मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज (१०)

मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज
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नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता - १०
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उन्नीसवीं शताब्दी की राजनीतिक उथल-पुथल से जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक संक्रमण उत्पन्न हुआ, उससे सहित्य भी नहीं बच सका। बीसवीं सदी तक आते-आते राजनीतिक नवजागरण की लहर चली तो साहित्यकार भी उसमें बह चले। इस नवजागरणकाल में मणिपुरी कविता का प्रभाव भी देखा जा सकता है। इस इतिहास के परिवेश में नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता की भूमिका के बारे में डॉ। देवराज बताते हैं कि सन १८३३ में ब्रिटिश सरकार ने अपने प्रस्तावॊं को महाराज गम्भीर सिंह से स्वीकृत करा कर मणिपुर की स्वतन्त्र-सत्ता को आघात पहूँचाया। इसके दो वर्ष बाद ही अंग्रेज़ों ने अपना पोलिटिकल एजंट भी मणिपुर में बिठा दिया। इन घटनाऒं का सामाजिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में जो असर पडा़, उसका विवरण डॉ. देवराजजी इस प्रकार देते हैं :
"नवजागरण मूल रूप से राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के गर्भ से जन्मा था, इसीलिए वह विचारधारा पहले था, साहित्य बाद में। भारत में ही नहीं, अन्य देशों में भी नवजागरण विचारधारा बनकर ही आया। यदि वह विचार के रूप में न आता तो साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित न कर पाता और न काव्य को जन-चेतना का वाहक ही बना पाता।"

"यद्यपि ख्वाराक्पम चाओबा की गद्य रचनाओं [ कान्नबा वा -१९२४, फ़िदम -१९२५, बाखल - १९२६] में नवजागरण की हलचल अनुभव होने लगी थी, किन्तु सन १९२९ में कमल [डॉ। लमाबम कमल सिंह] के काव्य-संग्रह ‘लै परेङ’ [पुष्प-माला] में नवजागरणकालीन काव्य-सौंदर्य एवं तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक चिन्ताओं का विस्फ़ोट हुआ। कमल अपनी कविताओं के माध्यम से बराबर इस आवश्यकता पर बल देते हैं कि हम अपनी उन दुर्बलताओं पर ध्यान दें, जिनके कारण मातृभूमि मणिपुरी श्रीहीन हो गई है और उस पर विदेशी लोगॊं का आधिपत्य स्थापित हो गया है। कमल की यह चेतना हिंदी के भारतेन्दु की चेतना से मेल खाती है। कमल की कविताओं में अभिव्यक्ति की विलक्षणता तो है ही, साथ ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद का तीक्ष्ण-विरोध भी है।"
(प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद)

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