एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी - प्रभु जोशी (अंतिम भाग)

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एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी
प्रभु जोशी


आँख खुली, तब सुबह हो चुकी थी। धूप चढ़ने लगी व चढ़ती चली गयी। मगर अमि नहीं उठी। रम्मी ऊपर आकर आवाज़ देने लगा। उसके जी में आया कि वह जवाब ही न दे और न ही दरवाज़ा खोले। आखि़ उठना ही पड़ा। झुंझलाहट में भरकर सिटकनी हटायी। पापा खड़े थे। अमि घबरा-सी गयी। यह पहला मौका था, जब पापा ने उसे ख़ुद उठाया था,‘‘अमि, क्यों क्या बात है, तबीयत तो ठीक है ?’’ पापा ने अतिरिक्त रुचि ली। अमि और भी अधिक असहज हो उठी। लड़खड़ाते हुए बोली-‘‘जी, नहीं, पापा जी, ...जी ठीक है।’’ पापा लौट गये। वह आगे कुछ बोले इसके लिए जगह ही नहीं बनने दी, उन्होंने। अमि सोचती रही। पहले तो पापा ने कभी नहीं पूछा कि अमि क्या करती है ? कैसी है ? अब ये आरोपित चिंताएँ, आरोपित आत्मीयता क्यों ? आखि़र क्यों ? यह अतिरिक्त परवाह और प्यार क्यों ?

अमि बेमन से नहाई। तैयार हुई और कॉलेज चली गई। यह वही महीना था, जब हवा ख़ुद ठिठुरती तथा ठिठुराती हुई घूमने लगती है। चारों तरफ। ऊपर-नीचे। बाहर-भीतर। लड़कियों की गुलाबी ऐड़ियों को दरकाती हुई। कॉलेज की लैब्स में शुरू हो जाती हैं, प्रैक्टिकल एक्साम्स की तैयारियाँ। कैम्पस में चारों ओर यूकेलिप्टस के पत्ते शाखों और टहनियों से अलग होकर उड़ने लगते हैं।

कॉलेज में कैमिस्ट्री व फिजिक्स के तो पीरियड्स भी अटैण्ड नहीं किए। देर तक लायब्रेरी की अल्मारियों और शेल्फों में कहानियों की किताबें उलटती-पलटती रही- फिर लेबोरेट्री में बैठ कर रिकार्ड बुक्स में डायग्राम्स बनाती रही। घर के लिए कॉलेज से ही देर से निकली। पापा, लोकेश व मिसेज नरूला रोज़ की तरह लॉन की अंतिम व दम तोड़ती धूप में बैठे बतिया रहे थे। रम्मी पौधों को पानी दे रहा था। वह उनकी उपस्थिति की उपेक्षा करती हुई
अपने कमरे की ओर जाने लगी। पापा ने आवाज़ दी। पापा की आवाज़ अमि को हमेशा आदेश लगती है। आदेश भी नहीं सिर्फ कॊशन । अमि चुपचाप उन लोगों के पास पहुँच गयी।


मिसेज नरूला पूछ बैठी, ‘‘अमिया, लोकेश और हम अंग्रेज़ी-पिक्चर देखने जाने की सोच रहे हैं, तुम भी चलोगी न ! गर्ल ऑन मोटर साइकिल।’’

अमि न कर गयी। पापा के चेहरे की ओर देखा। पापा का चेहरा एकदम सख़्त व आँखों में वर्जना की लाल रेखाएँ खिंच उठी थीं-जैसे, कहना चाहते हों कि वह ख़ुद के विषय में निर्णय लेने वाली ख़ुद कौन ? अमि अपने नकारात्मक उत्तर को लेकर भयभीत-सी हो उठी। हाय ! पापा के सामने वह ऐसा कैसे कह गयी। अमि ने अत्यन्त दयनीय मुद्रा में, अपराधी-मन से सफाई पेश करना चाही कि उसके कॉलेज में आज फंक्शन था। सो काफी थक गयी है। मगर, पापा ने उसका वाक्य भी पूरा कहाँ होने दिया। बीच में ही बोले-‘‘रहने दीजिए, मिसेज नरूला, इसके लिए तो इसके कमरे से बढ़ कर दुनिया में कोई भी चीज़ बेहतर नहीं है। चलिये हम चलते हैं।’’ और इन शब्दों के साथ पापा उठ कर अंदर कपड़े बदलने चले गये। तेज़ कदमों से। उनके कदम, कदम नहीं लग रहे थे, बल्कि जैसे मोर्चे की तरफ लपकता कोई बंदूक धारी हो।


अमि का मन डूब-सा गया। हाय, अब वह क्या करे। पापा को कहे कि नहीं, वह जाने को तैयार है या रोने लग जाये। पता नहीं, वह वाक्य कहते समय पापा का चेहरा कैसा विकृत व क्रूर रहा होगा। अमि केवल गर्दन नीचे किये लॉन की घास देखती रही और सामने की कुर्सियों पर बैठे लोकेश व मिसेज नरूला के अस्तित्व का तीखा व व्यंग्यात्मक एहसास करती रही। जूतों की आहट लौट आयी। पापा तैयार होकर लौट आये थे। तीनों हँसते हुए गेट की ओर बढ़ गये। अमि भीतर की तिलमिलाहट दबाये वहीं उसी मोढ़े में धँसी रही। कार की भरभराहट.... गेट छूटा.... और तीनों दूर हो गये। अमि चुपचाप थके कदमों से, आँखों का गीलापन लिये ऊपर अपने कमरे में आ गयी। कमरे में लौटना उसे अपने में लौटना लगता है। वह पलंग से सटी दीवार से पीठ टिका कर, काफी देर तक निर्विकार सी बैठी रही। उसके दिमाग में दीवार के उस पार का कमरा घूमता रहा, जो कभी माँ का था और जिसमें माँ की किताबें और कपड़ों की अल्मारियाँ थीं-जिन्हें वह आज तक नहीं देख पाई। उसे माँ की याद आई और आने लगी उसी के साथ ऊपर उठती हुई एक अदीप्त व्यथा, जिसको उसने कच्ची उम्र से ही अंतस के अछोर अंधेरे में रख छोड़ा था। सामने की खिड़की से अंधेरा और हवा का झोंका एक साथ दाख़िल हो रहा था, जिसमें दीवार पर लटका कैलेण्डर हिल रहा था- उसकी निगाह 28 फरवरी पर रूक गई, जिसे उसने स्याही से लाल घेरे में क़ैद कर दिया था। यह माँ की मृत्यु की तिथि थी- पापा, इस दिन प्रतिवर्ष मोमबत्ती जलाते हैं। उसने माँ के प्रति आर्द्रता के साथ सोचा-’काश माँ ने 29 फरवरी को आत्महत्या की होती तो उसकी पुण्यतिथि चार साल बाद आती। पापा को चार साल तक मोमबत्तियाँ जलाने से मुक्ति मिली रहती।


एक तेज़ भरभराहट। गाड़ी गैराज़ में रखी जा रही है। टिक-टिक, मिसेज नरूला के हाई-हील के सैंडल और इसी स्वर के साथ रिटायर्ड आई.पी.एस. अफसर के जूतों का ठण्डा मार्चिंग स्टेपवाला स्वर। शायद लोकेश नहीं है। फिल्म से लौट आये हैं। रात काफी बीत चुकी है।


अमि की आँख अभी तक नहीं लगी। फिर काफी देर तक ड्राइंग-रूम से बातचीत के अस्पष्ट-स्वर रात की ठण्डी और बेआवाज़ हवा में फैलते रहे। अमि के भीतर एक अज़ीब-सा सी.आई.डी. उभर आया। एकबारगी तो इच्छा हुई कि दबे-पाँव जीने में जाकर सुने कि आखि़र ये लोग क्या बातें करते हैं ? मगर, यह सिर्फ सोच ही पायी। उस स्थिति में
पापा द्वारा पकड़े जाने के बाद की कल्पना ने अमि के ज़िस्म में एक गहरा लिजलिजा कम्पन पैदा कर दिया। फिर कुछ देर बाद सब कुछ चुप। सब दूर अंधेरा। अमि के मन में भय की एक वीभत्स आकृति उभर कर बुरी तरह छाने लगी। उसकी इच्छा हुई कि बेड-स्विच ऑन कर के ख़ुद को स्वस्थ कर ले। मगर, ऐसे में उसका अभी तक जागते रहना उजागर हो जायेगा। अमि ने कँपकँपी रोकते हुए रज़ाई के पल्ले से कस कर ख़ुद को सुरक्षित अनुभव करने की कोशिश की। उसे अक्सर ऐसे त्रस्त क्षणों में भैया की याद आती है। वह आज कॉलेज में आये, भैया के खत की पंक्तियाँ दुहराने लगी, ‘‘अमि, तू चाहे तो एकाध हफ़्ते के लिए यहाँ चली आ न ! बम्बई देख-दाख कर लौट जाना।’’ अमि को भैया के चेहरे की आग्रह करती प्यारी-प्यारी मुद्राएँ याद आने लगीं। वह ज़रूर जायेगी। लेकिन, क्या पापा
उसके प्रस्ताव को अनुमति दे देंगे....? यह सवाल बार-बार अमि के उत्साह पर चोट करने लगा। ज़्यादा से ज़्यादा डाँटेंगे ही न ? भैया कहा तो करते थे-’डाँट पापा के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अध्याय।’


और अब अमि घर से भी कतराने लगी थी। ‘घर’ शब्द उसके लिए निहायत ही त्रासद व अर्थहीन हो गया था। घर से कॉलेज के लिए निकलते समय, क्षण भर के लिए उसे लगता कि वह घुटते दायरों में से एक अज़नबी फैलाव के सुखद व आकारहीन अंतराल में आ गयी है। मगर, कुछ मिनटों बाद ही उसे कॉलेज भी एक तहख़ाना लगने लगता। धीरे-धीरे घर और कॉलेज दोनों से ही उसकी आसक्ति टूटने लगी थी। हर समय भैया के पास जाने का
ख़याल मँडराता रहता।


और आज एक हफ़्ते बाद कॉलेज गयी। आज भी न जाती, मगर, पापा ने पता नहीं किसे ‘इनवाइट’ किया था, जो सुबह से ही ‘ड्राइंगरूम’ को व्यवस्थित करने में लगे थे। पापा के परिचितों के बीच अमि हमेशा हीन-भाव से भर उठती है। पापा ने कॉलेज लिए निकलते समय आदेश दिया कि वह ठीक समय पर कॉलेज से लौट आये। अमि हामी में सिर हिला कर कॉलेज आ गयी।

अब पीरियड में बैठे-बैठे भी बोर होने लगी, तो उठ कर लायब्रेरी में आ गयी। वहाँ भी मन न लगा, तो कॉमन रूम में आ गयी। कॉमन रूम में पहुँचते ही अमि खिल उठी। बोर्ड पर उसके नाम का ख़त था। अमि ने बेकाबू उत्सुकता के साथ निकाल लिया। अमि के चेहरे पर फैली इतनी असामान्य उत्सुकता को देख कर पास ही बैठे लड़कियों के झुंड में से एक ने फब्ती कसी-‘‘कहो, अमि डियर, किसे उलझा रखा है, जो ख़त पर ख़त दागता रहता है ? घर के बजाय कॉलेज के पते पर।’’ अमि बिंध-सी गयी। एक चुप्पी थी, एक मौन था, जिसके भीतर कोई तीखी और धारदार चीज़ घोंप दी हो। जी में आया कि बढ़कर तड़ाक् से एक थप्पड़ जमा दे। मगर, सिर्फ ग्लानि-पूरित मन से उनकी तरफ देखती हुई बाहर निकल आयी।


बाहर आ कर उसने ख़ुद को फिर फटकारा कि उसने उस लड़की को डाँट क्यों नहीं दिया। आखि़र, इस प्रकार सब कुछ चुपचाप सहते जाना व एक घोंघे की जिंदगी में क्या फर्क़ रह जाता है ? वह, मुँह में ज़ुबान रखते हुए भी इतनी गूँगी क्यों है ? क्यों नहीं चीख़ पड़ती ? अमि की आँखें डबडबा आयीं। बहुत धीमे से भीतर खौलती वेदना को काबू करने की कोशिश में होठों का एक कोना दाँतों के नीचे दबा लिया और चुपचाप ख़त खोलने लगी। ख़त खोला, तो पता चला कि आठ दिन पहले का लिखा हुआ है। भैया ने बीमार रहते हुए लिखा था। वह आ जाये। उनकी अपनी छोटी बहन अमि से मिलने की बहुत इच्छा है। अमि पढ़ कर विचलित-सी हो उठी। मन शंका-कुशंकाओं की लहरों पर डूबने-उतराने लगा। वह तेज कदमों से टैक्सी स्टैंड पर आ गयी।कॉलेज से घर के रास्ते के बीच पूरे समय आँसुओं को रोकने की कोशिश करती रही। ड्रायवर न उसे सामने के मिरर में रोते देख लिया, तो अमि ने पर्स से गॊगल्स् निकाल कर आँखों पर चढ़ा लिये। अवचेतन में जमे, भैया से जुड़े न जाने कितने ममत्व भरे संदर्भ उभरते रहे। लगा, जैसे वे तेज़ बुखार में हैं और उसका नाम बड़बड़ा रहे हैं।


घर आते ही किराया चुका कर सीधी तेज़ कदमों से अपने कमरे में चढ़ आयी। अमि ने अंदर पहली बार पापा के सामने ख़ुद का निर्णय सुनाने का साहस भर आया था। ज़ल्दी से सूटकेस निकाल कर अपने तमाम ज़रूरी कपड़े जमा लिये। आंसुओं से तरबतर आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे खौलते खारे पानी में दो कच्ची कलियाँ उबल रही हों। बार-बार ख़त में भैया के हर्फ़ों से निकलकर एक आहत आग्रह आ रहा था।

पूरा सूटकेस तैयार हो गया।

अमि ने सूटकेस बंद करके एक गहरी साँस लेकर फेफड़ों में साहस भरने की कोशिश की। तभी उसने नीचे से पापा की गरजती आवाज़ सुनी। वे रम्मी को पता नहीं कौन-सी बात पर डाँट रहे थे, ‘‘नानसेंस, तुम्हें इतना नहीं समझता कि मेहमान आ रहे हैं, और तुमने इम्पोर्टेड ग्लास का फ्लावर पॊट तोड़ दिया, ब्लडी रास्कल।’ फिर एक आवाज़ आई सटाऽक !।’’ जैसे पुलिस के अधिकारी ने अपराधी से मनचाहा उत्तर पाने के लिए उसके जबड़े पर जड़ दिया
हो, ज़ोरदार तमाचा।


अमि भीतर ही भीतर डूबने लगी। रम्मी को थप्पड़ मारने के बाद, अब पापा फनफनाते ऊपर आ रहे हैं। यह सीढ़ियों पर गिरते बूटों की पदचापों से स्पष्ट हो रहा था। अमि के भीतर क्षण भर में ढेर सारी उथल-पुथल मच गयी। लो पापा आ ही गये। आते ही अपनी उस तिक्तता से भरे, स्वर में बोले। बोले नहीं, जैसे बस उसे आदेशित किया - ‘‘अमि, ज़रा ज़ल्दी से तैयार होकर नीचे आओ, हमें लोकेश के पापा-मम्मी को लिवाने स्टेशन चलना है।’’ पापा जिस तेजी से ऊपर आये थे, ठीक उसी तेज़ी से नीचे उतर गए। अपने बूटों की पदचापों के साथ।


अमि की समझ में ही न आया कि अब वह क्या करे ? सूटकेस का एक-एक कपड़ा निकाल कर फेंक दे या ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर रोना शुरू कर दे या ममी की तरह दौड़ कर टैरेस से फ्लैट के पिछले पथरीले फर्श पर कूद पड़े। फरवरी की एक और तारीख कैलेण्डर में फिर घिर जाएगी, लाल स्याही से, मोमबत्ती जलाने के लिए। अमि रोते-रोते साड़ी बदलने लगी। साड़ी बदलते हुए, इस पल में भी उसके सामने सब कुछ गड्डमड्ड था। यह भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं था कि साड़ी बदल कर, जब सीढ़ियाँ उतरेगी तो वह सूटकेस को हाथ में लेकर उतरेगी कि सूटकेस को वहीं छोड़कर।


4, संवाद नगर,
इन्दौर (म.प्र.)
भारत

आगामी अंक में पढ़ें - पहली कहानी के लिखे जाने की कहानी : प्रभु जोशी की ज़ुबानी







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