इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार --- (४)

आलेख का अन्तिम भाग

आलेख के इस चौथे व अन्तिम भाग के साथ ही यह लेखमाला समाप्त हो रही है। जिन भी प्रकार के भ्रमों अथवा दिलासों में आम भारतीय, चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में रहता हो, किसी न किसी प्रकार आश्वस्त रहता है, वे सारे कितने भोथरे व युक्तिहीन हो सकते हैं, यह विचार का विषय है। यह आशंका केवल भाषा के प्रश्नों तक ही सीमित नहीं है, अपितु भारत व भारतीयों के अस्तित्व के अनेकविध पक्ष इस हमले की परिधि में आते हैं। उन पर भी गहराई से विचार कर वातावरण निर्मित किए जाने की तीव्र आवश्यकता है।

इस प्रकार के लेखों द्वारा भय, नारेबाजी अथवा निरर्थक हल्ला मचाने की मानसिकता को प्रश्रय देना हमारा उद्देश्य नहीं है, अपितु वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए आँख खोलने वाले सत्यों का उद्घाटन कर उनकी प्रतिक्रिया स्वरूप किसी सार्थक पहल का वातावरण निर्मित करना है।

समाज के बौद्धिक वर्ग की भूमिका शरीर में मस्तिष्क की भूमिका के तुल्य होती है। जिस प्रकार मस्तिष्क सभी चेतनाओं का केन्द्र है व उसके द्वारा ही शरीर की क्रिया-प्रतिक्रिया पर नियन्त्रण होता है, उसी प्रकार समाज के बौद्धिक वर्ग तक सन्देश पहुँचने से पूरे समाज तक इसके पहुँचने की प्रबल संभावना बनती है।

इन्हीं प्रकार के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए ‘हिन्दी भारत’ समूह अपने प्रत्येक सदस्य से अपनी विशेषज्ञता के लाभ व सक्रिय सहयोग की अपेक्षा करता है। लेखकों को आपकी टिप्पणियों से निश्चय ही बल तो मिलता ही है, परस्पर संवाद का वातावरण भी निर्मित होता है,जो मनुष्य व मनुष्यता के प्रश्नों के निदान की प्रथम शर्त है। विश्व के कोने- कोने में बसे भारतीयों के मध्य सम्वाद स्थापित कर उन्हें निकट लाना व आपसी सद्भाव बना कर बातचीत का वातावरण निर्मित कर विचार-विमर्श की स्थितियाँ बनना एक बड़ी व सार्थक पहल ही होगी। ऐसे प्रत्येक यत्न का समूह स्वागत करता है।

भविष्य में भी प्रभु जोशी जी के अन्य विषयों पर लिखे सुचिन्तित लेख हमें प्राप्त होंगे, ऐसा आश्वासन उन्होंने हमें दिया है। आप सभी की प्रतिक्रियाएँ भी उन तक पहुँचा दी जाएँगी। सभी का प्रतिक्रियाओं के लिए भी आभार।
सादर
~ कविता वाचक्नवी
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इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार --- (४)
~प्रभु जोशी


यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं - उसे `पत्रकारिता´ ने ही विकसित किया था । क्योंकि, तब की उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था जो बोलता था । अब तो खून में लौह तत्व की तरह एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेन्ट) बहने लगा है । अत: वही तो बोलेगा । उसी लौहतत्व की धार होगी जो हिन्दी की गर्दन उतारने के काम में आयेगी । हालांकि अखबार जनता में मुगालता पैदा करने के लिए कहते हैं, पूंजी उनकी जरूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है । अर्थात् सारा लोहा उनका, हमारी होगी धार । अर्थात् भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा । तुम्हीं बताओ उन टायगर इकनॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टायगरों की होगी, कहां गये वे टायगर ? उनके तो तीखे दांत और मजबूत पंजे थे । नई नस्ल के ये कार्पोरेटी चिन्तक रोज-रोज बताते हैं - हिन्दुस्तान विल बी टायगर ऑफ टुमॉरो ।

भैया, ये जुमले सुनते-सुनते हमारे कान पक गये हमें टुमॉरो का कुछ नहीं बनना, बल्कि जो कुछ बनना है आज का बनना है । हम कल के टायगर होने के बजाय आज की गाय होने और बने रहने में संतुष्ट हो लेंगे । गाय घास खायेगी तथा दूध और गोबर देगी और उससे हमारी खेतियों की सेहत ठीकठाक बनी रहेगी । लेकिन तुम हो कि थोड़े से चमड़े के लिए पूरी की पूरी गाय मार रहे हो ।

तब की पत्रिकारिता में अपने देश और समाज को गढ़ने-रचने का साहस था, संकल्प था, समझ और स्वप्न भी था (बेशक उसमें राष्ट्रीय पूंजीवाद की भूमिका भी थी।)। वह जख्मी कलम के साथ बारूद और बंदूक की बर्वरता के खिलाफ लड़ी थी । इस कारण वह भाषा के मसले को गहरे ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रही थी । यहाँ गांधी का प्रसंग उल्लेखनीय लगता है । वे भी पत्रकार थे । आजादी की घोषणा के बाद जब बी.बी.सी. ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा था `संसार को कह दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती । गांधी अंग्रेजी भूल गया है।´ यह एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण के बड़े स्वप्न का उत्तर था । उन्हें यह अहसास था कि अपनी भाषा के अभाव में राष्ट्र फिर से गुलामी के नीचे चला जाएगा । उन्होंने स्वयं को वर्गच्युत करके, जिस तरह भारतीय समाज के आखिरी आदमी के बीच खुद को नाथ लिया था, उसने उन्हें इस बात के लिए और अधिक दृढ़ कर लिया था कि अंग्रेजी की औपनिवेशिक दासता से मुक्त नहीं हुए तो इतनी लम्बी लड़ाई के बाद हासिल की गई आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । उन्होंने ये बात कई-कई जगह और अपनी चिटि्ठयों तथा पर्चों में भी बार-बार लिखी और छापी ।

मगर आज सबसे बड़ी त्रासदी तथा विसंगति यही है कि हमारी पत्रकारिता नई गुलामी खोलने का रास्ता सिर्फ अपनी धंधई बुद्धि की व्यावसायिक अधीरता के कारण कर रहा है । इस पत्रकारिता में, जो `माल´ की तरह उत्पादित और वितरित हो रहा है । कहीं कहीं तो छापकर प्रेस से सीधे गोदामों में भरी जा रही है । क्योंकि अब सर्कुलेशन नहीं केवल प्रिंट आर्डर को देखना है । क्योंकि वह विज्ञापनों की दर तय करता है । उसमें न तो अतीत के आकलन का गहरा विवेक रहा है - और, न ही `भविष्य में झाँक सकने वाली दृष्टि´। एक किस्म का धंधई उन्माद है, जिसे पूंजी का प्रवाह पैदा कर रहा है । इसलिए, वह केवल अपने व्यावसायिक साम्राज्य के लिए अराजक होने की हद तक, भाषा, संस्कृति और समाज को विखण्डित करने से भी संकोच नहीं करेगी। यों भी उसके लिए अब समाज को मात्र एक उपभोक्तावर्ग की तरह देखने की लत पड़ गई है । अब उसके लिए देश की जनता राष्ट्र की नागरिक नहीं बल्कि उसके प्रॉडक्ट (?) की ग्राहक है । इसके साथ विडम्बना यह भी है कि सम्पूर्ण हिन्दी भाषाभाषी समाज भी, भाषा के साथ किए जा रहे ऐसे विराट छल को गूँगा बन कर देख रहा है ।

यहाँ यह पुनर्स्मरण कराना जरूरी है कि हिन्दी का समकालीन भाषारूप आज विकास की जिस सीढ़ी तक पहुँचा है, उसे गढ़ने और विकसित करने में नि:संदेह हमारी हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका बहुत बड़ी रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश वही पत्रकारिता जिसे भाषा अभी तक का अपना सबसे अधिक विश्वसनीय माध्यम मानते आ रही थी, कि सबसे बड़ा धोखा उसी से खा रही है । उसके लिए सर्वाधिक संदिग्ध वही बन गया है । आज दैनिक पत्रकारिता उस मादा श्वान की तरह है, जो अपने ही जन्मे को भी खा जाती है ।
यह भ्रम हमें दूर कर लेना चाहिए कि अब भाषा बोले जाने वाले लोगों की संख्या से बड़ी नहीं होती । बोला जाना `कामचलाऊ संप्रेषण´ का संवादात्मक रूप है, चिन्तनात्मक नहीं । वह हमेशा ही आज अभी ताबड़तोड़ बनाम अनियंत्रित अधीरता से भरा होता है । नतीजतन उसे इस बात की कोई जरूरत और फुरसत नहीं होती कि वह अंग्रेजी के किसी नये शब्द का पर्याय ढूंढे या उसके लिए नया शब्द गढ़े । जैसे कि पिछली पीढ़ी ने मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट के लिए पहले संसद सदस्य शब्द गढ़ा फिर अन्त में सांसद शब्द बनाया । लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अंग्रेजी को जस का तस उठाकर अपनी फोरी जरूरत पूरी कर लेता है । इसी आदत ने हिन्दी में शेयर्ड वॉकुबेलेरी को बढ़ाया और अखबारों ने लगे हाथ उसे एक अभियान की तरह उठा लिया । इसलिए भाषा के इस खिचड़ी रूप का जयघोष करते हुए, जो लोग भाषा की सुंदर सेहत का प्रचार कर रहे हैं, या तो वे इस खतरनाक मुहिम का हिस्सा हैं, या फिर उनकी समझ का कांकड़ ही छोटा है ।

इसके साथ ही ऐसे महामूर्खो या फिर चालाकों की कमी नहीं है जो हर समय इस बात की डूंडी पीटते रहते हैं कि लो अब तो तुम्हारी हिंग्लिश ब्रिटेन में भी लोकप्रिय हो गई है । यह बात ऐसे महातथ्य की तरह प्रचारित की जा रही है जैसे हमारी हिन्दी ने अंग्रेजी की सदियों की कुलीनता की कलाई झटक कर उसे सिंहासन से उतारकर सड़क पर ला दिया है । गौरांग प्रभु ने कुलीनता के कवच को खदेड़कर तुम्हारी हिंग्लिश का झगला धारण कर लिया है । यह हिन्दी की उपलब्धि नहीं सिर्फ भारतीयों की गुलाम मानसिकता की सूचना है । यह दासी का क्वीन के करीब पहुंच जाने का मूर्ख और मिथ्या रोमांच है, जो हिंग्लिशियाते अखबारों की प्रथम पृष्ठों की खबर बनाता है ।

पिछले ही दिनों ऐसी ही पगला डालने वाली एक खबर और रही कि हिन्दी के कुछेक शब्दों को ऑक्सफर्ड डिक्शनरी ने ले लिया । ऑक्सफर्ड डिक्शनरी हिन्दी गर्भित हो गई है । ये वे शब्द थे जिनके लिए अंग्रेजी में उपयुक्त या पर्याय असम्भव था क्योंकि वे अपना विकल्प खुद थे । उनको अंग्रेजी में उलथाया जाता तो वे अपना अर्थ ही खो देते । बस....क्या था ? अखबार बताने लगे कि ये लो हिन्दी छाने लगी अंग्रजी पर । एक अपढ़ महान ने तो यह तक कह दिया कि आज हमने डिक्शनरी पर विजय पाई है, एक दिन ब्रिटेन पर पा लेंगे । बहरहाल यह वैसी ही विदूषकीय प्रसन्नता थी जो मालवी की एक कहावत को चरितार्थ करती है कि एक नदीदे को किसी ने दे दी कटोरी तो उसने उससे पानी पी-पीकर ही अपना पेट फोड़ लिया । जबकि यह ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ज्ञानात्मक उदारता नहीं बल्कि नव उपनिवेशवादी बिरादरी का पूरा सुनिश्चित अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान है, जो भारतीयों को तैयार करता है कि जब अंग्रेजी जैसी महाभाषा उदार होकर हिन्दी के शब्दों को अपना रही है तो हिन्दी को भी चाहिए कि वह अंग्रेजी के शब्दों को इसी उदारता से अपनाये । अंग्रेजी के शब्दकोष में हिन्दी के शब्दों का दाखिला बमुश्किल एक प्रतिशत होगा । अर्थात् दाल में नमक के बराबर भी नहीं । लेकिन हमारे अखबार तो नमक में दाल मिला रहे हैं । हिन्दी को विशाल हत्या और समावेशी बनाने और बताने का कैसा उदाहरण है ।

जब भी अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को हिंग्लिश बनाये जाने की चिंता प्रकट की जाती है, तो कुछ लोग अपनी अज्ञानता में और चालाक लोग अपनी धूर्तता में एक कविताई सच के जरिए हमें समझाने के लिए आगे आ जाते हैं कि कुछ है हस्ती मिटती नहीं हमारी । जबकि हकीकत ये है कि हमारी हस्ती कभी भी पस्ती में बदल चुकी है । हमारी भाषा हमारी संस्कृति कभी के घुटने टेक चुकी है । हमारा पूरा व्यक्तित्व (परसोना) पिछले दशकों में पश्चिमी हो चुका है, जो अब अमेरिकाना होने की तरफ बढ़ रहा है । किसी ने कहा था- आज लोग अमेरिका जाकर अमेरिकाना बन रहे हैं, लेकिन शीघ्र ही वह समय आयेगा जबकि अमेरिका आपके घर में घुसकर आपको अमेरिकन बना दिया जायेगा । यह मिथ्या कथन सी लगने वाली बात धीरे-धीरे सत्य का रूप धारण कर रही है । इसलिए अब मॉडिर्नज्म एक पुराना और बासी शब्द है, जिसे छिलके की तरह उतारकर उसकी जगह नया अमेरिकाना शब्द जगह ले चुका है । यहां तक कि विज्ञापनों में अब अमेरिकी मॉडलों का उपयोग इस तरह किया जाता है गालिबन भारतवंशियों! ये तुम्हारे नये देव पुरूष हैं और तुम्हें इन्हीं के सम्मुख दण्डवत होना है ।

दरअसल, अस्मिता की इन दिनों एक नई और माध्यम निर्मित अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए उसका प्रचार और वकालत की जा रही है । यूं भी अब वही सबको परिभाषित करता है और तमाम जीवन और समाज के तमाम मूल्यों का प्रतिमानीकरण करने का औजार बन चुका है । दूसरी तरफ हम अपनी सनातन रूढ़ सांस्कृतिक आत्मछवि से इतने मोहासक्त है कि प्रत्यक्ष और प्रकट पराजय को स्वीकारना नहीं चाहते हैं । बर्बर उपनिवेश के विरूद्ध लड़ने की निरन्तरता को जीवित बनाये रखने के लिए ऐसी अपराजय का अस्वीकार पराधीनता के दौर में राष्ट्रवाद की नब्जों में प्राण फूंकने के काम आता था । कुछ है कि हस्ती मिटती ही नहीं - तब यह दम्भोक्ति अचूक और अमोघ बनकर काम करती थी । जन-जन को जोड़ने और जगाने का जुमला था ये कि लगे रहो भैया । निश्चय ही उस दम्भोक्ति ने ब्रिटिश उपनिवेश के विरूद्ध संघर्ष में समूचे राष्ट्र को लगाये रक्खा और हमने अंग्रेजों को हकालकर बाहर कर दिया । लेकिन वह अपने दंश का जहर खून में इस कदर शामिल कर चुका था कि हम आज हिन्दी को हिन्दी से हिंग्लिश बनाते देख रहे हैं कि कहते हैं कि कुछ नहीं होगा, वह हर हाल में बची रहेगी । हस्ती है कि मिटती नहीं ।

कहने की जरूरत नहीं कि युद्धातुर उतावली से गुरूचरा दास जैसे लोग अपने तर्कों में बार-बार डेविड क्रिस्टल की पुस्तक लेंग्वज डेथ का हवाला इस तरह देते हैं, जैसे वह भाषा की भृगु संहिता है, जिसमें भाषा की मृत्यु की स्पष्ट भविष्योक्ति है - अत: आप हिन्दी की मृत्यु को लेकर छाती माथा मत कूटो । जबकि इससे ठीक उलट बुनियादी रूप से वह पुस्तक भाषाओं के धीरे-धीरे क्षयग्रस्त होने को लेकर गहरी चिंता प्रकट करती है। भाषाई उपनिवेशवाद (लिंग्विस्टक इम्पेरेजिज्म) के खिलाफ सारी दुनिया के भाषाशास्त्री को सचेत करती है पर हिन्दी वाले हैं कि सुन्न पड़े हैं । हिन्दी साहित्य संसार में विचरण करने वाले साहित्यकार तो ‘तेरी कविता से मेरी कविता ज्यादा लाल’ में लगे हुए हैं या हिन्दी की वर्तनी को दुरूस्त कर रहे हैं । जबकि इस समय सबको मिलजुलकर इस सुनियोजित कूटनीति के खिलाफ कारगर कदम उठाने की तैयारी करनी चाहिए ।

बहरहाल, इस सारे मसले पर एक व्यापक राष्ट्रीय विमर्श की जरूरत है । हमें याद रखना चाहिए कि कई नव स्वतंत्र राष्ट्रों ने अपनी भाषा को अपनी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया । इसलिए आज उनके पास उनका सब कुछ सुरक्षित है। हमने अपनी राजनीतिक भीरूता के चलते भाषा के मसले पर पुरूषार्थ नहीं दिखाया । इसी की वजह है कि हमसे आज का ये धोखादेह समय हमारे सर्वस्व को जिबह के लिए मांग रहा है । आज हमारी आजादी वयस्क होते ही राजनीति के ऐसे छिनाले में फंस गई है कि सारा देश मीडिया में चल रहे व्यवस्था का मुजरा देख रहा है । पूरा समाज मीडिया और माफिया आपरेटेड बन गया है । अब मीडिया ही आरोप तय करता है, वही मुकदमा चलाता है और अंत में अपनी तरह से अपनी तरह का फैसला भी सुनाता रहता है और विडम्बना यह कि वह यह सब जनतंत्र की दुहाई देकर करता है, जबकि अपनी आलोचना का हक वह किसी को नहीं देता और अपने आत्मालोचन के लिए तो उसके पास समय ही नहीं है ।

राजनीति ने तो भाषा, शिक्षा, संस्कृति जैसे प्रश्नों पर विचार करना बहुत पहले ही स्थगित कर रखा है । वह तो देश को बाजार तथा एजीओ के भरोसे छोड़कर मुक्त हो गई है । यों भी उसमें प्रविष्टि की अर्हता हत्या और घूस लेकर कानून के शिकंजे से सुरक्षित बाहर आ जाना हो गया है - और जो इन अर्हताओं से रहित हैं, वे देश को एक प्रबंध संस्थान की तरह चलाने को भूमण्डलीकरण की वैश्विक दृष्टि मानते हैं और वे उसके राजनीतिक प्रबंधक का काम कर रहे हैं । यह राजनीतिक संस्कृति की समाज से विदाई की घड़ी है, जिसने संस्थागत अपंगता को असाध्य बन जाने की तरफ हांक दिया है । हम क्या थे ? हम क्या हैं और क्या होंगे अभी ? जैसे प्रश्नों पर बहस करना मूर्खों का चिंतन हो गया है । जबकि ये प्रश्न शाश्वत रहे हैं और हमेशा ही उत्तरों की मांग करते रहेंगे । इसलिए हमें अपने इतिहास को जीवित बचाकर रखना जरूरी है, क्योंकि भविष्य का जब सौदा होगा उसमें हमारी कम हमारे अतीत की भूमिका बहुत बड़ी होती है । वरना यह भाषा की मृत्यु के साथ दफ्न हो जायेगा। वे हमें हालीवुड की तरह भविष्यवादी फंसातियों में जीने के लिए तैयार किये दे रहे हैं।

कुछ दिनों में विश्व हिन्दी सम्मेलन होने जा रहा है, उसमें तालियां कूटने के बजाय इस प्रश्न पर बहुत शिद्दत से सोचा जाना चाहिए कि क्या हम शेष संसार से मुल्क बोस्निया, जाना, चीन, आिस्ट्रया, बल्गारिया, डेनमार्क, पुर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, बेिल्जमय, क्रोएशिया, फिनलैण्ड, फ्रांस, हंग्री, नीदरलैण्ड, पौलेण्ड या स्वीडन की तरह अपनी ही मूल भाषा में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र के लिए जगह बनाने के लिए क्या कर सकते हैं । क्योंकि बकौल सेम पित्रोदा सिर्फ एक प्रतिशत ही है जो लोग अंग्रेजी जानते हैं । या कि हमें अफ्रीकी उपमहाद्वीप बन जाने की तैयारी करना है । अंत में अफ्रीका महाद्वीप में स्वाहिली लेखक की पीड़ा को भारतीय उपमहाद्वीप की पीड़ा का पर्याय बनाना है । उसने कहा कि जब ये नहीं आए थे तो हमारे पास हमारी कृषि, हमारा खानपान, हमारी वेशभूषा, हमारा संगीत और हमारी अपनी कहे जाने वाली संस्कृति थे - इन्होंने हमें अंग्रेजी दी और हमारे पास हमारा अपने कहे जाने जैसा कुछ नहीं बचा है । हम एक त्रासद आत्महीनता के बीच जी रहे हैं ।

हमारी हिन्दी पत्रकारिता को सोचना चाहिए कि विदेशी धन और खुद को मीडिया मुगल बनाने के बजाय वह सोचें कि अन्तत: भारतीय भाषाओं को आमतौर पर और हिन्दी को खासतौर पर हटाकर वह देश को आत्महीनता के किस मोड़ की तरफ घेरने जा रही है । साथ यह भी सोचें कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आरती उतारने वाले भर रह जायें और देवपुरूष कोई अन्य हो जाये । बाहर की लक्ष्मी जायेगी तो वह विष्णु भी अपना ही लायेगी । आपके क्षीरसागर के विष्णु सोए ही रह जायेंगे।।

क्या हमारे हिंग्लिशियाते अखबार इस पर कभी सोचते है कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पाल गुडमेन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी है कि हमारे रक्त में रची बसी भाषा को उसके मास मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं । दरअसल औपनिवेशक दासत्व से ठूंस-ठूंसकर भरे हमारे दिमागों ने हिन्दी के बल पर पेट भर सकने की स्थिति को कभी बनने ही नहीं दिया, उल्टे धीरे-धीरे शिक्षा में निजीकरण के नाम पर शहरों में गली-गली केवल अंग्रेजी सिखाने की दुकानें खोलने के लिए लायसेंस उदारता के साथ बांटे गये । उन्हें इस बात का कतई इल्हाम नहीं रहा कि वे समाज और राष्ट्र के भविष्य के साथ कैसा और कौन सा सलूक करने की तैयारी करने जा रहे हैं । पूंजीवादी भूमण्डलीकरण से देश स्वर्ग बन जायेगा, ऐसी अवधारणाएं हिन्दी में अधकचरे ग्लोबलिस्टों की इतनी भरमार है कि वे एक अरब लोगों के भविष्य का मानचित्र मनमाने ढंग से बनाना चाहते हैं - और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूंगों की नहीं अंधों की शैली में आंख मीचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है, उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिंता एक तरह का देसीवाद है जो भूमण्डलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हजम नहीं कर पा रहा है । वे इसे मरणासन्न देसीवाद का छाती-माथा कूटना कहकर उससे अलग होने के लिए उकसाने का काम करते हैं ।

भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के अवतार पुरूष होने का जो डंका पीटा जाता है, उसके बारे में एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने एक वाक्य की टिप्पणी में हमारी औकात का आकलन करते हुए कहा कि भारत के आई.टी. आर्टिजंस तो आभूषणों की दुकानों के बाहर गहनों को पालिश करके चमकाने वाले लोग भर हैं । माइक्रोसाफ्ट उत्पाद बनाता है और भारतीय उसे केवल अपडेट करते हैं । यह वाक्य हमारे सूचना सम्राट होने के गुब्बारे की क्षणभर में हवा निकाल देता है और दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बात यह है कि हम इसी के लिए (आई.टी. आर्टिजंस) के लिए अपनी भाषाओं को मार रहे हैं । हम चमड़े के लिए भैंस मारने पर आमादा है ।

यदि हमें हिन्दी को आमतौर पर और तमाम भारतीय अन्य भाषाओं को खासतौर पर बचाना है तो पहले हमको प्राथमिक शिक्षा पर एकाग्र करना होगा और विराट छद्म को नेस्तानबूत करना होगा, जो बार-बार ये बता रहा है कि अगर प्राथमिक शिक्षा पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अनिवार्य कर दी जाये, तो देश फिर से सोने की चििड़या बन जायेगा । जहां तक भाषा में महारत का प्रश्न है, संसार भर में हिन्दुतान के ढेरों प्रतिभाशाली वैज्ञानिक उद्योगपति और रचना लेखक रहे हैं, जिन्होंने अपनी आरंभिक शिक्षा अंग्रेजी में पूरी नहीं की । इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण और अविलम्ब ध्यान देने वाली बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर बढ़कर विकराल होते निजीकरण पर भी सफल नियंत्रण पाना होगा । तभी हम अपना जैसा कहे जा सकने वाला थोड़ा बहुत सुरक्षित रख पाने की स्थिति में होंगे । भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में बदलने का परिणाम यह होगा कि आने वाले 25 वर्ष बाद हमारी हजारों सालों की भारतीय भाषाएं बच्चों के लिए केवल जादुई लिपियां होंगी ।

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