तो अब हिंदी में सुन लो

तो अब हिंदी में सुन लो




हिंदी और खास तौर पर पत्रकारिता की हिंदी पर मेरे लेख पर इधर उधर से बहुत सारी टिप्पणियाँ आईं। अब यह तो उम्मीद नहीं की जा सकती कि सबके विचार मेरे विचारों से मिलते हों लेकिन बहुत सारे मित्रों ने लेख की आत्मा के मर्म को समझा और उसमें अपने ज्ञान और दृष्टिकोण को जोड़ कर लेख के सरोकार में मदद की। उन सबको धन्यवाद।



आईबीएन-7 में काम करने वाले युवा मित्र मयंक प्रताप सिंह की टिप्पणी हिंदी की चिंता करने वाले एक सतर्क मन की टिप्पणी थी। उन्होंने हिंदी की खास तौर पर मीडिया में जो दुर्दशा हो रही है, उसके लिए महानगरीय सभ्यता और टीआरपी रेटिंग को जिम्मेदार ठहराया। मयंक की तरह ही और भी बहुत सारे मित्र टीआरपी रेटिंग से नाराज थे। उनका कहना था कि जब तक आज की युवा पीढ़ी जो कनॉट प्लेस को सीपी बोलती है, की भाषा में खबरें नहीं बोली जाएंगी, टीआरपी नहीं बढ़ेगी। इन मित्रों को एक छोटी सी जानकारी देनी है। यह टीआरपी नामक जो मिथक है वह पूरे देश का प्रतिनिधित्व तो नहीं ही करता, चैनलों की टीआरपी खरी और खांटी खबरों से नहीं बल्कि सास बहू और साजिश तथा तंत्र मंत्र वाले कार्यक्रमों से बढ़ती है। चुनाव के दिनों में ठीक उसी उत्सुकता से दर्शक चुनाव के नतीजे देखते हैं जैसे क्रिकेट के मैच देख रहे हों। सो, वह टीआरपी भी प्रासंगिक है। मगर क्षणभंगुर हैं।



ऐसा नहीं है कि हिंदी समाज में खरी और टनाटन बोलने वाली भाषा के ग्राहक नहीं रह गए हैं। दूरदर्शन की भाषा को बहुत कोसा जाता है लेकिन मेरा अनुभव बताता है कि साल में कभी कभार जिस चैनल की कोई टीआरपी गिनी ही नहीं जाती, उस लोकसभा चैनल पर अगर मैंने आधे घंटे का कोई कार्यक्रम कर दिया हो तो फटाफट पूरे देश से सैकड़ों फोन आ जाते हैं। ऐसा उन चैनलों पर घंटों रहने के बावजूद नहीं होता जो टीआरपी के सम्राट कहे जाते हैं । इसलिए यह बात तो मन से निकाल दीजिए कि खरी और प्रांजल हिंदी अपने हिंदी वालों को मंजूर नहीं।



मैंने उस लेख में भी लिखा था और फिर दोहरा रहा हूँ कि मेरे सीएनईबी चैनल में खूब तत्सम और खूब तद्भव मुहावरेदार भाषा लिखी जाती है और अगर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और भारतीय जनसंचार संस्थान के मित्रों की प्रतिक्रिया को मानक माने तो उन्हें यह भाषा मंजूर हैं बल्कि वे उसका स्वागत करते हैं। पिछले दिनों हमारे चैनल के हस्ताक्षर कार्यक्रम महाखबर में हमने दुष्यंत कुमार से लेकर अदम गौडवी और निदा फाजली के अलावा कई साहित्यिक माने जाने वाले कवियों की रचनाओं का धुँआधार इस्तेमाल किया था और उतना ही धुआधांर उसका स्वागत हुआ था।



जैसा कि पहले कहा कि मीडिया और खास तौर पर टीवी मीडिया में ग्लैमर जुड़ गया है और जो पीढ़ी पहले मुंबई में हीरो या पटकथा लेखक बनने के लिए भागती थी वह मीडिया की ओर आ रही है। लगभग हर चैनल ने अपने मीडिया स्कूल खोल रखे हैं और उनकी सफलता इस बात का सबूत हैं कि चाहे जितने मीडिया संस्थान खोल ले, उनमें आने वालों की कमी नहीं रहेगी। मंदी के दौर में भी पांच नए टीवी चैनल तीन महीने में खुले।



टीवी की भाषा संवाद और वाचिक परंपरा की भाषा है। दुर्भाग्य से टीवी के सर्वोच्च पदों पर जो लोग बैठे हैं और जो भाषा निर्धारित करते हैं, उनमें से ज्यादातर अब भी अखबारी पृष्ठिभूमि के हैं और अपने आपको इस ग्रंथि से मुक्त कराने के लिए जिस तरह की हिंदी का इस्तेमाल करने पर वे अपने पत्रकारों को बाध्य कर रहे हैं वह न लिखित परंपरा की हिंदी रह गई है और न वाचिक परंपरा की।



यहाँ यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जीटीवी हिंदी का पहला प्रमाणिक समाचार चैनल था। इसके पहले भी जैन टीवी था मगर डॉक्टर जे के जैन जैसे हाथ की सफाई दिखाने वाले और फुटपाथ पर बैठ कर मदारियों की तरह खबरों की हाट लगाने वाले दो कौड़ी के लोग कभी मीडिया की मुख्य धारा में आ ही नहीं पाए। उनके लिए संपत्तियों पर कब्जा करना, विदेशों से उपकरण आयात कर के भारत में बेचना और भारतीय जनता पार्टी से शुरू कर के कांग्रेस तक पहुंचना ही प्राथमिकता थी। लेकिन जीटीवी के समाचार विभाग जो अब पूरा जी न्यूज चैनल हैं, की शुरूआत करने का श्रेय रजत शर्मा को जाता है। उन्होंने टीवी की भाषा तो नहीं लेकिन खबरे दिखाने का व्याकरण जरूर बदल दिया। इसके साथ ही यह कलंक भी वे कभी नहीं मिटा पाएंगे कि टीवी की भाषा को रजत शर्मा के नेतृत्व में जितना भ्रष्ट किया गया है उतना शायद किसी और ने नहीं किया।



हमारे एक सहयोगी मित्र हैं श्रीपति। हम लोग साथ बैठ कर खबरें लिखते हैं और इंडिया टीवी में बहुत समय तक रहने के बावजूद श्रीपति कई बार चौकाने वाले चमत्कार कर डालते हैं। जैसे शीतल मफतलाल जब कस्टम विभाग ने गिरफ्तार की और मफतलाल परिवार के विवाद सामने आए तो पता चला कि इस परिवार की एक बेटी ने पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा पाने के लिए सेक्स चेंज करवा के लड़का बन जाने की हरकत की। अपर्णा नाम था लेकिन अब वह अजय है। इतनी लंबी कहानी को श्रीपति ने एक वाक्य में समेट दिया कि एक ननद थी जो अब देवर बन गई है। टीवी को ऐसी त्वरित और सार्थक भाषा चाहिए।



कुछ मित्रों ने यह भी लिखा कि मैथिली, अवधी और भोजपुरी को पूरी भाषा की संज्ञा नहीं दी गई है और ये ऐतराज की बात है। अवधी में रामचरित मानस लिखा गया था, मैथिली में विद्यापति जैसे महाकवि जन्में हैं और भोजपुरी की संस्कृति का एक पूरा संसार हैं। उसका फिल्म उद्योग भी काफी विकसित है। मगर इन सबका व्याकरण और लिपि देवनागरी हैं इसलिए इन्हें कम से कम सहोदरा तो कहा जाना चाहिए। वरना भाषा की मान्यता का सवाल आया तो बुंदेलखंडी, ब्रज और दूसरी कई देसी बोलियां भी दौड़ में शामिल हो जाएंगी और खुद बुंदेलखंडी पृष्ठिभूमि से आने के बावजूद मैं फिर यही कहूंगा कि बुंदेलखंडी और ब्रज भाषा नहीं अभिव्यक्तियां हैं और बहुत ताकतवर अभिव्यक्तियां हैं। किसी भाषा के भाषा होने के लिए उसका अपना व्याकरण और संभव हो तो लिपि भी चाहिए होती है।



एक कोई साहब है शाहिद मिर्जा। मेरे एक दिवंगत मित्र भी शाहिद मिर्जा थे जो नव भारत टाइम्स में रहने के बाद दैनिक भास्कर के किसी संस्करण के संपादक हो गए थे। वे जैसी भाषा लिखते थे उसके सामने उनकी जो पैरोडी यानी नए शाहिद मिर्जा हैं उन्हें इस नाम पर कलंक ही कहा जाना चाहिए। जिस मूरख को यह पता न हो कि कान लगा कर कैसे सुना जाता है उससे क्या बात करनी?

- आलोक तोमर

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुरेश कुमार जी(पूर्व प्रोफेसर,केंद्रीय हिन्दी संस्थान ) की ईमेल द्वारा प्राप्त प्रतिक्रया -


    "पिछले वक्तव्य के समान आलोक तोमर का यह वक्तव्य भी महत्वपूर्ण है. टीआरपी पर उनकी टिप्पणी एक बड़ी भ्रान्ति को दूर करती है. विशेष बात यह है कि उन्होंने अच्छी-असरदार-स्वाभाविक-उपयुक्त हिन्दी (जिसमें पाठक/श्रोता का ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि किस शब्द का मूल स्त्रोत क्या है) के नमूने 'जो कहते हो वह करके दिखाओ' की तर्ज़ पर पेश किये हैं. दिल्ली का राजनीतिक वर्चस्व हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप को भी कभी-कभी चिंताजनक रूप से प्रभावित करता लगता है. इसका रचनात्मक प्रतिरोध भी दिल्ली से ही वैसे ही करना होगा जैसे आलोक जी (और उनके कुछ साथी) कर रहे हैं. .उनकी यह बात भी सहमति योग्य है कि आधुनिक-सामयिक युग में सामाजिक यथार्थ के मद्देनज़र हिन्दीक्षेत्र की बोलियों की भूमिका हिन्दी को पुष्ट करने में ही अधिक है.आलोक जी! निधड़क लिखते रहिए. आपको हमसफ़र बहुत मिल जाएँगे"|

    - सुरेश कुमार

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  2. प्रो.वशिनी शर्मा, केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा ) की ईमेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी -

    टीवी की भाषा की चर्चा करते हुए हम हिंदी के उस वैश्विक रूप को नज़र अंदाज़ न करें जो विदेशी कार्यक्रमों के माध्यम से धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है ।समय-समय पर अनुसृजन के अंतर्गत इन कार्यक्रमों और उनकी भाषा पर मैंने आलेख लिखे। अभी 17-18 अप्रैल को मैंने अंग्रेज़ी कार्टून सीरिअल्स की हिंदी और अनुसृजन पर अखिल भारतीय संगोष्ठी में विचार प्रस्तुत किए।

    यह और भी ज़रूरी है तब जब कि हमारी नई पीढ़ी (4-15 वर्ष तक ) के लिए ये कार्यक्रम एक ज़ूनून हैं और जाने -अनजाने हम भी उनके बहाने इन्हें देख लेते हैं ।(मैं तो खूब देखती रहती हूँ बच्चों के साथ बच्चा बन कर)। सिर्फ भाषा का सवाल ही नहीं रहा अब ,ये नई संस्कृति की हिंदी में घुस पैठ भी मानी जा सकती है ।पर आप अब शिनचैन ,पोकेमॉन ,डोरेमॉन आदि को अनदेखा नहीं कर सकते जो हमारे घर में स्पाइडरमैन से ज़्यादा हावी हैं । इन दिनों जापानी कार्यक्रमों की अपेक्षाकृत अधिक और त्वरित लोकप्रियता पर भी मेरे अपने विचार हैं ।उस पर फिर कभी।

    वशिनी शर्मा

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  3. Suresh Kumar(पूर्व प्रो.केन्द्रीय हिन्दी संस्थान,आगरा ) की पुनः ईमेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी-

    मैं आलोक तोमर के आलेख पर अपनी टिप्पणी का सन्दर्भ स्पष्ट करना चाहूँगा. वे समाचार तथा समाचार-आधारित चर्चाओं में प्रयुक्त हिन्दी के विषय में अपनी बात कह रहे हैं, यह उनके पहले आलेख में स्पष्टतया निहित है. भाषा-प्रयोग संबंधी चर्चा हमेशा उस सन्दर्भ की भूमिका पर होती है जिसमें उसका प्रयोग हुआ है. मीडिया में परिमाण की दृष्टि से समाचार सबसे अधिक स्थान/समय लेता है और इस तथ्य का गुणात्मक प्रभाव भाषा पर पङता है. वर्त्तमान चर्चा उसी को लेकर हो रही है. बच्चों के कार्यक्रम एक अलग तथा अपेक्षया सीमित सन्दर्भ है. जैसे कार्यक्रम अब आ रहे हैं वैसे पहले नहीं आते थे. अतः नई शब्दावली का प्रयोग होना उपयुक्त है तथा उसे आदात्री भाषा (भाषा-संपर्क की स्थिति) में स्वीकृति मिलती है. इससे भाषा के अभिव्यक्ति-कोष का विस्तार होता है. यही बात अन्य अपेक्षया नए सन्दर्भों में प्रयुक्त हिन्दी पर भी लागू होती है.

    अब एक बड़ा सवाल. हिन्दी का शब्दभंडार तो बढ़ रहा है. अभिव्यक्ति के सन्दर्भ-उद्देश्य-माध्यम के अनुसार आवश्यकता-पूर्ति हेतु नए शब्द-- आगत,आगत-अनुवाद आदि-- हिन्दी में प्रयुक्त हो रहे हैं तथा सामान्य प्रक्रिया के अनुसार वे भाषा में स्वीकृत या अस्वीकृत भी हो रहे हैं (जीवित भाषाओं में ऐसा होता है). परन्तु क्या उन्हें हिन्दी के एकभाषिक शब्दकोशों में शामिल किया जा रहा है जो इस बात का प्रमाण हो कि वे अब हिन्दी के हैं? यह एक सर्वमान्य अकादमिक आवश्यकता मानी जाती है. अंग्रेजी के एकभाषिक शब्दकोष ऐसा करते हैं. बहुत संभवतः केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के तत्वावधान में निर्माणाधीन 'बृहत् हिन्दी-हिन्दी शब्दकोश' में ऐसा किया जा रहा है/गया है. प्रकाशित होने पर ही पता चलेगा. इस विषय में समूह के सदस्यों के पास कोई और जानकारी हो तो,आशा है, साझा करेंगे.

    Suresh Kumar

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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