''कविता के पक्ष में नहीं'' : जयंत महापात्र की कविता*
ऋषभदेव शर्मा

जयंत महापात्र के निकट काव्यरचना परिवेश के वजन के दबाव को स्वीकार करने का, सहनीय बनाने का, एक यत्न है - इस तरह कि वह पोशाक जैसा हल्का हो जाए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे उत्पन्न होने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती हो। नहीं, वह तो ज्यों की त्यों रहती है, हर शाम मंदिर की घंटियों की तरह जागती है और रचनाकार की हड्डियों पर अपना वजन लाद देती है । यह स्वाभाविक भी है क्योंकि कवि न तो उस स्त्री की उपेक्षा कर सकता है जो घुटनों को छाती से लगाए लुटी-पिटी सी बैठी है और न ही उस हवा की आवाज सुनने से इनकार कर सकता है जो माँ की बाँहों में मरती बच्ची की चीख को उठाए फिर रही है। यह पीड़ा धरती से आकाश तक फैली है - धरती फट गई है, उसके हर टुकड़े से उड़ चिडिया दूर चली गई है, और बारिश का तो कहीं अता-पता ही नहीं। ऐसे में जीवन को चारों ओर से घेरता हुआ अनंत भय नाई की दुकान के समानांतर आइनों में प्रतिबिंबित होता नित्य बढ़ता चला जाता है, सुबह प्रकाशमान न होकर ताप भरे कूडे करकटोंवाली भर रह जाती है और सूरज के तले केवल धुँआ-धुँआ बच रहता है। परिणामस्वरूप व्यर्थताबोध आम आदमी की तरह कवि को भी डसने लगता है। दीवारों पर छिपकलियाँ हँसती हैं धीरे धीरे और नम धरती पर कुकुरमुत्ते उगते हैं, जगने पर न रात का बोध होता है न दिन का - लगता है जीवन झूठा है और इस झूठ में समय बीत रहा है। कवि ने इस निरर्थकता और व्यर्थता को गहराई से पकड़ा है और उससे जुड़े खीझ और ऊब के मनोभावों को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की है।
जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में भूख और बदहाली के जो चित्र उकेरे है संभवतः उनकी प्रेरणा ओडिशा की जनजातियों की जीवनस्थितियों से मिली होगी। इसीलिए गोल चक्कर काटते नर्तकों की परिधि पर नृत्य के आवेग के चरम क्षण में कवि ने बीते युगों के क्षण, धरती की शक्ति, पेड़ों की छाया और स्फटिक सबको टूटते देखा है - भुखमरी की शक्तिहीन खामोशी के समक्ष। भूख के साथ ही रात और आतंक के भी अनेकविध चित्रांकन जयंत महापात्र की कविता में मिलते हैं जो इतिहासबोध और समकालीनताबोध की संधिरेखा पर अवस्थित हैं -
‘‘रात आ रही है
केवल समुद्र की मरणांतक शांति
जिसमें एक नाव डूब गई
शहर की अंधी गली ने
बचपन के पेट को चबा लिया
और युवक की आंतों को छलनी कर दिया
मांस के खिलाफ भिंची मुट्ठी सा
फूट पड़ता है जीने का स्वाद
यहाँ कोई अंत नहीं,
हदय की निःशब्द चीखों का,
केवल पवित्र जल्लाद तनकर खड़ा है
इतिहास को हड्डियों की गहराई में काटते हुए।’’
केवल समुद्र की मरणांतक शांति
जिसमें एक नाव डूब गई
शहर की अंधी गली ने
बचपन के पेट को चबा लिया
और युवक की आंतों को छलनी कर दिया
मांस के खिलाफ भिंची मुट्ठी सा
फूट पड़ता है जीने का स्वाद
यहाँ कोई अंत नहीं,
हदय की निःशब्द चीखों का,
केवल पवित्र जल्लाद तनकर खड़ा है
इतिहास को हड्डियों की गहराई में काटते हुए।’’
अपने बचपन से लेकर देश और मनुष्यता के इतिहास तक का मंथन करके कवि ने यह निष्कर्ष पाया है कि
‘‘हमारे जाये हर एक बच्चे के भीतर अंधकार का एक टुकडा है
जो उसका पीछा करता है जहाँ भी जाए, दिन-रात।’’
अंधकार का यह टुकड़ा सर्वव्यापी है। बाहर भी है और भीतर भी। इसीलिए इससे बचने की खातिर खिड़की बंद करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि कमरे में भी रात है। रात कमरे में ही नहीं, व्यक्ति के भीतर भी है जिसके अंधेरे में उसे बरसों गुम रहना पड़ता है - अपना रास्ता ढूँढ़ निकालने से पहले। अंधेरा परिवेश में भी है और देश में भी। पर कोशिश करने पर भी रास्ता इसलिए नहीं मिलता कि हम अंधकार से लड़ने के लिए अंधकार का ही सहारा लेते रहते हैं। धरती की परछाइयों के आगे आकाश का रंग शर्मसार होता है क्योंकि हम इतनी सी बात नहीं समझ पाते कि
‘‘मानव का वैर खुद हमसे कैसे हिफाजत करेगा हमारी ?’’
परिणाम स्पष्ट है कि पृथ्वी ग्रह हिंसा और असुरक्षा से घिरा हुआ है। आज हर आदमी की आत्मा एक दूसरे की हत्या करने के कारण भारी है। इस युद्ध और आतंकवाद से भरी हुई दुनिया में बुद्ध और ईसा के बाद सर्वाधिक प्रासंगिक यदि कुछ है तो वह है गांधी की अहिंसा का दर्शन। जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में महात्मा गांधी को कई तरह से याद किया है, पुकारा है -
"ईसा के इतने सालों बाद
तुम रो पड़े तो क्या तुमने रुदन को पुकारा?
तुम सभी चीजों की एकता को छूते हो
दिन का लालित्य आता और जाता है
ताकि तुम्हारे शरीर से आसानी से जिंदगी बहे
साथ में खून भी जो कि हमारी नियति को भविष्यवाणी देता है"
ताकि हम यह समझें कि यह देश तुम्हारा कितना साथ देता है।’’
महात्मा गांधी और उनके स्वप्न का स्वराज्य इसलिए भी कवि को बार-बार याद आते हैं कि पिछली आधी शताब्दी में भारत में प्रतिदिन महात्मा गांधी की हत्या हुई है और उनके स्वप्न के साथ बलात्कार हुआ है। लोकतंत्र की विफलता को लक्षित करते हुए कवि एक साधारण जागरूक नागरिक के रूप में स्वयं को भी इस सबके लिए उत्तरदायी मानते हैं -
‘‘छोटी बच्ची का हाथ अंधकार से बना है
मैं इसे कैसे थामूँ ?
सड़क की बत्तियाँ कटे हुए सिर की तरह लटक रही हैं
खून हमारे बीच के उस डरावने दरवाजे को खोलता है
देश का चैड़ा मुँह दर्द से जकड़ा है
और शरीर काँटों की सेज पर
कराह रहा है
इस नन्ही बच्ची के पास बचा है बस बलात्कार किया हुआ शरीर
ताकि मैं उसके पास पहुँचूँ
मेरे अपराध का बोझ
मुझे रोक नहीं पाता उसे बाँहों में भरने से।‘‘
इतने पर भी कवि को तब कुछ सांत्वना मिलती है जब इस कीचड़ में से, आत्माओं की एकत्र अस्थियों में से, कमल के ऐसे फूल के खिलने का संकेत मिलता है जो आँसू जैसा पवित्र है । इस फूल की पंखुडियों में से शताब्दियों के अंधकार का खून बह रहा है तथापि संतोष का विषय है कि कब्र के बाहर रोशनी की चोंच खुलती है और पड़ोसी के घर में बच्चा रोने लगता है तो भविष्य के इन शुभ संकेतों के बीच जागरण की संभावनाएँ रूपायित होती दिखाई देती हैं।
अंधकार में बजती टेलीग्राफ की कुंजियों की ठकठकाहट में जीवन का मर्म खोजने वाले रचनाकार जयंत महापात्र की ये अंग्रेजी कविताएँ हिंदी के पाठकों को उपलब्ध कराने के लिए अनुवादक संतोष अलेक्स [१९७१] बधाई के पात्र हैं । मलयालम मातृभाषी संतोष अलेक्स बहुभाषी अनुवादक हैं। वे अंग्रेजी, हिंदी, मलयालम और तेलुगु में परस्पर अनुवाद द्वारा भारतीय भाषाओं और भारतीय साहित्य की निरंतर सेवा में लगे हुए हैं। विशेष रूप से मलयालम साहित्य को हिंदी में उपलब्ध कराने के प्रति वे प्रतिबद्ध और संकल्पित हैं। जयंत महापात्र की कविताओं का यह अनुवाद उन्होंने अत्यंत परिश्रम और निष्ठापूर्वक संपन्न किया है।
मुझे विश्वास है कि समकालीन भारतीय साहित्य के प्रमुख कवि जयंत महापात्र की अंग्रेजी कविताओं के इस अनुवाद का हिंदी जगत में हार्दिक स्वागत होगा तथा संतोष अलेक्स भविष्य में भी इसी प्रकार हिंदी की सेवा करते रहेंगे।
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* कविता के पक्ष में नहीं [ कविता संग्रह] ,
अंग्रेजी मूल : जयंत महापात्र ,
हिंदी अनुवाद : संतोष अलेक्स ,
शब्दसृष्टि, एस - ६५८ ए, गली न. ७, स्कूल ब्लाक , शकरपुर, दिल्ली - ११० ०९२,
२००९,
रु.१२५/-,
८० पृष्ठ, सजिल्द.