हिंदी : जो सिर्फ शब्द या अक्षर नहीं है : आलोक तोमर

हिंदी : जो सिर्फ शब्द या अक्षर नहीं है



टीवी की हिंदी पर और खास तौर पर लोकप्रिय चैनलों की हिंदी पर लगातार कई मंचों पर इन दिनों टिप्पणियाँ पढ़ने को मिल रही हैं। आम तौर पर टीवी पर जो भाषा चलती है उसे अगर एक वाक्य में नमूने के तौर पर कहना हो तो - ''विदित हुआ है कि अमुक कुमार ने अपने काम काज के चलते इस शानदार खबर को लिखने को अंजाम दिया है'' यह टीवी की आजकल प्रचलित भाषा है। दरअसल टीवी नया माध्यम तो है ही, अचानक टीवी चैनलों के प्रस्फुटन और विस्फोट ने मीडिया में ग्लैमर और पैसा दोनों ही ला दिया है इसलिए भाई लोग एक वाक्य लिखना सीखें, इसके पहले किसी चैनल के न्यूज रूम में प्रोडक्शन असिस्टेंट से शुरू कर के सहायक प्रोडयूसर से होते हुए प्रोडयूसर और सीनियर प्रोडयूसर तक बन जाते हैं और गलत मात्राएँ लगाने और मुहावरों का बेधड़क बेहिसाब और बेतुका इस्तेमाल करते रहते हैं। चूंकि टीवी एक बड़ा माध्यम भी बन गया है इसलिए जो पीढ़ी बड़ी हो रही है वो यही भाषा हिंदी के तौर पर सीख रही है। यह हिंदी के लिए डूब मरने वाली बात है।


हिंदी चैनलों में अति वरिष्ठ पदों पर जो विराजमान हैं और जिन्हें यह गुमान है कि वे खगोल में सबसे ज्ञानी हैं उन बेचारों को तो ठीक से देवनागरी लिपि पढ़ना नहीं आता। वे 56 का मतलब पूछते हैं और यह जानकर संतुष्ट होते हैं कि लिखने वाले का मतलब फिफ्टी सिक्स है। कई तो ऐसे हैं जिन्हें देवनागरी की बजाय रोमन में पटकथा लिख कर दिखानी पड़ती है। सौभाग्य से ऐसे लोग मनोरंजन चैनलों में ज्यादा हैं और स्टार प्लस के लिए एक चर्चित सीरियल लिखते समय एक ऐसी ताड़का से मेरा वास्ता पड़ चुका है जिनकी जिद थी कि मैं उन्हें रोमन में पटकथा लिख कर दूं। पैसा कमाना था इसलिए रोमन में तो नहीं लिखा लेकिन पूरा एपिसोड शूटिंग के पहले पढ़ कर सुनाना जरूर पड़ा।


एक भाषा हुआ करती थी दूरदर्शन की। यह भाषा राजभाषा थी। दूरदर्शन सरकारी है इसलिए कभी पीआईबी तो डीएवीपी से तबादला हो कर साहब लोग समाचार संपादक बन जाते थे और लिखते थे कि ''प्रधानमंत्री ने एक विराट आम सभा में बोलते हुए आश्वासन दिया है कि वे गरीबी मिटाने के लिए हर संभव यत्न करने का प्रयत्न करेंगे''। अब प्रधानमंत्री की सभा है तो उसे विराट ही लिखना है मगर ''यह बोलते हुए कहा'' का क्या मतलब हैं? क्या प्रधानमंत्री को ''नाचते हुए कहना'' चाहिए था? ''यत्न करने का प्रयत्न'' किस देश-प्रदेश की भाषा है?


चैनलों ने ऐलान किया कि वे बोलचाल की भाषा बोलेंगे। चैनलों की बहुसंख्यक आबादी के अनुसार यह भाषा वही है जो मैक डोनाल्ड, पिज्जाहट और पीवीआर पर बोली जाती है और जिसमें कनॉट प्लेस सीपी है, साउथ एक्सटेंशन साउथ एक्स है और प्रेस कांफ्रेंस पीसी है। इसके बाद एक टकली भाषा का अविष्कार हुआ जिसके केश तो थे ही नहीं, चेहरा भी नहीं था। यह देवनागरी में लिखी हुई अंग्रेजी थी। इससे भी अपना पाला पड़ चुका है। कश्मीर में आतंकवाद कवर करते हुए फोन पर मुझे यह बोलने के लिए बाध्य किया गया- ''मिलिटेंट्स के खिलाफ आर्म्ड फोर्सेज के एक्शन में अभी तक किसी कैज्युअल्टी की न्यूज नहीं है'' और ''क्रॉस फायरिंग की वजह से विलेजिज को वैकेट करवाया जा रहा है''। दाल रोटी का सवाल था इसलिए यह भी बोला।


मगर सौभाग्य से अब समाचार चैनल भाषा के प्रति सचेत होते जा रहे हैं। जी न्यूज में पुण्य प्रसून वाजपेयी, एनडीटीवी में प्रियदर्शन और अजय शर्मा, जी में ही अलका सक्सेना और एनडीटीवी में ही निधि कुलपति, आईबीएन-7 में आशुतोष और शैलेंद्र सिंह की भाषा उस तरह की है जिसे टीवी की आदर्श वर्तनी के सबसे ज्यादा करीब माना जा सकता है। सीएनईबी के राहुल देव ने तो बाकायदा चमत्कार किया है। तत्सम, तद्भव, अनुप्रास, रूपक और ध्वनि सौंदर्य से भरी समाचारों की एक नई भाषा का अविष्कार वहाँ हुआ हैं और अब लोग कान लगा कर ध्यान देने लगे हैं।


मैं इस बात के लिए तत्पर और तैयार हूँ कि जल्दी ही मित्र लोग गुमनाम या फर्जी नामों से टिप्पणियाँ करेंगे कि चूंकि मैं सीएनईबी में खुद काम करता हूँ इसलिए राहुल देव का चारण बनना मेरी नियति है। अब इसका क्या किया जाए कि राहुल देव अंग्रेजी और हिंदी दोनों के पत्रकार हैं और दोनों भाषाएँ उन्होंने साध भी रखी हैं। वे अंग्रेजी के बड़े अखबार से निकल कर हिंदी की एक बड़ी पत्रिका और फिर हिंदी के एक मानक अखबार के संपादक भी रहे और महाबली आज तक में सुरेंद्र प्रताप सिंह के उत्तराधिकारी भी। आज तक में वे कैसी भाषा बोला करते थे, मुझे पता नहीं क्योंकि उन्होंने आज तक में माँगने पर भी मुझे नौकरी नहीं दी थी और मैंने आज तक देखना बंद कर दिया था।


मगर राहुल देव और सीनएईबी के बहुत पहले अमिताभ बच्चन ने ''केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति'' के जरिए इतिहास लिख दिया था। इसी के जरिए उन्होंने यह भी स्थापित किया था कि सीधी सरल और सपाट लेकिन संवाद में सफल हिंदी कैसे लोगों के आत्मा के तंत्र को छूती हैं। अन्नू कपूर अंताक्षरी में यह प्रयोग सफलतापूर्वक कर चुके थे लेकिन उनकी बाकी नौटंकियों के कारण इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। हाल के वर्षों में आशुतोष राणा ने भी हिंदी को और प्रांजल हिंदी को स्थापित किया है।


सिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र बहुत वर्ष पहले लिख गए हैं- ''जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख और उसके बाद भी सबसे बड़ा तू दिख''। भवानी भाई की इन पक्तियों को प्रेरणा के तौर पर लेते हुए इसमें बस इतना और जोड़ना हैं कि माध्यम चूंकि नाटकीय गति का हैं और टीवी की भाषा में अगर ध्वनि सौंदर्य नहीं हो तो दृश्य भी लगभग मर से जाते हैं। इसलिए प्रवाह और संप्रेषण के अलावा आज की टीवी की हिंदी को कहीं मोहन राकेश, कहीं कमलेश्वर और कहीं सलीम जावेद से प्रेरणा लेनी ही होगी।


एक बात मैंने ध्यान की है कि जब भी मैं हिंदी पर लिखता हूँ, और यह कहने के लिए मुझे किसी अनाम भाषा वैज्ञानिक के प्रमाण पत्र की कतई आवश्यकता नहीं हैं कि मैं बहुतों से बेहतर हिंदी लिखता हूँ, तो पता नहीं कहाँ-कहाँ से कुकरमुत्तों की तरह मेरे मित्र उग आते हैं और मुझे याद दिलाते हैं कि मुझे हिंदी में पहले दर्जें में स्नातकोत्तर होने के बावजूद भाषा विज्ञान और भाषाओं के मूल का पता नहीं हैं। उनसे निवेदन हैं कि भाषाओं का मूल वे हल्दी की गाँठ की तरह अपने पिटारे में सँजो कर रखें और टिप्पणी तभी करें जब उन्हें मेरी भाषा समझ में नहीं आए। यह चेतावनी नहीं, सूचना है।

कवि हरिवंश राय बच्चन की कुछ पक्तियाँ अमिताभ बच्चन के ब्लॉग से -

शब्द ही के

बीच से दिन-रात बसता हुआ

उनकी शक्ति से, सामर्थ से-

अक्षर-

अपरिचित मैं नहीं हूं।

किंतु सुन लो,

शब्द की भी,

जिस तरह संसार में हर एक की,

कमजोरियां, मजबूरिया हैं-

शब्द सबलों की सफल तलवार हैं तो,

शब्द निबलों की नपुंसक ढाल भी है।


साथ ही यह भी समझ लो,

जीव को जब जब

भुजा का एवजी माना गया है,

कंठ से गाना गया हैं।




- आलोक तोमर

3 टिप्‍पणियां:

  1. ''मगर सौभाग्य से अब समाचार चैनल भाषा के प्रति सचेत होते जा रहे हैं। जी न्यूज में पुण्य प्रसून वाजपेयी, एनडीटीवी में प्रियदर्शन और अजय शर्मा, जी में ही अलका सक्सेना और एनडीटीवी में ही निधि कुलपति, आईबीएन-7 में आशुतोष और शैलेंद्र सिंह की भाषा उस तरह की है जिसे टीवी की आदर्श वर्तनी के सबसे ज्यादा करीब माना जा सकता है। सीएनईबी के राहुल देव ने तो बाकायदा चमत्कार किया है। तत्सम, तद्भव, अनुप्रास, रूपक और ध्वनि सौंदर्य से भरी समाचारों की एक नई भाषा का अविष्कार वहाँ हुआ हैं और अब लोग कान लगा कर ध्यान देने लगे हैं।''

    --सही आकलन है.
    चैनलों की हिन्दी के वैविध्य का स्वागत होना चाहिए. इनसे भाषा समृद्ध हो रही है,
    हाँ, नए रंगरूटों को हिंदी बोलना व लिखना सिखाने की व्यवस्था होनी भी ज़रूरी है.

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  2. सुरेश कुमार जी (पूर्व प्रोफ़ेसर, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा )
    की ईमेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी -


    "आलोक तोमर की व्यथा-कथा हम सब हिंदीकर्मियों की व्यथा-कथा है. "अच्छी हिन्दी" नाम से बाबू रामचंद्र वर्मा और आचार्य किशोरी दास वाजपेयी की चलाई मुहिम अब कमजोर पड़ गई है.आशा की किरण पुनः जगाई है प्रो रमेश चन्द्र महरोत्रा (रायपुर) ने. उन्होंने सन्देह उत्पन्न कर सकने वाले हिन्दी शब्दों की सही वर्तनी और वाक्य-रचना में प्रायः होने वाली अशुद्धियों को दूर करते हुए शुद्ध वाक्य-रचना के प्रचुर उदाहरणों के साथ पुस्तिकाएं जारीकी हैं जिनका स्वागत हुआ है .

    आवश्यकता इस बात की है की हिन्दी भाषा के प्रति उसी तरह का पेशेवराना दृष्टिकोण अपनाया जाए जैसा अंग्रेजी भाषा के प्रति हम लोग अपनाते हैं. इस सम्बन्ध में मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं --१)" हिन्दी भाषा" और "हिन्दी साहित्य" में अंतर किया जाए. शुद्ध (सही), उपयुक्त (अच्छी), स्वीकार्य, और सुन्दर -- यह क्रमिकता महत्वपूर्ण है -- हिन्दी के लिए हिन्दी साहित्य में उच्च स्तरीय दक्षता 'अनिवार्य' नहीं . हाँ, वह 'वांछनीय' हो सकती है. २) "हिन्दी प्रेम" की धारणा बहकाती अधिक है -- प्रेम में सब कुछ जायज़ है और यह बात भाषा के लिए अच्छी नहीं . उपयुक्त अवधारणाएं हैं "हिन्दी में अभिरुचि" और "हिन्दी भाषा ज्ञान".आलोक जी ने जिस 'भाषाविज्ञान' की बात की है वह मात्र 'भाषाज्ञान' है जो कौशल का विषय अधिक है , ज्ञान का उतना नहीं .३) लक्ष्य-प्राप्ति के लिए निम्नलिखित सामग्री सहायक होगी -- हिन्दी के सैद्धांतिक और व्यावहारिक व्याकरण की पुस्तकें , हिन्दी शैली पाठमालाएं, , हिन्दी के एकभाषिक और द्विभाषिक (विशेषतया हिन्दी-अंग्रेजी-हिन्दी) शब्दकोष , हिन्दी की कार्यशालाएं जिसमें बोधन-लेखन पर विशेष बल हो और जिसके लिए विशेष रूप से निर्मित अभ्यास-पुस्तिकाएं प्रयोग में लाई जाएं . सामग्री की सूची बढ़ाई जा सकती है.

    सामग्री का सर्वथा अभाव तो नहीं परन्तु उसके सम्बन्ध में समेकित सूचना केंद्र का शायद अभाव अवश्य है . केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय नई दिल्ली और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा सहयोगपूर्वक इस दिशा में काफी अच्छा काम आर सकते हैं."

    (सुरेश कुमार)

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