आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की १२५ वीं जयन्ती पर संगोष्ठी


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की १२५ वीं जयन्ती पर संगोष्ठी






आज दिनांक १३ दिसम्बर २००९ को महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद स्थित क्षेत्रीय केन्द्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के १२५ वीं जयन्ती के अवसर पर, ’आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आलोचना का वर्तमान’ विषय पर एक संगोष्टी का आयोजन किया गया था। संगोष्ठी की अध्यक्षता प्रख्यात कथाकार एवं इलाहाबाद विवि के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष दूधनाथ सिंह ने की और म.गा.अ.हि.वि.वि. के कुलपति प्रसिद्ध साहित्यकार विभूति नारायण राय इसके मुख्य अतिथि रहे। प्रमुख वक्ताओं में अध्यक्ष एवं मुख्यअतिथि के अतिरिक्त गोपेश्वर सिंह, भारत भारद्वाज, मुश्ताक़ अली, राकेश, उपेन्द्र कुमार एवं महेश कटारे थे। इसका संयोजन संतोष भदौरिया ने किया|


विषय प्रवर्तन करते हुये दिल्ली से पधारे हुये गोपेश्वर सिंह ने शुक्ल जी के आलोचना की आलोचनाओं पर विशेष प्रकाश डाला और बहुत सीमा तक शुक्ल जी के पक्ष की रक्षा करते हुये भी दिखे। उन्होने शुक्ल जी पर लगने वाले ब्राह्मणवाद एवं साम्प्रदायिकता के आरोपों का भी शुक्ल-साहित्य के अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर खण्डन किया। उन्होने जब शुक्ल जी के अन्तर्विरोधों का उल्लेख किया तो वर्तमान आलोचना के सबसे बड़े नाम के भी अन्तर्विरोधों का संकेत देने में नहीं चूके। नामवर जी ने मलयज जी और नीलकान्त जी के आचार्य शुक्ल सम्बन्धी अलग विवेचनाओं में परस्पर विरोधी मन्तव्य व्यक्त किया है इसे उन्होने उद्धरण सहित प्रदर्शित किया। संयोग से नीलकान्त जी वहाँ उपस्थित थे और मुख्य अतिथि महोदय के विशेष आग्रह पर उन्होने अपना पक्ष संक्षेप में रखा लेकिन वे भी गोपेश्वर जी के विचारों के प्रति सहिष्णु रहे। गोपेश्वर जी ने कहा कि बहुत से दलित चिंतक और अतिउत्साही मार्क्सवादी उनपर इतिहास दृष्टि से हीन होने तथा ब्राह्मणवाद और साम्प्रदायिकता का आरोप लगाते हैं। ब्राह्मणवाद को परिभाषित करते हुये गोपेश्वर जी का कहना था कि जो वर्णाश्रम, पुनर्जन्म, अवतार और वेदान्त को मानता हो वह ब्राह्मणवादी है और इस दृष्टि से वे महात्मा गांधी, विवेकानन्द आदि को भी ब्राह्मणवादी बताकर शुक्ल जी के विचारों का रक्षा करते दिखे। उन्होने शुक्ल जी के अवदानो को रेखांकित करते हुये उनके काव्य-विवेक का विशेष उल्लेख किया। हिन्दी ’साहित्य का इतिहास’ लिख कर जो कार्य शुक्ल जी ने किया वह बाद के लोगों के लिये मार्ग दर्शक बना। शुक्ल जी द्वारा सिद्धों और नाथों की परम्परा तथा कबीर की उपेक्षा का कारण वे उनकी शुद्धतावादी सोच को बताते हैं। वे रहस्यवादिता के पक्षधर नहीं हैं। शुक्ल जी के अनुसार जगत एक ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और कविता जगत की अभिव्यक्ति है। शुक्ल जी ने आलोचना के जो मानदण्ड स्थापित किये उसकी उपेक्षा परवर्ती काल के आलोचक उनकी आलोचना करते हुये भी नहीं कर सके। गोपेश्वर जी ने राम विलास शर्मा का भी सन्दर्भ देते हुये बताया कि किस प्रकार शर्मा जी ने शुक्ल जी पर लगने वाले ब्राह्मणवाद के आरोप का खन्डन किया था।


गोपेश्वर जी के बाद मुख्य अतिथि महोदय को आमंत्रित किया गया। विभूति जी ने एक प्रकार से शुक्ल जी पर ब्राह्मणवादी होने और साम्प्रदायिक होने के वामपन्थी आरोपों की रक्षा की लेकिन दबे स्वर में। इसके लिये उन्होने समय के दबाव को कारण माना। परन्तु एक बात उन्होने मुक्त कंठ से स्वीकार की कि साहित्य के इतिहास का वैज्ञानिक लेखन शुक्ल जी की ही देन है। बाद के जितने भी आलोचक या साहित्येतिहाकार आये उन्होने या तो उससे बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की या छोटी लेकिन वे मूल लकीर को प्रतिस्थापित नहीं कर पाये। इसीलिये आज १२५ वर्ष बाद भी हम उन्हे याद कर रहे हैं।


इसके बाद ग्वालियर के महेश कटारे जी ने वातावरण को हल्का करने का प्रयत्न किया कि आलोचना वही सही है जो समझ में आये। आलोचना में गूढ़ता की उन्होने आलोचना की। उनके वक्तव्य की दो बाते प्रमुख थीं एक तो वर्तमान आलोचना में ग़ज़लों को कोई स्थान नहीं दिया जाता और दूसरा कि आलोचनायें रचनाओं के प्रमोशन के उद्देश्य से हो रही हैं उनके मूल्यांकन के लिये नहीं।


इसके बाद विवि के विशेष कार्याधिकारी राकेश जी का क्रम था। राकेश जी मुख्यरूप से रंगमच से जुड़े हैं। उन्होने भी अपनी पीड़ा व्यक्त की कि नाटकों को साहित्य की मुख्यविधा नहीं माना जाता और इस पर गम्भीर आलोचना नहीं होती। इसी क्रम में उन्होने आलोचना को अनवश्यक भी बता दिया।


राकेश जी के बाद उपेन्द्र कुमार एवं मुश्ताक़ अली का भी वक्तव्य हुआ जिसे मैं कतिपय कारणों से नहीं सुन पाया। जब मैं दुबारा सभागार में पहुँचा तो मुश्ताक़ जी अपना वक्तव्य समाप्त कर रहे थे जो सम्भवतः लम्बा खिंच गया था। ऐसा सचालक के बाद में दिये गये संकेतों से पता चला।


अब बारी थी भारत भारद्वाज की। भारत जी वर्धा विवि से प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका पुस्तक वार्ता के सम्पादक भी हैं। उन्होने इसके नवीनतम अंक(सितम्बर-अक्तूबर) में ’हिन्दी आलोचना के हिमालय : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ के नाम से सम्पादकीय लिखा है जो रोचक व पठनीय है। भारत जी अपने उद्बोधन में भावुक और किंचित विचलित से दिखे। सम्भवतः वे शुक्ल जी पर हो रही आलोचनात्मक टिप्पणियों से आहत थे। अपने वक्तव्य में उन्होने लगभग वही बातें कहीं जो उन्होने अपने संपादकीय में लिखी हैं अतः उन्हे यहाँ दुहराना उचित नहीं होगा(भारत जी से सम्पर्क का पता दे रहा हूँ इच्छुक जन उनसे सम्पर्क करके शायद सामग्री प्राप्त कर सकें)। अन्त में उन्होने यह कह कर अपनी बात समाप्त की कि शुक्ल जी के हिमालय पर चढ़ने का यत्न तो बहुतों ने किया लेकिन लौट कर कोई नहीं आया।
(इंटरनेट पर सार्वजनिक रूप में संपर्क सूत्र सदा के लिए टाँक देना सुरक्षा कारणों से उचित न होने के कारण उन्हें हटा दिया है| क.वा.)


अन्त में अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में दूधनाथ जी ने आरम्भ में ही स्थापना दी कि शुक्ल जी के निश्कर्षों का दायरा अन्तर्विरोधी है। उन्होने शुक्ल जी के उस विचार के बारे में भी बताया कि कविता के आस्वाद और विश्लेषण में अन्तर है। अच्छा लगना ही अच्छी कविता का मानदण्ड नहीं है।


दूधनाथ जी ने साहित्य के क्रमबद्ध इतिहास का श्रेय शुक्ल जी को ही दिया। उनके इतिहास लेखन पर प्रकाश डालते हुये उन्होने कहा कि रासो साहित्य को शुक्ल जी ने इतिहास में इसलिये शामिल किया क्योंकि उनका मानना था कि प्रसिद्धि भी किसी काल के लोकप्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है। जो प्रासंगिक नहीं है वह महत्त्वपूर्ण नहीं होता तथा साहित्य इतिहास के अन्दर का इतिहास है जैसी उक्तियाँ भी दूधनाथ जी से सुनने को मिलीं।


दूधनाथ जी का यह भी कहना था कि उनके अनुसार विषय था ’आचार्य शुक्ल और आलोचना का वर्तमान’ लेकिन चर्चा शुक्ल जी को लेकर ज्यादा हुई आलोचना को लेकर कम। उनके अनुसार शुक्ल जी के पूर्व हिन्दी साहित्य में आलोचना थी ही नहीं। किसी वक्ता के द्वारा एक नाम याद दिलाने पर उन्होने उसे महत्त्व नहीं दिया। शुक्ल जी के कुछ पूर्वाग्रहों की चर्चा करते हुये उन्होने कहा कि शुक्ल जी सिद्धों के रहस्यवादी वचनों को साहित्य नहीं मानते लेकिन गोरखनाथ को वे एक हिन्दू योगी मानते हैं। यहाँ वे गोरखनाथ को वज्रयानियों या तंत्रमार्गियों से अलग करते हैं। शुक्ल जी के ब्राह्मणवाद की रक्षा तो दूधनाथ जी नहीं करते लेकिन साम्प्रदायिकता के आरोप से बहुत विद्वतापूर्ण ढंग से उन्हे निकालने का प्रयत्न करते हैं। इसके लिये वे मुस्लिम शासकों के समय शासन में जन की भागीदारी के अभाव को कारण मानते हैं। इसीलिये वे भक्तिकाल के साहित्य को जन के मौन को भंग करने का साहित्य मानते हैं। भक्ति को शुक्ल जी धर्म की भावात्मक अनुभूति कहते हैं। दूधनाथ जी के अनुसार सारा मध्यकालीन साहित्य वेदान्त के त्रिकोण (प्रस्थानत्रयी) पर टिका है। अतः भक्तिकालीन इतिहास लिखते समय शुक्ल जी ने तत्कालीन प्रवृत्तियों को प्रदर्शित किया है। अध्यक्ष महोदय ने छायावादी कवियों के बारे में शुक्ल जी के दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुये बताया वे पन्त को चित्रभाषा का कवि कहते हैं। महादेवी के बारे में उन्होने इतिहास के पहले लेखन में स्थान नहीं दिया था लेकिन बाद में उन्होने उनके दो उल्लेख किये हैं एक बार उन्होने कहा है कि ’लगता है महादेवी को पीड़ा का चस्का लग गया है।’और दूसरी बार कहा है कि ’यह बताना मुश्किल है कि यह पीड़ा वास्तविक है या पीड़ा की रमणीय कल्पना’। दूधनाथ जी दूसरी बात से इसलिए असमत हैं कि केवल अनुभव से लिखना तो अनुभववाद हो जायेगा। यदि कल्पना नहीं होगी तो कविता ही सम्भव नहीं होगी। उन्होने छायावाद के दो प्रमुख लक्षण बताये एक - चित्रछवि, दो - रहस्यानुभूति। इसी आधार पर दूधनाथ जी के अनुसार शुक्ल जी ने बाद मे महादेवी को सर्वश्रेष्ठ छायावादी कवि माना है। (दूधनाथ जी ने महादेवी वर्मा पर अभी एक पुस्तक लिखी है) लेकिन वे कहते हैं कि यदि शुक्ल जी को ’निराला’ की बाद की कवितायें पढ़ने का अवसर मिला होता तो वे निश्चित ही ’निराला’ को श्रेष्ठ छायावादी कवि बताते। यहाँ जो कारण दूधनाथ जी ने बताया वह चौंकाने वाला था। उन्होने कहा कि शुक्ल जी वेदान्तवादी और ब्राह्मणवादी थे, तुलसीदास भी थे और मुझे अब लगने लगा है कि निराला भी अपने अन्तिम दिनो में ब्राह्मणवादी हो गये थे। अतः निराला भी तुलसीदास की तरह प्रिय कवि होते। इसके पूर्व उन्होने निराला के उन दो लेखों की भी चर्चा की थी जिसके द्वारा उन्होने शुक्ल जी के आलोचना की खबर ली थी और उन्हे खूब खरी-खोटी सुनाई थी।


शुक्ल जी के अलोचना की पुनः चर्चा करते हुये उन्होने समय की कठिनाइयों का वर्णन भी किया कि उन्हे किस प्रकार तत्कालीन साहित्यकारों की मुखर आलोचना से बचना होता था और किस प्रकार बाबू श्याम सुन्दरदास चाहते थे कि हिन्दी साहित्य का इतिहास उन्ही के(श्याम सुन्दर दास) के नाम से छपे (इस सम्बन्ध में भारत भारद्वाज का सम्पादकीय पठनीय है) आदि। तत्कालीन परिस्थितियों और उपलब्ध संसाधनो के आधार पर उन्होने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का जो कार्य किया उसे बाद के इतिहास लेखकों ने भी अपनाया। बहुत से लोगों ने नया लिखने का दम भरते हुये भी शुक्ल जी की ही नकल की, वे कोई मौलिक कार्य नहीं कर सके।


और भी बहुत कुछ कहा गया इस अवसर पर परन्तु स्मृति, समय एवं स्थान की सीमा के कारण इतना ही।


सबसे अन्त में संयोजक और संचालक संतोष भदौरिया जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया और स्वल्पाहार के बाद यह गोष्ठी सम्पन्न हुई। यह अनुभव किया गया कि गोष्ठी लम्बी हो गयी। कई आमंत्रित श्रोता अन्त तक धैर्य धारण नहीं कर सके। कुछ के पास वापस जाने सही जुगाड़ नहीं था इसलिये देर होती देख किसी के साथ लटक कर निकल लिये।


मेरे लिये यह अनुभव लाभकारी रहा। मैं विशेष रूप से भारत भारद्वाज और दूधनाथ जी को सुनने आया था परन्तु गोपेश्वर जी को भी सुनना एक सुखद अनुभव था। किसी साहित्यकार को यदि उसके जन्म के १२५ वर्ष बाद भी याद किया जाता है तो लगता है कि बन्दे में था दम। हिन्दी आलोचना और इतिहास की जब भी चर्चा होगी तो उसके आदिपुरुष के रूप में उन्हे याद किया जायेगा।

वर्धा विवि को मैं ऐसे कार्यक्रम के लिये धन्यवाद देता हूँ।


5 टिप्‍पणियां:

  1. वामपंथी सकुचाते हुए ही सही, शुक्ल जी के योगदान को सराहे बिना नहीं रह सके:)

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  2. वहाँ गया तो मैं भी था लेकिन पूरा समय सुनने का अवसर नहीं निकाल पाया। सौभाग्य से आपने नुकसान की भरपायी कर दी। बल्कि शायद मैं स्वयं इतना समझ भी नहीं पाता। :)

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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