे बचाए रखा। याद रखो कोई भी युग, कोई भी समय, कोई भी मौसम बिना मेहनतकशों और किसानों के ज़िन्दा नहीं रह सकता। तुम अति आधुनिक विकसित देश के लोग तो हों पर बुतों से बढ़कर कुछ नहीं हो। अभागे हो तुम। जाओ अब, चले जाओ यहां से और ले जाओ इस अनाज को। हो सके तो भारत के उस किसान को ज़िन्दा करो जोे इस दुनिया के आधार हैं। जिसे तुमने बर्वाद कर दिया है।

यह कहते हुए उस बूढ़े नें अपनी आंखें बन्द कर दीं।

वे सभी बुत बने वहीं जैसे जड़ हो गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वे यह देख कर हैरान थे कि अनाज के इतने छोटे दाने होते हैं और जिन्हें अभी तक इन छोटे-छोटे काले कीड़ों ने कहीं धरती के नीचे जमा कर रखा है। उनके मन में एकाएक खुराफात सूझी। वे उन कीड़ों को अपने साथ ले जाना चाहते थे। लेकिन इससे पहले कि वे कुछ योजना बनाते, चींटियां सारे का सारा अनाज लेकर गायब हो गई थी। वे कभी जमीन पर तो कभी उस बूढ़े की तरफ देखते। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि ये सब क्या है। बूढ़े ने उनकी तरफ पीठ फेर ली थी। उन्हें लग रहा था जैसे उनके सामने कोई पहाड़ आकर खड़ा हो गया हो।

वे जैसे ही पीछे मुड़े तो यह देख कर हतप्रद रह गए कि असंख्य चींटियां उनकी उड़न तश़्तरी को धरती के नीचे घसीट रही थीं।



-ओम भवन, मोरले बैंक इस्टेट, निगम बिहार, शिमला-१७१००२


आलूरि बैरागी चौधरी का कविकर्म

पुस्तक चर्चा :ऋषभ देव शर्मा

आलूरि बैरागी चौधरी का कविकर्म -१




धुनी जा रही दुर्बल काया .
मलिन चाम में हाड-मांस जिसमें स्वर्गिक सपनों की माया.
नस-नस तांत बनी धुन जाती
रग-रग में हिम-ज्वाल सुलगती
उड़ते उजले मन के फूहे शरद-मेघ की बिखरी छाया.
रोम-रोम में जगती पीड़ा
चपल क्रूर शिशुओं की क्रीडा
कौन निर्दयी जीवन-वन में छुपे व्याध-सा धुनने आया?
पलित पुरातन स्तूप बनेगा
जीवन का नव रूप छनेगा
किसी अविदित अदृश्य दानव ने मेरा नाम-निशान मिटाया.
मैं न रहूँगा तो क्या होगा?
हर्ष-शोक एक सपना होगा
विपुल विश्व ये माटी होगा माटी बन माटी का जाया.

-(धुनी जा रही दुर्बल काया / प्रीत और गीत)







इस छायावादी संस्कार से आरम्भ करके नई कविता तक की यात्रा करने वाले, कई स्थलों पर सुमित्रानंदन पन्त और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से तुलनीय कविवर आलूरि बैरागी चौधरी(०५ सितम्बर १९२५ - ०९ सितम्बर १९७८) को ए बी सी के आद्याक्षरों के रूप में भी पहचाना जाता है.
तेलुगु भाषी हिन्दी साहित्यकार बैरागी मूलतः आन्ध्र प्रदेश के ऐतानगर(तेनाली तालुक, गुंटूर जिला) के निवासी थे. वे एक मध्य-वर्गीय कृषक परिवार में जन्में थे और उन्हें राष्ट्रीयता तथा हिन्दी प्रेम अपने पिता से विरासत में मिला था. अत्यन्त मेधावी बैरागी की स्कूली शिक्षा कक्षा ३ तक ही हो सकी परन्तु उन्होंने स्वाध्याय द्बारा तेलुगु, हिन्दी और अंग्रेज़ी पर अधिकार ही प्राप्त नहीं किया बल्कि इन तीनों भाषाओं में काव्य-सृजन भी किया. हिन्दी तो उनके लिए मानो मातृभाषा ही बन गई थी क्योंकि चार-पाँच वर्ष तक उन्होंने बिहार में रहकर हिन्दी साहित्य का उच्च अध्ययन किया था. वे १९४२ में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में भी सक्रिय रहे. उन पर गांधी, मार्क्स और रेडीकल ह्यूमेनिज्म के प्रवर्तक एम.एन राय का गहरा प्रभाव पड़ा. कुछ दिन वे हाई स्कूल में हिन्दी अध्यापक रहे उसके बाद चार वर्ष 'चंदामामा' के तेलुगु और हिन्दी संस्करणों के संपादक रहे. वे 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास' के हिन्दी प्रशिक्षण विद्यालय में आचार्य भी रहे. लेकिन अपनी स्वतंत्र प्रवृत्ति और निर्भीकता के कारण ज्यादा दिन कहीं टिक नहीं सके. एक विशेष प्रकार का फक्कड़पन और अक्खडपन उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में देखा जा सकता है. वे आजीवन अविवाहित रहे, कोई घर नहीं बसाया - धन-संपत्ति का उन्हें कभी मोह नहीं रहा. १९५१ में उनका हिन्दी काव्य-संग्रह 'पलायन' प्रकशित हुआ था जिसकी तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में काफ़ी चर्चा हुई थी.

उनके निधन के पश्चात प्रकाशित उनके तेलुगु कविता संग्रह 'आगम गीति' को साहित्य अकादमी द्बारा पुरस्कृत किया गया परन्तु लम्बी अवधि तक उनकी हिन्दी कविताएँ अप्रकाशित पड़ी रहीं . कहा जाता है कि प्रकाशन के लिए अयोग्य समझकर बैरागी जी ने अपनी कविताओं के दो संकलनों को स्वयं नष्ट कर दिया था.१९८९ में उनकी ६५ कविताओं का संकलन ''फूटा दर्पण'' आन्ध्र प्रदेश हिन्दी अकादमी द्बारा प्रकाशित किया गया था. उनकी शेष कविताओं को अब तीन काव्य संग्रहों के रूप में प्रकाशन का सौभाग्य मिला है, ये संग्रह हैं - 'संशय की संध्या', 'प्रीत और गीत' तथा 'वसुधा का सुहाग'.


संशय की संध्या* (२००७) में आलूरि बैरागी की १९४० से १९५१ तक रचित ४२ कविताएँ सम्मिलित हैं जो उन्हें हिन्दी के दिनकर, बच्चन, अंचल, नवीन और सुमन जैसे छायावादोतार कवियों की पंक्ति में खड़ा करने में समर्थ है. उनके साहित्य के संग्राहक और विशेषज्ञ प्रो. पी. आदेश्वर राव का यह मानना कदापि अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रगीत शैली में रचित ये कविताएँ पन्त कृत ' परिवर्तन' और निराला कृत 'राम की शक्तिपूजा' की याद दिलाती हैं. इसमें संदेह नहीं कि ये कविताएँ ठोस वैचारिकता, गहन भावानुभूति और विराट कल्पना से ओत-प्रोत हैं तथा भाव और भाषा एक दूसरे के अनुरूप हैं. इस संग्रह में एक ओर तो वैयक्तिक पीड़ा तथा प्रेमानुभूति की कविताएँ हैं और दूसरी ओर सामजिक विषमताजन्य विद्रोह तथा क्रान्ति की कविताएँ हैं. कवि की पक्षधरता दलित शोषित मानव जाति के साथ है और मनुष्य की निर्मलता तथा विकास में, उसकी सृजनशीलता तथा सफलता में उनकी दृढ़ आस्था है. मानव के साथ ही प्रकृति का सौंदर्य भी उन्हें निरंतर आकर्षित करता है. क्योंकि वे किसी भी महान भारतीय कवि की भांति सौन्दर्योपासक हैं. चिंतन और विचारधारा के स्तर पर वे प्रगतिवादी हैं परन्तु उनके सपनों का संसार 'जरा- मरण- अस्तित्व-समस्या-शोक- हीन विगत -विकार ' है.इसीलिये उनके काव्य में मानव और प्रकृति , व्यक्ति और समाज, यथार्थ और कल्पना, सत्य और स्वप्न तथा विचार एवं अनुभूति का अद्भुत सामंजस्य प्राप्त होता है जो एक मानवतावादी रचनाकार के रूप में उनकी महानता का सूचक है.
यहाँ इस संग्रह की दो भिन्न प्रकार की कविताओं के अंश द्रष्टव्य हैं -

(१)

जाग रे जीर्ण शीर्ण कंकाल
हड्डियों के ऐ सूखे जाल
युगों से जल-जलकर म्रियमाण
जाग रावण की चिति की ज्वाल

जाग टुकड़ों पर पलते श्वान
जाग गीदड से कायर नीच
जाग अज्ञान निशा के मलिन
क्रोड़ के बड़े लाड़ले लाल

जाग ओ अपमानों के लक्ष्य
हिंस्र पशुओं के निर्बल भक्ष्य
जाग बेबस के उर की हूक
छोड़ केंचुल ओ विषधर व्याल

जाग बूढ़ी कुलटा की आस
गिरहकट चोर दस्यु बदमाश
जाग रे बेकारों के जोर
जाग बाघिन निरुपाय हताश

(जागृति गान)



(२)

जाने क्यों मुरझा जाता प्यार?
आयु की पोथी में दबे गुलाब की सूखी पंखुडियों सा ,
जरा जीर्ण, पर स्वर्ण मोर-पंख, पद- टूटी गुडियों सा ,
भीषण ग्रीष्मानल में ज्यों उड़ती सुरभित जल की फुहार ,
दग्ध नग्न वसुधा का , छिन्न वन्य कुसुम हार !
सुरधनु का क्षण भर का ज्यों सिंगार!
जाने कैसा झर जाता प्यार?
[जाने क्यों मुरझा जाता प्यार?]

आज इतना ही.
ए बी सी के दो अन्य सद्य-प्रकाशित काव्य संकलनों की चर्चा अगली बार.
फिलहाल इतना ही कि हिन्दी साहित्य भी हिन्दी भाषा की तरह अखिल भारतीय है .उसे उत्तर भारत के कुछ गिने-चुने शहरों तक सीमित रखना उसकी भारतीय चेतना के साथ अत्याचार के समान है. इसलिए आज हिन्दी साहित्य के इतिहास के वृहत्तर और अखिल भारतीय दृष्टि से पुनर्लेखन की आवश्यकता है . ऐसा करके ही उसे क्षेत्रीयतावादी जड़ता से मुक्त किया जा सकता है. निस्संदेह ऐसे साहित्येतिहास में आलूरि बैरागी चौधरी जैसे दाक्षिणात्य हिन्दी साहित्यकारों के प्रदेय का उचित मूल्यांकन हो सकेगा.

* संशय की संध्या [कविता संकलन]/
आलूरि बैरागी /
मिलिंद प्रकाशन , हैदराबाद - ५०००९५/
२००७/
१०० रुपये /
८८ पृष्ठ /सजिल्द
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एक चुप्पी......

पिछले अंक (३) तक आपने पढ़ा -----


एक दिन भैया के संदर्भ में वे जैसे ख़ुद से जूझते हुए बड़बड़ाए थे -‘साला आखि़र, अपनी उस कमीनी व धोखेबाज़ माँ की तरह ही निकला।’ ममी के लिए पापा इतने गंदे शब्द भी इस्तेमाल कर सकते हैं, उसने पहली बार सुना था। अमि को पतानहीं, ममी कैसी रही होगी।


एक चुप्पी क्रॊस पर चढ़ी
- प्रभु जोशी


अब आगे पढ़ें - (४)

पापा ने ममी के तमाम फोटोग्राफ्स फाड़ डाले थे। भैया के मुँह से ही यह भी जाना था कि ममी को लिखने-पढ़ने का खूब शौक था। साड़ियाँ या सौंदर्य प्रसाधन की चीज़ों की जगह ममी पत्रिकाएँ किताबें भर लाती थीं और इसी बात को लेकर ममी पापा के बीच टेन्शन बढ़ता गया था। नतीज़तन पापा ने ममी को एक कमरा अलग से दे दिया था। ऊपरी मंज़िल का। जिसमें ममी अपनी किताबों और कपड़ों की अल्मारियों के साथ अलग-सी रहने लगी थी। पापा से लगभग अलग और असम्पृक्त।


भैया
ने ही बताया था ममी बहुत मर्मस्पर्शी कहानियाँ लिखा करती थीं और उनकी एक कहानी छपने पर पापा ने ममी को बूटों की ठोकरों थप्पड़ों से बहुत बेरहमी से पीटा था।भैया तब काफी छोटे थे और उन्होंने भी तब किसी आई।पी.एस. अफसर का गुस्सा पहली बार देखा था। ममी खूब रोयी थीं। और जब सुबह हुई, तो ममी की लाश दुमँज़िले फ्लैट के पिछले पथरीले फर्श पर मिली थी। ममी ने टैरेस पर से कूद कर आत्महत्या कर ली थी। और जब पापा भैया के बीच झगड़ा हुआ था, तो अमि को डर लगने लगा था, भैया भी किसी भी क्षण, उसकी आँख लगते ही फ्लैट के टैरेस से पथरीले फर्श पर कूद पड़ेंगे। वह रात भर सिसकती हुई भैया के सीने में दुबकी सोयी रही थी। पूरी रात उसकी आँखों में पापा की अँगुलियों जूतों कीटोही तैरती रही थी। चमकती हुई। अंधेरे में। किसी बनैल पशु की आँख-सी। अमि इतना सारा सोच कर घबरा-सी उठी। उठ कर उसने लाॅन की ओर की बंद खिड़की खोल दी। हवा का एक ठण्डा झोंका पीले गुलाबों से होता हुआ कमरे में गया। मगर, घुटन फिर भी कम नहीं हुई। अमि पीले गुलाबों की ओर टकटकी लगायेदेख रही थी। उसे याद आया, उस दिन अमि ने अपने बालों में पीला गुलाब लगा लिया था काॅलेज के लिए निकलते वक़्त पापा लाॅन में टकरा गये थे। और उन्होंने अमि को आवाज़ लगा कर अपने पास बुलाया था। और चुपचाप उसके बालों में से वह पीला गुलाब निकाल कर फेंकते हुए बोले थे, ‘हाऊ गाॅडी-कलर्ड फ्लावर इट इज़ अमि का चेहरा रुआँसा हो आया था। तब से अमि ने उन फूलों को हाथ नहीं लगाया। वे खिलते हैं और वहीं सूख जाते हैं। अमि को बहुत दिन बाद पता लगा था, ममी को पीले गुलाब और अशोक के पेड़ बड़े प्यारे लगा करते थे। इन्हें लाॅन में उन्होंने ख़ासतौर पर लगवाये थे। माली से कहकर अपने सामने। ख़ुद खड़े रह कर। वह पीले गुलाबों की तरफ देखने लगी। देखकर उसे लगा, जैसे धूप भी अब इन पर कुछ ज़्यादा बेरहमी से ही गिरती है। अमि के भीतर उठे इस निष्कर्ष ने, आँखें गुलाबों से हटा कर अशोक की तरफ कर दी। वहाँ देखते हुए पहली बार ख़याल आया, ग़ालिबन अशोक के पेड़ ने भी पापा केअटेंशनका कमाण्ड सुनकर अपनी शाखें अपनी देह से ऐसी चिपका ली कि आज तक खोल ही नहीं पाया। हमेशा सहमा सा, सीधा खड़ा रहता है। बिना हाथ के आदमी-सा।यक--यक उसके भीतर भैया की याद एक टीस की तरह उठी और वह सिहर सी गई।उसने विश्लेषित किया कि ममी को याद करते वक़्त भैया भैया को याद करते ही ममी याद आने लगती है.... भैया के चले जाने के बाद से उनके कमरे की ओर तो अमि से देखा तक नहीं जाता।


क्रमश:



आगामी अंक (५) में -
भैया ने जाने के तीसरे ही दिन बाद ख़त डाला था, अमि के नाम, जिसमें जिक्र था कि वे बम्बई में ही अपने एक इंजीनियर दोस्त के पास पवई के होस्टल में रूके हुए है। कुछ दिनोंबाद ही भैया ने अमि के लिए एक उपहार भेजा था। पापा ने उसे उठा कर खिड़की के बाहर फेंक दिया था। अमि रोने लगी थी, तो शाम को पापा आफिस से लौटते समय उसके लिए ढेर सारे स्कर्ट व कुर्तियों के पीसेज़ उठा लाये थे। ......


निराला जी की पुण्यतिथि पर विशेष

आज महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पुण्य तिथि १५ अक्टूबर पर विशेष विनम्र श्रद्धांजलि सहित उनकी कुछ चयनित रचनाएँ


भारती वन्दना
भारति, जय, विजय करे
कनक - शस्य - कमल धरे!
लंका पदतल - शतदल
गर्जितोर्मि सागर - जल
धोता शुचि चरण - युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!


तरु-तण वन - लता - वसन
अंचल में खचित सुमन,
गंगा ज्योतिर्जल - कण
धवल - धार हार लगे!

मुकुट शुभ्र हिम - तुषार
प्राण प्रणव ओंकार,
ध्वनित दिशाएँ उदार,
शतमुख - शतरव - मुखरे!

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अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं)


जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया
पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ;
मुक्ती की तब युक्ती से मिल खिल गया
भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ।


खेत में पड़ भाव की जड़ गड़ गयी,
धीर ने दुख-नीर से सींचा सदा,
सफलता की थी लता आशामयी,
झूलते थे फूल-भावी सम्पदा।


दीन का तो हीन ही यह वक्त है,
रंग करता भंग जो सुख-संग का


भेद कर छेद पाता रक्त है
राज के सुख-साज-सौरभ-अंग का।


काल की ही चाल से मुरझा गये
फूल, हूले शूल जो दुख मूल में
एक ही फल, किन्तु हम बल पा गये;
प्राण है वह, त्राण सिन्धु अकूल में।


मिष्ट है, पर इष्ट उनका है नहीं
शिष्ट पर न अभीष्ट जिनका नेक है,
स्वाद का अपवाद कर भरते मही,
पर सरस वह नीति - रस का एक है।

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गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।


कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।


प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।

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मरा हूँ हजार मरण

मरा हूँ हजार मरण
पाई तव चरण-शरण।

फैला जो तिमिर जाल
कट-कटकर रहा काल,
आँसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण।


जल-कलकल-नाद बढ़ा
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण।

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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु


बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!


यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!


वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबमें दाँव, बंधु


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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो


लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो,
भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा।
उन्ही बीजों को नये पर लगे,
उन्ही पौधों से नया रस झिरा।

उन्ही खेतों पर गये हल चले,
उन्ही माथों पर गये बल पड़े,
उन्ही पेड़ों पर नये फल फले,
जवानी फिरी जो पानी फिरा।

पुरवा हवा की नमी बढ़ी,
जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी,
सविता ने क्या कविता पढ़ी,
बदला है बादलों से सिरा।


जग के अपावन धुल गये,
ढेले गड़ने वाले थे घुल गये,
समता के दृग दोनों तुल गये,
तपता गगन घन से घिरा।



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पत्रोत्कंठित जीवन का विष


पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में।

लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर
स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित
कल शारद कल्प की हेम लोमों आच्छादित,
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,
बीत चुका है दिक् चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति-
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के
वाद्य छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से,
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत। मल्ल मल्ल की-
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गये हैं
झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।
पुनः सवेरा, एक और फेरा हो जी का।



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तोड़ती पत्थर


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।


चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,


सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कॉंपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

'मैं तोड़ती पत्थर।'

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भिक्षुक



वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।


पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।


साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!


निराला जी का यह चित्र श्री प्रभु जोशी जी की तूलिका से रचा गया है

प्रतिबन्ध के विरुद्ध


प्रतिबंध के विरुद्ध
- राजकिशोर



पिछले दिनों कई जिम्मेदार लोगों के मुंह से सुनने को मिला कि बजरंग दल जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। सिमी पर से प्रतिबंध हटाना उचित हुआ या नहीं अथवा उस पर फिर प्रतिबंध लगा दिया जाए या नहीं, यह बहस अभी भी ठंडी नहीं हुई है। वैसे भी समय-समय पर अनेक संगठनों के बारे में यह मांग उठाई जाती रहती है कि उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। मेरा खयाल है, यह प्रतिबंध-केंद्रित धारणाा कोई समाधान होने के बजाय स्वयं एक समस्या है। लोकतांत्रिक ढांचे में इस तरह की धारणाओं के लिए कोई जगह नहीं है। प्रतिबंध लगाते-लगाते एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब लोकतंत्र पर ही प्रतिबंध लगाने की मांग की जाने लगे। इस मांग का तर्क यह होगा कि भारत की जनता लोकतंत्र का उचित उपयोग करने में अक्षम साबित हुई है तथा लोकतांत्रिक स्वाधीनताओं के कारण अनेक अवांछित प्रवृत्तियों, गतिविधियों तथा संगठनों का उदय हुआ है, इसलिए राष्ट्र हित में उचित यह है कि कुछ समय के लिए लोकतंत्र पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाए।

प्रतिबंधवादी सोचते हैं कि किसी अवांछनीय संगठन को प्रतिबंधित कर देने से उस संगठन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और उसके सदस्य दूसरे कामों में लग जाएंगे। अब तक का अनुभव बताता है कि दुनिया भर में कहीं भी ऐसा नहीं हुआ है। कम्युनिस्ट पार्टियां एक समय में प्राय: सभी देशों में प्रबंधित रहीं। ब्रिटिश जमाने में भारत में भी कुछ समय तक उन पर प्रतिबंध लगा रहा। लेकिन इससे कम्युनिस्ट पार्टियों के विकास में कोई बड़ी बाधा नहीं आई। बल्कि प्रतिबंध की अवधि में वे तेजी से बढ़ीं। स्वंत्रतता प्राप्ति के बाद महात्मा गांधी की हत्या हुई, तब भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध कई वर्षों तक चला। लेकिन इससे संघ की गतिविधियां बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुईं। आज भी अनेक नक्सलवादी समूह प्रतिबंधित हैं, पर उनके सदस्य पूरी आजादी से अपना राजनीतिक काम कर रहे हैं।


किताबों पर, फिल्मों पर और नाटकों पर प्रतिबंध लगाने का तो कुछ नतीजा सामने आता है। जब वे सुलभ नहीं रह जाते, तो उन तक कम लोगों की ही पहुंच बन पाती है। इसलिए अगर उनमें कुछ खतरनाक तत्व हैं, तो उनका प्रसार नहीं हो पाता। लेकिन हकीकत में यह भी एक खामखयाली भर है। असल में होता यह है कि अगर प्रतिबंधित किताबें या फिल्में या नाटक जनता के लिए प्रासंगिक हैं या उनकी किसी महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करती हैं, तो उनका प्रसार रुकता नहीं है, बल्कि और बढ़ जाता है। डी।एच. लारेंस का प्रसिद्ध उपन्यास 'लेडी चैटर्ली'ज लवर' यूरोप और अमेरिका में लगभग पचास साल तक प्रतिबंधित रहा, लेकिन इससे उसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। वह छिप-छिपा कर छापी जाती रही और हाथ बदल-बदल कर पढ़ी जाती रही। हां, उसे पढ़ने की आर्थिक लागत जरूर बढ़ गई। आज वह सर्वत्र सुलभ है, पर आम पाठक उसे छूते तक नहीं।



यही नियम संगठनों पर लागू होता है। संगठन व्यक्तियों से बनते हैं और व्यक्ति अपने विचारों से संचालित होते हैं। इस तरह, जब आप किसी संगठन को प्रतिबंधित करते हैं, तो वास्तव में उन व्यक्तियों की संगठित कार्यशीलता को प्रतिबंधित करते हैं। यह एक असंभव कामना है। प्रतिबंधित हो जाने के बाद कोई संगठन खुले रूप से काम नहीं कर पाएगा। पर गोपनीय रूप से काम करने से उसे कौन रोक सकता है? सच पूछिए तो अवांछनीय या अवांछित किस्म के सभी संगठन पहले से ही गोपनीय रूप से काम कर रहे होते हैं। भले ही उनके सम्मेलन वगैरह सार्वजनिक रूप से होते हों जिनमें कोई भी जा सकता है या जो जनसंचार माध्यमों के लिए खुले होते हैं, पर इन संगठनों के वास्तविक फैसले सार्वजनिक रूप से नहीं लिए जाते। आप क्या सोचते हैं, बजरंग दल या उसकी तरह की विचारधारा वाले अन्य संगठनों या गुटों ने सार्वजनिक सभा या बैठक कर यह प्रस्ताव पास किया होगा कि चूंकि ईसाई मिशनरियां धर्म परिवर्तन की मुहिम में लगी हुई हैं, इसलिए उन पर हमला बोल देना चाहिए? क्या भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद ने अपने किसी सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास किया था कि बाबरी मस्जिद की टूटी-फूटी इमारत को ढाह कर उस जमीन पर राम मंदिर बनाया जाना चाहिए? ऐसा कहीं नहीं होता। सभी संगठन कागज पर अच्छा और कानून-सम्मत ही दिखने की कोशिश करते हैं, पर असल बात यह होती है कि व्यवहार में वे कैसे हैं। उदाहरण के लिए, लालकृष्ण आडवाणी ने ईसाइयों पर हो रहे आक्रमणों का विरोध किया और धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस की मांग की। लेकिन अगर वे ईसाइयों पर हिंसा के सचमुच विरोधी थे या हैं, तो उनके एक इशारे पर वह सब रुक सकता था जो कंधमाल तथा अन्य स्थानों पर हुआ।


मुद्दा यह नहीं है कि कौन-सा संगठन अच्छा है या बुरा है। या, किसे काम करने देना चाहिए, किसे नहीं। मुद्दा यह है कि वे गतिविधियां कानून द्वारा पहले से ही प्रतिबंधित होती हैं जो उन संगठनों द्वारे संचालित की जाती हैं जिन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती हैं, तो वे होने क्यों दी जाती हैं? अगर बजरंग दल या विश्व हिन्दू परिषद न होते, तब भी ईसाइयों और चर्चों पर हमला करना कानून की दृष्टि से प्रतिबंधित था और है। यह राज्य और समाज का दायित्व है कि वह किसी भी तरह की हिंसा को रोके। उड़ीसा सरकार वास्तव में चाहती, तो वह कंधमाल में होनेवाली घटनाओं को तत्काल रोक सकती थी। जैसे जिला प्रशासन चाहे तो कोई भी सांप्रदायिक दंगा कुछ घंटों से ज्यादा जारी नहीं रह सकता। इसलिए मांग यह की जानी चाहिए कि राज्य और प्रशासन को कुशल, चुस्त और सक्षम बनाया जाए, ताकि वह कानून द्वारा प्रतिबंधित गतिविधियों को होने न दे, शुरू हो गई हैं तो उनका प्रसार होने से रोके और जिन्होंने भी कानून तोड़ा है या तोड़ने की कोशिश की है, उन्हें उचित सजा दिलाए। बढ़ती हुई अराजकता को इसी तरह रोका जा सकता है। इसके बजाय संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की कामना स्वयं में ही इस अराजकता की एक अभिव्यक्ति है।


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