कीर्ति चौधरी : कुछ कविताएँ

बरसते हैं मेघ झर-झर
कीर्ति चौधरी

बरसते हैं मेघ झर-झर
भीगती है धरा
उड़ती गंध
चाहता मन
छोड़ दूँ निर्बंध
तन को, यहीं भीगे
भीग जाए
देह का हर रंध्र
रंध्रों में समाती स्निग्ध रस की धार
प्राणों में अहर्निश जल रही
ज्वाला बुझाए
भीग जाए
भीगता रह जाए बस उत्ताप!

बरसते हैं मेघ झर-झर
अलक माथे पर

बिछलती बूँद मेरे
मैं नयन को मूँद
बाहों में अमिय रस धार घेरे
आह! हिमशीतल सुहानी शांति
बिखरी है चतुर्दिक
एक जो अभिशप्त
वह उत्तप्त अंतर
दहे ही जाता निरंतर
बरसते हैं मेघ झर-झर
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केवल एक बात थी
कीर्ति चौधरी


केवल एक बात थी
कितनी आवृत्ति
विविध रूप में करके तुमसे कही
फिर भी हर क्षण
कह लेने के बाद
कहीं कुछ रह जाने की पीड़ा बहुत सही
उमग-उमग भावों की
सरिता यों अनचाहे
शब्द-कूल से परे सदा ही बही
सागर मेरे ! फिर भी
इसकी सीमा-परिणति
सदा तुम्हीं ने भुज भर गही, गही ।
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मुझे फिर से लुभाया
कीर्ति चौधरी


खुले हुए आसमान के छोटे से टुकड़े ने,
मुझे फिर से लुभाया
अरे! मेरे इस कातर भूले हुए मन को
मोहने,
कोई और नहीं आया
उसी खुले आसमान के टुकड़े ने मुझे
फिर से लुभाया

दुख मेरा तब से कितना ही बड़ा
हो वह वज्र सा कठोर,
मेरी राह में अड़ा हो पर उसको बिसराने का,
सुखी हो जाने का
साधन तो वैसा ही छोटा सहज है

वही चिड़ियों का गाना
कजरारे मेघों का
नभ से ले धरती तक धूम मचाना
पौधों का अकस्मात उग आना
सूरज का पूरब में चढ़ना औ
पच्छिम में ढल जाना
जो प्रतिक्षण सुलभ,
मुझे उसी ने लुभाया
मेरे कातर भूले हुए मन के हित
कोई और नहीं आया
दुख मेरा भले ही कठिन हो
पर सुख भी तो उतना ही सहज है
मुझे कम नहीं दिया है
देने वाले ने
कृतज्ञ हूँ
मुझे उसके विधान पर अचरज है
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आगत का स्वागत
कीर्ति चौधरी

मुँह ढाँक कर सोने से बहुत अच्छा है,
कि उठो ज़रा,
कमरे की गर्द को ही झाड़ लो।
शेल्फ़ में बिखरी किताबों का ढेर,
तनिक चुन दो।
छितरे-छितराए सब तिनकों को फेंको।
खिड़की के उढ़के हुए,
पल्लों को खोलो।
ज़रा हवा ही आए।
सब रौशन कर जाए।
... हाँ, अब ठीक
तनिक आहट से बैठो,
जाने किस क्षण कौन आ जाए।
खुली हुई फ़िज़ाँ में,
कोई गीत ही लहर जाए।
आहट में ऐसे प्रतीक्षातुर देख तुम्हें,
कोई फ़रिश्ता ही आ पड़े।
माँगने से जाने क्या दे जाए।
नहीं तो स्वर्ग से निर्वासित,
किसी अप्सरा को ही,
यहाँ आश्रय दीख पड़े।
खुले हुए द्वार से बड़ी संभावनाएँ हैं मित्र!
नहीं तो जाने क्या कौन,
दस्तक दे-देकर लौट जाएँगे।
सुनो,
किसी आगत की प्रतीक्षा में बैठना,
मुँह ढाँक कर सोने से बहुत बेहतर है।
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('कविताकोश' से साभार)


4 टिप्‍पणियां:

  1. आभार कीर्ति चौधरी जी की कवितायें पढ़वाने का.

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  2. आप की मूल्यवान प्रतिक्रया से अच्छा लगा.इसी प्रकार सद्भाव बनाए रखें. आभार.

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  3. वर्षा का मौसम आ गया। समसामायिक कविता प्रस्थुत करने के लिए डॉ. कविता वाचक्नवी जी को धन्यवाद और कीर्ति चौधरी जी को बधाई।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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