भारतीय साहित्य का भविष्य



भारतीय साहित्य का भविष्य
-- डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय




असम साहित्य सभा ने जब मुझे अपने विराट सम्मेलन में आमंत्रित किया और व्याख्यान के लिए किसी विषय में न बाँधा, तब मुझे लगा कि स्वाधीन होना कितना बड़ा दायित्व है ! कई विय मन में आए-गए , अंत में मैंने सोचा कि यदि भारतीय साहित्य अनेक भाषाओं में लिखा एक साहित्य है तो किसी भी काल में विभिन्न भाषाओं की समस्याओं, चुनौतियों और संभावनाओं में कुछ समानताएँ तो जरूर होंगी।




यह जानते हुए भी कि प्रत्येक भाषा की आनुवंशिकी भिन्न होती है, उसका परिवे और उतार-चढ़ाव; यहाँ तक कि प्रत्येक रचनात्मक उन्मे, हर वक़्त नई दृष्टि, नया वस्तु-जगत, भाव-जगत और शिल्प लाता है। फिर भी हमारी सांस्कृतिक जड़ें समान हैं अर्थात् हमारा मौलिक मन समान है, जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि एक साझा निजीपन है, जो नस्ल, धर्म, जीवन-शैली और भूगोल से ऊपर है। मुझे यह भी लगता है कि हर भाषा की अपनी स्थानीय पहचान होते हुए भी हम जो वर्तमान जी रहे हैं और उसकी तार्किक परिणति के रूप में जो भविष्य देख रहे हैं वह भी साझा है। इसलिए मैंने यह जोखिम उठाया है कि बहुस्वरीय भारतीय साहित्य के भविष्य पर अपने विचार रखूँ। यह भविष्यवाणी नहीं, केवल भविष्य-चिंतन है। 



अपनी भाषिक भिन्नता, पारिस्थितिकी और मौलिक सर्जनात्मक जिजीविषा के बावजूद हम सब आज एक ऐसे संसार में रहने को बाध्य कर दिए गए हैं जहाँ भ्रामक भूमण्डलीकरण हमारी विश्व-दृश्टि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से विपरीत अर्थ लेकर आया है, वह बाज़ार, उच्च तकनीकी, सूचना आदि के नए आदान-प्रदान के मुक्त वैश्विक संचरण का दावा कर रहा है। पर विश्व को एकायामी बनाकर आर्थिक प्रभुसत्ता कायम करने के अलावा भी क्या इसका कोई उद्देश्य है ? यह स्थिति हमारी सभी भाषा-साहित्य के मौलिक अस्तित्व के सामने समान प्रश्न उपस्थित करती है। क्या हम अपनी बहुस्वरीयता खो बैठेंगे ? जितने प्रवाह हैं वे सब पूरे वेग से बहें, जितने रंग-रूप हैं उन्मुक्त खिलें-खुलें, यह हमारी सौंदर्य-दृष्टि है - सत्य और शिव से सम्पृक्त। क्या उसे भूमंडलीकरण की चकाचौंधभरी एकरसता, एकरूपता और एकायामिता रास आएगी ? क्या वह जनता के सुख-दुख और अपनी संवेदन-दृष्टि इस निष्करुण समय को सौंप सकेगी ? क्या उसकी स्वतंत्र आत्मा इस नए प्रभुत्ववाद को स्वीकार कर सकेगी ? क्या गरीबी और अमीरी की लगातार बढ़ती खाई उसकी संवेदना को नहीं झकझोरेगी ?



यह आर्थिक प्रभुत्ववाद अपने बहुत बड़े और महीन संजाल से मनुष्य के मन, बुद्धि, संवेग, इच्छा को, यहाँ तक कि उसकी व्यवस्थाओं को भी नियंत्रित कर रहा है। साहित्य, संस्कृति और भाषा का, मनुष्य के मन में, नए ढंग से अर्थांतर और मूल्यांतर कर रहा है। प्रतिरोध और विद्रोह की आवाज़ों को तत्काल बिकने वाले साहित्य की ऊँची कीमत पर, माँग से कुचल रहा है। घटिया साहित्य की विपुलता से वह विचारशील और गहरे साहित्य को विस्थापित कर रहा है। सब कुछ इतनी नफासत और क्रमिक प्रक्रिया से होता है कि पाठक-मन को ज़रा धक्का न लगे। अब रूपर्ट मर्डोक जैसे अंतरराष्ट्रीय व्यापारी भारतीय भाषाओं की प्रकाशन संस्थाओं को खरीदने लगे हैं। वे ऊँची कीमत, सुंदर प्रस्तुति और वैश्विक प्रसार का प्रलोभन देकर लेखकों को आकर्षित कर रहे हैं और उनसे सिंथेटिक साहित्य का तेजी से उत्पादन करा रहा है। तीसरे पेज और टेब्ळायड का ‘प्रबंधन’ साहित्य के लिए अतिरिक्त सेवाएँ दे रहा है। देशी भाषाओं के ज्ञान-विज्ञान-विचार का साहित्य बाज़ार से लुप्त करने की लगातार साज़िशें हैं ताकि एक ओर इनके विदेशी निवेश का रास्ता साफ हो और दूसरी ओर देशी भाषाओं के रोचक सस्ते साहित्य का कोई विकल्प न बचे। मीडिया का इस पूरी प्रक्रिया में साझा है। टेलीविजन से भी सारी रचनाशीलता लगभग निष्कासित है। साहित्य के नाम पर प्रसारित धारावाहिक आदि भी उसी बाजार का समर्थन करते हैं जो प्रकाशन में सक्रिय है। बड़े पर्दे से भी सामाजिक विय-वस्तु और वर्तमान चिंताएँ गायब हैं। देश की बची खुची मेधा, मनीषा और प्रतिभा को अदृश्य ‘आउट सोर्स’ के जरिए अंतरराष्ट्रीय भाषा की सेवा में लगाया जा रहा है। भारतीय भाषाओं का परस्पर अनुवाद लगातार घट रहा है और देशी भाषाओं की तुलना में दूसरे, तीसरे दर्जे की अंग्रेजी पुस्तकों के अनुवाद धड़ल्ले से आ रहे हैं। परदेशी भाषा में देशी लेखकों के मौलिक लेखन को प्रोत्साहित और पुरस्कृत करने के पीछे वैश्विक सदिच्छा को देखना भोलापन होगा। तीसरे देश का कच्चा माल हो या प्रतिभा, कला, सौंदर्य, स्मृति, विरासत - सब क्षेत्रों में विक्रेता और दलालों का देश में ही निर्माण उदारीकरण की एक नफीस शैली है। अंग्रेजी शासन की कल्पना कीजिए जो देश में ही अपने सैनिक, कारिन्दे और अफसर उपजाता था। क्या यह शैली उससे अलग है ? हाँ, आज वह गोली से नहीं मारता, पूतना की तरह छाती से चिपटा लेता है। 



सारे मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर चंद पूँजीपतियों का कब्जा है। वे इनके जरिए रचना के संसार को क्या दिशा देना चाहते हैं इसे जानने के लिए कम्यूटरीकृत रचनाओं पर भी ध्यान दीजिए। क्या कविता और कला का कंप्यूटरीकृत उत्पादन उसी सेंथेटिक साहित्य और कला की रचना नहीं करेगा जो प्रकारांतर से त्वरित विक्रेय साहित्य के व्यापारी माँग रहे हैं ? क्या कंप्यूटर के उच्च मस्तिष्क का रचना-कर्म एक तरह के सिंथेटिक खेल में नहीं बदल जाएगा? क्योंकि कंप्यूटरीकृत मेधा एक फार्मूले के तहत गणितीय संकेतों में एक प्रणाली विकसित करती है जिससे सैंकड़ों-हज़ारों, बल्कि असंख्य प्रतिरूप (मॉडेल) बन सकते हैं, जिनमें न हृदय होगा, न संवेदना, न मानवीय चिंताएँ और न वैविध्य। वह किस अर्थ में ‘साहित्य’ होगा ? 

ऐसी तमाम स्थितियों में क्या हमारे साहित्य की गहराई श्रेष्ठता, मौलिकता, उत्पीड़ित आवाजें और मूल्य बचा रहेगा, जो उसके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है?



पिछले दिनों मैंने भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के विचार भूमण्डलीकरण के बारे में जानने की कोशिश की थी। सभी भाषाओं के सर्जकों ने अपनी काव्यात्मक शैली में इसका विरोध किया। इससे मुझे भारतीय चिंतक और सर्जक-मानस को समग्रतः समझने का अवसर मिला। इससे उसकी जागरूकता और चिंता उजागर हुई। असम के ही एक युवा कवि सौरभ सेकिया की ये पंक्तियाँ देखिए जो कह रही हैं कि भारतीय मनुष्य किन चीज़ों के हाथों मारा गया है। कविता है - ‘सौरभ का मृत्यु-संवाद’



बैठे रहने के कारण मृत्यु हुई है

एक फूल में बैठकर हिलते रहने के कारण

सौरभ की मृत्यु हुई है

भौंरे को उड़ा देने के कारण, इंद्रधनुष चुराने के कारण

इंच-इंच आसमान की जंग में सौरभ की मृत्यु हुई है

सौरभ मरा है

अकेले ऊपरी हिस्से में घूमते रहने के कारण



अनजान आततायी के हाथों सौरभ मारा गया है

उज्ज्वल वीराने के एक टुकड़े में सौरभ की मृत्यु हुई है

अमलतास का पीला शरबत पीने से सौरभ की मृत्यु हुई है

चुंबन में जहर चाटकर

कोयल को टेसू समझने की गलती कर जाल में फँसा है

सौरभ मरा है 
                  (स.भा.सा. 156) 



यह कविता इस दुर्दम्य समय में आत्मलीनता, इंद्रधनु चुराने की कामना, आसमान में उड़ते रहने, अनजाने आततायी के हाथों उज्ज्वल वीराने में, चुम्बन में ज़हर चाटकर, कोयल को टेसू समझने की गलती करने को मृत्यु का कारण बता रही है, जो भूमंडलीकरण की इस लकदक में, प्रलोभन, नासमझी और यथार्थ बोध से रहित होने के कारण भारतीय मनुष्य का मृत्यु-लेख है। इसमें हर चीज़ प्रतीक है। मैं विस्तार में न जाकर इतना ही कहना चाहता हूँ कि इस कविता का विश्लेषण करने पर हमारी वर्तमान नियति और उसके कारणों पर एक संवेदनशील युवा कवि की दृष्टि स्पष्ट होती है। 



हमारी एक बड़ी चिंता भारतीय भाषाओं के विलोपन की है। हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान ‘भाषा-वसुधा’ के सर्वेक्षण से पता चला कि 310 भारतीय भाषाएँ मरणासन्न हैं। एक भाषा का मरना एक सभ्यता का मरना होता है, यह आप भलीभाँति जानते होंगे, क्योंकि आप उत्तर भारत के बाद देश के सर्वाधिक भाषा वैविध्य के भू-भाग हैं। भाषा एवं देश विलोपन की एक पूरी प्रायोजना है जिसका पहला चरण अस्वाभाविक भाषा-मिश्रण है। एक विशेषज्ञ के अनुसार हिंदी, मराठी, गुजराती जैसी बड़ी भाषाओं के बीस साल से कम उम्र के युवा अपनी भाषा का एक भी वाक्य बिना अंग्रेजी मिलावट के नहीं बोल सकते। ज़ाहिर है भारतीय भाषाओं का स्थान लेने के लिए अंग्रेजी पूरी तरह तैयार है। शिक्षा, शासन, उद्योग, व्यापार, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में अंग्रेजी अपना प्रभुत्व कायम कर चुकी है। तब भारतीय भाषाओं के लिए बचेगा केवल सर्जनात्मक साहित्य। क्योंकि अब तक सृजन में लेखक के पास अपनी भाषा का विकल्प नहीं है और उसके आत्मीय संवाद की, स्वप्न की, आत्माभिव्यक्ति की ऐसी कोई भाषा इजाद नहीं हुई जो मातृभाषा की स्थानापन्न हो। ज्ञान, बुद्धि, स्वार्थ और महत्वाकांक्षा किसी भी भाषा में प्रकट की जा सकती है, सर्जना अपनी ही भाषा में पनपती है। परंतु भाषा के लिए सम्प्रेष्य समाज चाहिए; अगली पीढ़ियाँ चाहिए। क्या हमारे पास, हमारी किसी समृद्ध भाषा के पास ऐसा संभव होगा ? शिक्षा का माध्यम लगभग पूरे भारत में अंग्रेजी हो चुका है जो बच्चे के कच्चे दिमाग़ पर इतना बोझा डालती है कि वह उससे उबर नहीं पाता। माता-पिता बच्चे के ‘भविष्य के लिए’ अर्थात् उसके व्यावसायिक केरियर के लिए अपनी चेतना पर भी अंग्रेजी का इतना दबाव महसूस करते हैं कि घर में भी एक परदेशी भाषा का वातावरण बनाने की कोशिश करते हैं। नतीजे में ये पीढ़ियाँ लगातार मातृभाषा से शून्य होती जा रही हैं। ये ही तो हमारी भाषाओं की आशा हैं, हमारे पाठक, जो परंपरा को आगे ले जाते हैं। उनकी दशा देख कर क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे हमारी भाषाओं में लिखा साहित्य पढ़ेंगे ? पाठक ही नहीं रहेंगे तो लेखक किसके लिए लिखेगा ? और भावी लेखक भी तो इन्हीं पीढ़ियों में जन्म लेंगे, वे किस भाषा के लेखक होंगे ? 



रोलांबार्थ कहते हैं कि ‘साहित्य ऐसी जागरूकता है जो भाषा के पास भाषा होने के कारण है।’ भाषा के पास से भाषा छिन जाने के बाद क्या हम लोक-चेतना की अभिव्यक्ति या अपने विनाश के उपकरणों का प्रतिरोध कर सकेंगे ? प्रभुत्ववादी भाषा ने हमें नैतिक और मानवीय मूल्य के प्रति यहाँ तक कि अपने अस्तित्व के प्रति भी आशंका में डाल दिया है। भाषा के इस भूमंडलीकरण ने सबको कैरियर बनाने की शिक्षा मुहैया की है, किसी को मनुष्य बनने की; ज्ञान, सेवा और अन्वेषण के गंभीर क्षेत्रों में अपने को निस्वार्थ झोंकने की शिक्षा नहीं दी है और जो प्रकल्प ये काम कर सकते हैं, उन्हें लगातार अनुपस्थित किया जा रहा है - अर्थात् भाषा और संस्कृति को।



भारत में डेढ़ दर्जन से अधिक बड़ी भाषाएँ और सैंकड़ो जन-भाषाएँ हैं। इनमें विपुल साहित्य है, बेहद अनमोल। दुनिया में ऐसा भाषा-समुद्र किसी देश के पास नहीं है। संस्कृत जैसी अद्वितीय ज्ञान-राशि, चिंतन-परंपरा, सांस्कृतिक बहुलता जो इस देश का सहस्राब्दियों से पोण और उत्प्रेरण करती रही है, विश्व में किस भाषा के पास ऐसी विरासत है ? परंतु इस विरासत की भी क्या स्थिति है ? कोलम्बिया विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर रोल्डन पोलॉक ने बताया कि ‘भारत में संस्कृत ही नहीं, सभी प्राचीन भाषाओं के अध्ययन का संकट पैदा हो गया है। कई शताब्दियों में फैले हुए अपने समृद्ध इतिहास के बाद भाषाएँ आज एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गई हैं कि उनके संरक्षण को सुनिश्चित करना संभव नहीं हो पाएगा। सन् 2030 तक जब भारत विश्व का सबसे बड़ी आबादी वाला देश हो जाएगा और शायद सबसे अधिक समृद्ध देश भी, वह अपनी असाधारण भाषिक और साहित्यिक विरासत को खो चुका होगा।’ एक विदेशी संस्कृत विद्वान के इस अवलोकन में कितनी सच्चाई और कितना दर्द है इसे हम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। परंपरा और वर्तमान भाषा-परिदृश्य यदि इसी दिशा में बढ़ता रहा तो इसका क्या परिणाम होगा ?



अंत में मैं इतना अवश्य स्पष्ट करना चाहता हूँ कि यह वक्तव्य किसी भाषा के विरुद्ध नहीं है, एक प्रवृत्ति, एक साम्राज्यवादी मनोवृत्ति और भ्रामक शब्दजाल के विरुद्ध है। अंग्रेजी एक समृद्ध भाषा है, अद्यतन ज्ञान-विज्ञान की भाषा है, विरोध उसका नहीं है, विरोध है उसे प्रभुत्ववादी औपनिवेशिकता के ऐसे माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने का, जो देशी भाषाओं का अस्तित्व मिटा रही है।



यह वक्तव्य किसी निराशावादी भविश्य के पक्ष में भी नहीं है। यह उस भूमंडलीकरण के मायाजाल के प्रति सचेत होने का आह्वान है, जो हमारे साहित्य और भाषाओं को मिटाने पर तुला हुआ है; और चित्र ऐसा खींच रहा है मानो वह उनका विस्तार कर रहा है। इससे कहीं हम झूठी आत्म-मुग्धता के बंदी न हो जाएँ। इस समय भारतीय भाषाओं को अपूर्व जागरूकता से सारे भेदभाव मिटाकर इस स्थिति का मिल-जुलकर सामना करना है और साहित्य तथा ज्ञान की विविध शाखाओं में निरंतर समृद्ध और अद्यतन होना है, अपनी नई पीढ़ियों के लिए अपनी भाषा में रोजगार का सृजन करना है, उसमें आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता पैदा करना है। इसके लिए हमें अपनी मानसिक पराधीनता पर स्वयं विजय पाना होगा।



मैं अनुभव कर रहा हूँ कि लंबी स्वाधीनता के बाद आज भी भारतीय भाषाओं की पारस्परिक दूरियाँ ज्यों-की-त्यों हैं; अब ईर्ष्या या विरोध तो नहीं है, परंतु गहरा प्रेम और समादर भी नहीं है। विभिन्न भाषाएँ एक-दूसरे के ज्ञान और सृजन के बहुमूल्य अवदान से लगभग अपरिचित हैं। इसके बिना बहुलतावाद सिर्फ भौगोलिक होकर रह गया है। हमें कुशल अनुवादकों का एक बहुत बड़ा समूह चाहिए जो भाषाओं को पास लाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। क्या यह खेद का विय नहीं है कि भारतीय भाषाओं के पारस्परिक अनुवाद के प्रशिक्षण के लिए पूरे देश में एक भी विश्वविद्यालय नहीं है ? विभिन्न भाषा अनुवादों के प्रकाशन में प्रकाशकों की गहरी रुचि और कर्मठता हमारे लिए अनिवार्य है। देश में गहरे आत्माभिमान, देश-प्रेम और प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ नई कर्मण्यता की ज़रूरत है। विभिन्न भाषा-संगठनों को सरकार से अनुदान लेने वाली संस्थाएँ भर नहीं बनना है, प्रतिभाहीन, निष्क्रिय लोगों का आश्रय स्थल नहीं बनना है। यदि हम आज की बहुचर्चित प्रतिस्पर्द्धा को श्रेष्ठ से प्रतिस्पर्द्धा के रूप में अपनी संस्थाओं में विकसित कर सकें, उच्चकोटि के ज्ञान और साहित्य को संस्थागत रूप में भी प्रोत्साहित कर सकें, तभी हम ऐसा कुछ कर सकेंगे जो भविश्य को नया रचनात्मक अर्थ दे सकेगा।



मैं असम साहित्य सभा का आभारी हूँ कि उसने मुझे आमंत्रित किया। उसके व्यापक दृष्टिकोण, साहित्य से इतने बड़े जनसमूह को जोड़ने में अद्वितीय सफलता का मैं हृदय से प्रशंसक हूँ। अगर देश की तमाम संस्थाओं को उससे दृष्टि और प्रेरणा मिल सके तो निस्संदेह उज्ज्वल भविष्य हमारी प्रतीक्षा करेगा।



09717266220 

6 टिप्‍पणियां:

  1. यह हमारा ही दुर्भाग्य है कि हम साहित्य की बातें तो करते हैं परन्तु ऐसे साहित्यकार कितने हैं जो कि साहित्य को जीते भी हैं? आज वही साहित्य जीवित भी है जिसको जिया गया है। जिसको कल्पना के घोड़े पर सवार होकर लिखा गया है, आज वह कहाँ है? सभी जानते हैं। ‘भरतीय भाषा का भविष्य’’ पढ़कर जो ऊर्जा प्राप्त हुई उसे शब्दों में कैसे बयां कर दूं, समझ नहीं पा रहा हूँ।

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  3. गंभीर और जरूरी बातें... फिर पढते हैं इसे...

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  4. डॉ. राजेन्द्र सिंघवी जी की किसी नॉन यूनिकोड फॉन्ट में लिखी टिप्पणी का यूनिकोडित रूप -

    " वर्तमान दौर में भारतीय भाषाओं की चिन्ता किसको है? हम सभी सूचना तकनीक के साथ अपनी भाषा को अद्यतन नहीं रख पाये हैं । नतीजतन केवल मौन मूक होकर अपनी भाषाओं को मरता हुआ देख रहे हैं । यह आलेख नयी युवा साहित्यकार पीढ़ी को प्रेरित करने में मददगार होगा । ऐसा मेरा विश्वास है । बहुत अच्छे आलेख के लिए कोटिशः धन्यवाद ।"

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  5. satyata to yahi hai. Nahi to 40 varshon se sthapit kendriy anuvaad bureau ko 1 secretary apne aatm santusthi ki liye khatma karne ka hitlari farmaan nahi nikalta.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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