बने चट्टान हिंदी, दीवार नहीं : UK REGIONAL HINDI CONFERENCE - 2011



गत दिनों बर्मिंघम में आयोजित UK REGIONAL HINDI CONFERENCE - 2011   में प्रस्तुत एक आलेख 




बने चट्टान हिंदी, दीवार नहीं
ऐश्वर्ज कुमार
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय


सम्मेलन की तैयारी के लिए आयोजित की गई पहली बैठक में एक सदस्य ने पूछा कि क्या यह सम्मेलन हिंदी में होगा? जवाब में कहा गया कि जी हाँ। यह सुनकर सदस्य ने कहा कि “हमें इस बात का पूरा ख्य़ाल रखना चाहिए की सभी पेपरों की भाषा आसान और बोलचाल की भाषा हो। अगर इन पेपरों की भाषा ऐसी नहीं होगी तो संभव है कि यह सभी वक्ता आएँ  और अपनी बात कहकर चले जाएँ और उनकी बात सभी के सिर के ऊपर से चली जाए”। यह सबकुछ सुनकर मुझे बेहद तकलीफ हुई। क्योंकि उनका यह तर्क कोई नया नहीं था। मैं तुरंत इसका जवाब देने के लिए उद्वेलित हुआ लेकिन अपने आप को यह समझाते हुए काबू कर लिया कि ऐसे गुरूमंत्र आगे भी आते रहेंगे। बेहतर है कि इनका जवाब सही अवसर पर दिया जाए। मुझे लगता है कि वह सही अवसर आज और अभी है। इसलिए मैं प्रश्न पर फिर से लौटता हूँ। मैं सबसे पहले यह पूछना चाहता हूँ कि जब कोई सम्मेलन अंग्रेज़ी भाषा में होता है तब क्या आप में से कोई यह बात कहता है कि जो अंग्रेज़ी बोली जा रही है वह बहुत कठिन अंग्रेज़ी भाषा है और थोड़ी आसान अंग्रेज़ी बोली जाए? जब हम कभी अंग्रेज़ी पर यह सवाल नहीं उठाते तब क्यों हिंदी को आसान बनाने के पीछे लग जाते हैं? यह मानसिकता कि हिंदी का स्तर बोलचाल का रहे, हिंदी सरल और सहज हो, उसमें कठिन शब्द न हों इत्यादि हिंदी के प्रति और भारतीय भाषाओं को सीमित व्यवहार की भाषा बनाए रखना ही है। क्योंकि ऐसे गुरूमंत्र दर्शाते हैं कि वह अंग्रेज़ी भाषा की अंतर्राष्ट्रीय उपयोगिता को आत्मसात कर चुके हैं। वह मान चुके हैं कि हिंदी या भारतीय भाषाओं का स्थान घरेलू उपयोग या गिने चुने कामों के लिए ही संभव है।





सबसे पहला सवाल है कि कौन लोग हैं जो यह आग्रह कर रहे हैं कि हिंदी को आसान बनाया जाए? यह आग्रह उस वर्ग का है जो ख़ुद हिंदी नहीं जानता। वह हिंदी भाषा और संस्कृति को आसान बनाने का आग्रह तो करता है लेकिन ख़ुद अपनी हिंदी की जानकारी बढ़ाने की कोशिश नहीं करता। उल्टा हिंदी को आसान बनाने का आग्रह करता है। दूसरा सवाल यही है कि जब यह वर्ग हिंदी भाषा को सहज और सरल बनाने की बात करता है तो उससे अभिप्राय क्या है? वास्तव में हिंदी की सरलता और सहजता से इनका अर्थ महज़ संस्कृतनिष्ठ शब्दों से परहेज़ करना है। इन संस्कृतनिष्ठ कठिन शब्दों के लिए इनका विकल्प होता है कि इनके स्थान पर अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग किया जाए। यानि आसान हिंदी का अर्थ है संस्कृतनिष्ठ शब्दों से बचना या महज़ अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल करना। इधर यह तर्क हिंदी के कुछ लेखक भी देने लगे हैं। उनका मानना है कि अगर कुछेक अंग्रेज़ी के शब्द इस्तेमाल करके हिंदी को एक व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिलती है तो इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इससे भाषा और वाक्य संरचना के स्तर पर भी हिंदी भाषा का ही विस्तार हो रहा है। इन विद्वानों का मत है कि भाषा की इस मिलावट से ग़ैर हिंदी भाषी भी अपने आपको हिंदी भाषी मानने लगता है। इन विद्वानों के इस तर्क में अवश्य कुछ ताकत भी है लेकिन हिंदी भाषा की इस मिलावट के कुछ दूरगामी परिणामों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।


अंग्रेज़ी भाषा का `ज्ञान की भाषा' बनना और ज्ञान की भाषा से एक वर्ग की भाषा बनना महज़ संयोग नहीं है। बल्कि इसका एक पूर्व इतिहास है जिसकी भूमिका में जाना इस समय संभव नहीं है। लेकिन अभी इतना जानना उपयोगी होगा कि वह लोग जब हिंदी को आसान बनाने के लिए अंग्रेज़ी शब्दों के इस्तेमाल को एक विकल्प मानते हैं तब उसके पीछे हिंदी भाषा की कम जानकारी होना एक बड़ा कारण होता है। क्योंकि उनकी जानकारी अंग्रेज़ी तक सीमित होती है। लिहाज़ा, वह इससे हटकर कोई विकल्प देने में सक्षम नहीं होते। क्यों नहीं ऐसे लोग कठिन हिंदी के शब्द के लिए किसी अन्य भारतीय भाषा से शब्द लेते। इसका बड़ा कारण भी यही है कि उनका हिंदी भाषा का ज्ञान कम है तो अन्य भारतीय भाषाओं का ज्ञान नाम-मात्र है। क्योंकि ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जब शब्द `वेतन' के स्थान पर `पगार' या फिर शब्द `मकान' या `घर' के लिए `खोली' का प्रयोग किया जाता। बल्कि हिंदी को आसान बनाने वाले ठेकेदारों ने उल्टी चाल चली। उन्होंने होली, दीवाली, ईद, नया दिन, हरियाली तीज की सांस्कृतिक विरासत से हटकर अपना ध्यान मदर्स डे, वेलेंनटाइन डे की संस्कृति पर लगाया। `आरची' जैसे उद्योग ने इन्हें आगे बढ़ाया। `आरची' जैसे उद्योग घरानों ने हरियाली तीज या होली में गुझिया के महत्व से सिर्फ ध्यान हटाने का काम किया है। आरची कार्ड की संस्कृति में पलने वाला युवा जब हिंदी की परीक्षा में हरियाली तीज पर निबंध पढ़ता है तो उसे `गुझिया' शब्द किसी बम पटाखे का विकल्प सुनाई पड़ता है। यही वर्ग अपनी अंग्रेज़ी के आधार पर किसी ऊँचे पद पर जाकर कहता है कि हिंदी मुश्किल है इसे थोड़ा आसान बनाइए। 


बुनियादी स्तर पर भाषा और संस्कृति का रिश्ता अटूट है। यदि संस्कृति में परिवर्तन आएगा तो भाषा पर भी उसका प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में यह मानना कि भाषा अपने आरंभिक रूप में ही कायम रहेगी यह संभव नहीं है। दूसरे शब्दों में नए परिवर्तनों का असर भाषा पर पड़ना अवश्यंभावी है। लेकिन जब हम हिंदी भाषा को आसान बनाने के लिए किसी अंग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल करते हैं तब हम महज़ उस शब्द को हिंदी भाषा का हिस्सा नहीं बनाते बल्कि उस शब्द से जुड़ी उसकी संस्कृति को भी हिंदी के साथ जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए यदि दो लोगों के बीच किसी बात पर कोई ग़लतफ़हमी होती है और बाद में वह ग़लतफ़हमी दूर भी हो जाती है तो अपनी सफ़ाई में वह कहते हैं हमारी बातचीत में कोई ‘गैप’ नहीं है। या कोई ‘गैप’ नहीं आया है। यहाँ पर ‘गैप’ शब्द का प्रयोग मोटे तौर पर बातचीत में आई दरार से पैदा होने वाली उलझन का नतीजा था। दूसरे शब्दों में वह बातचीत जो दो लोगों में चल रही थी उस पर किसी हस्तक्षेप के कारण बातचीत का मतलब बदला, जिसे ‘गैप’ की संज्ञा दी गई। यहाँ  पर स्पष्ट है कि अंग्रेज़ी शब्द ‘गैप’ ने न सिर्फ़ हिंदी के वाक्य में प्रवेश किया बल्कि उसके साथ ही उस अंग्रेज़ी संस्कृति का भी समावेश किया जिसका प्रयोग अंग्रेज़ी भाषा में होता है। क्योंकि अंग्रेज़ी के अर्थ में शब्द ‘गैप’ का अर्थ सामान्य रूप में रिक्त स्थान से लेकर विचारों के आपसी अंतर के लिए प्रयोग किया जाता है। जबकि हिंदी में रिक्त स्थान या अंतर और फासला जैसे शब्दों का प्रयोग भिन्न रूप में किया जाता है। उदाहरण के लिए ध्यान दीजिए इस कहावत पर `आदमी आदमी अंतर, कोई हीरा कोई कंकर'। या फिर कहावत है कि `बुरे भले में चार अंगुल का अंतर होता है'। यह `अंतर' शब्द के ही प्रयोग हैं जैसे कि अन्तर्यामी, अन्तर्ध्यान , अंतर्कोण , अन्तर्गत इत्यादि। यह सभी प्रयोग अंग्रेज़ी के शब्द ‘गैप’ से अलग हैं और अलग संदर्भों में प्रयोग किए जाते हैं। ठीक इसी तरह का दूसरा उदाहरण देखिए। इस विज्ञापन में लिखा सब कुछ देवनागरी में ही है। ध्यान दीजिए इस वाक्य पर ‘गो डेअरडेविल्स गो ’। यहाँ  अंग्रेज़ी के शब्द ‘गो’ का प्रयोग पूरी तरह से अंग्रेज़ी संस्कृति का ही परिचायक है। हिंदी भाषा में कभी भी जोश या उत्साह को बढ़ाने के लिए ‘गो’ यानि जाना शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे जिस तरह यह अंग्रेज़ी भाषा में किया जाता है। लेकिन हिंदी के अख़बार के पहले पृष्ठ पर यह विज्ञापन नागरी लिपि में ज़रूर है लेकिन बढ़ावा मिल रहा महज़ अंग्रेज़ी की संस्कृति को। इसलिए हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग भाषा की अभिव्यक्ति के साथ भी समझौता है। अगर यह समझौता भाषा की संस्कृति या उसकी आत्मा का समझौता है तो क्या हम यह समझौता करने के लिए तैयार है? क्योंकि यदि हम ऐसे समझौते करने के लिए तैयार हैं तो फिर उसका कोई अंत नहीं होगा।



यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल कुछेक शब्द इस कदर हमेशा फूटते रहते हैं जैसेकि हर परिस्थिति या मनस्थिति को बयान करने के लिए ये शब्द पर्याप्त है। उदाहरण के लिए शब्द ‘कूल’ अक्सर हमारे युवाओं के मुँह से निकलता रहता है। अब सब कुछ ‘कूल’ है। रंगीन कपड़े भी ‘कूल’ हैं, चाय काफी पीना भी ‘कूल’ है, माँ बाप से जेब खर्च के लिए पैसे मिलना भी ‘कूल’ है इत्यादि। लेकिन जब पूछा जाए कि इसमें क्या ‘कूल’ है? तब एक वाक्य भी पूरा न बोल पाना भाषा की संस्कृति से अनभिज्ञ होने की दरिद्रता को बखूबी दर्शाता है। यह दरिद्रता हमारे किशोरों को नज़र नहीं आती क्योंकि शब्द ‘कूल’ का ठंडापन उन्हें अपनी ओर आर्कषित करता है। वह शब्द ‘कूल’ के बहु-अर्थीय संसार को पर्याप्त समझते हैं। लेकिन शब्द ‘कूल’ के पर्याप्त होने का एक बड़ा कारण वह समाज भी है जिसके द्वारा यह शब्द हिंदुस्तानी किशोरों की शब्दावली का हिस्सा बन रहा है। क्योंकि उनकी नज़र में पश्चिमी समाज पर्याप्त और समग्र है। हिंदुस्तान में रहने वाले बहुत कम नौजवान इस तथ्य से परिचित नज़र आते हैं कि जिस ‘कूल’ शब्द का प्रयोग वह कर रहे हैं वह पश्चिमी समाज में भी बेहद अनौपचारिक शब्दावली का हिस्सा है। उसका प्रयोग करने वाले समाज के विशेषाधिकार सम्पन्न बच्चे नहीं हैं।


पश्चिमी स्कूलों में होनहार छात्र वही है जो भाषा अभिव्यक्ति और उसकी संरचना को विश्लेषण करने की ताकत रखता है। वही छात्र ‘ए’ स्टार या ‘ए’ ग्रेड पाता है और कैम्ब्रिज ऑक्सफोर्ड या फिर हावर्ड में स्थान पाता है।


मीडिया द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग किसी वस्तु या सामग्री की बिक्री को बढ़ावा देने की कोशिश होती है। लेकिन विज्ञापन और फैशन की चकाचौंध उन किशोरों को अपने अंदाज़े बयाँ का हिस्सा बनाने के लिए अपनी ओर खींचती है। हिंदी अंग्रेज़ी की मिलावट और इस मिलावट को हिंदी भाषा के हथियार मानने वाले भाषा के जितने बड़े शत्रु हैं वह अभिव्यक्ति और भाषा संरचना विकास के लिए भी उतने ही बड़े शत्रु हैं। क्योंकि प्रत्येक भाषा की वाक्य संरचना की बनावट उस मिट्टी से होती है जिसमें वह भाषा रची बसी है। उस भाषा को सरल और सहज बनाने के चक्कर में उस पर दूसरी भाषा के शब्द थोपना किसी तरह से भी सही विकल्प नहीं माना जा सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि हम दूसरी भाषा के शब्द अपनी भाषा में आयातित नहीं करते। यह तो होता ही है, लेकिन उस हद तक ही जिस हद तक आपकी भाषा उसकी अनुमति देती है। उदाहरण के लिए 19वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ी शासन के द्वारा भारत में रेलगाड़ी का आरंभ हुआ। उसके साथ ही उन शब्दों का आयात भी हुआ, जिन्हें रेल यात्रा के लिए इस्तेमाल करना था। टिकट, प्लेटफार्म, सिग्नल, टी.टी. इत्यादि इसके जीते जागते उदाहरण हैं। इन शब्दों का प्रयोग भी उसी सहजता से दूरदराज़ के इलाकों में धड़ल्ले से होता है। इस पर कभी किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई।


सीधे तौर पर कहें तो ज़रूरत इस अंदाज़े बयाँ  को बनाने की थी कि अपनी ज़बान के संस्कार को बदले बिना शब्दों को अपनी भाषा का हिस्सा बनाया जाए। ऐसे शब्द निःसंकोच बोलचाल का हिस्सा बनें। किसी भी ऐसे शब्द को या वाक्य को भाषा का हिस्सा न बनाया जाए जो हमारी भाषा के संस्कार से मेल नहीं खाता। इसका अर्थ यह नहीं कि हमारी भाषाओं में आधुनिक विषयों जैसे कि विज्ञान, तकनीक एवं वाणिज्य को सीखने और  सिखाने की सक्षमता नहीं थी। बल्कि हमारे नीति निर्माताओं ने 1947 के संदर्भ में जब विभाजन और उससे पनपने वाली हिंसा ने दिलों को बाँटने का काम किया तब अंग्रेज़ी भाषा पर स्वीकृति धर्मिक हिंसा को ठंडा करने का एक माध्यम बना। तब भारतीय भाषाओं को न अपनाकर अंग्रेज़ी को जारी रखना तनाव पर अंकुश लगाने का एक ज़रिया बना। अंग्रेज़ी भाषा का प्रशासन की भाषा के रूप में बने रहना ही वह अभिशाप बना जिसके फलस्वरूप आधुनिक तकनीक, विज्ञान जैसे विषयों के लिए भारतीय भाषाओं को विकल्प बनाने के लिए भारतीय राज्यों द्वारा कोई संयोजित पहल नहीं की गई। हम यानि हमारी पीढ़ी उस भारी भूल की कीमत चुका रही है कि आज हमें इन विषयों पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए भारतीय भाषाएँ  सीमित एवं अनुचित नज़र आती हैं। यह इस नज़रिए का ही नतीजा है कि भाषा मिलावट को बिना किसी शर्त के जारी रखा जा रहा है और अब कई दूसरे परिणाम भी आसानी से देखे जा सकते हैं। अब महज़ अच्छी ज़बान बोलना या बरतना आधार नहीं रह गया है। अब अंग्रेज़ी का संस्कार इस कद़र हावी हो चला है कि अगर आप इसके संस्कार से वाकिफ़ नहीं हैं तो आपके ज्ञान पर भी प्रश्चचिन्ह लग सकता है। यदि आप अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते तो आपको अनजान श्रोता से ज़्यादा का दर्जा नहीं मिलेगा। क्योंकि हिंदुस्तानी समाज में अंग्रेज़ी भाषा की जानकारी को ही आपके ज्ञान का आधार माना जाता है। यहाँ  तक कि हिंदी फिल्मों के अदाकार भी अपनी बातचीत में जब तक अंग्रेज़ी का तड़का नहीं लगाते तब तक उनकी बात पूरी नहीं होती। पिछले दिनों ऐसे ही फिल्मी अदाकारों पर टिप्पणी करते हुए हिंदी के विद्वान ने कहा था “यह खाते हिंदी की हैं लेकिन भौंकते अंग्रेज़ी में हैं”।


यह भौंकने की संस्कृति का ही नतीजा है कि अपनी बात को बिना अंग्रेज़ी के शब्दों के जोड़े हम अपनी बात नहीं कह पाते। अब हम बोलते वक्त यदि हिंदी का शब्द ध्यान में नहीं आता तब भी हम एक पल के लिए रूककर सोचने की कोशिश भी नहीं करते कि उचित हिंदी शब्द क्या होगा? बहुत ज़रूरी है कि किसी शब्द के याद न आने पर हम ध्यान से सोचें कि मैं क्या कहना चाहता हूँ और उसके लिए जो उचित शब्द है उसका ही प्रयोग करें। तभी हम अपनी बात पूरी ताकत से कह सकते हैं। अपनी बात को ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के चक्कर में जिस खिचड़ी भाषा का हम प्रयोग करने लगते हैं और इस ख़ुशफ़हमी का शिकार होते हैं कि अपनी बात सब तक पहुँचा रहे हैं। शायद हम खिचड़ी भाषा के ज़रिए अपनी बात ज़्यादा लोगों तक पहुँचा रहे हों लेकिन वास्तव में अपने तर्क को कमज़ोर भी बनाते हैं। रही बात कठिन शब्दों की तो वह तब तक कठिन बने रहेंगे जब तक कि हम उनका इस्तेमाल नहीं करेंगे। जैसे जैसे उन शब्दों का इस्तेमाल होगा वह आम शब्दों का रूप ले लेंगे। ज़्यादा ज़रूरत है इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जिसके द्वारा भारतीय भाषा के शब्दों को हिंदी शब्दावली का हिस्सा बनाया जाए। जब तक शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाएगा तब तक यह जानना मुश्किल होगा कि कौन-सा शब्द व्यवहारिक भाषा का हिस्सा बन सकता है या नहीं। मसलन हिंदी भाषा की एक परीक्षा में मैंने शब्द ‘दूरभाष’ का प्रयोग किया और उस वर्ष लगभग सभी विद्यार्थियों ने उसका अर्थ नहीं समझा। लेकिन जब वही शब्द दूसरे वर्ष प्रयोग किया गया तो सभी विद्यार्थी उसका अर्थ जानते थे। ठीक इसी तरह सत्तर के दशक में जब ‘दूरदर्शन’ शब्द टेलिविज़न के लिए प्रयोग किया गया तब पढ़े लिखे हिंदुस्तानी मध्यम वर्ग ने उसकी खिल्ली उड़ाई और वह शब्द लगभग लोग भूल चले थे। लेकिन नब्बे के दशक में टेलिविज़न चैनलों की भरमार के बीच सभी सरकारी चैनल दूरदर्शन चैनल के नाम से जाने गए। दूरदर्शन शब्द ने जो पहचान पैदा की, वही पहचान आज किसी दूसरे शब्द के प्रयोग द्वारा पैदा करना संभव नहीं। लिहाज़ा, दूरदर्शन शब्द भले ही सत्तर के दशक में एक गढ़ा हुआ शब्द था लेकिन पिछले तीन दशकों के उतार चढ़ाव ने दूरदर्शन शब्द को स्वीकार्य बनाया। इसका एक एहसास मुझे एक मेरे दोस्त ने भी करवाया जो खुद पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर के रहने वाले हैं। उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि भारत ने अपने टेलिविज़न के लिए एक नया हिंदी शब्द रखा। क्योंकि पाकिस्तान में ऐसा नहीं हुआ जिसकी बदौलत आज तक हम पी. टीवी ही कहते हैं।


यही अहम बात है कि जब तक हम शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे तब तक हम नहीं जान पाएँगे कि कौन-सा शब्द सही है और भविष्य में प्रयोग किया जा सकता है। पिछले वर्ष परीक्षा में मैंने इंटरनेट के लिए जगतजाल शब्द का प्रयोग किया। विद्यार्थियों के लिए यह शब्द भी कठिन था। लेकिन अगर हम इन शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे तो कैसे हम बदलती तकनीक को हिंदी भाषा से जोड़ पाएँगे। क्योंकि जब तक हम हिंदी भाषा को आसानी के नाम पर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग जारी रखेंगे तब तक हम हिंदी के संस्कार को वह मजबूती नहीं दे पाएँगे जिसकी आज ज़रूरत है। यह महज़ हिंदी भाषा के लिए ज़रूरी नहीं है बल्कि अंग्रेज़ी भाषा के उस विशेष दर्जे का है जो अंग्रेज़ी को मिला हुआ है। अंग्रेज़ी का यह विशेष दर्जा ही है जो उन लोगों को उन अहम स्थानों पर पहुँचने नहीं देता जो सिर्फ़ भारतीय भाषाएँ  जानते हैं। यह अंग्रेज़ीदां खुद भारतीय भाषाएँ सीखने के लिए कोई पहलकदमी नहीं करना चाहता लेकिन उन लोगों को हीनता का एहसास करवाने से नहीं चूकता जो अंग्रेज़ी नहीं जानते। यह वर्ग अपनी उदारता झाड़ते हुए कहता है कि अगर आप अंग्रेज़ी नहीं जानते तो सीख क्यों नहीं लेते? जैसेकि अंग्रेज़ी सीखने के लिए भारतीय समाज में सभी वर्गों के लिए एक समान अवसर मौजूद हैं। यदि अंग्रेज़ी भारतीय विकास के लिए इतनी ज़रूरी भाषा है तो फिर इस भाषा को सीखने के लिए क्यों अब तक सरकारी स्कूल और प्राइवेट स्कूलों के बीच दरार कायम है? जवाब सीधा है कि भारतीय उच्च वर्ग जानता है कि अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं की दीवार जब तक कायम रहेगी तभी तक उनके विशेषाधिकार का अस्तित्व भी कायम रहेगा। सभी वर्गों को अंग्रेज़ी सीखने का एक समान अवसर देने का अर्थ होगा अपने विशेषाधिकार को समाप्त करना।


जब विशेषाधिकार को कायम रखने के लिए संधर्ष जारी है तब ज़रूरत इससे आगे जाकर भी सोचने की है और अफसोस है कि हमारे अंग्रेज़ीदां एक हद तक ही अपना प्रभाव कायम कर पाए हैं। उसका अहम कारण भी अंग्रेज़ी पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता है। विशेष तौर पर उदारीकरण के बाद भारत का एक अर्थिक शक्ति के रूप में उभरना अहम तथ्य है लेकिन यह परिर्तन तब तक संकुचित और सीमित ही माना जाएगा जब तक उसे भारतीय भाषाओं के माध्यम से पेश नहीं किया जाएगा। यह हमारी संकुचित सोच का ही नतीजा है कि जब भारतीय छवि दुनिया भर में नए विचारों और दृष्टिकोण का प्रतीक बन रही है तब हमारे अपने भारतीय अंग्रेज़ी भाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे। यह हमारे फिल्म निर्माताओं की वैचारिक कंगाली ही है कि जेम्स कैमरन जैसे नामी फिल्म निर्देशक ने अपनी फिल्म का नाम ‘अवतार’ रखा और फिल्म पूरी दुनिया में सराही गई तब हमारे फिल्म निर्देशक हिंदी नामों के स्थान पर एक के बाद एक अंग्रेज़ी नाम ही रखते जाते हैं। जब दुनिया पूर्व की तरफ नई दिशा के लिए उन्मुख हो रही है तब हमीं अंग्रेज़ी को व्यवहार में लाएँगे तो हम कैसे बाक़ी दुनिया को नया रास्ता दिखा पाएँगे। कहने का अर्थ है कि वह वक्त आ चुका है जब अंग्रेज़ी भाषा का संपर्क भाषा के रूप में या लिंगुवा फ्रेंका के रूप में रहना अपनी अंतिम साँसें तो नहीं लेकिन अब उसके लिंगुवा फ्रेंका बनने पर प्रश्न उठने लगे हैं। ऐसे दौर में ज़रूरी है कि हम अपनी भारतीय भाषाओं के संस्कार को पहचाने। उसकी गहराई में जाकर उन पक्षों को पहचाने जिसके द्वारा हम परिवर्तन की नई दिशाएँ  दिखा सकते हैं। यदि हमने अपनी ताकत को नहीं पहचाना तो अपने ही अवतार की ताकत हम नहीं बल्कि जेम्स केमरन हमें करवाएँगे। 


जब पश्चिमी देश मॉल संस्कृति से हटकर बाजार संस्कृति के गुणों को पहचान रहें हैं तब हम मॉल संस्कृति का जय गान करेंगे तो क्या वह विकास अपनी शर्तों पर होगा? जब विश्व में योग विद्या सीखने के प्रति उत्साह दोगुना हो रहा है तब हमीं ‘पब’ संस्कृति के प्रचारक बनेंगे तो कैसे अपनी पहचान को बचा पाएँगे? लिहाज़ा, सवाल महज़ अंग्रेज़ी शब्दों के द्वारा हिंदी को आसान बनाने का नहीं है, बल्कि वास्तविक प्रश्न अपनी भाषाओं की संस्कृति को सहेजने का भी है। परिवर्तन और आधुनिकता की सीढ़ी चढ़ना ज़रूरी है। हॉकिन्स और प्रेस्टीज प्रेशर कुकर की सीटी बजाकर पश्चिम ज़रूर हमारे रसोईघर में प्रवेश करता रहेगा और उसके फलस्वरूप भात पसाना बंद हो जाएगा। फिर पसाना जैसे शब्द भाषा से ग़ायब हो जाएँगे और यह हमारी चिंता का विषय भी नहीं होना चाहिए। चिंता हमें तब होती है कि हम परिवर्तन के नाम पर, आसानी के नाम पर या सुविधा के नाम पर उन प्रयोगों को अपना लेते हैं और जानने की कोशिश नहीं करते कि क्या हमारी भाषा में कोई अन्य विकल्प भी मौजूद है या नहीं। सब कुछ कैसे एक पल में हो जाए। कैसे काम चुटकियों में पूरा हो जाए जैसी सोच ही हमें अंग्रेज़ी के शब्द ‘शोर्टकट’ की सार्थकता को समझा देती है लेकिन पल पल और चुटकी बजाने जैसे प्रयोगों से पीछे धकेलती है। 


आज के बदलते दौर में चुनौतियाँ कम नहीं हैं और उसके अनुसार रूपातंरित होने की ज़रूरत भी है। जब बिल गेटस ने हिंदी को यूनिकोड में तैयार करके हिंदी भाषा को जगत जाल की भाषा बना दिया है तब हम किस संशय के शिकार बन रहे हैं? बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि अभी अधिकांश लोग नहीं जानते कि कम्प्यूटर पर यूनिकोड की सुविधा के द्वारा सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं को आसानी से लिखा और पढ़ा जा सकता है। लोग कम्प्यूटर में माइक्रोसाफ्ट साफ्टवेयर का प्रयोग करते हैं लेकिन नहीं जानते कि उसी के माध्यम से हम हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ  भी लिख पढ़ सकते हैं। आवश्यकता केवल इन भाषाओं को चालू करके इस्तेमाल करने की है। लेकिन जब जानते ही नहीं कि कैसे इन्हें चालू किया जाए और उल्टे नाना प्रकार की लिपियों के रूप इस्तेमाल करते रहते हैं। ख़ुद भ्रमित होकर अन्य कई सौ लोगों को भी सहज कम्प्यूटर तकनीक के बारे में रहस्यमय बनाए रखते हैं। आवश्यकता इस मानसकिता को बदलने की है। शायद कम लोग जानते होंगे कि रोज़ाना सात सौ से लेकर आठ सौ तक ब्लॉग हिंदी में लिखे जाते हैं। यदि यूनिकोड का प्रयोग करके गूगल में हिंदी शब्दों को लिखकर खोज करेंगे तो हिंदी की यह विपुल सामग्री बटन दबाते ही आपके सामने होगी।


निष्कर्ष, साफ़ है कि हिंदी भाषा में सहजता के नाम पर अंग्रेज़ीदां अपने नज़रिये को बदलें। हिंदी भाषा के व्यवहार पर नुक्ता चीनी से ऊपर उठें। हिंदी भाषी भी खिचड़ी भाषा से परहेज़ करें। सबसे ज़रूरी है कि हिंदी भाषा के प्रयोग में चिंतन और गहनता पर कोई समझौता न करें। आपकी बात तर्कसंगत होगी तो उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। महज़ हिंदी में लिखने और बोलने के समय शब्दों और विचारों के तालमेल पर ज़्यादा ध्यान दें। वैचारिक धार का पैनापन जब जब उभरेगा तब तब हिंदी भाषा चट्टान बनेंगी। यदि ऐसा होगा तो हिंदी भाषा के आलोचक कम और समर्थक ज़्यादा होंगे। यह तभी संभव होगा जब हम हिंदी भाषा का प्रयोग संयम, ठहराव और क़िफायत के साथ करेंगे। तभी हिंदी भाषा दीवार नहीं, एक मजबूत चट्टान बनेगी। 




8 टिप्‍पणियां:

  1. अगर साफ-साफ शब्दों में कहा जाय तो अंग्रेजी के पक्षधर भारतीय मानसिक रुप से पूरी तरह गुलाम हैं और देशद्रोही हैं। ऐश्वर्य जी, मैं जल्द ही अंग्रेजी के खिलाफ़ एक किताब लिखकर समाप्त कर रहा हूँ।

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  2. इन्हीं लोगों ने ले ली ना..... हिंदी की इज़्ज़त॥

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  3. Deepak Jain wrote :

    यह लेख पढ़ वास्तविकता में सुख की अनुभूति हुई कि कोई तो हैं जो मातृभाषा को बिना किसी लीपापोती के स्वीकार करना चाहता है| मेरे समक्ष ऐसे कई अवसर आए जब कि लोग कहते है या कि घर में ही कहा जाता है कि अब तो कुछ अंग्रेजी में बात किया करो, रोब बनता है| आपकी भी इमेज बनेगी| मुझे आजतक यह समझ नहीं आता कि हम नक़ल करते हुए ही आगे क्यों बढना चाहते है|
    इसमें कोई दो राय नहीं कि अंग्रेजी की जितनी वैश्विक स्वीकार्यता है या बनाई गई है, हिंदी नहीं बना पाई| पर इसके दोषी भी तो हम ही है|
    किसी के झूठे पर पलते हुए जिंदगी गुज़ार ली
    पर स्टेटस का ख्याल खूब रखा इन अंग्रेजो ने|
    अब इन पंक्तियों में ब्रितानियो को समझ लीजिये या आजकल के अंग्रेजी के मारे हिन्दुस्तानियों को!!!
    ~!दीपक

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  4. Sanjeev Thakur wrote :

    बहुत अच्छी बात कही दीपक भाई पर लोग इसे स्वीकार करे तो सार्थकता होगी

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. Mieye2 said...
    ऐश्वर्जजी,नमस्कार.
    हम आप से केवल एक आग्रह करते हैं. आप उन्हें न भूलें जो इस यात्रा पर अपने पहले कदम रख रहे हैं. सफर लँबा है और यदी आप चाहें तो उसी मकाम तक पहुँचेगा जहाँ आप ले जाना चाहते हैं.
    प्रवासी होते हुए हमें कुछ समय तो लगेगा बोल चाल की भाषा में शुद्धता लाने में. हमारे भारत में भी आप कई भटके हुए राही पाएंगे.
    यदी आप चाहें तो हमरी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए अपना हाथ बढ़ा सकते हैं. हम में बहुत काबलियत पाएंगे स्वयम अपनी समस्याओं को समझने और सुलझाने की भी. आप चाहें तो भाषा के पुल बना सकते हैं या एक ऊँची दीवार. जैसे हमने सम्मेलन में कहा, हिंदी को केवल अतीत से जुड़नी की भाषा न बनाते हुए भविष्य से जोडें. अ‍पने नौजवानों की आह सुनिये. उनकी केवल ध्वनी न सुनें उनके अनुभव और विचारों को भी समझें.

    इस विषय पर कहने को बहुत कुछ है हमारे पास, चाहे वह सम्स्या को समझने के बारे में हो या उसे सुलझाने पर.किंतु क्या करें आपने हमें अवाक कर दिया क्यों की हमारी पहली भाशा उस देश की है जहाँ हमने सारी उम्र बिताई है. "माँ को अपने दिल में सजाए, होँठों पर भी हम ले आये. जब मात्रभूमी की दिषा में देखा, पूछा आपने क्या वजूद है तेरा"!!

    ग़लतियों के लिये आप सब से क्षमा मांगती हूँ. दिल की बात है, अपने आप को रोक न पायी. This is not just an academic discussion for me but a real-life issue about a living & breathing language that I love.

    सादर

    देविना ऋषि

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  7. आपकी बात बहुत सही है .आज जब भी हम भारत जाते हैं यदि मेरी बेटी हिन्दी बोलती है तो वहाँ लोगों को ज्यादा अच्छा नहीं लगता है .किसी ने तो कह भी दिया अमेरिका रह कर भी इंग्लिश नहीं सीख पाई
    रचना

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  8. धन्यवाद रचनाजी

    हम भी पिछले कुछ वर्षों से भारत यात्रा कर रहे हैं. शुरु शुरु में हमारे बेटा और बिटिया बहुत शौक से भारतिया पौशाक पह्नते और सबसे हिंदी बोलने का प्रयास करते. वे छुट्पन से ही अपनी मात्रभाषा बोलते हैं और लिख पढ़ भी सकती है.

    भारत में जिसे भी मिलते उनहे आश्चर्य होता की हमारे बच्चों का उच्चारण इतना अच्छा और स्वभाव कितना भारतिय है. किंतु वह सब उन से अंग्रेज़ी ही बोलते और पूछते कि वे जीन्स क्यों नहीं पहनते हैं !!

    We need to tackle this problem from various aspects and support, not undermine, the efforts being made by those who are working within India & abroad, to keep our language alive.

    As Kavitajee's is a Hindi blog of high standing & excellent content, I shall not corrupt this forum further with my stumbling efforts in Hindi, to express my thoughts & ideas. You are welcome to visit my Blog for further free & frank discussions, if you so wish. When my own Hindi is strong enough to support and not weaken my proposals, I shall rejoin the shuddh Hindi forum. Until then I shall do what I do best. Motivate our little ones to learn Hindi and open a window in their minds, to the beauties of our language & culture.

    सादर
    देविना

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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