प्रवासी हिन्दी साहित्य : परिचर्चा में आए मित्रों के पत्र और विचार (1)




प्रवासी हिन्दी साहित्य


परिचर्चा में आए मित्रों के पत्र और विचार (1)


गत दिनों हिन्दी भारत समूह पर आरम्भ हुई परिचर्चा का उल्लेख करते हुए हिन्दी के प्रवासी साहित्य को परिभाषित करने के एक उपक्रम की जानकारी दी थी।

उसी क्रम में प्राप्त प्रतिक्रियाओं को यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है व सभी पाठकों से भी आग्रह है कि वे भी अपने विचार आलेख रूप में या प्रतिक्रिया रूप में अवश्य दें।

अब तक ७-८ आलेख हमें मिल चुके हैं जिन्हें क्रम से यहाँ प्रस्तुत करना आज से आरम्भ कर रही हूँ। ये प्रतिक्रियाएँ जिस क्रम से आई हैं उसी क्रम से प्रस्तुत की जा रही हैं.

- कविता वाचक्नवी



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डॉ.दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी ने लिखा
Thursday, April 2, 2009 10:32:05 PM



विचार के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है।

पहली बात तो मुझे यह लगती है कि प्रवासी साहित्य को ठीक उस तरह से नहीं देखा जा सकता है जैसे हम दलित साहित्य को या महिला लेखन को देखते हैं। दूसरी बात, क्या प्रवासी साहित्य को साहित्य से अलग करके देख भी जाना चाहिए?


कभी कभी मुझे लगता है कि जब हम प्रवासी साहित्य की बात करते हैं तो उन लेखकों का भला नहीं, बल्कि उनका अहित ही करते हैं। कभी मन में यह बात होती होगी, कि ये लोग देश से दूर रहकर हिन्दी में लिख रहे हैं, तो इन्हें थोड़ी रियायत दी जाए. जैसे कभी कभी दलित साहित्य के सन्दर्भ में होता है, कि इन लेखकों से भाषा के उसी परिष्कार की अपेक्षा न की जाए. और यह सोच मुझे तो ठीक नहीं लगता. दलित साहित्य के सन्दर्भ में भी और प्रवासी साहित्य के सन्दर्भ में भी. साहित्य को साहित्य की तरह ही देखा जाना चाहिए.


हां, यह अवश्य है कि जिस साहित्य में प्रवासी भारतीयों की ज़िन्दगी का चित्रण है, उसे एक अलग वर्ग के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है. लेकिन ऐसा करना असल में विषय वस्तु के आधार पर एक अंश का विश्लेषण करने जैसा होगा. यह तो वैसे भी होता है. जैसे हिन्दी की ग्रामीण जीवन की कहानियां, या हिन्दी उपन्यासों में कामकाजी महिला, वगैरह. इउसी तरह हिन्दी कहानी में प्रवासी भारतीय जैसी कोई बात की जा सकती है. लेकिन महज़ इस आधर पर कि एक व्यक्ति अमरीका में रह कर कुछ लिख रहा है, उसके साहित्य को अलग करके देखना मुझे तो उपयुक्त नहीं लगता. यह व्यावहारिक भी नहीं है. लोग कभी भारत से विदेश चले जाते हैं, कभी विदेश से भारत आ जाते हैं. भीष्म साहनी और निर्मल वर्मा लम्बे समय तक विदेश में रहे. क्या उनके साहित्य को प्रवासी भारतीयों का साहित्य कहा जाना चाहिए? मैं अभी कुछ महीनों के लिए अमरीका में हूं. यहां रहकर अगर कुछ लिखता हूं तो क्या उसे प्रवासी भारतीय साहित्य के खाते में डाला जाएगा?
क्या हर्ज़ है, साहित्य को साहित्य ही रहने दिया जाए?





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चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी ने कहा
Thursday, 2 April, 2009, 8:56 PM



प्रवासी साहित्य वही होगा जो प्रवासी भारतीय लिख रहे हैं और जिस में वे ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जो सभी को सम्प्रेषित हो- भले ही उसमें देशज शब्द हों या विदेशी शब्द जो समझ में आएं। यहां भारत में ही अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि दलित साहित्य क्या है-वो जो दलित साहित्यकार लिख रहा है या वह जो दलित परिस्थितियों पर लिखा जा रहा है!! यह तो आवश्यक नहीं लगता कि मानक हिंदी ही हो। हां, सम्प्रेषणीय अवश्य हो।
शुभकामनाएँ
चंद्र मौलेश्वर

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