दूरस्थ शिक्षा निदेशालय : नौदिवसीय पाठ्य सामग्री लेखन कार्यशाला

जनसंचार और बहुसंचार माध्यम की शैक्षणिक प्रासंगिकता उजागर
दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा
नौदिवसीय पाठ्य सामग्री लेखन कार्यशाला संपन्न




हैदराबाद।

मानव अस्तित्व की विकास यात्रा में जनसंचार का अतुलनीय योगदान रहा है। विशेषकर प्रगति के जिन सोपानों पर आज की ग्लोबल दुनिया खड़ी है, वहाँ जनसंचार के महत्व को नकारना नितांत असंभव है। संचार माध्यम आज इतने शक्तिशाली रूप में हमारे सामने हैं कि यदि यह कहा जाए कि वे दुनिया में जब चाहे उलट फेर कर सकते हैं, बदलाव ला सकते हैं , तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें दो राय नहीं है कि मीडिया के पास इतनी ताकत पहले कभी नहीं रही। चाहे अखबार रहा हो या रेडियो और सिनेमा - उनकी पहुँच और पकड़ इतनी व्यापक पहले न थी जितनी आज है। चैनलों की भीड़ ने सारा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है। यह भी कहा जा सकता है कि जनसंचार के इस अधुनातन प्रसार ने लोकतंत्र और जनशक्ति को प्रभावित करने की अपनी क्षमता को पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में साबित करके दिखा दिया है। पहुँच और पकड़ की व्यापकता को साधने के लिए संचार के सभी हलकों में बहुआयामी क्रांति घटित हुई है। जनसंचार के इस बदले हुए रूप के साथ हिंदी भाषा का रूप भी लगातार बदला है, बदल रहा है। हिंदी की लचीली प्रकृति ही संक्रांति समय में अपने बदलाव को सिद्ध करती रही है। इसे पूरे भारत में हिंदी सिनेमा और फिल्म गीतों की लोकप्रियता के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है।


जनसंचार और भाषा के इस परस्पर संबंध को समझने-समझाने के लिए काफी समय से ऐसे पाठ्यक्रमों की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है जो हिंदी भाषा और साहित्य की परंपरागत पढ़ाई से आगे आज की चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम हों। इसी आवश्यकता और चुनौती को ध्यान में रखते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान ने जनसंचार पर केंद्रित नवीनतम पाठ्यक्रम आरंभ करने का निश्चय किया है। दूरस्थ शिक्षा माध्यम के इन पाठ्यक्रमों में जहाँ जनसंचार का स्नातकोत्तर डिप्लोमा शामिल है, वहीं हिंदी भाषा शिक्षण में बहुसंचार माध्यमों के व्यावहारिक प्रयोग से संबंधित भी एक स्नातकोत्तर डिप्लोमा सम्मिलित है। यही नहीं विशेष रूप से हिंदी पुस्तकालयों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालय विज्ञान का भी डिग्री पाठ्यक्रम आरंभ किया जा रहा है।


उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में आरंभ किए जा रहे इस अभियान को मूर्त रूप देने के लिए 1 नवंबर 2008 से 9 नवंबर 2008 तक पाठ्य सामग्री लेखन के लिए ‘हैदराबाद’ में नौदिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला का उद्घाटन करते हुए ‘स्वतंत्र वार्ता’ दैनिक के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने ठीक ही कहा कि जनसंचार हो या भाषा, बात तो हम मनुष्य की ही करते हैं। दोनों का लक्ष्य मनुष्य और समाज का विकास तथा अपनी परंपरा की समृद्धि करना है। उन्होंने कहा कि मीडिया पीढ़ी को बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है इसलिए जागरण और वैज्ञानिक सोच के प्रसार में समाचार पत्रों से लेकर चैनलों तक की भूमिका असंदिग्ध है। डॉ.. शुक्ल ने अत्यंत वेदनापूर्वक यह बात कही कि आज का हिंदी अखबार बहुत गैरजिम्मेदार हो गया है, उसे व्यावसायिकता के साथ-साथ जन शिक्षा की अपनी जिम्मेदारी को भी ध्यान में रखन होगा। उन्होंने मीडिया की भाषा में अराजकता पर भी चिंता प्रकट की और कहा कि हमें ऐसे मीडिया कर्मियों की आवश्यकता है जिनकी भाषाई क्षमता और अभिव्यक्ति की दक्षता पाठक, श्रोता और दर्शक को हिंदी मीडिया की तरफ आकृष्ट करे और हिंदी भाषा की समृद्धि में भी योगदान करे।


यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों से आनेवाले मीडिया कर्मी इस व्यवसाय की अन्य योग्यताओं से सज्जित होने के साथ-साथ यदि सुथरी और प्रवाहपूर्ण हिंदी के प्रयोग में दक्ष नहीं होंगे, तो हिंदी मीडिया प्रतिस्पर्धा की दौड़ में पीछे छूट जाएगा। इसीलिए ऐसे व्यवहार केंद्रित पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है जो हिंदी के सटीक और प्रभावी प्रयोग में दक्ष मीडिया कर्मी तैयार कर सकें। इसमें संदेह नहीं कि निरंतर प्रसार शील मीडिया जगत में रोजगार की अनंत संभावनाएँ हैं, परंतु हिंदी के पारंपरिक पाठ्यक्रम छात्रों को इनके लिए तैयार नहीं करते। ऐसे में विशेष रूप से दक्षिण भारत में हिंदी के माध्यम से रोजगार परक पाठ्यक्रमों को चलाने के दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अभियान में मीडिया केंद्रित पाठ्यक्रम नए आयाम की वृद्धि करने वाले हैं। आमतौर से यह शिकायत की जाती है कि भाषा का अध्ययन करने वाले लोग घट रहे हैं, परंतु कुल सचिव प्रो. दिलीप सिंह ने इस कार्यशाला के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए यह विस्मयकारी जानकारी दी कि दक्षिण भारत में हिंदी का उच्च स्तरीय अध्ययन और शोध करनेवाले छात्रों की संख्या निरंतर बढ़ रही है क्योंकि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में हिंदी भाषा और साहित्य के पिटेपिटाए पाठ्यक्रमों से अलग रोजगारपरक और प्रयोजनमूलक पाठ्यक्रमों पर बल दिया जाता है। प्रो. सिंह ने जोर देकर कहा कि हिंदी के पाठ्यक्रमों को केवल साहित्य तक सीमित रखना हिंदी के हित में नहीं है इसलिए सभी विश्वविद्यालयों को अपने पाठ्यक्रमों में रोजगारपरकता का समावेश करना ही होगा। नए पाठ्यक्रमों की प्रकृति के संबंध में उन्होंने बताया कि इनके माध्यम से हिंदी की बहुविध भाषाई छवि को उभारने का प्रयास किया जाएगा और भाषा को सुथरा तथा लोकप्रिय रूपाकार देने में मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया जाएगा। इन पाठ्यक्रमों को अद्यतन बनाने के लिए इंटरनेट तक को समाहित करने की बात करते हुए कुलसचिव ने कहा कि भूमंडलीकरण और उद्योगीकरण से जुड़े बाज़ारवाद के प्रभाव से सामने आए परिवर्तित भाषा परिवेश को इन पाठ्यक्रमों में विशेष स्थान दिया जा रहा है ताकि विज्ञापन, धारावाहिक, रिपोर्टिंग, एंकरिंग और विषय आधारित कार्यक्रमों के अलग-अलग विशिष्ट भाषा रूपों के प्रयोग में छात्रों को प्रशिक्षित किया जा सके। इन विभिन्न भाषा रूपों के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए मल्टीमीडिया की सामग्री के उपयोग पर विशेष ध्यान देने की बात भी उन्होंने कही।


दरअसल जब हम हिंदी शिक्षण की बात करते हैं तो प्रायः अपने आपको हिंदी के शिक्षण तक; भाषा या साहित्य तक सीमित कर लेते है, जब कि ध्यान देने वाली बात यह है कि वैश्विक तो क्या राष्ट्रीय स्तर तक पर हिंदी की व्याप्ति में हिंदी के शिक्षण भर से कोई बड़ी मदद नहीं मिलती। इस तथ्य की ओर इशारा करते हुए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) से पधारे प्रो. सत्यकाम ने कहा कि महत्वपूर्ण बात हिंदी शिक्षण नहीं बल्कि ‘हिंदी माध्यम से शिक्षण’ की है। इसके लिए हमें ऐसे अध्यापकों और मीडिया कर्मियों की आवश्यकता है जो माध्यमों पर अच्छी हिंदी लिख और बोल सकें। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि ये नए पाठ्यक्रम इस जरूरत की पूर्ति कर सकेंगे ।


कवि और शिक्षाविद डॉ.. हीरालाल बाछोतिया ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को इस बात के लिए बधाई दी कि हिंदी को रोजगार से जोड़ने तथा हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी माध्यम से शिक्षा देने की दृष्टि से आरंभ किए जा रहे ये पाठ्यक्रम हिंदी प्रचार के अर्थ को नया विस्तार और आधुनिक संदर्भ देने वाले सिद्ध होंगे।


उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष तथा आर्ट्स कॉलेज के प्राचार्य प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने भी इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वालों के लिए अब अध्यापन का क्षेत्र रूढ़ बन चुका है, या कहें चुक गया है, दूसरी ओर संचार माध्यम का क्षेत्र अत्यंत खुला और विस्तृत है जिसके लिए संचारमुखी अच्छी हिंदी लिखनेवाले पत्रकारों की सब जगह जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि आज यह बात समझना बहुत जरूरी है कि साहित्य का अध्ययन संस्कृतिमुखी होता है जब कि मीडिया के लिए भाषामुखी अध्ययन की अपेक्षा की जाती है। इस दृष्टि से जनसंचार और मल्टी मीडिया पर केंद्रित पाठ्यक्रमों की समसामयिकता और प्रासंगिकता असंदिग्ध है।


हिंदी में जनसंचार और बहुसंचार माध्यमों के शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रासंगिकता बताते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आन्ध्र के सचिव के. विजयन ने कहा कि दक्षिण भारत में अब हिंदी के कई अखबार प्रकाशित होने लगे हैं। सभा के केंद्रों से भी कई महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। इनके लिए लिखने में प्रायः छात्र संकोच करते हैं क्योंकि उन्हें इस काम के लिए प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। इस तरह के पाठ्यक्रम उनमें लिखने का उत्साह जगाएंगे। सभा के सैकड़ों हिंदी शिक्षक भी यह सीख सकेंगे कि हिंदी पढ़ाते समय प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वे जनसंचार माध्यमों का उपयोग किस तरह कर सकते हैं।


यह बात फिर से कहने की जरूरत है कि हिंदी भाषा के विकास की प्रक्रिया में जनसंचार माध्यमों की भूमिका आधुनिक भारत के निर्माण से आबद्ध रही है। आज यह प्रक्रिया बहुत तेज़ हो चुकी है। सिनेमा, टी.वी. चैनलों, रेडियो कार्यक्रमों में ही नहीं, लिखित माध्यमों में भी हिंदी का पैन-इंडियन रूप अब विकसता दिखाई पड़ रहा है। भाषा-विकास की प्रक्रिया में ‘भाषा शुद्धता’ की दुहाई का अब कोई मतलब नहीं है। समय और ज़रूरतें भाषा मिश्रण को सहज में अपना लेती हैं। हिंदी भाषा आदान-प्रदान को बढ़ावा देने वाली भाषा है। इस तथ्य को जनसंचार माध्यम किस तरह अपना रहे हैं, इसे दोनों पाठ्यक्रम पर्याप्त डाटा एकत्रित करके देने को प्रयासरत हैं। जागरूक भाषा प्रयोक्ता ही सफल संप्रेषक हो सकता है, इस सच्चाई को दुहराने की ज़रूरत शायद नहीं है।


नौ दिन की इस कार्यशाला में विभिन्न क्षेत्रों से आए प्रतिभागियों में वाराणसी से डॉ. रामप्रवेश राय, डॉ. प्रभाशंकर मिश्र, ग्वालियर से डॉ.. सत्यकेतु सांकृत, एरणाकुलम (केरल) से डॉ. नारायण राजू, डॉ. पी. राधिका, डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी, डॉ. बिष्णुराय, डॉ. मंजुनाथ, डॉ. आषा, पी.वी. प्रियेष, चेन्नई से डॉ. निर्मला एस. मौर्य, डॉ. सविता, डॉ . नज़ीम बेगम, डॉ . एन. लक्ष्मी, पी. श्रीनिवास राव, सतीश कुमार श्रीवास्तव, धारवाड से डॉ . अमर ज्योति, डॉ . सुनीता मंजनबैल, डॉ . जयलक्ष्मी,डॉ . रेशमा नदाफ, एम.हंसी तथा हैदराबाद से डॉ . एम.वेंकटेश्वर राव, डॉ.. गरिमा श्रीवास्तव, डॉ.आलोक पांडेय, प्रो. वी. चंद्रशेखर राव, डॉ. . वेंकटरमणा, प्रो. विश्वमोहन, प्रो. टी.वी. कट्टिमणि, डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल, डॉ . मृत्युंजय सिंह, डॉ. जी. नीरजा,डॉ. बलविंदर कौर, जी.आर. भगवंत गौडर और कार्यशाला संयोजक डॉ. ऋषभदेव शर्मा सम्मिलित रहे।


इस नौ दिवसीय कार्यशाला का समापन समारोह 9 नवंबर, 2008 को संपन्न हुआ। इस अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कुलपति तथा आंध्र प्रदेश सरकार के सलाहकार सी.सी. रेड्डी ने उपस्थित होकर आयोजकों, विशेषज्ञों और सामग्री लेखकों को इस उपलब्धिपूर्ण कार्यशाला की सकुशल संपन्नता पर बधाई दी। उन्होंने कहा कि ‘‘शिक्षा के संबंध में आधुनिक काल में व्यापक चिंतन हुआ है। आज यह माना जाता है कि शिक्षा की प्रक्रिया सहज और प्रीतिकर होनी चाहिए। शिक्षा को रोचक और आकर्षक बनाने के लिए अच्छे अध्यापक और अच्छी शिक्षण सामग्री की आवश्यकता होती है। इसके लिए अच्छा प्रशिक्षण भी चाहिए। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सुरुचिपूर्ण शैक्षणिक कार्यक्रमों की आवश्यकता से भी इनकार नहीं किया जा सकता।’’


कुलपति महोदय ने 21वीं शताब्दी में शिक्षा और जनसंचार के विकासशील स्वरूप और बदलते हुए रिश्तों की चर्चा करते हुए यह कहा कि वर्तमान समय में मल्टीमीडिया का क्षेत्र तेज़ी से बढ़ रहा है और हिंदी पढ़े-लिखे लोगों के लिए इस क्षेत्र में रोजगार की विपुल संभावनाएँ हैं। उन्होंने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा इन संभावनाओं को पहचान कर जनसंचार, बहुसंचार, पुस्तकालय विज्ञान तथा सूचना विज्ञान के नए-नए पाठ्यक्रमों को आरंभ किया जा रहा है। उन्होंने भूमंडलीकरण के आधुनिक दौर में देश में नए सिरे से पनप रही अलगाव वादी प्रवृत्तियों पर घोर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि ऐसे में संपूर्ण राष्ट्र को जोड़नेवाली शक्ति के रूप में हिंदी के प्रचार को नई दिशा देने की जरूरत है।


इस अवसर पर सी.सी. रेड्डी ने संस्थान के कुलसचिव और भाषाविद् प्रो. दिलीप सिंह की नवीनतम प्रकाशित कृति ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ का लोकार्पण भी किया। लेखक को शुभकामना देते हुए उन्होंने संभावना व्यक्त की कि यह पुस्तक हिंदी के अध्ययन और अध्यापन को नई दृष्टि प्रदान करेगी । समापन समारोह के विशेष अतिथि डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने प्रो. दिलीप सिंह की पुस्तक को संस्कृति और साहित्य शिक्षण पर केंद्रित हिंदी की पहली प्रामाणिक पुस्तक बताया। डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने कहा कि प्रो. दिलीप सिंह की इस पुस्तक में यह प्रतिपादित किया गया है कि संप्रेषण भाषाशिक्षण का केंद्रबिंदु है। उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि लेखक ने भाषा को मनुष्य के समाजीकरण का ऐसा माध्यम माना है जिससे वह पल-पल आबद्ध है।


डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने पुस्तक का परिचय देते हुए कहा कि प्रो. दिलीप सिंह की यह कृति भाषा, साहित्य और संस्कृति के त्रिक की साधना के लिए गीता की भाँति अध्ययन, मनन और चिंतन के योग्य है। उन्होंने नौ दिन की कार्यशाला के संबंध में यह जानकारी दी कि इस अवधि में लगभग 40 विशेषज्ञों और सामग्रीलेखकों ने तीन अलग-अलग पाठ्यक्रमों के लिए लगभग दो सौ शिक्षण इकाइयों की रूपरेखा और शिक्षण बिंदुओं का निर्धारण और लेखन कार्य किया।


डॉ॥ एम।वेंकटेश्वर (हैदराबाद), डॉ। सुनीता मंजनबैल (धारवाड), डॉ. रामप्रवेश राय (वाराणसी) और डॉ॥ जी. नीरजा (हैदराबाद) ने कार्यशाला के प्रतिभागियों की ओर से बोलते हुए इस प्रकार के रोजगारपरक पाठ्यक्रमों की उपादेयता की चर्चा की और कहा कि इस महत्वपूर्ण कार्य से जुड़ना निश्चय ही संतोष और गौरव का विषय है। -


- ऋषभ देव शर्मा,
आचार्य एवं अध्यक्ष ,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
हैदराबाद-500 004

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