महर्षि दयानन्द, आर्य समाज और हिन्दी

हिन्दी दिवस पर विशेष 

‘महर्षि दयानन्द और आर्य समाज का हिन्दी के प्रचार-प्रसार में योगदान’

- मनमोहन कुमार आर्य



भारतवर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अहिन्दी भाषी गुजराती होते हुए पराधीन भारत में सबसे पहले राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर मन, वचन व कर्म से इसका प्रचार-प्रसार किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि हिन्दी, जिसे स्वामी दयानन्द जी ने आर्यभाषा का नाम दिया, शीघ्र लोकप्रिय हो गई। स्वतन्त्र भारत में संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर 1947 को सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया जाना भी स्वामी दयानन्द के इससे 77 वर्ष पूर्व आरम्भ किए गये कार्यों का ही सुपरिणाम था।


प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर हमारे राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलुओं पर स्वामी दयानन्द का अक्षुण्ण प्रभाव स्वीकार करते हैं और हिन्दी पर साम्राज्यवादी होने के आरोपों को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि यदि साम्राज्यवाद शब्द का हिन्दी वालों पर कुछ प्रभाव है भी, तो उसका सारा दोष अहिन्दी भाषियों का है। इन अहिन्दीभाषियों का अग्रणीय वह स्वामी दयानन्द को मानते हैं और लिखते हैं कि इसके लिए उन्हें प्रेरित भी किसी हिन्दी भाषी ने नहीं अपितुं एक बंगाली सज्जन श्री केशव चन्द्र सेन ने किया था।



स्वामी दयानन्द का जन्म 14 फरवरी, 1825 को गुजरात राज्य के राजकोट जनपद में होने के कारण गुजराती उनकी स्वाभाविक रूप से मातृभाषा थी। उनका अध्ययन-अध्यापन संस्कृत में हुआ। इसी कारण वह संस्कृत में ही वार्तालाप, व्याख्यान, लेखन, शास्त्रार्थ, शंका-समाधान आदि किया करते थे। 16 दिसम्बर, 1872 को स्वामीजी वैदिक मान्यताओं के प्रचारार्थ भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे थे और वहां उन्होंनें अनेक सभाओं में व्याख्यान दिये। ऐसी ही एक सभा में स्वामी दयानन्द के संस्कृत भाषण का बंगला में अनुवाद गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। दुभाषिये वा अनुवादक का धर्म वक्ता के आशय को स्पष्ट करना होता है परन्तु श्री न्यायरत्न महाशय ने स्वामी जी के वक्तव्य को अनेक स्थानों पर व्याख्यान को अनुदित न कर अपनी उनसे विपरीत मान्यताओं को सम्मिलित कर वक्ता के आशय के विपरीत प्रकट किया जिससे व्याख्यान में उपस्थित संस्कृत कालेज के छात्रों ने उनका विरोघ किया। विरोध के कारण श्री न्यायरत्न बीच में ही सभा छोड़कर चले गये थे। प्रसिद्ध ब्रह्मसमाजी नेता श्री केशवचन्द्र सेन भी इस सभा में उपस्थित थे। बाद में इस घटना का विवेचन कर उन्होंने स्वामी जी को सुझाव दिया कि वह संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा हिन्दी को अपनायें। गुण ग्राहक स्वाभाव वाले स्वामी दयानन्द जी ने तत्काल यह सुझाव स्वीकार कर लिया। यह दिन हिन्दी के इतिहास की एक प्रमुख घटना थी कि जब एक 48 वर्षीय गुजराती मातृभाषा के संस्कृत के अद्वितीय विद्वान ने हिन्दी को अपना लिया। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में अनुपलब्ध है। इसके पश्चात महर्षि दयानन्द जी ने जो प्रवचन किए उनमें वह हिन्दी का ही प्रयोग करने लगे।



सत्यार्थ प्रकाश स्वामीजी की प्रसिद्ध रचना है जो देश-विदेश में विगत 139 वर्षों से उत्सुकता एवं श्रद्धा से पढ़ी जाती है। फरवरी, 1872 में हिन्दी को स्वीकार करने के लगभग 2 वर्ष पश्चात ही स्वामीजी ने 2 जून 1874 को उदयपुर में इसका प्रणयन आरम्भ किया और लगभग 3 महीनों में पूरा कर डाला। श्री विष्णु प्रभाकर इतने अल्प समय में स्वामीजी द्वारा हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश जैसा उच्च कोटि का ग्रन्थ लिखने पर इसे आश्चर्यजनक घटना मानते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के पश्चात वेदों एवं वैदिक सिद्धान्तों के प्रचारार्थ स्वामीजी ने अनेक ग्रन्थ लिखे जो सभी हिन्दी में हैं। उनके ग्रन्थ उनके जीवनकाल में ही देश की सीमा पार कर विदेशों में भी लोकप्रिय हुए। विश्वविख्यात विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द की पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने हुए लिखा कि वैदिक साहित्य का आरभ ऋग्वेद से एवं अन्त स्वामी दयानन्द जी की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर होता है। स्वामी दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों को इस बात का गौरव प्राप्त है कि धर्म, दर्शन एवं संस्कृति जैसे क्लिष्ट विषय को सर्वप्रथम उनके द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत कर उसे सर्वजनसुलभ किया जबकि इससे पूर्व इस पर संस्कृत निष्णात ब्राह्मण वर्ग का ही अधिकार था जिसने इन्हें संकीर्ण एवं संकुचित कर दिया था। यह उल्लेखनीय है कि 'ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका' संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में है। दोनों भाषाओं के देवनागरी लिपि में होने के कारण प्रो. मैक्समूलर व इस ग्रन्थ के अन्य पाठकों व विद्वानों का हिन्दी से परिचय हो गया था। हिन्दीतर संस्कृत विद्वानों को हिन्दी से परिचित कराने हेतु स्वामी दयानन्द जी की यह अनोखी सूझ महत्वपूर्ण एवं अनुकरणीय है। इसी पद्धति को उन्होंने अपने वेद भाष्य में भी अपनाया है।



थियोसोफिकल सोसासयटी की नेत्री मैडम बैलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द से उनके ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी तो स्वामी दयानन्द जी ने 31 जुलाई 1879 को विस्तृत पत्र लिख कर उन्हें अनुवाद से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया। स्वामी जी ने लिखा कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा। हिन्दी के इतिहास में शायद कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने अपनी हिन्दी पुस्तकों का अनुवाद इसलिए नहीं होने दिया जिससे अनुदित पुस्तक के पाठक हिन्दी सीखने से विरत होकर हिन्दी प्रसार में बाधक हो सकते थे।



हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय पंजाब के एक श्रद्धालु भक्त द्वारा स्वामीजी से उनकी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर उन्होंने आवेश पूर्ण शब्दों में कहा था कि अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। देवनागरी के अक्षर सरल होने से थोड़े ही दिनों में सीखे जा सकते हैं। हिन्दी भाषा भी सरल होने से आसानी से कुछ ही समय में सीखी जा सकती है। हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? श्रोताओं को सम्बोधित कर उन्होंने आगे कहा, ‘‘आप तो मुझे अनुवाद की सम्मति देते हैं परन्तु दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक देवनागरी अक्षरों का प्रचार होगा।’’ इस स्वर्णिम स्वप्न के द्रष्टा स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में एक स्थान पर लिखा कि आर्यावत्र्त (भारत का प्राचीन नाम) भर में भाषा के एक्य सम्पादन करने के लिए ही उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों को आर्य भाषा (हिन्दी) में लिखा एवं प्रकाशित किया है। अनुवाद के संबंध में अपने हृदय में हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण प्रेम को प्रकट करते हुए वह लिखते हैं, ‘‘जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी, वह इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्तव्य समझेगें।’’ यही नहीं आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए उन्होंने हिन्दी सीखना अनिवार्य किया था। भारतवर्ष की तत्कालीन अन्य संस्थाओं में हम ऐसी कोई संस्था नहीं पाते जहां एकमात्र हिन्दी के प्रयोग की बाध्यता रही हो।



सन् 1882 में ब्रिटिश सरकार ने डा. हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन की स्थापना कर इससे राजकार्य के लिए उपयुक्त भाषा की सिफारिश करने को कहा। यह आयोग हण्टर कमीशन के नाम से जाना गया। यद्यपि उन दिनों सरकारी कामकाज में उर्दू-फारसी एवं अंग्रेजी का प्रयोग होता था परन्तु स्वामी दयानन्द के सन् 1872 से 1882 तक व्याख्यानों, पुस्तकों वा ग्रन्थों, शास्त्रार्थों तथा आर्य समाजों द्वारा मौखिक प्रचार एवं उसके अनुयायियों की हिन्दी निष्ठा से हिन्दी भी सर्वत्र लोकप्रिय हो गई थी। इस हण्टर कमीशन के माध्यम से हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिलाने के लिए स्वामी जी ने देश की सभी आर्य समाजों को पत्र लिखकर बड़ी संख्या में हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन भेजने की प्ररेणा की और जहां से ज्ञापन नहीं भेजे गये उन्हें स्मरण पत्र भेज कर सावधान किया। आर्य समाज फर्रूखाबाद के स्तम्भ बाबू दुर्गादास को भेजे पत्र में स्वामी जी ने लिखा, ‘‘यह काम एक के करने का नहीं है और चूक (भूल-चूक) होने पर वह अवसर पुनः आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ (अर्थात् हिन्दी राजभाषा बना दी गई) तो आशा है कि मुख्य सुधार की नींव पड़ जायेगी।’’ स्वामीजी की प्रेरणा के परिणामस्वरूप आर्य समाजों द्वारा देश के कोने-कोने से आयोग को बड़ी संख्या में लोगों के हस्ताक्षर कराकर ज्ञापन भेजे गए। कानपुर से हण्टर कमीशन को दो सौ मैमोरियल भेजे गए जिन पर दो लाख लोगों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर किए थे। हिन्दी को गौरव प्रदान करने के लिए स्वामी दयानन्द द्वारा किया गया यह कार्य भी इतिहास में अन्यतम घटना है। हमें इस सन्दर्भ में दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिन्दी के विद्वानों ने स्वामी दयानन्द के इस योगदान की जाने अनजाने घोर उपेक्षा की है। हमें इसमें उनके पक्षपातपूर्ण व्यवहार की गन्ध आती है। स्वामी दयानन्द की प्ररेणा से अनेक लोगों ने हिन्दी सीखी। इन प्रमुख लोगों में जहां अनेक रियासतों के राजपरिवारों के सदस्य हैं वहीं कर्नल एच.एस. आल्काट आदि विदेशी महानुभाव भी हैं जो इंग्लैण्ड में स्वामी जी की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने भारत आयै थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शाहपुरा, उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक स्वतन्त्र रियासतों के महाराजा स्वामी दयानन्द के अनुयायी थे और स्वामी जी की प्रेरणा पर उन्होंने अपनी रियासतों में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था।

स्वामी दयानन्द संस्कृत व हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं का भी आदर करते थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि जब पुत्र-पुत्रियों की आयु पांच वर्ष हो जाये तो उन्हें देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करायें, अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। स्वामीजी अन्य प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी व संस्कृत की भांति देवनागरी लिपि में लिखे जाने के समर्थक थे जो राष्ट्रीय एकता की पूरक है। अपने जीवनकाल में हिन्दी पत्रकारिता को भी आपने नई दिशा दी। आर्य दर्पण (शाहजहांपुर: 1878), आर्य समाचार (मेरठ: 1878), भारत सुदशा प्रवर्तक (फर्रूखाबाद: 1879), देश हितैषी (अजमेर: 1882) आदि अनेक हिन्दी पत्र आपकी प्ररेणा से प्रकाशित हुए एवं पत्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।



स्वामी दयानन्द ने हिन्दी में जो पत्रव्यवहार किया वह भी संख्या की दृष्टि से किसी एक व्यक्ति द्वारा किए गए पत्रव्यवहार में सर्वाधिक है। स्वामीजी के पत्रव्यवहार की खोज, उनकी उपलब्धि एवं सम्पादन कार्य में स्वामी श्रद्धानन्द, प्रसिद्ध वैदिक रिसर्च स्कालर पं. भवतद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक एवं श्री मामचन्द जी का विशेष योगदान रहा है। सम्प्रति स्वामीजी का समस्त पत्रव्यवहार चार खण्डों में पं. यधिष्ठिर मीमांसक के सम्पादन में प्रकाशित है जो रामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली, सोनीपत-हरयाणा से उपलब्ध है। इस पत्र व्यवहार का सम्प्रति दूसरा संस्करण ट्रस्ट से उपलब्ध हैं। स्वामी दयानन्द इतिहास में पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अहिन्दी भाषी होते हुए सर्वप्रथम अपनी आत्म-कथा हिन्दीं मे लिखी। सृष्टि के आरम्भ में सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता ईश्वर से वेदों की उत्पत्ति हुई थी। स्वामी दयानन्द के समय तक वेदों का भाष्य- व्याख्यायें-प्रवचन-लेखन व शास्त्रार्थ आदि संस्कृत में ही होता आया था। स्वामीजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों का भाष्य संस्कृत के साथ-साथ जन-सामान्य की भाषा हिन्दी में भी करके सृष्टि के आरम्भ से जारी पद्धति को बदल दिया। न केवल वेदों का भाष्य अपितु अपने सभी सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, व्यवहार भानु आदि ग्रन्थ हिन्दी में लिखे जो धार्मिक जगत के इतिहास की अन्यतम घटना है। हमें लगता कि देश के सभी राजनैतिक दलों एवं विद्वानों ने स्वामी दयानन्द के प्रति घोर पक्षपात का रवैया अपनाया है जिससे उनका पक्षपातरहित न्यायपूर्ण मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका। प्राचीनतम धार्मिक साहित्य से सम्बन्धित यह घटना जहां वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा से जुड़ी है वहीं भारत की एकता व अखण्डता से भी जुड़ी है। न केवल वेदों का ही अभूतपूर्व, सर्वोत्तम, सत्य व व्यवहारिक भाष्य उन्होंने हिन्दी में किया है अपितु मनुस्मृति एवं अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अपनी पुस्तकों में उल्लेख करते समय उनके उद्धरणों के हिन्दी में अर्थ भी किए हैं। स्वामी दयानन्द के साथ ही उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज एवं उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित गुरूकुलों, डी.ए.वी. कालोजों, आश्रमों आदि द्वारा भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय कार्य किया गया है। गुरूकुल कांगड़ी, हरिद्वार में देश में सर्वप्रथम विज्ञान, गणित सहित सभी विषयों की पुस्तकें हिन्दी में तैयार करायीं एवं उनका सफल अध्यापन हिन्दी माध्यम से किया। इस्लाम मजहब की पुस्तक कुरआन को प्रमाणिकता के साथ हिन्दी में सबसे पहले अनुदित कराने का श्रेय भी स्वामी दयानन्द जी को है। इसका प्रकाशन भी किया जा सकता था परन्तु किन्हीं कारणों से यह कार्य नहीं हो सका। यह अनुदित ग्रन्थ उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित है।



ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका ग्रन्थ में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जो व्यक्ति जिस देशभाषा को पढ़ता है उसको उसी का संस्कार होता है। अंग्रेजी या अन्यदेशीय भाषा पढ़ा व्यक्ति सत्य, ज्ञान व विज्ञान पर आधारित विश्व वरणीय वैदिक संस्कृति से सर्वथा दूर देखा जाता है। इसके अतिरिक्त वह पाश्चात्य एवं अन्य वाममार्गी आदि जीवन शैलियों की ओर उन्मुख देखा जाता है जबकि इनमें मानवीय संवेदनाओं व मर्यादाओं का अभाव देखा जाता है। इसका उदाहरण इनमें पशुओं के प्रति दया भाव के स्थान पर उन्हें मारकर उनके मांस को भोजन में सम्मिलित किया गया है जो कि भारतीय वैदिक धर्म व संस्कृति के विरूद्ध है। अतः स्वामी जी का यह निष्कर्ष भी उचित है कि हिन्दी व संस्कृत के स्थान पर अन्य देशीय भाषाओं को पढ़ने से मनुष्य वैदिक संस्कारों के स्थान पर उन-उन देशों के संस्कारों से प्रभावित होता है।



एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विष देकर दीपावली सन् 1883 के दिन स्वामी दयानन्द की जीवनलीला समाप्त कर दी गई। यदि स्वामीजी कुछ वर्ष और जीवित रहे होते तो हिन्दी को और अधिक समृद्ध करते और इसका व्यापक प्रचार करते। इससे हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप व विस्तार आज से कहीं अधिक उन्नत, सरल व सुबोध होता। लेख को निम्न पंक्तियों से विराम देते हैंः


‘‘कलम आज तू स्वामी दयानन्द की जय बोल,
  हिन्दी प्रेमी रत्न वह कैसे थे अनमोल।’’


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