'क्षण के घेरे में घिरा नहीं' : त्रिलोचन का स्मरण
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पुस्तक : क्षण के घेरे में घिरा नहीं
प्रधान संपादक : देवराज
संपादक : अमन
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन,
पुस्तक : क्षण के घेरे में घिरा नहीं
प्रधान संपादक : देवराज
संपादक : अमन
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन,
मातृ भवन, १७-सावित्री एन्क्लेव,
नजीबाबाद-२४६७६३ (उत्तर प्रदेश)
संस्करण : २००८
मूल्य : पचास रुपए
पृष्ठ संख्या : ६४
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नजीबाबाद-२४६७६३ (उत्तर प्रदेश)
संस्करण : २००८
मूल्य : पचास रुपए
पृष्ठ संख्या : ६४
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कविवर त्रिलोचन शास्त्री ९ दिसंबर, २००७ को ९० वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। हिंदी साहित्य जगत की विशिष्ट परंपरा रही है कि यहाँ साहित्यकारों को या तो पुरस्कार-सम्मान आदि मिलने पर याद किया जाता है या दिवंगत होने पर! त्रिलोचन जी के संबंध में भी कैसे चूक हो सकती थी! देश भर की हिंदी पत्रिकाओं ने उन पर श्रद्धांजलि और स्मृति परक आलेख छापे और अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। लेकिन इस सब के बीच एक स्मृति सभा नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुई जो रस्मी-रवायती न थी। दरअसल त्रिलोचन १९९० में नजीबाबाद में संपन्न माता कुसुमकुमारी हिंदीतर भाषी हिंदी साधक सम्मान समारोह में आए थे और जनपद के साहित्य प्रेमियों के कंठहार बन गए थे। इसीलिए जब उनके निधन का समाचार सुना तो १० दिसंबर को ये तमाम लेखक और साहित्य प्रेमी नजीबाबाद में मध्यकालीन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. प्रेमचंद्र जैन के घर पर इकट्ठे हुए और अपने प्रिय कवि त्रिलोचन को टुकड़ों-टुकड़ों में याद किया। इस अवसर पर देश के विविध अंचलों से अलग-अलग साहित्यकारों के संदेश मोबाइल फोन पर संपर्क करके प्राप्त किए गए। तभी यह भी तय किया गया कि इन संदेशों को पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा। काम शुरू हो गया और प्रस्तावित पुस्तक केवल संदेशों तक सीमित नहीं रह सकी बल्कि जिन्होंने मोबाइल-सभा में संदेश दिए थे, उन्होंने अच्छे खासे समीक्षात्मक आलेख उपलब्ध करा दिए इसलिए पुस्तक का स्वरूप भी बदल गया और इस तरह एक समीक्षा पुस्तक ही तैयार हो गई। शीर्षक है ‘क्षण के घेरे में घिरा नहीं‘।
‘क्षण के घेरे में घिरा नहीं‘ (२००८) के प्रधान संपादक हैं मणिपुर विश्वविद्यालय के मानविकी विभाग के अधिष्ठाता डॉ देवराज और संपादक हैं नजीबाबाद के युवा पत्रकार अमन। पुस्तक ‘विन्यास‘ की ओर से परिलेख प्रकाशन ने प्रकाशित की है जिसकी परामर्श समिति के संरक्षक डॉ. प्रेमचंद्र जैन है तथा संयोजक हैदराबाद स्थित संस्था ‘विश्वम्भरा‘ की महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी जो विशेष रूप से इस योजना की पूर्ति में सक्रिय रहीं।
पुस्तक में संपादक के ‘पूर्व कथन‘ के अतिरिक्त २६ छोटे-बड़े आलेख हैं, एक साक्षात्कार है, एक रिपोर्ट और ‘पथ पर चलते रहो निरंतर‘ शीर्षक से त्रिलोचन की बारह छोटी-छोटी कविताएँ। कुल मिलाकर त्रिलोचन को समझने-समझाने के लिए पर्याप्त सामग्री है। पुस्तक की समीक्षात्मक दृष्टि को डा. देवराज के शब्दों के माध्यम से सहज ही पकड़ा जा सकता है। वे बताते हैं “त्रिलोचन प्रगतिशील चिंतन की भारतीय परंपरा के प्रमुख लेखकों में से एक होते हुए भी अपने प्राप्य से अधिकतर वंचित रहे। हिंदी कविता में आलोचकों ने उन्हें कभी चर्चा के केंद्र में नहीं आने दिया। उन दिनों तो बिल्कुल नहीं, जब प्रगतिशील विचारधारा का आंदोलन ज्ञात-अज्ञात शक्तियों द्वारा हाशिए की ओर धकेला जा रहा था और उसे त्रिलोचन की ज़रूरत थी। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि हिंदी साहित्य का अध्येता त्रिलोचन की पहचान इस रूप में चिह्नित करता है कि वे हिंदी कविता में अंगरेज़ी छंद सॉनेट को स्थापित करने वाले हैं, कि उन्होंने इस विदेशी छंद को अपने कलात्मक-कौशल से साध कर हिंदी के अन्य जातीय छंदों के समान बना दिया, कि उनके सॉनेट अभिव्यक्ति की सादगी के उदाहरण हैं आदि। सॉनेट और उसकी सादगी के सामने कुछ तथ्यों की जानबूझ कर उपेक्षा की जाती है - जैसे, त्रिलोचन ने हिंदी में निराला की मुक्त छंद की परंपरा को सही रूप में सबके सामने रखा और कविता की मुक्ति तथा मनुष्य की मुक्ति के बीच विद्यमान वास्तविक संबंध को पुनर्प्रस्तुत किया, उन्होंने अपने लेखों में हिंदी आलोचना की कमज़ोरियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई, उनकी कहानियों में अपने देशकाल की ईमानदार अभिव्यक्ति है, उनके पत्रों में संबंधों को जीने की असाधारण ललक है, वे लोक और शास्त्र का अद्भुत संगम थे आदि। इस तरह त्रिलोचन का सॉनेट साहित्य भाव और भाषा की असाधारण सादगी की भेंट चढ़ जाता है, जिसकी चकाचौंध में सॉनेट के भीतर व्यक्त जीवन संघर्ष अप्रकाशित ही रह जाता है और उनके रचना संसार के शेष पक्ष यों ही परे सरका दिए जाते हैं।”
अपने आलेख में वाचस्पति (वाराणसी) ने बड़ी तल्खी से सवाल उठाया है कि पतनशील उच्च और मध्य वर्ग की बाजारवादी मानसिकता को खाद-पानी देने वाले, भ्रष्ट हिंदी और फूहड़ अंग्रेजी के वर्णसंकर दैनिकों में अपना वर्तमान और भविष्य तलाशने वाले बुद्धिबली, निधन के बाद बड़ी शिद्दत से त्रिलोचन जैसे बोली-बानी के अद्भुत संगतराश को आखिर क्यों याद कर रहे हैं? उन्होंने त्रिलोचन की विरासत का विस्तार करने में जनपदीय युवतर कवियों की भागीदारी के प्रति विश्वास भी प्रकट किया है।
नंदकिशोर नवल (पटना) ने त्रिलोचन को क्लासिकी गंभीरता का कवि सिद्ध किया है तो विजेंद्र (जयपुर) ने उन्हें संघर्षशील जनता से जुड़ी कविता रचने वाले जातीय कवि के रूप में देखा है। ऋषभदेव शर्मा ने उनकी विराटता और विलक्षणता का आधार साधारणता को माना है तो कविता वाचक्नवी (हैदराबाद) ने विचारधारा के आधार पर साहित्य और साहित्यकारों को बाँटने वालों की अच्छी खबर ली है और इसे सर्वनाश का द्योतक माना है। त्रिलोचन के पात्रों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने लोक संस्पृक्ति को उनकी कविता की ताकत माना है। ए।अरविंदाक्षन (कोच्चि) ने समन्वय करते हुए लिखा है कि यदि लोक त्रिलोचन का सहज यथार्थ है तो उनकी कविता का अन्वेषित यथार्थ क्लासिकी का है। इसीलिए उन्हें कालिदास से होते हुए त्रिलोचन तुलसी तक की कविता-यात्रा करते दिखाई देते हैं।
हरिपाल त्यागी (दिल्ली) ने त्रिलोचन को उदार भारतीय आत्मा और मानवीय प्रतिभा से संपन्न कवि बताया है जिनकी भाषा का जादू सिर चढ़कर बोलता था। इसी प्रकार बालशौरि रेड्डी (चेन्नई) ने उनकी कविता के प्रगतिशील तत्व को रेखांकित किया है। अर्जुन शतपथी (राउरकेला) के लिए त्रिलोचन क्रांति पुरुष थे तो एम.शेषन (चेन्नई) के लिए वे आधुनिक कविता को समसामयिक भावबोध से संयुक्त कर उसे ऊँचाई प्रदान करने वाले कलमकार थे। ई.विजयलक्ष्मी (इम्फाल) ने अपने आलेख में त्रिलोचन को अनुत्तरित चुनौती का कवि कहा है तो नित्यानंद मैठाणी (लखनऊ) ने उन्हें हिंदी का एक और कबीर माना है। विनोद कुमार मिश्र (ईटानगर) ने त्रिलोचन के व्यक्तित्व और कृतित्व में व्याप्त जिजीविषा की चर्चा की है तो महेश सांख्यधर (बिजनौर) ने अपने आलेख में कहा है कि यदि आप कवि हृदय नहीं हैं तथा आपकी आँख में पानी नहीं है तो आप न कवि त्रिलोचन को समझ सकते हैं न त्रिलोचन की कविता को।
इसी प्रकार गोपाल प्रधान (सिलचर), दिनकर कुमार (गुवाहाटी), शंकरलाल पुरोहित (भुवनेश्वर), नरेंद्र मारवाड़ी (बिजनौर), ऋचा जोशी (मेरठ), अरुणदेव, बलवीर सिह वीर, राजेंद्र त्यागी, पुनीत गोयल, चंचल और अमन (नजीबाबाद) ने भी अपने आलेखों में त्रिलोचन के साहित्य के अलग-अलग आयामों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है।
‘जीवित व्यक्ति ही साहित्य देता है‘ शीर्षक से वाचस्पति द्वारा १९७० में लिया गया त्रिलोचन जी का साक्षात्कार इस समस्त चर्चा को परिपूर्णता प्रदान करता है। और अंत में हैं त्रिलोचन की कुछ कविताएँ। निस्संदेह समकालीन साहित्य के एक शलाका पुरुष को उसके चाहने वाले लेखकों और पाठकों की ओर से दी गई यह सारस्वत श्रद्धांजलि स्पृहणीय है।
प्रो.ऋषभदेव शर्मा
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