सिर्फ फौज की वापसी ही समाधान नहीं




सिर्फ फौज की वापसी ही समाधान नहीं
डा. वेदप्रताप वैदिक
  

 
 
ओबामा की नई अफगान-नीति में नया क्या है ? उसमें ऐसा क्या है, जिसके कारण उसे बुश से अलग कहा जा सके ? सिर्फ एक बात है| वह यह कि अब से 18 माह बाद अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी शुरू हो जाएगी| वापसी की बात कभी बुश के दिमाग में आई ही नहीं| शायद इतनी दूर की बात सोचने की क्षमता बुश में थी ही नहीं| ओबामा बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने यह घोषणा की| उन्होंने ''डेढ़ साल'' कहा है और मैंने ''एक साल'' कहा था| वास्तव में वह अवधि व्यावहारिक रूप में एक साल की ही होगी, क्योंकि 30 हजार नए फौजियों को अफगानिस्तान पहुँचते पहुँचते छह माह लग जाएँगे | दूसरे शब्दों में अमेरिका के लगभग एक लाख जवानों और नाटों के लगभग 50 हजार जवानों को एक साल की मोहलत मिली है कि वे इस युद्घ को जीत कर दिखाएँ !


  
ओबामा के प्रतिद्वंद्वी मेककैन ने वापसी की घोषणा को गलत बताया है| उनका तर्क है कि वापसी की घोषणा की वजह से अफगान सरकार, फौज और जनता का मनोबल भी गिरेगा| तालिबान डेढ़ साल तक चुप बैठ जाएँगे और वापसी शुरू होते ही अफगान सरकार पर टूट पड़ेंगे| मेककैन के ये तर्क बिल्कुल गलत हैं| अमेरिकी वापसी की घोषणा का सबसे पहला असर अफगानिस्तान की जनता पर यह होगा कि अमेरिका की छवि सुधरेगी| यह धारणा निर्मूल होगी कि अमेरिका अफगानिस्तान को अनंत काल तक कब्जाए रहेगा| वे अब जानेंगे कि अमेरिका जिस सीमित उद्देश्य के लिए अफगानिस्तान में आया था, उसके पूरे होते ही वापस चला जाएगा| यों भी आम अफगानों के मन में पश्चिमी फौजों (इसाफ) के लिए सराहना का वह उत्कट भाव अब नहीं है, जो 2001 में था| दूसरा, पश्चिमी फौजों की उपस्थिति ही तालिबान की वापसी का सबसे बड़ा कारण है| तालिबान बड़ी तरकीब से काम ले रहे हैं| वे अफगानों को समझा रहे हैं कि ब्रिटिश और सोवियत फौजों की तरह अमेरिकी फौजों ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है और काबुल में उन्होंने कठपुतली सरकार बिठा रखी है| यह लड़ाई सिर्फ इस्लामी जिहाद की ही नहीं है, अफगानिस्तान की आज़ादी की भी है| अब ओबामा की घोषणा से यह तर्क अपने आप गल जाएगा| तीसरा, वापसी की घोषणा अफगान सरकार को अपनी कमर कसने पर मजबूर करेगी| ओबामा ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि अब 'ब्लेंक चेक' का ज़माना लद गया है याने 'करो या मरो'| यदि अगले एक-डेढ़ साल में अफगान सरकार अपने पाँव पर खड़ी नहीं हो सकी तो उसे हटना पड़ेगा| इस चुनौती के कारण उसे कठोर निर्णय लेने ही पड़ेंगे| चौथा, पश्चिमी (इसाफ) सेनाओं को अब किसी भी बहानेबाजी का मौका नहीं मिलेगा| उन्हें पता चल गया है कि अब एक-डेढ़ साल में उन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त करना है| पाँचवाँ, ओबामा की वापसी की घोषणा से आम अमेरिकी को काफी सांत्वना मिल रही है| उन्हें एराक़ और अफगानिस्तान की अंधी सुरंगों के पार अब आशा की किरण दिखाई पड़ने लगी है|

   
 
अमेरिकी वापसी की सराहना में मैंने ये तर्क जरूर दिए हैं लेकिन क्या फौजी वापसी अपने आप में कोई समाधान है ? नहीं है| क्यों ? पहला, अमेरिका और नाटो के डेढ़ लाख जवान सफल कैसे होंगे ? वे अल़-क़ायदा और तालिबान को कैसे हराएँगे  ? यदि एक लाख उन्हें नहीं हरा सके तो डेढ़ लाख क्या कर लेंगे ? पश्चिमी जवान आमने-सामने लड़ने से बहुत घबराते हैं| उन्हें न तो स्थानीय भूगोल का पता होता है, न स्थानीय भाषा आती है, न स्थानीय लोग उनका साथ देते हैं, न यथेष्ट गुप्त सूचनाएँ उनके पास होती हैं और न ही अफगान सैनिकों के साथ उनका जरूरी ताल-मेल होता है| इस साल के शुरू में ही ओबामा ने लगभग 20 हजार नए फौजी भिजवा दिए थे लेकिन इस साल जितने अमेरिकी फौजी मारे गए, पहले कभी नहीं मारे गए| तालिबान प्रवक्ता ने अब 30 हजार नए जवानों की घोषणा के बाद कहा है कि वे अमेरिका को और ज्यादा कड़ुआ पाठ पढ़ाएँगे  इसमें शक नहीं कि 30 साल से लगातार गृह-युद्घ में फँसे अफगानिस्तान को काबू करने के लिए एक लाख फौजी काफी नहीं हैं लेकिन सिर्फ 30 हजार जवान बढ़ाने से क्या होगा ? तालिबान का असर अब उत्तर और पश्चिमी अफगानिस्तान में भी फैल रहा है| इस समय कम से कम दो लाख जवानों की जरूरत है| अब से 36 साल पहले जब जाहिरशाह ने काबुल छोड़ा था, उनके पास दो लाख से भी ज्यादा जवान और सिपाही थे| हर अफगान नौजवान के लिए सैन्य-शिक्षा अनिवार्य थी| यदि ओबामा कोशिश करते तो पिछले एक साल में वे दर्जनों एशियाई और अफ्रीकी देशों को तैयार कर लेते, जो एक लाख से भी ज्यादा जवान काबुल भिजवा देते| ये जवान सस्ते भी पड़ते और लड़ते भी बेहतर ! लेकिन ओबामा ने मूलत: बुश की राह ही पकड़ी है| जवानों की संख्या बढ़ाने के अलावा उन्होंने जीत की कौनसी रणनीति बनाई है? उनके सलाहकारों ने साल भर पहाड़ खोदा और उसमें से निकाली चुहिया !

   
 
ओबामा ने न तो राष्ट्रीय अफगान सेना के बड़े पैमाने पर नव-निर्माण की बात कहीं है और न ही अफगान-सरकार को समस्त सैन्य-गतिविधियों के संचालन का अधिकार दिया है| यदि अब भी वे पांच लाख जवानों की स्थानीय फौज खड़ी करने का संकल्प करें तो अफगानिस्तान में बेकार नौजवानों को ढूँढना मुश्किल हो जाएगा| तालिबान को जिहादी कहाँ से मिलेंगे ? इसी प्रकार ओबामा ने अफगान अफीम के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है| जब तक जिहादियों का पैसों का स्त्रेत आप नहीं सुखाएँगे|  आप उन पर काबू कैसे पाएँगे  ? अफगानिस्तान में राजनीतिक दलों के अभाव तथा अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं के बारे में भी ओबामा मौन रहे| उन्होंने फौज पर 30 बिलियन डॉलर (लगभग सवाल लाख करोड़ रू.) के नए खर्च की घोषणा तो कर दी लेकिन अगर एक साल में वे सिर्फ 20 बिलियन डॉलर विकास-कार्यों के लिए दे देते तो चमत्कार हो जाता| विदेशों से मिलनेवाली मदद फौजी खर्च के मुकाबले नगण्य है और उसका भी सिर्फ चार-पांच प्रतिशत ही काबुल-सरकार के हाथों में होता है| यह स्थिति उलटनी चाहिए थी|

   
 
अफगानिस्तान के पुननिर्माण में भारत ने अदभुत भूमिका निभाई है| यही भूमिका अब उसे अफगानिस्तान की रक्षा में निभानी चाहिए| पांच लाख की अफगान-फौज खड़ी करने का जिम्मा भारत को लेना चाहिए| ओबामा ने अपने भाषण में पाकिस्तान को काफी थपकी दी है| वह जरूरी भी है लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो आज उनका सिरदर्द है, डेढ़ साल बाद, वह भारत का सिरदर्द बनेगा| क्या ओबामा अफगानिस्तान को पाकिस्तान की दया पर छोड़कर वापस लौटना चाहते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ओबामा अफगान-चक्रव्यूह में बुश से भी अधिक गहरे उलझ जाएँगे ? मुझे डर यही है कि ओबामा कहीं बुश से भी बड़े अभिमन्यु सिद्घ न हों ? अफगानिस्तान कहीं उन्हें ही न ले बैठे ?

 
(लेखक, अफगान मामलों के प्रसिद्घ विशेषज्ञ हैं| वे पिछले 40 साल में दर्जनों बार अफगानिस्तान की यात्रा कर चुके हैं और वे प्रमुख अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में रहे है)
ए-19 प्रेस एन्क्लेव नई दिल्ली-17

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