यहीं हैं, यहीं कहीं हैं शैलेंद्र सिंह : आलोक तोमर





यहीं हैं, यहीं कहीं हैं शैलेंद्र सिंह

आलोक तोमर


अक्सर नोएडा में अपने टीवी चैनल सीएनईबी के दफ्तर जाते वक्त आम तौर पर यह संयोग होता ही था कि फोन बजे और दूसरी ओर से शैलेंद्र सिंह बोल रहे हो। पहले इधर उधर की बातें, फिर अपनी कोई ताजा कविता और आखिरकार टीवी चैनलों की दुनिया से हुआ मोहभंग, जिसका सार यह होता था कि कौन सी दुनिया में आ कर फँस गए?


शैलेंद्र सिंह से करीब बीस साल पहले मुलाकात हुई थी जब वे काम तलाशते हुए कनॉट प्लेस में शब्दार्थ फीचर एजेंसी के दफ्तर में आए थे। पतला दुबला लड़का और पतली आवाज। उन दिनों मैं अपराध का एक स्तंभ लिखता था वह उन्हें पढ़ने को दिया। अगले दिन शैलेंद्र प्रकट हुए और दो लेख लिख कर लाए थे और मेरे लेख का अंग्रेजी अनुवाद भी कर लाए थे। अंग्रेजी ऑक्सफोर्ड वाली नहीं थी मगर अच्छी थी। इसके बाद वे शब्दार्थ से जुड़े रहे और कहने में अटपटा लगता है लेकिन पाँच हजार रुपए महीने में काम करते रहे।


इसके बाद जब इंटरनेट प्रचलित हुआ तो डेटलाइन इंडिया की स्थापना की। शैलेंद्र वहाँ भी साथ थे और बहुत टटकी भाषा में बहुत जल्दी लेख और खबरें लिखते थे और मुझे याद है कि उन दिनों हमारे साथ काम कर रहे दीपक वाजपेयी से, जो अब एनडीटीवी में है, उनकी प्रतियोगिता चलती थी। दीपक की भी अंग्रेजी अच्छी है। दीपक कानपुर और शैलेंद्र बिहार के लहजे में अंग्रेजी बोलते थे।
फिर एक दिन शिद्वार्थ बसु के साथ तय हुआ कि अंग्रेजी के मशहूर कार्यक्रम हू विल वी दि मिलियनायर की तर्ज पर स्टार प्लस के लिए कार्यक्रम बनाया जाए। स्टार के तब के वाइस प्रेसीडेंट समीर नायर कार्यक्रम संचालक के तौर पर अमिताभ बच्चन को लेना चाहते थे। अमिताभ लिए भी गए और कौन बनेगा करोड़पति के नाम से इस कार्यक्रम ने इतिहास रच दिया। प्रश्न बनाने और पटकथा लिखने की टीम में शैलेंद्र फिर हमारे साथ थे। याद आता है कि मुंबई में स्टार की मास्टर पीस बिल्डिंग में रिहर्सल चल रही थी और फोटोग्राफर मौजूद था। मैने शैंलेद्र से कहा कि अमिताभ बच्चन के साथ फोटो खिंचवाने का ये अच्छा मौका है। शैलेंद्र का जवाब मुझे चकित कर गया। उसने कहा कि फोटो खिंचवा कर महान बनने से अच्छा है कि अपने फील्ड में ऐसा काम किया जाए अमिताभ बच्चन खुद हमारे साथ फोटो खिंचवाने आए।


वक्त की कमी और बार बार मुंबई जाने की असुविधा के कारण मैंने केबीसी छोड़ा और स्टार प्लस के लिए ही एनडीटीवी द्वारा बनाए गए कार्यक्रम जी मंत्री जी की पटकथा लिखने में जुट गया। शैंलेद्र केबीसी में बने रहे। इस बीच आज तक से बुलावा आया और कुछ महीनों के लिए मैं आज तक में था और शैलेंद्र रोज शाम को ऑफिस के रिसेप्शन पर मिलते थे कि उन्हें टीवी की पत्रकारिता करनी है। उदय शंकर से कह कर उनका इंटरव्यू हुआ और अपनी प्रतिभा के आधार पर ही वे आज तक में पहुंचे। उदय जब स्टार में गए तो शैलेंद्र को साथ ले गए। शैलेंद्र मुंबई में शायर बन गए। निदा फाजली जैसे बड़े लोगों के साथ उठने बैठने लगे। एक किताब भी उनकी आई। बाद में दूसरी भी आई।


शैलेंद्र बहुत भावुक और एक हद तक बात बात में रो पड़ने वाले इंसान थे। अपनी बेटी के जन्मदिन पर बुलाया और नहीं जा पाया तो रो पड़े। बेटे आयाम का नाम तय करने में देर लगा दी तो रो पड़े। जान लेने वाली इस दुर्घटना के पहले एक बार और गाड़ी ठोक ली थी और जब डाँट लगाई तो भी रो पड़े। अपने सरोकारों के प्रति जिद्दी इंसान इतना भावुक भी हो सकता है यह शैलेंद्र को देख कर ही जाना जा सकता है।


एक जमाने में होम टीवी हुआ करता था। उसके एक कार्यक्रम की पटकथा तो मैं लिखता था और फैक्स कर देता था लेकिन सेट पर भी एक लेखक चाहिए था तो शैलेंद्र को आजमाया और वे सफल हुए। जहाँ तक याद आता है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संसार से शैलेंद्र का यह पहला वास्ता था।


जैसा कि पहले कहा शैलेंद्र के फोन बहुत बेतुके और अकारण होते थे। आप बैठक में हैं, फोन नहीं उठा पा रहे मगर शैलेंद्र सिंह घंटी बजाते रहेंगे। आखिरकार आप जब फोन सुनेंगे तो वे कहेंगे कि भैया आपकी आवाज सुनने के लिए फोन किया था। आप ठीक तो है? जब राजदीप सरदेसाई शैलेंद्र को आईबीएन-7 में लाए तो लाख से ज्यादा वेतन की पर्ची ले कर उन्होंने मुझे इंडिया टीवी के बाहर बुलाया और कंपनी की ओर से मेरी स्विफ्ट कार भी गर्व से दिखाई। इसी कार ने आखिरकार उनकी जान ली।


मुझे अब तक समझ में नहीं आता कि शैलेंद्र इतने बेतुके काम क्यों करता था? उसके साथी बताते हैं कि रात साढ़े ग्यारह बजे का बुलेटिन प्रसारित होने के बाद अगले दिन का कार्यक्रम बनाते बनाते डेढ़ बज गए और दो बजे वे ऑफिस से निकले। घर गाजियाबाद के वैशाली में हैं मगर वैसे ही ठंडी हवा खाने के लिए वे एक्सप्रेस हाइवे पर मुड़ गए। उल्टी दिशा में। शराब वे इन दिनों नहीं पीते थे लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है, पूरा दिन और सुबह तक काम करने के बाद शैलेंद्र को नींद का झोका आया होगा और उन्होंने एक खड़े ट्रक में गाड़ी घुसा दी। ये उनकी अंतिम यात्रा थी।


शैलेंद्र सिर्फ बयालीस साल के थे। इस बीच उन्होंने दो टीवी कार्यक्रमों और तीन चैनलों में काम किया। गजलों और कविताओं की दो किताबें लिख डालीं। गीता का अपनी तरफ से भाष्य कर डाला और उसे सुनाने के लिए वे बहुत उतावले थे, अक्सर फोन पर शुरू हो जाते थे और जैसा उनके साथ रिश्ता था, डाँट खा कर फोन बंद करते थे। आखिरी फोन मौत के दो दिन पहले आया था जिसमें उनका प्रस्ताव था कि मुंबई चल कर सीरियल और फिल्में मैं लिखूँ और उनमें गाना शैलेंद्र लिखेंगे। ऑफिस के गेट पर पहुँच चुका था इसलिए हाँ बोल कर फोन काट दिया। कमरे में पहुँचा तो फोन फिर बजा। शैलेंद्र ही थे और कह रहे थे कि भैया आप अपने आपको गंभीरता से नहीं लेते।


अगर शैलेंद्र आज होते तो मैं पूछता कि बेटा तुमने खुद अपने आपको गंभीरता से कहाँ लिया हैं? इतनी सारी प्रतिभा, काम के प्रति अनुशासन और मेहनत करने की अपार शक्ति के बावजूद अगर शैलेंद्र सिंह ने अपनी जिंदगी के साथ इतना बड़ा निर्णायक खिलवाड़ कर डाला तो वे सिर्फ अपने और हिंदी पत्रकारिता के नहीं, अपनी पत्नी, बेटे आयाम और बेटी आस्था के भी अपराधी है।


यह लिखने के ठीक बाद मैं शैलेंद्र की अंतिम क्रिया में निगमबोध घाट जाऊँगा और उस सपने को जलता हुआ देखूँगा जिसके एक बड़े हिस्से का साक्षी मैं भी रहा हूँ। शैलेंद्र सिंह का फोन नंबर अपने मोबाइल से डिलिट करने की मेरी हिम्मत नहीं है क्योंकि मेरे लिए शैलेंद्र यहीं है, यहीं कहीं हैं। पता नहीं कितने दिनों तक लगेगा कि फोन बजेगा और शैलेंद्र अपना कोई किस्सा कहानी सुनाने लगेगा। सपनों के भी कहीं अंत होते है?





4 टिप्‍पणियां:

  1. आंखे नम हो गईं। आलोक बहुत खराब आदमी है।

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  2. टी वी की कमरतोड़ मेहनत ने एक युवा प्रतिभा की जान ले ली। मन को छूने वाला आलेख।

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  3. मैं भी वह नंबर अपने मोबाइल से कभी डीलिट नहीं करूंगा। स्तब्धता के अवाक पल !

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  4. मैं भी अपने मोबाइल से वह नंबर डीलिट नहीं करूंगा! स्तब्धता के अवाक पल!

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