निराला जी की पुण्यतिथि पर विशेष

आज महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पुण्य तिथि १५ अक्टूबर पर विशेष विनम्र श्रद्धांजलि सहित उनकी कुछ चयनित रचनाएँ


भारती वन्दना
भारति, जय, विजय करे
कनक - शस्य - कमल धरे!
लंका पदतल - शतदल
गर्जितोर्मि सागर - जल
धोता शुचि चरण - युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!


तरु-तण वन - लता - वसन
अंचल में खचित सुमन,
गंगा ज्योतिर्जल - कण
धवल - धार हार लगे!

मुकुट शुभ्र हिम - तुषार
प्राण प्रणव ओंकार,
ध्वनित दिशाएँ उदार,
शतमुख - शतरव - मुखरे!

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अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं)


जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया
पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ;
मुक्ती की तब युक्ती से मिल खिल गया
भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ।


खेत में पड़ भाव की जड़ गड़ गयी,
धीर ने दुख-नीर से सींचा सदा,
सफलता की थी लता आशामयी,
झूलते थे फूल-भावी सम्पदा।


दीन का तो हीन ही यह वक्त है,
रंग करता भंग जो सुख-संग का


भेद कर छेद पाता रक्त है
राज के सुख-साज-सौरभ-अंग का।


काल की ही चाल से मुरझा गये
फूल, हूले शूल जो दुख मूल में
एक ही फल, किन्तु हम बल पा गये;
प्राण है वह, त्राण सिन्धु अकूल में।


मिष्ट है, पर इष्ट उनका है नहीं
शिष्ट पर न अभीष्ट जिनका नेक है,
स्वाद का अपवाद कर भरते मही,
पर सरस वह नीति - रस का एक है।

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गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।


कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।


प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।

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मरा हूँ हजार मरण

मरा हूँ हजार मरण
पाई तव चरण-शरण।

फैला जो तिमिर जाल
कट-कटकर रहा काल,
आँसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण।


जल-कलकल-नाद बढ़ा
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण।

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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु


बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!


यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!


वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबमें दाँव, बंधु


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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो


लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो,
भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा।
उन्ही बीजों को नये पर लगे,
उन्ही पौधों से नया रस झिरा।

उन्ही खेतों पर गये हल चले,
उन्ही माथों पर गये बल पड़े,
उन्ही पेड़ों पर नये फल फले,
जवानी फिरी जो पानी फिरा।

पुरवा हवा की नमी बढ़ी,
जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी,
सविता ने क्या कविता पढ़ी,
बदला है बादलों से सिरा।


जग के अपावन धुल गये,
ढेले गड़ने वाले थे घुल गये,
समता के दृग दोनों तुल गये,
तपता गगन घन से घिरा।



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पत्रोत्कंठित जीवन का विष


पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में।

लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर
स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित
कल शारद कल्प की हेम लोमों आच्छादित,
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,
बीत चुका है दिक् चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति-
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के
वाद्य छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से,
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत। मल्ल मल्ल की-
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गये हैं
झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।
पुनः सवेरा, एक और फेरा हो जी का।



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तोड़ती पत्थर


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।


चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,


सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कॉंपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

'मैं तोड़ती पत्थर।'

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भिक्षुक



वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।


पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।


साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!


निराला जी का यह चित्र श्री प्रभु जोशी जी की तूलिका से रचा गया है

5 टिप्‍पणियां:

  1. आभार इस विशिष्ट प्रस्तुति के लिए.

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  2. निरालाजी को नमन। आपको इस प्रस्तुति के लिये आभार!

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  3. महाकवि निराला जी की अनुपम रचनाएँ पढ़ाने के लिए कोटिशः आभार. महान कविवर उस युगपुरुष महान संत को शत शत नमन.

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  4. महाकवि की इस प्रस्तुती के लिये आभार !!और उन्हे प्रणाम

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  5. निराला जी की ढेर सारी पंक्तियाँ इन कविताओं को पढ़कर याद आने लगीं,


    'स्नेह निर्झर बह गया है' का एक अंश:

    ''दिए हैं मैंने जगत को फूल-फल,
    किया है अपनी प्रभा से चकित-चल,
    पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
    ठाट जीवन का वही
    जो ढह गया है!''

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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