आलूरि बैरागी चौधरी का कवि कर्म - 3

पुस्तक चर्चा

आलूरि बैरागी चौधरी का कवि कर्म - 3
डॉ.ऋषभ देव शर्मा





`वसुधा का सुहाग’ (2007) में प्रयोगवादी और नई कविता शैली में लिखित आलूरि बैरागी की 45 कविताएँ सम्मिलित हैं. जिनका रचनाकाल 1945 से 1966 तक फैला हुआ है। संग्रह की शीर्ष कविता ‘वसुधा का सुहाग’ अपने बिंब विधान के कारण खासतौर पर आकर्षित करती है। सूर्य और पृथ्वी के प्रणय को कवि ने अत्यंत सघन बिंबों में इस प्रकार रूपायित किया है -


गहरे कुहरे की चादर से सालस सूर्य
अंगडाई-सी लेकर उठ बैठा
सेंक रहा अपने को अपना ही ताप ज्यों लगता मीठा।
तुहिन-कण के मोतियों की झालर हटा
झाँक रही ज्यों वसुधा
काल की विनील अवधि चीर खिलती
किसी प्रिय-वदन-स्मृति की व्यथा!
आँसुओं के गुलाब-जल में नहायी मुस्कान!’


साथ ही कवि ने यह भी प्रश्न उठाया है कि इतने दिन तक मैं कहाँ रहा या इतने दिन तक मैं क्यों नहीं जिया। आज जब इस प्रातःकालीन वेला में जीवन की सार्थकता और ऊर्जस्विता का बोध हुआ है तो यह अलसाया सूर्य एक भारतीय कवि को अफ्रीका के आदिम राग से जोड़ता हुआ प्रतीत होता है -


रुधिर-परमाणुओं के गर्भ-गेह में
अनंत शक्ति-पूजा
सुरंगों में बजते सहस्र मृदंग
प्रबल चुंबक के तरंग।
मेरी नस नस में
अफ्रीका के आदिम पादपों के वेदना-रस का राग,
नीग्रो-सूरज का रुधिर यह वसुधा का सुहाग!’


कविवर आलूरि बैरागी चौधरी के बिंब विधान के वैशिष्ट्य को संग्रह की अधिसंख्य कविताएँ प्रमाणित करती हैं। महात्मा गाँधी को समर्पित ‘राजघाट’ में वे हिंसा-प्रतिहिंसा के भीषण दृश्य को बिंबित करते हुए अकरुण नर के उर की वेदी पर तांडव करते अकाल-महाकाल को देखते हैं और गीध काग सियारों का भैरव रव उन्हें इस तांडव के अवसर पर ताल देता प्रतीत होता है। महात्मा के पवित्र रक्त को पीने वाली कर्कश वसुधा पर हिंसा-प्रतिहिंसा के पिशाचगण आज खून की होली खेल रहे हैं और विगत पाप, विकृत शाप, ज्वाला-जिह्वा पसार लहलही नई पौध को लील रहे हैं। ऐसे में कवि यह व्यवस्था देता है कि मानवी विवेक के मरण से नीच अन्य मरण नहीं तथा पिशाचों के वसंत पर्व हेतु नरपशु की बलि से श्रेष्ठ अन्य उपकरण नहीं। इससे कवि के सात्विक क्रोध और हताशा का अनुमान लगाया जा सकता है। वह अमृत मंत्रों से गाँधी का आवाहन करता है और कोटि कोटि करुण नयन भारत जनगण के साथ एकाकार होकर उस अमृतात्मा के अवतार की प्रतीक्षा करता है।


बैरागी को हर तरह के पाखंड से बड़ी चिढ़ है - चाहे उसका संबंध राजनीति से हो, समाज से या धर्म से। ‘योग समाधिमें उनके व्यंग्य का निशाना तथाकथित पाखंडी जन हैं जिन्हें वे आँखें मूंदे पागुर करते लेटे हुए भैंसे के रूप में देखते हैं। यह भैंसाअज्ञेयकी कविता के ‘धैर्यधनगदहे की याद दिलाता है। गदहा रात में खड़ा है तो भैंसा दिन में सोया है। वह मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में अनासक्त रहता है तो यह -


चारों ओर प्रगल्भ विश्व-कोलाहल,
जगा जीवन का हालाहल,
पर भैंसा योग-समाधि-लग्न तद्गत तल्लीन,
आँखें मूँदे कर रहा ध्यान निज में विलीन।


स्त्री जाति के प्रति आलूरि बैरागी की संवेदनशीलता कई स्थलों पर व्यक्त हुई है। ‘वेश्या के प्रति’ कविता में वे अभागिन वेश्या को ऐसी मीराँ के रूप में देखते हैं जिसे अपना गिरिधर नागर नहीं मिलता उनके लिए वह प्रेम की ऐसी साधिका है जो जोगिन होते हुए भी नागिन समझी जाती है। वह ईश्वर की ऐसी प्राणप्रिया है जिसे स्वयं उसके पति ने कौडी के मोल सट्टा-बाजार में खड़ा कर बेच दिया है यही कारण है कि कवि जब-जब प्रेयसी पर गीत लिखना चाहता है तो विश्वप्रेयसी उर्वशी बनकर वेश्या उनकी आँखों के आगे जाती है और प्रणय गीतों में अनल और गरल घोल जाती है। ऐसे में स्वाभाविक है प्रेम के प्रति कवि का यह आक्रोश कि -


‘मैं कहता हूँ ; सभी जूठ है,
प्यार छार है, फूल धूल है।
एक ढोंग है, एक स्वांग है।’

निस्संदेह जगत इस स्त्री से घृणा कर सकता है लेकिन ऐसा करना कवि के लिए संभव नहीं है। वह तो पुरुष जाति की कृतघ्नता के लिए जगन्माता के समक्ष क्षमाप्रार्थी है -


‘आओ देवी!
अकरुण सकल मनुष्य-जाति का प्रतिनिधि बनकर,
तेरे धूसर पद-तल में मैं होता नत-सिर!
क्षमा करो माते!
हम सब तो तेरे बच्चे हैं!
क्षमा करो जननी!
क्षमा करो भगिनी!
क्षमा करो सजनी!
तुम न करोगी हमें क्षमा तो कौन करेगा?
शोक और लज्जा की ज्वाला में
तिल तिल जल कौन मरेगा?
है कोई जो सूली ऊपर सेज करेगा?’

शोक और लज्जा की इस ज्वाला का जिस दिन समाज अनुभव कर लेगा वह दिन निश्चय ही नए युग का प्रस्थान बिंदु होगा।


जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है आलूरि बैरागी चौधरी विषय और शैली दोनों की विविधता के धनी रचनाकार हैं।वसुधा का सुहागसंग्रह की कविताएँ भी इसे प्रमाणित करती हैं। इस संग्रह की कई कविताओं में कवि ने फैंटेसी का अत्यंत सफल प्रयोग किया है। प्रसिद्ध कविता ‘पलायन’ इसका उत्तम उदाहरण है। यह कविता दो सूक्तियों से आरंभ होती है -

- जिंदगी की भूख ऐसी है कि वह अपने आपको खा जाती है,

-प्यास ऐसी है कि वह मोमबत्ती सी अपने आपको पी जाती है।

आगे चलकर कविता संपूर्ण शून्य की ओर प्रस्थान करती है जहाँ कोई कैदी करवट बदलकर नींद में गुनगुना रहा है - क्या प्रभात नहीं आया? और सब तरफ एक डायन का खर्राटा गूँज रहा है। अंधेरा गहराता जाता है। प्रेमीजन भाग जाना चाहते हैं पर भागकर जाएँ कहाँ? सब जेल में बंद कैदी हैं - कैसे भागें, कैसे जागें। फिर भी यह इच्छा तो है ही कि इस अमानुषिक अंधेरे से दूर किसी बेहतर दुनिया में चला जाए -

‘चलो, चलें!
भूखे भेड़िये-से टूट पड़ने वाले कल से
गोंद-से, कालिख-से चिपकने वाले कल से
बागों से, लोगों से,
रोशनी से, सनसनी से,
चेहरे! ये सब चेहरे!
चलती पुतलियों के भाव-हीन चेहरों से
चलो कहीं दूर चलें!
चलो, कुछ न कुछ करें!
चलो! चलो! चलो! चलो! चलें!’


‘स्वर्गवासी की स्मृति में’ जहाँ एक ओर भारतीय लोकतंत्र के विधाता मंत्रियों पर व्यंग्य है, वहीं परिवर्तनशील समय और मृत्यु का बोध भी इस कविता में ध्वनित होता है। मृत्यु की ध्वनि-प्रतिध्वनियाँ अनेक स्थलों पर इन कविताओं में हैं। जैसे,


फिर से लगेगी जीवन की फेरी
सोने में न हो देरी
सो जा, ओ पगले,
तू सो जा अब (स्वर्गवासी की स्मृति में)




प्यारे मित्र! अब कविता नहीं रही!
दिन दिन की उदय-कांति में नवता नहीं रही!
मत पूछो तुम कारण। (कविता नहीं रही)।


यहाँ इस तथ्य की ओर भी संकेत करना आवश्यक है कि कवि मृत्यु से पराभूत नहीं है। जब वर्षा होती है तो राख में से भी नया जीवन फूट पड़ता है। जीवन की इस शाश्वत विजय के प्रति कवि की पूर्ण आश्वस्ति उसे आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाली भारतीय चिंताधारा का प्रतिनिधि बना देती है -


‘बरखा रुकी
मानों बरस बरस थकी!
भीजे हर पात पर
किरण खिलखिला उठी!
गंजे सर भीतों पर, रुखे ठूँठों पर
धूप तिलमिला उठी!
विषन्न विश्व के छायाछिन्न वदन पर
सहसा मुसकान झिलमिला उठी!
अंदर बाहर बस, एक-सी प्रशांति
झीनी भीनी कांति!
हाँ, मैं इस क्षण
नहीं जानता कि क्या है मरण।’


कवि की इस अदम्य जिजीविषा को प्रणाम करते हुए हम यह आशा कर सकते है कि हिंदी जगत इस बिसराए हुए महान कवि आलूरि बैरागी चौधरी (५.९.१९२५ - ९.९.१९७८) की रचना शक्ति को पहचानेगा और साहित्य के इतिहास में उचित स्थान पर उस पहचान को अंकित करेगा।





’वसुधा का सुहाग/
आलूरि बैरागी/
मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद/
2007/
125 रुपये/
120 पृष्ठ सजिल्द





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