वन्देमातरम् के रचयिता बंकिमचन्द्र
भगवानदेव ’चैतन्य‘
राष्ट्र-गान ’वन्देमातरम्‘ के रचयिता बंकिमचन्द्र जी का नाम इतिहास में युगों-युगों तक अमर रहेगा क्योंकि यह गीत उनकी एक ऐसी कृति है जो आज भी प्रत्येक भारतीय के हृदय को आन्दोलित करने की क्षमता रखती है। बंकिम जी का जन्म २६ जून, १८३९ को हुआ। इनके पिता का नाम यादवचन्द्र चैटर्जी था। बंकिम जी ने साहित्य जगत् को ऐसी कालजयी कृतियाँ प्रदान की जिनके लिए उन्हें सदैव स्मरण किया जाता रहेगा। उनसे पूर्व जो भी उपन्यास लिखे गए वे या तो वर्णनात्मक शैली में लिखे गए या फिर उनकी विषयवस्तु पौराणिक कथा-कहानियों पर आधारित होती थीं। इसीलिए उन कृतियों को न तो जनसाधारण अपने जीवन के समीप देखता था और न ही वे किसी प्रकार की जनचेतना का आधार बन सकीं। हम यह बात निश्चित रूप से कह सकते हैं कि बंकिमचन्द्र जी भारतवर्ष के प्रथम ऐसे उपन्यासकार हैं जिनकी रचनाओं ने जनमानस को राष्ट्रीय नवजागरण का संदेश दिया तथा यह कार्य उन्होंने उस समय किया जब भारतवर्ष की जनता अपनी अस्मिता एवं अपने गौरव को विस्मृत करके स्वयं को परवश तथा असहाय सी अनुभव कर रही थी। बंकिम जी ने अपना साहित्यिक सफर अंग्रेजी लेखन से किया था। इस भाषा में उनकी प्रथम कृति ’राजमोहन‘स स्पाउूज‘ थी मगर इसका प्रकाशन नहीं हो पाया क्योंकि बंकिम जी को इस बात का अहसास हो गया कि जब तक अपने देश की भाषा में सृजन कार्य नह किया जाएगा तब तक यहाँ के जनमानस को उद्वेलित करना संभव नहीं होगा इसीलिए उस अंग्रेजी उपन्यास को उन्होंने आधा-अधूरा ही छोडकर अपनी भाषा में साहित्य सृजन आरंभ कर दिया।
उन्होंने वर्णनात्मक शैली या पौराणिक कल्पनाप्रसूत कथानकों के स्थान पर ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। ’दुर्गेशनन्दिनी‘, ’आनन्दमठ‘, ’कपालकुण्डला‘, ’मृणालिनी‘, ’राजसिंह‘, ’विषवृक्ष‘, ’कृष्णकान्त का वसीयतनामा‘, ’सीतारराम‘, ’चन्द्रशेखर‘, ’राधारानी‘, ’रजनी और इन्दिरा‘ उनकी कृतियाँ अपने आप में अद्वितीय एवं श्लाघनीय हैं। उन्होंने ऐतिहासिक या समाज में घटित होने वाली एवं जनमानस से जुडी घटनाओं को लेकर इन सभी उपन्यास की रचना की है। उस काल में इतनी सटीकता और तथ्यात्मकता को लेखनीबद्ध करना अपने आप में एक अद्भुत् कृत्य था जिसका बंकिम जी ने सफलतापूवक निर्वहन किया है। उन्होंने अपने उपन्यास ’दुर्गेशनन्दिनी‘ में अकबरकालीन बंगाल का सटीक एवं सजीव चित्रण किया है। ’आनन्दमठ‘ उनकी सबसे उत्कृष्ट कृति मानी जाती है तथा इसी उपन्यास में उन्होंने ’वन्देमातरम्‘ गीत का भी समावेश किया है। इस उपन्यास एवं गीत का अपना एक अलग ही स्थान है क्योंकि यह उपन्यास १८५७ की महाक्रांति से पूर्व हुए संन्यासी विद्रोह को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखा गया था। यह संन्यासी विद्रोह १७७२ से आरंभ होकर लगभग बीस वर्षों तक चला था। संन्यासी विद्रोह को आधार बनाकर लिखे गए इस उपन्यास की मूलकथा उन्होंने कहाँ से प्राप्त की यह तो नहीं कहा जा सकता मगर ’आनन्दमठ‘ उपन्यास के तृतीय संस्करण में यह स्वीकार किया था कि ग्लैस की कृति ’वारेन हेस्टिंग के जीवन संस्मरण‘ और सर विलिमय हण्टर के ’एनल्स ऑफ रूरल बंगाल‘ से तथ्यों का संग्रह किया है। इस सम्बन्ध में उनके छोटे भाई श्री पूर्णचन्द्र चैटर्जी ने अपने एक लेख ’बंकिम प्रसंग‘ में लिखा है -’हमारे चचेरे पितामह एक सौ आठ वर्ष तक जीवित रहे। उनके निकट हम सब यानी बंकिमचन्द्र भी कहानियाँ सुना करते थे। पितामह ने पहले खेती-बाडी की चर्चा की फिर अकाल का वर्णन करने लगे। पिछले ३-४ सालों में खेती खराब हो रही थी और सन् १७७० ई. में फसल पैदा नहीं हुई।..... सच तो यह है कि अनाज कहीं नहीं था इसमें हर वर्ग के लोग थे। बाद में ये लोग डकैती करने लगे। मैं कहानी को भूल गया था। सन् १७८६ ई. में उडसा में भयंकर अकाल पडा तब इस कहानी को उनकी जबानी सुना। शायद इस अकाल को लेकर एक उपन्यास लिखने की इच्छा उनके मन में थी।‘ यदि ’वन्देमातरम्‘ लिखने का प्रेरणास्रोत ढूँढा जाए तो इस सम्बन्ध में डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त जी के अनुसार-संन्यासी विद्रोह के समय विद्रोहियों ने ’ओ३म् वन्देमातरम् का नारा लगाया था। इस उपन्यास के माध्यम से बंकिम जी ने पुनः भारत के जनमानस को दासता की बेडयों से मुक्त होने के लिए अंगडाई लेने हेतु प्रेरित करने का सार्थक प्रयास किया था। उपन्यास में लिखे गए ’वन्देमातरम्‘ के सम्बन्ध में योगी अरविन्द ने ’इन्दु प्रकाश‘ में लिखा था - ’बत्तीस वर्ष पूर्व बंकिम ने अपना यह महान् गीत लिखा था और कुछ ही लोगों ने उसे सुना किन्तु लम्बी मोहनिद्रा में आकस्मिक जागरण के क्षण में बंगाल के लोगों ने सत्य के लिए इधर-उधर देखा और उसी सौभाग्य क्षण में कोई ’वन्देमातरम्‘ गा उठा। मन्त्र दिया गया और एक दिन समूचा राष्ट्र देशभक्ति धर्म का अनुयायी बन गया।‘ गीत के रचयिता ने स्वयं भविष्यवाणी करते हुए कहा था -’’एक दिन ऐसा आएगा कि बंगभूमि इस गीत को सुनकर नाचने लगेगी। एक बंगाल क्या सारा हिन्दुस्तान इस गीत से प्रेरणा ग्रहण करेगा। सारा देश एक सुर से यह गीत गाने लगेगा।‘‘ उनकी यह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। बंकिम स्मृति मन्दिर के संग्रहाध्यक्ष प्रख्यात लेखक श्री गोपालचन्द्र राय के अनुसार वन्देमातरम् अगस्त सन् १८७५ से मार्च सन् १८७६ के बीच लिखा गया है क्योंकि उन दिनों बंकिम जी अपने कार्य से अवकाश लेकर अपने घर में स्थित ’बंग दर्शन प्रेस‘ पत्रिका के प्रकाशन का कार्य देख रहे थे। इस पत्रिका का प्रकाशन बंकिम जी के सम्पादन में १८७३ से मार्च सन् १८७६ तक होता रहा। ’आनन्दमठ‘ का प्रथम प्रकाशन धारावाहिक रूप में ’बंग दर्शन‘ पत्रिका में १८८० से १८८२ के मध्य हुआ था।
उनका उपन्यास ’कपालकुण्डला‘ भी अकबरकालीन बंगाल पर आधारित है। ’मृणालिनी‘ प्रारंभिक मुगल आततायियों एवं आक्रमण के अत्याचारों को लेकर रचा गया है। ’राजसिंह‘ राजपूतों की शौर्यगाथाओं और औरंगजेब की मजहबपरस्ती तथा अन्यायपूर्ण शासन को लेकर लिखा गया उपन्यास है। ’सीताराम‘ मुर्शिदाबाद के नवाबी शासनकाल में हिन्दू पीडतों द्वारा की गई कुटिलताओं का विस्तृत लेखा-जोखा है। इन समस्त रचनाओं में उन्होंने विगत या तत्कालीन परस्थितियों एवं घटनाओं को लेकर अपनी लेखनी द्वारा किसी न किसी प्रकार अत्याचार और अनाचार से लोहा लेने की ही प्रेरणा दी है। उनका लक्ष्य मात्र तथ्य को उजागर करना भर नहीं था बल्कि भारतीय जनमानस को उन परिस्थितियों का सामना करने तथा अपनी अस्मिता के प्रति पूर्णतया जागरूक करना था इसीलिए एक कथाकार होने के नाते उनका ध्यान ऐतिहासिकता की प्रमाणिकता पर अधिक नहीं था। इस बात को उन्होंने अपने उपन्यास ’राजसिंह‘ के प्राक्कथन में स्वीकार करते हुए लिखा है -’उपन्यासकार को अपने कथानक के प्रवाह की सुरक्षा ही अभीष्ट होनी चाहिए मात्र ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे उसे अपने पूरा ध्यान केन्दि्रत करना उचित नहीं है।‘
’कृष्णकान्त का वसीयतनामा‘, ’राधारानी‘, ’देवी चौधरानी‘ , ’विषवृक्ष‘, ’रजनी और इन्दिरा‘ नामक कृतियों को हम उनके सामाजिक उपन्यासों की श्रेणी में रख सकते हैं। इन कृतियों में भले ही उन्होंने किसी ऐतिहासिक प्रसंग को न छुआ हो मगर ये उपन्यास भी तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक परिवेश पर आधारित हैं क्योंकि कोई भी रचनाकार तत्कालीन समाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है और यदि उसकी रचनाओं में तत्कालीन परिवेशादि का विवेचन नहीं है तो उसे साहित्यकार कहना ही अप्रासांगिक होगा। उनके सामाजिक उपन्यासों में भी हम यह उत्कृष्टता देखते हैं कि उन्होंने यौनाकर्षण या सतही प्रेम-प्रसंगों को आधार बनाकर कथानक का ताना-बाना नहीं बुना है बल्कि भारतीय संस्कृति की गरिमा तथा चारित्रिक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाए रखा है। उनके नारी पात्रों में भी हमें भारतीय परम्पराओं के अनुरूप नैसर्गिकता एवं सच्चरित्रता के दिग्दर्शन होते हैं। वे अपने आदर्शों, पवित्रता और सतीत्व के प्रति हमेशा जागरूक दिखाई देती हैं।
बंकिम जी हिन्दू-मुसलमानों की एकता के प्रबल पक्षधर थे। ’बंग दर्शन‘ में वे लिखते हैं - ’बंगाल हिन्दू-मुसलमानों का प्रदेश है, अकेले हिन्दुओं का नहीं। पर आजकल हिन्दू-मुसलमान अलग हैं, आपस में सहृदयता नहीं है। बंगाल की भलाई के लिए जरूरी है कि हिन्दू-मुसलमान में एकता हो। जब तक उच्चवर्ग के मुसलमानों में यह भावना रहेगी कि दूसरे मुल्क के हैं, बांगला उनकी भाषा नहीं है, वे न तो बांगला लिखेंगे, न सीखेंगे, सिर्फ उर्दू-फारसी से काम चलाएँगे तब तक एकता स्थापित नहीं हो सकती क्योंकि राष्ट्रीय एकता की जड में भाषा की एकता होती है।‘ अपने ’राजसिंह‘ उपन्यास में लिखा -’हिन्दू होने से अच्छा नहीं होता, मुसलमान होने से ही खराब नहीं होता अथवा हिन्दू होने से ही बुरा नहीं होता, मुसलमान होने पर ही अच्छा नहीं होता। अच्छा-बुरा दोनों में बराबर ही है। दूसरे गुणों के साथ जो धार्मिक हैं - हिन्दू हो या मुसलमान - निकृष्ट हैं।‘ उनके इस कथन से स्पष्ट होता है कि वे मूलतः राष्ट्र-भक्त एवं मानवतावादी थे तथा अच्छे या बुरे होने की उनकी कसौटी भी यही थी। श्री अरविन्द घोष ने अपने लेख ’ऋषि बंकिमचन्द्र‘ में लिखा-’संभव है कि भविष्य में साहित्य आलोचक ’कपालकुण्डला‘, ’विषवृक्ष‘ और ’कृष्ण कांतेर विल‘ को उनकी उत्कृष्ट कलाकृतियाँ माने और सापेक्ष प्रशंसा के साथ ’देवी चौधरानी‘, ’आनन्दमठ‘, ’कृष्ण चरित्र‘ या ’धर्म तत्त्व‘ की चर्चा करें। फिर भी इन्हीं बाद में लिखी कृतियों का बंकिम न कि प्रथमोक्त महान् सृजनात्मक उत्कृष्ट कृतियों का स्रष्टा बंकिम आधुनिक भारत के निर्माताओं की श्रेणी में रखा जाएगा। पूर्वोक्त बंकिम केवल कवि और शैलीकार था - दूसरा बंकिम ऋषि और राष्ट्रनिर्माता था।‘
श्री अरविन्द जी का कथन पूर्णतः सत्य है क्योंकि बंकिम जी प्रथम ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से भारतीय जनमानस को यह संदेश दिया कि अपनी अस्मिता और स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उत्सर्ग होना सीखें। उन्होंने उस समय भारतीयों को यह संदेश दिया जिस समय वे स्वयं को असहाय और परवशता की बेडयों में जकडा हुआ अनुभव करते हुए किंकत्व्यविमूढ थे। इसलिए बंकिम जी मात्र एक साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि भारत के राष्ट्रीय नवजागरण के पुरोधा और अभ्युत्थान के महानायक भी थे। अन्ततः ८ अप्रैल, १८९४ को इस महानायक का देहावसान हो गया मगर उसके द्वारा सुलगाई गई चिंगारी ने ज्वाला बनकर परवशता की बेडयों को भस्म करके ही दम लिया था.... उनके देहावसान पर श्री अरविन्द घोष ने बम्बई से प्रकाशित ’इन्दु प्रकाश‘ में एक लेखमाला के अन्त में जो शब्द लिखे थे, वे आज भी स्मरण करने योग्य हैं -’और भावी पीढी भारत के निर्माताओं को जब प्रशस्ति अर्पित करने बैठेगी, तब उस प्रशंसा की श्रेष्ठ पुष्पमाला किसी पदलोलुप राजनीतिज्ञ के वास्ते नहीं होगी, भाषण गर्जन करते समाज सुधारक के वास्ते भी नहीं होगी, परन्तु सत्ता या पद की कोई भी लालसा बिना, अपने अन्दर जो कुछ भी श्रेष्ठ था, उसे समर्पित करने वाले इस गौरवशाली बंगाली के वास्ते ही होगी जिसने केवल कर्त्तव्य की भावना से, शान्तिपूर्वक, चुपचाप कार्य करते रहकर सृजन किया था एक भाषा-एक साहित्य का-एक राष्ट्र का।
उन्होंने वर्णनात्मक शैली या पौराणिक कल्पनाप्रसूत कथानकों के स्थान पर ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। ’दुर्गेशनन्दिनी‘, ’आनन्दमठ‘, ’कपालकुण्डला‘, ’मृणालिनी‘, ’राजसिंह‘, ’विषवृक्ष‘, ’कृष्णकान्त का वसीयतनामा‘, ’सीतारराम‘, ’चन्द्रशेखर‘, ’राधारानी‘, ’रजनी और इन्दिरा‘ उनकी कृतियाँ अपने आप में अद्वितीय एवं श्लाघनीय हैं। उन्होंने ऐतिहासिक या समाज में घटित होने वाली एवं जनमानस से जुडी घटनाओं को लेकर इन सभी उपन्यास की रचना की है। उस काल में इतनी सटीकता और तथ्यात्मकता को लेखनीबद्ध करना अपने आप में एक अद्भुत् कृत्य था जिसका बंकिम जी ने सफलतापूवक निर्वहन किया है। उन्होंने अपने उपन्यास ’दुर्गेशनन्दिनी‘ में अकबरकालीन बंगाल का सटीक एवं सजीव चित्रण किया है। ’आनन्दमठ‘ उनकी सबसे उत्कृष्ट कृति मानी जाती है तथा इसी उपन्यास में उन्होंने ’वन्देमातरम्‘ गीत का भी समावेश किया है। इस उपन्यास एवं गीत का अपना एक अलग ही स्थान है क्योंकि यह उपन्यास १८५७ की महाक्रांति से पूर्व हुए संन्यासी विद्रोह को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखा गया था। यह संन्यासी विद्रोह १७७२ से आरंभ होकर लगभग बीस वर्षों तक चला था। संन्यासी विद्रोह को आधार बनाकर लिखे गए इस उपन्यास की मूलकथा उन्होंने कहाँ से प्राप्त की यह तो नहीं कहा जा सकता मगर ’आनन्दमठ‘ उपन्यास के तृतीय संस्करण में यह स्वीकार किया था कि ग्लैस की कृति ’वारेन हेस्टिंग के जीवन संस्मरण‘ और सर विलिमय हण्टर के ’एनल्स ऑफ रूरल बंगाल‘ से तथ्यों का संग्रह किया है। इस सम्बन्ध में उनके छोटे भाई श्री पूर्णचन्द्र चैटर्जी ने अपने एक लेख ’बंकिम प्रसंग‘ में लिखा है -’हमारे चचेरे पितामह एक सौ आठ वर्ष तक जीवित रहे। उनके निकट हम सब यानी बंकिमचन्द्र भी कहानियाँ सुना करते थे। पितामह ने पहले खेती-बाडी की चर्चा की फिर अकाल का वर्णन करने लगे। पिछले ३-४ सालों में खेती खराब हो रही थी और सन् १७७० ई. में फसल पैदा नहीं हुई।..... सच तो यह है कि अनाज कहीं नहीं था इसमें हर वर्ग के लोग थे। बाद में ये लोग डकैती करने लगे। मैं कहानी को भूल गया था। सन् १७८६ ई. में उडसा में भयंकर अकाल पडा तब इस कहानी को उनकी जबानी सुना। शायद इस अकाल को लेकर एक उपन्यास लिखने की इच्छा उनके मन में थी।‘ यदि ’वन्देमातरम्‘ लिखने का प्रेरणास्रोत ढूँढा जाए तो इस सम्बन्ध में डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त जी के अनुसार-संन्यासी विद्रोह के समय विद्रोहियों ने ’ओ३म् वन्देमातरम् का नारा लगाया था। इस उपन्यास के माध्यम से बंकिम जी ने पुनः भारत के जनमानस को दासता की बेडयों से मुक्त होने के लिए अंगडाई लेने हेतु प्रेरित करने का सार्थक प्रयास किया था। उपन्यास में लिखे गए ’वन्देमातरम्‘ के सम्बन्ध में योगी अरविन्द ने ’इन्दु प्रकाश‘ में लिखा था - ’बत्तीस वर्ष पूर्व बंकिम ने अपना यह महान् गीत लिखा था और कुछ ही लोगों ने उसे सुना किन्तु लम्बी मोहनिद्रा में आकस्मिक जागरण के क्षण में बंगाल के लोगों ने सत्य के लिए इधर-उधर देखा और उसी सौभाग्य क्षण में कोई ’वन्देमातरम्‘ गा उठा। मन्त्र दिया गया और एक दिन समूचा राष्ट्र देशभक्ति धर्म का अनुयायी बन गया।‘ गीत के रचयिता ने स्वयं भविष्यवाणी करते हुए कहा था -’’एक दिन ऐसा आएगा कि बंगभूमि इस गीत को सुनकर नाचने लगेगी। एक बंगाल क्या सारा हिन्दुस्तान इस गीत से प्रेरणा ग्रहण करेगा। सारा देश एक सुर से यह गीत गाने लगेगा।‘‘ उनकी यह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। बंकिम स्मृति मन्दिर के संग्रहाध्यक्ष प्रख्यात लेखक श्री गोपालचन्द्र राय के अनुसार वन्देमातरम् अगस्त सन् १८७५ से मार्च सन् १८७६ के बीच लिखा गया है क्योंकि उन दिनों बंकिम जी अपने कार्य से अवकाश लेकर अपने घर में स्थित ’बंग दर्शन प्रेस‘ पत्रिका के प्रकाशन का कार्य देख रहे थे। इस पत्रिका का प्रकाशन बंकिम जी के सम्पादन में १८७३ से मार्च सन् १८७६ तक होता रहा। ’आनन्दमठ‘ का प्रथम प्रकाशन धारावाहिक रूप में ’बंग दर्शन‘ पत्रिका में १८८० से १८८२ के मध्य हुआ था।
उनका उपन्यास ’कपालकुण्डला‘ भी अकबरकालीन बंगाल पर आधारित है। ’मृणालिनी‘ प्रारंभिक मुगल आततायियों एवं आक्रमण के अत्याचारों को लेकर रचा गया है। ’राजसिंह‘ राजपूतों की शौर्यगाथाओं और औरंगजेब की मजहबपरस्ती तथा अन्यायपूर्ण शासन को लेकर लिखा गया उपन्यास है। ’सीताराम‘ मुर्शिदाबाद के नवाबी शासनकाल में हिन्दू पीडतों द्वारा की गई कुटिलताओं का विस्तृत लेखा-जोखा है। इन समस्त रचनाओं में उन्होंने विगत या तत्कालीन परस्थितियों एवं घटनाओं को लेकर अपनी लेखनी द्वारा किसी न किसी प्रकार अत्याचार और अनाचार से लोहा लेने की ही प्रेरणा दी है। उनका लक्ष्य मात्र तथ्य को उजागर करना भर नहीं था बल्कि भारतीय जनमानस को उन परिस्थितियों का सामना करने तथा अपनी अस्मिता के प्रति पूर्णतया जागरूक करना था इसीलिए एक कथाकार होने के नाते उनका ध्यान ऐतिहासिकता की प्रमाणिकता पर अधिक नहीं था। इस बात को उन्होंने अपने उपन्यास ’राजसिंह‘ के प्राक्कथन में स्वीकार करते हुए लिखा है -’उपन्यासकार को अपने कथानक के प्रवाह की सुरक्षा ही अभीष्ट होनी चाहिए मात्र ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे उसे अपने पूरा ध्यान केन्दि्रत करना उचित नहीं है।‘
’कृष्णकान्त का वसीयतनामा‘, ’राधारानी‘, ’देवी चौधरानी‘ , ’विषवृक्ष‘, ’रजनी और इन्दिरा‘ नामक कृतियों को हम उनके सामाजिक उपन्यासों की श्रेणी में रख सकते हैं। इन कृतियों में भले ही उन्होंने किसी ऐतिहासिक प्रसंग को न छुआ हो मगर ये उपन्यास भी तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक परिवेश पर आधारित हैं क्योंकि कोई भी रचनाकार तत्कालीन समाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है और यदि उसकी रचनाओं में तत्कालीन परिवेशादि का विवेचन नहीं है तो उसे साहित्यकार कहना ही अप्रासांगिक होगा। उनके सामाजिक उपन्यासों में भी हम यह उत्कृष्टता देखते हैं कि उन्होंने यौनाकर्षण या सतही प्रेम-प्रसंगों को आधार बनाकर कथानक का ताना-बाना नहीं बुना है बल्कि भारतीय संस्कृति की गरिमा तथा चारित्रिक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाए रखा है। उनके नारी पात्रों में भी हमें भारतीय परम्पराओं के अनुरूप नैसर्गिकता एवं सच्चरित्रता के दिग्दर्शन होते हैं। वे अपने आदर्शों, पवित्रता और सतीत्व के प्रति हमेशा जागरूक दिखाई देती हैं।
बंकिम जी हिन्दू-मुसलमानों की एकता के प्रबल पक्षधर थे। ’बंग दर्शन‘ में वे लिखते हैं - ’बंगाल हिन्दू-मुसलमानों का प्रदेश है, अकेले हिन्दुओं का नहीं। पर आजकल हिन्दू-मुसलमान अलग हैं, आपस में सहृदयता नहीं है। बंगाल की भलाई के लिए जरूरी है कि हिन्दू-मुसलमान में एकता हो। जब तक उच्चवर्ग के मुसलमानों में यह भावना रहेगी कि दूसरे मुल्क के हैं, बांगला उनकी भाषा नहीं है, वे न तो बांगला लिखेंगे, न सीखेंगे, सिर्फ उर्दू-फारसी से काम चलाएँगे तब तक एकता स्थापित नहीं हो सकती क्योंकि राष्ट्रीय एकता की जड में भाषा की एकता होती है।‘ अपने ’राजसिंह‘ उपन्यास में लिखा -’हिन्दू होने से अच्छा नहीं होता, मुसलमान होने से ही खराब नहीं होता अथवा हिन्दू होने से ही बुरा नहीं होता, मुसलमान होने पर ही अच्छा नहीं होता। अच्छा-बुरा दोनों में बराबर ही है। दूसरे गुणों के साथ जो धार्मिक हैं - हिन्दू हो या मुसलमान - निकृष्ट हैं।‘ उनके इस कथन से स्पष्ट होता है कि वे मूलतः राष्ट्र-भक्त एवं मानवतावादी थे तथा अच्छे या बुरे होने की उनकी कसौटी भी यही थी। श्री अरविन्द घोष ने अपने लेख ’ऋषि बंकिमचन्द्र‘ में लिखा-’संभव है कि भविष्य में साहित्य आलोचक ’कपालकुण्डला‘, ’विषवृक्ष‘ और ’कृष्ण कांतेर विल‘ को उनकी उत्कृष्ट कलाकृतियाँ माने और सापेक्ष प्रशंसा के साथ ’देवी चौधरानी‘, ’आनन्दमठ‘, ’कृष्ण चरित्र‘ या ’धर्म तत्त्व‘ की चर्चा करें। फिर भी इन्हीं बाद में लिखी कृतियों का बंकिम न कि प्रथमोक्त महान् सृजनात्मक उत्कृष्ट कृतियों का स्रष्टा बंकिम आधुनिक भारत के निर्माताओं की श्रेणी में रखा जाएगा। पूर्वोक्त बंकिम केवल कवि और शैलीकार था - दूसरा बंकिम ऋषि और राष्ट्रनिर्माता था।‘
श्री अरविन्द जी का कथन पूर्णतः सत्य है क्योंकि बंकिम जी प्रथम ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से भारतीय जनमानस को यह संदेश दिया कि अपनी अस्मिता और स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उत्सर्ग होना सीखें। उन्होंने उस समय भारतीयों को यह संदेश दिया जिस समय वे स्वयं को असहाय और परवशता की बेडयों में जकडा हुआ अनुभव करते हुए किंकत्व्यविमूढ थे। इसलिए बंकिम जी मात्र एक साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि भारत के राष्ट्रीय नवजागरण के पुरोधा और अभ्युत्थान के महानायक भी थे। अन्ततः ८ अप्रैल, १८९४ को इस महानायक का देहावसान हो गया मगर उसके द्वारा सुलगाई गई चिंगारी ने ज्वाला बनकर परवशता की बेडयों को भस्म करके ही दम लिया था.... उनके देहावसान पर श्री अरविन्द घोष ने बम्बई से प्रकाशित ’इन्दु प्रकाश‘ में एक लेखमाला के अन्त में जो शब्द लिखे थे, वे आज भी स्मरण करने योग्य हैं -’और भावी पीढी भारत के निर्माताओं को जब प्रशस्ति अर्पित करने बैठेगी, तब उस प्रशंसा की श्रेष्ठ पुष्पमाला किसी पदलोलुप राजनीतिज्ञ के वास्ते नहीं होगी, भाषण गर्जन करते समाज सुधारक के वास्ते भी नहीं होगी, परन्तु सत्ता या पद की कोई भी लालसा बिना, अपने अन्दर जो कुछ भी श्रेष्ठ था, उसे समर्पित करने वाले इस गौरवशाली बंगाली के वास्ते ही होगी जिसने केवल कर्त्तव्य की भावना से, शान्तिपूर्वक, चुपचाप कार्य करते रहकर सृजन किया था एक भाषा-एक साहित्य का-एक राष्ट्र का।
बंकिम पर अच्छी जानकारी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंऋषि बंकिम पर इतना विस्तार से हिन्दी में लिखने के लिये साधुवाद! लेख बहुत ज्ञानवर्धक है इसलिये मैने इसका लिंक हिन्दी विकिपीडिया के 'बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय' नामक लेख में दे दिया है।
जवाब देंहटाएंकविता जी इस सुन्दर आलेख के लिए ह्रदय से आपकी आभारी हूँ....
जवाब देंहटाएंसच कहूँ तो यह गीत जिस प्रकार से ह्रदय में भाव जगाता है,जिस प्रकार से देशभक्ति की भावनाओं का संपोषण करता है ,हमारा वर्तमान का राष्ट्र गान नहीं....
बहुत अच्छी जानकारी देती पोस्ट। बंकिम बाबू को नमन्।
जवाब देंहटाएंसुन्दर जानकारीपूर्ण आलेख, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता दिवस पर शुभकामनाएं!
आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
जवाब देंहटाएंरचना गौड़ ‘भारती’
ज्ञानवर्धक लेख के लिये धन्यवाद, कविता जी।
जवाब देंहटाएंThanx for providing the best details on Sir Bankimchand's life & litrature
जवाब देंहटाएंWish u all happy Republic Day
Jai Hind... Jai Bharat..
Deepak Kumar