आलूरि बैरागी चौधरी का कविकर्म

पुस्तक चर्चा :ऋषभ देव शर्मा

आलूरि बैरागी चौधरी का कविकर्म -१




धुनी जा रही दुर्बल काया .
मलिन चाम में हाड-मांस जिसमें स्वर्गिक सपनों की माया.
नस-नस तांत बनी धुन जाती
रग-रग में हिम-ज्वाल सुलगती
उड़ते उजले मन के फूहे शरद-मेघ की बिखरी छाया.
रोम-रोम में जगती पीड़ा
चपल क्रूर शिशुओं की क्रीडा
कौन निर्दयी जीवन-वन में छुपे व्याध-सा धुनने आया?
पलित पुरातन स्तूप बनेगा
जीवन का नव रूप छनेगा
किसी अविदित अदृश्य दानव ने मेरा नाम-निशान मिटाया.
मैं न रहूँगा तो क्या होगा?
हर्ष-शोक एक सपना होगा
विपुल विश्व ये माटी होगा माटी बन माटी का जाया.

-(धुनी जा रही दुर्बल काया / प्रीत और गीत)







इस छायावादी संस्कार से आरम्भ करके नई कविता तक की यात्रा करने वाले, कई स्थलों पर सुमित्रानंदन पन्त और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से तुलनीय कविवर आलूरि बैरागी चौधरी(०५ सितम्बर १९२५ - ०९ सितम्बर १९७८) को ए बी सी के आद्याक्षरों के रूप में भी पहचाना जाता है.
तेलुगु भाषी हिन्दी साहित्यकार बैरागी मूलतः आन्ध्र प्रदेश के ऐतानगर(तेनाली तालुक, गुंटूर जिला) के निवासी थे. वे एक मध्य-वर्गीय कृषक परिवार में जन्में थे और उन्हें राष्ट्रीयता तथा हिन्दी प्रेम अपने पिता से विरासत में मिला था. अत्यन्त मेधावी बैरागी की स्कूली शिक्षा कक्षा ३ तक ही हो सकी परन्तु उन्होंने स्वाध्याय द्बारा तेलुगु, हिन्दी और अंग्रेज़ी पर अधिकार ही प्राप्त नहीं किया बल्कि इन तीनों भाषाओं में काव्य-सृजन भी किया. हिन्दी तो उनके लिए मानो मातृभाषा ही बन गई थी क्योंकि चार-पाँच वर्ष तक उन्होंने बिहार में रहकर हिन्दी साहित्य का उच्च अध्ययन किया था. वे १९४२ में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में भी सक्रिय रहे. उन पर गांधी, मार्क्स और रेडीकल ह्यूमेनिज्म के प्रवर्तक एम.एन राय का गहरा प्रभाव पड़ा. कुछ दिन वे हाई स्कूल में हिन्दी अध्यापक रहे उसके बाद चार वर्ष 'चंदामामा' के तेलुगु और हिन्दी संस्करणों के संपादक रहे. वे 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास' के हिन्दी प्रशिक्षण विद्यालय में आचार्य भी रहे. लेकिन अपनी स्वतंत्र प्रवृत्ति और निर्भीकता के कारण ज्यादा दिन कहीं टिक नहीं सके. एक विशेष प्रकार का फक्कड़पन और अक्खडपन उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में देखा जा सकता है. वे आजीवन अविवाहित रहे, कोई घर नहीं बसाया - धन-संपत्ति का उन्हें कभी मोह नहीं रहा. १९५१ में उनका हिन्दी काव्य-संग्रह 'पलायन' प्रकशित हुआ था जिसकी तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में काफ़ी चर्चा हुई थी.

उनके निधन के पश्चात प्रकाशित उनके तेलुगु कविता संग्रह 'आगम गीति' को साहित्य अकादमी द्बारा पुरस्कृत किया गया परन्तु लम्बी अवधि तक उनकी हिन्दी कविताएँ अप्रकाशित पड़ी रहीं . कहा जाता है कि प्रकाशन के लिए अयोग्य समझकर बैरागी जी ने अपनी कविताओं के दो संकलनों को स्वयं नष्ट कर दिया था.१९८९ में उनकी ६५ कविताओं का संकलन ''फूटा दर्पण'' आन्ध्र प्रदेश हिन्दी अकादमी द्बारा प्रकाशित किया गया था. उनकी शेष कविताओं को अब तीन काव्य संग्रहों के रूप में प्रकाशन का सौभाग्य मिला है, ये संग्रह हैं - 'संशय की संध्या', 'प्रीत और गीत' तथा 'वसुधा का सुहाग'.


संशय की संध्या* (२००७) में आलूरि बैरागी की १९४० से १९५१ तक रचित ४२ कविताएँ सम्मिलित हैं जो उन्हें हिन्दी के दिनकर, बच्चन, अंचल, नवीन और सुमन जैसे छायावादोतार कवियों की पंक्ति में खड़ा करने में समर्थ है. उनके साहित्य के संग्राहक और विशेषज्ञ प्रो. पी. आदेश्वर राव का यह मानना कदापि अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रगीत शैली में रचित ये कविताएँ पन्त कृत ' परिवर्तन' और निराला कृत 'राम की शक्तिपूजा' की याद दिलाती हैं. इसमें संदेह नहीं कि ये कविताएँ ठोस वैचारिकता, गहन भावानुभूति और विराट कल्पना से ओत-प्रोत हैं तथा भाव और भाषा एक दूसरे के अनुरूप हैं. इस संग्रह में एक ओर तो वैयक्तिक पीड़ा तथा प्रेमानुभूति की कविताएँ हैं और दूसरी ओर सामजिक विषमताजन्य विद्रोह तथा क्रान्ति की कविताएँ हैं. कवि की पक्षधरता दलित शोषित मानव जाति के साथ है और मनुष्य की निर्मलता तथा विकास में, उसकी सृजनशीलता तथा सफलता में उनकी दृढ़ आस्था है. मानव के साथ ही प्रकृति का सौंदर्य भी उन्हें निरंतर आकर्षित करता है. क्योंकि वे किसी भी महान भारतीय कवि की भांति सौन्दर्योपासक हैं. चिंतन और विचारधारा के स्तर पर वे प्रगतिवादी हैं परन्तु उनके सपनों का संसार 'जरा- मरण- अस्तित्व-समस्या-शोक- हीन विगत -विकार ' है.इसीलिये उनके काव्य में मानव और प्रकृति , व्यक्ति और समाज, यथार्थ और कल्पना, सत्य और स्वप्न तथा विचार एवं अनुभूति का अद्भुत सामंजस्य प्राप्त होता है जो एक मानवतावादी रचनाकार के रूप में उनकी महानता का सूचक है.
यहाँ इस संग्रह की दो भिन्न प्रकार की कविताओं के अंश द्रष्टव्य हैं -

(१)

जाग रे जीर्ण शीर्ण कंकाल
हड्डियों के ऐ सूखे जाल
युगों से जल-जलकर म्रियमाण
जाग रावण की चिति की ज्वाल

जाग टुकड़ों पर पलते श्वान
जाग गीदड से कायर नीच
जाग अज्ञान निशा के मलिन
क्रोड़ के बड़े लाड़ले लाल

जाग ओ अपमानों के लक्ष्य
हिंस्र पशुओं के निर्बल भक्ष्य
जाग बेबस के उर की हूक
छोड़ केंचुल ओ विषधर व्याल

जाग बूढ़ी कुलटा की आस
गिरहकट चोर दस्यु बदमाश
जाग रे बेकारों के जोर
जाग बाघिन निरुपाय हताश

(जागृति गान)



(२)

जाने क्यों मुरझा जाता प्यार?
आयु की पोथी में दबे गुलाब की सूखी पंखुडियों सा ,
जरा जीर्ण, पर स्वर्ण मोर-पंख, पद- टूटी गुडियों सा ,
भीषण ग्रीष्मानल में ज्यों उड़ती सुरभित जल की फुहार ,
दग्ध नग्न वसुधा का , छिन्न वन्य कुसुम हार !
सुरधनु का क्षण भर का ज्यों सिंगार!
जाने कैसा झर जाता प्यार?
[जाने क्यों मुरझा जाता प्यार?]

आज इतना ही.
ए बी सी के दो अन्य सद्य-प्रकाशित काव्य संकलनों की चर्चा अगली बार.
फिलहाल इतना ही कि हिन्दी साहित्य भी हिन्दी भाषा की तरह अखिल भारतीय है .उसे उत्तर भारत के कुछ गिने-चुने शहरों तक सीमित रखना उसकी भारतीय चेतना के साथ अत्याचार के समान है. इसलिए आज हिन्दी साहित्य के इतिहास के वृहत्तर और अखिल भारतीय दृष्टि से पुनर्लेखन की आवश्यकता है . ऐसा करके ही उसे क्षेत्रीयतावादी जड़ता से मुक्त किया जा सकता है. निस्संदेह ऐसे साहित्येतिहास में आलूरि बैरागी चौधरी जैसे दाक्षिणात्य हिन्दी साहित्यकारों के प्रदेय का उचित मूल्यांकन हो सकेगा.

* संशय की संध्या [कविता संकलन]/
आलूरि बैरागी /
मिलिंद प्रकाशन , हैदराबाद - ५०००९५/
२००७/
१०० रुपये /
८८ पृष्ठ /सजिल्द
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