आतंकवाद : मुस्लिम, क्रिश्चियन, तालिबान, सिख, हिन्दू ?






राजकिशोर जी का यह लेख वर्तमान परिस्थितयों में विचार को मथने पर बल देता है| जब बार बार आतंकवाद को सम्प्रदाय से अलग रखने की बात की जाती रही है, उसे अलग रखा भी/ही गया, फिर वे क्या कारण हैं कि यकायक महीने भर की कवायद में आतंकवाद को नाम दे दिए गए, सम्प्रदाय से जोड़ कर अभिहित किया जाने लगा? व्यक्ति को ऐसे खानों में देखने की मानसिकता का जो विरोध सदा से होता आया है, उसे क्यों नहीं बनाए रखे जाने की आवश्यकता को दुहराया जाता? क्या कारण हैं कि इस देश में हर चीज को साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है, सांप्रदायिक बदले चुकाए निबाहे जाते हैं? कब मुक्ति मिलेगी देश को ? क्या तब जब पूरा देश आतंकवादियों के सर्वग्रासी पेट का निवाला बन चुका होगा? प्रश्न बहुत -से हैं, उनका बार बार उठाया जाना आत्ममन्थन के लिए जागृति के लिए बहुत आवश्यक है ; वरना सोए हुए स्वार्थ लिप्त देश का जन-जन ऐसा आत्मकेंद्रित सुषुप्ति में चला जाएगा कि लुटेरे घर लूट कर ले जाएँगे| ऐसे ही आत्ममंथन को प्रेरित करते इस लेख को पढ़ें अपनी राय से अवगत कराएँ कि सभ्यता की 3 कसौटियों पर पिछडे इस देश की ऐसी पातक दशा का दायित्व कौन लेगा ? किस किस का है ? व्यक्ति-विशेष का? वर्ग- विशेष का ? मेरा ? आपका ? या फिर किसी और का ?
- कविता वाचक्नवी



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राग दरबारी


हिन्दू और आतंकवाद
राजकिशोर



कोई भी देश कितना सभ्य है, यह जानने की तीन साधारण कसौटियाँ हैं -- रेलगाड़ी रुकने पर चढ़नेवाले और उतरनेवाले एक-दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, सड़कों पर गाड़ियों का आचरण कैसा है और सार्वजनिक शौचालयों की हालत कैसी है। हाल ही में पहले और तीसरे अनुभव से मेरा पाला पड़ा। अब मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमने अभी तक सभ्य होने का सामूहिक फैसला नहीं किया है।


पिछले हफ्ते की बात है। जब मैं किसी तरह अपने डिब्बे में चढ़ गया और अपनी सीट पर कब्जा करने के लिए विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ा, तो मैंने महसूस किया कि आज मेरी किस्मत अच्छी है। आमने-सामने की तीनों सीटें भरी हुई थीं। रेलगाड़ी के चलते ही सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन ने एक दैनिक पत्र निकाल कर अपने सामने फैला दिया, जैसे हम सिर पर छाता तानते हैं। एंकर की जगह पर एक बड़ा-सा शीर्षक चीख रहा था : हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता - राजनाथ सिंह। मेरे बाईं ओर बैठे सज्जन खिल उठे। पता नहीं किसे संबोधित करते हुए वे बोले, ‘एकदम ठीक लिखा है। हिन्दू को आतंकवादी होने की जरूरत क्या है? यह पूरा देश तो उसी का है। वह क्यों छिप कर हमला करेगा? यह तो अल्पसंख्यक करते हैं। पहले सिख करते थे। अब मुसलमान कर रहे हैं।’


अखबार के स्वामी को लगा कि उन्हें ही संबोधित किया जा रहा है। उन्होंने लाल-पीला किए गए न्यूजप्रिट के पीछे से अपना सिर निकाला, ‘तो क्या साध्वी प्रज्ञा सिंह और उनके सहयोगियों के बारे में पुलिस जो कुछ कह रही है, वह गलत है? साध्वी ने तो अपना बयान मजिस्ट्रेट के सामने दिया है। अब वह इससे मुकर भी नहीं सकती।’


बाईं और वाले सज्जन का मुंह जैसे कड़वा हो आया। फिर कोशिश करके हंसते हुए वे बोले, ‘अजी, यह सब मनगढ़ंत बातें हैं। पुलिस पर यकीन कौन करता है? उससे जो चाहो, साबित करा लो।’


सामनेवाले सज्जन, ‘चलिए फिलहाल आपकी बात मान लेते हैं। क्या आप मेरे एक सवाल का जवाब देंगे?’
‘जरूर। क्यों नहीं। कुछ वर्षों से सबसे ज्यादा सवाल हिन्दुओं से ही किए जा रहे हैं। मुसलमानों और ईसाइयों से कोई कुछ नहीं कहता।’

‘अच्छा, यह बताइए कि हिन्दू गुंडा हो सकता है या नहीं?’

कुछ क्षण रुक कर, ‘हिन्दू गुंडा क्यों नहीं हो सकता? गुंडों की भी कोई जात होती है?’

‘तो यह भी बताइए कि हिन्दू शराबी-कबाबी हो सकता है कि नहीं?’

बगलवाले सज्जन मुसकराने लगे, ‘आपने कहा था कि आप सिर्फ एक सवाल पूछेंगे।’

सामनेवाले सज्जन, ‘अजी, ये सारे सवाल एक ही सवाल हैं। तो, हिन्दू शराबी-कबाबी हो सकता है या नहीं?’

‘हो सकता है, बल्कि हैं। इसीलिए तो हिन्दू समाज को संगठित करने की जरूरत है, ताकि वह मुसलमानों और अंग्रेजों से ली गई बुराइयों को रोक सके।’

अखबारवाले सज्जन के दाई ओर बैठे सज्जन ने मुसकराते हुए हस्तक्षेप किया, ‘सुना है, अटल बिहारी वाजपेयी को शराब पीना अच्छा लगता है। वे मांस-मछली भी खूब पसंद करते हैं।’

मेरे बाईं ओर वाले सज्जन, ‘इस बहस में व्यक्तियों को क्यों ला रहे हैं? खाना-पीना हर आदमी का व्यक्तिगत मामला है।’

अखबारवाले सज्जन, खैर, ‘इसे छोड़िए। यह बताइए कि हिन्दू चोर या डकैत हो सकता है या नहीं?’
‘हो सकता है।’

‘क्या वह वेश्यागामी भी हो सकता है?’

‘......................................’

‘क्या वह बलात्कार भी कर सकता है?’

‘.....................................’



‘जब हिन्दू यह सब कर सकता है, तस्करी कर सकता है, लड़कियों को भगा कर दलालों को बेच सकता है, बच्चों के हाथ-पांव कटवा कर उनसे भीख मंगवा सकता है, किडनी खरीदने-बेचने का बिजनेस कर सकता है, हत्या कर सकता है, दहेज की मांग पूरी न होने पर अपनी नवब्याहता की जान ले सकता है, तो वह आतंकवादी क्यों नहीं हो सकता?’


यह सुन कर मेरे पड़ोसी हिन्दूवादी मित्र तमतमा उठे, ‘आप कहीं कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट तो नहीं हैं? या दलित? यही लोग हिन्दुओं की बुराई करते रहते हैं। जिस पत्तल में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। आप जो बुराइयां गिनवा रहे हैं, वे दुनिया में कहां नहीं है? हमारा कहना यह है कि भारत में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। फिर भी उनकी उपेक्षा की जा रही है। उन्हें वेद-शास्त्र के अनुसार देश को चलाने से रोका जा रहा है। इसलिए हिन्दू अगर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हथियार भी उठाता है, तो इसमें हर्ज क्या है? लातों के देवता बातों से नहीं मानते।’


अब अखबारवाले सज्जन के बाईं ओर बैठे सज्जन तमतमा उठे, ‘हर्ज कैसे नहीं है? हर्ज है। अगर देश के सभी धर्मों के लोग, सभी जातियों के लोग, सभी वर्गों के लोग, सभी राज्यों के लोग देश में अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए हथियार उठा लें, तो गली-गली में खून नहीं बहने लगेगा? उसके बाद क्या भारत भारत रह जाएगा? फिर कौन कहां अपना वर्चस्व कायम करेगा?’

‘आप लोग हिन्दू-विरोधी हैं। आप लोगों से कोई बहस नहीं की जा सकती।’

तभी मुझे लघुशंका लग गई। ट्वायलेट में घुसा, तो भीतर का दृश्य सुलभ शौचालय के प्रणेता बिंदेश्वरी पाठक को चीख-चीख कर पुकार रहा था। मेरे मन में सवाल उठा, जब हम रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों का खयाल नहीं रख सकते, तो बड़ी-बड़ी समस्याओं का हल कैसे निकालेंगे?

०००


7 टिप्‍पणियां:

  1. कड़वी सच्चाई बयान करती पोस्ट...।

    हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, ईसाई बनने के बजाय यदि एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक और उससे भी पहले एक ‘इन्सान’ बनने का प्रयास करें, तभी कुछ अच्छा देखने-सुनने को मिलेगा।

    अब धर्म हमें जोड़ने के बजाय तोड़ने का माध्यम बनता जा रहा है। यह स्थिति राजनीति, मीडिया, और धर्म के स्वार्थी ठेकेदारों की मिलीभगत से बनी है। समाज के ‘अच्छे’ लोग अपना दामन बचा कर केवल बौद्धिक जुगाली कर रहें हैं; और दुष्टजन अपने मिशन में कामयाब होते जा रहे हैं। सत्ता में अयोग्य लोग तो बैठ ही चुके हैं।

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  2. लेख रोचक तो है किंतु कुछ सोंचने के लिए विवश नहीं करता. संस्कार-विहीन समाज ऐसी ही बहसों में उलझा रहता है. शौचालय की दुर्गन्धयुक्त दुर्दशा के जिम्मेदार अकेले उसका उपयोग करने वाले नहीं हैं. रेलवे से वेतन पाने वाले सफाई कर्मचारी और उनसे जुड़े दूसरे अधिकारी भी हैं. अस्पतालों के शौचालय शायद लेखक ने नहीं देखे हैं. मनुष्य अपने धर्म को लेकर अनेक भ्रमों में जीता है. धर्म-वर्चस्व की भावना यदि उसमें न हो तो वह उस धर्म का पालन ही क्यों करेगा. धर्म के दायरे संकुचित होते हैं और उन दायरों से बाहर जो कुछ होता है ग्राह्य नहीं होता. धर्म बांटता है, जोड़ता नहीं. रेलिजास्टी और स्प्रिचुएलिटी में यही अन्तर होता है.

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  3. बहस करना बहुत आसन है. और भी आसन है ऐसी जगह जहाँ लोग एक दूसरे को जानते नहीं. यहाँ बहस में लोग ऐसी बातें भी कह सकते हैं जिन पर वह अपनी असली जिंदगी में अमल नहीं करते, और कोई उन पर ऊँगली भी नहीं उठा सकता. यह सही है कि सभ्य होने का सामूहिक फ़ैसला अभी भारतीय समाज ने नहीं किया है, पर उस से पहले प्रत्येक भारतीय को सभ्य होने का फ़ैसला करना होगा. ऊँगली सामने नहीं अपनी तरफ़ उठानी होगी.

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  4. बस इसी प्रकार की बहस से तो हमारा पाला रोज पड़ता रहता है ब्लॉग पर ब्लॉग के बाहर की जिंदगी में

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  5. समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे हो सँवाद!
    मूल खो गया हिन्दु का, चलता वाद-विवाद.
    चलता वाद-विवाद, मनोहर तर्क भरे हैं.
    अपनापन खोकर सारे निष्फ़ल उतरे हैं.
    कह साधक इस राज-किशोर का खो गया.
    कैसे हो संवाद, समझ कुछ नहीं आ रहा.

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  6. बढि़या विचारोत्तेजक लेख- बधाई राजकिशोरजी। डॉ. कविताजी का प्रश्न आज की हमारी मानसिकता पर सवालिया निशान लगाता है - सही भी है, हम- जिन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व है, आज इस पतन की ओर क्यों उन्मुख हैं? इसमें सब से बडी भूल हमारे शिक्षाविदों से हुई है जिन्होंने पाश्चात्य पाठ्यक्रम पर अधिक ध्यान दिया और बच्चों में हमारे संस्कार भरने की बजाय धनोपार्जन को प्रमुख बताया। यही राजकिशोर जी के प्रश्न का उत्तर भी देता है। आज के युग में चरित्र से अधिक धन को तर्जी दी जा रही है और इसका प्रमाण हमारे नेताओं का धनबल और बाहुबल है।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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