मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टि में : डॉ. देवराज (९)


मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टि में : डॉ. देवराज
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प्राचीन और मध्यकालीन मणिपुरी कविता- [९]
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लोकगीतों में लोक-साहित्य, दंतकथाएं, इतिहास आदि का समावेश होता है। मणिपुर के उत्तर-मध्य काल से ही इन गीतों में इतिहास के पन्नों को उकेरा गया है, जिसमें वीर पुरुषों की गाथा, उनके रणकौशल का वर्णन आदि मिलता है जिससे उस समय के इतिहासकार, गीतकार और साहित्यकार के व्यापक फ़लक का पता चलता है। डॉ. देवराज जी बताते हैं:


"मणिपुरी काव्येतिहास का उत्तर-मध्य काल अनेक दृष्टियों से व्यापकता भरा और वैविध्यपूर्ण है। इसके मूल में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण हैं।"

"इस युग में चराइरोङ्बा [पीताम्बर],पामहैबा गरीबनवाज़ [गोपाल सिंह] , गौरश्याम, जयसिंह [राजर्षि भाग्यचंद] जैसे इतिहास प्रसिद्ध राजा हुए। इन्हीं शासकों के कार्यकाल में म्यांमार, त्रिपुरा आदि के साथ हुए युद्धों में मणिपुरी वीरता का गौरवशाली पक्ष सामने आया। साथ ही अनेक राजनीतिक उतार-चढाव भी इस काल में देखने को मिले, किंतु यह देखकर आश्चर्य होता है कि कई बार अभूतपूर्व राजनीतिक संकट उपस्थित होने पर भी मणिपुर के इन राजाओं ने अपना विवेक और कूटनीति-कौशल नहीं खोया।"


"उत्तर मध्य युग में प्रब्रजन तथा धार्मिक - सांस्कृतिक परिवर्तन का नया दौर आया। राजकुमार झलजीत सिंह ने प्रब्रजन का ब्यौरा देते हुए इस तथ्य का उल्लेख किया है कि सत्रहवीं शताब्दी के मध्य [सन १६५२ के लगभग] में म्य़ाँमार की दिशा से प्रब्रजन अचानक बन्द हो गया, जबकि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लोगॊं का आना बढ़ गया।इनमें लाहौर, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, असम आदि से आनेवाले लोगों की संख्या बढ़ गई। इन प्रब्रजकों में अधिसंख्य ब्राह्मण थे। परिणाम यह हुआ कि मणिपुरी भाषा, संस्कृत, बङला, असमिया तथा हिंदी की प्राचीन बोलियों के अनेक शब्दों से परिचित हुई।"

"यह युग धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से मणिपुरी इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण युगों में से एक है। यह एक इतिहास-सिद्ध तथ्य है कि इस काल तक आते-आते मणिपुरी जनता अपने धार्मिक चिंतन, कर्मकांड और संस्कृति की पुष्ट परम्परा का निर्माण कर चुकी थी। देवी-देवताओं, नृत्य , संगीत, चित्रकला, स्थापत्य-कला, कृषि-व्यवस्था, युद्ध कला, शिष्ट साहित्य, लोक साहित्य आदि की समृद्ध परम्परा ने इस क्षेत्र की जनता को प्रभावित करने का प्रयास किया।"


"वैष्णवी-काव्य के अन्तर्गत रामायण का मणिपुरी भाषा में रूपान्तरण एक महान घटना है। किंवदन्ती है कि महाराजा गरीबनवाज़ मानव-जीवन के उद्धार के लिए रामकथा का श्रवण आवश्यक मानते थे, इसीलिए उन्होंने अपने एक स्वामिभक्त सेवक क्षेमसिंह को आदेश दिया कि वह रामायण का रूपान्तरण मणिपुरी भाषा में करे। उसने प्रेमानंद खुमनथेम्बा, मुकुन्दराम मयोइसना, लक्ष्मीनारायण इरोइबा, रामचरण नोङ्थोन्बा और लक्ष्मीनारायण साइखुबा की सहायता से यह कार्य सम्पन्न किया। रूपान्तरण की आधार-सामग्री के रूप में बङला भाषा की ‘कृतिवासी-रामायण’ का चयन किया गया।"

"अपनी प्रजा के उद्धार और धार्मिक - आदर्श के प्रचार की भावना से सन १७२५ के लगभग पामहैबा गरीबनवाज़ ने ‘परीक्षित’ नामक काव्य को गंगदास सेन के बङ्ला महाभारत से रूपान्तरित किया था। महाराजा जयसिंह के शासन-काल में भारत के महान काव्य महाभारत का ‘विराट पर्व’ मणिपुरी में रूपान्तरित किया गया। इसके आधार स्त्रोत के रूप में बङ्ला भाषा में रामकृष्णदास द्वारा रचित महाभारत की कथा को स्वीकार किया गया। बङ्ला भाषा के जानकार युवराज नवानन्द ने रामकृष्णदास का महाभारत मणिपुरी में मौखिक अनुवाद के सहारे प्रस्तुत किया और उस आधार पर दो अन्य व्यक्तियों ने उसका एक अंश लिपिबद्ध किया। सुनी हुई सामग्री को लिपिबद्ध करने के कारण ही विराट पर्व [विराट सन्थुप्लोन] में कुछ तथ्य उलट गये। रूपांतरकर्ताओं ने सहदेव के स्थान पर नकुल को सबसे छोटा पांडव माना है। नकुल को अश्व-विशेषज्ञ के स्थान पर गो-विशेषज्ञ बताया है।"

"उस काल में रचा गया युद्ध तथा मणिपुरी राजाओं की वीरता प्रदर्शित करने वाला काव्य-साहित्य भी उल्लेखनीय है। ऐसे ग्रन्थों में ‘सम्फ़ोकङमूबा’ गरीबनवाज़ के युद्ध कौशल, म्याँमार के समजोक राज्य पर उनकी विजय तथा तत्कालीन राजनीतिक इतिहास को दर्शानेवाली कृति है। ऐसी कृतियों का साहित्यिक-दृष्टि से भी धार्मिक ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्व है, क्योंकि इनमें कवि-कल्पना को अपनी भूमिका निभाने के अनेक अवसर सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।"

"उत्तर मध्य काल के पश्चात भी मणिपुरी भाषा में धार्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं अन्य विषयों को केन्द्र में रखकर काव्य-सृजन के प्रयास होते रहे। उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक से ही मणिपुर में राजनीतिक हलचलें तेज होने लगी थीं। इसके कुछ दिनों बाद तो मणिपुर के राजदरबार में ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट की उपस्थिति ने न केवल राजनीतिक, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन को पूरी तरह पक्का कर ही दिया। इस संक्रमण-काल का अध्ययन उपर्युक्त पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए...।"


इस प्रकार हमने प्राचीन और मध्य्कालीन कविता की यात्रा कुछ पडा़वों में तय की है। विदेशी ताकतों के राजनीतिक उठा-पटक में निश्चय ही साहित्यिक संक्रमण भी उत्पन्न हुआ। इस संक्रमण से जूझते हुए मणिपुरी कविता कैसे आगे बढी़, इसे हम नवजागरणकालीन कविता के माध्यम से देखेंगे।

...........क्रमशः


(प्रस्तुति : चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद)

1 टिप्पणी:

  1. यह सही है कि विदेशी ताकतों के राजनीतिक उठा-पटक में निश्चय ही साहित्यिक संक्रमण भी उत्पन्न हुआ है आपके विचारो से सहमत हूँ . आभार

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