भाषा के सच्चे अनुरागी : स्वर्गीय प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव
जयंतीवर्ष एवं जयंतीमाह पर विशेष
भाषा के सच्चे अनुरागी
स्वर्गीय प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव
- गुर्रमकोंडा नीरजा
हिंदी भाषाविज्ञान के शिखर पुरुष प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव (9 जुलाई, 1936 - 3 अक्तूबर, 1992) का यह 75 वाँ जयंती वर्ष है.
प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव का जन्म 9 जुलाई, 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ. उनकी प्राथमिक शिक्षा - दीक्षा गाँव में ही संपन्न हुई. वे वस्तुतः विज्ञान के विद्यार्थी थे. लेकिन उन्होंने साहित्य की ओर अपना कदम बढ़ाया. साहित्य से उनकी रुचि भाषाविज्ञान की ओर बढ़ी. उन्होंने लेनिनग्राद विश्वविद्यालय (सोवियत संघ) से भाषाविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. फिर उन्होंने कैलिफोरनिया से पोस्ट डॉक्टरेट किया. उन्होंने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय परंपराओं में हुए चिंतनों को भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया. उन्होंने अपने गंभीर लेखन एवं वैचारिकता से भारतीय भाषाविज्ञान के संपूर्ण परिदृश्य को बदल डाला.
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प्रायश्चित करें किरण बेदी
प्रायश्चित करें किरण बेदी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किरण बेदी पर उंगली कौन उठा सकता है? क्या कोई नेता? बिल्कुल नहीं। देश में कोई ऐसा नेता नहीं होगा, जो सार्वजनिक या सरकारी पैसे का सही-सही हिसाब देता होगा। हर चुनाव लड़नेवाला नेता चुनाव आयोग को खर्च का जो हिसाब देता है, क्या वह सही होता है? किरण बेदी का दोष इतना ही है न, कि वह साधारण श्रेणी में यात्रा करती थीं और उच्च श्रेणी का किराया ले लेती थीं लेकिन हमारे नेता, मंत्री और मुख्यमंत्रीगण आदि क्या करते हैं? वे यात्रा किए बिना ही यात्रा का किराया (और भत्ता भी) वसूल लेते हैं। सड़क बनी ही नहीं और उसके नाम पर करोड़ों रु. डकार जाते हैं। इसलिए किरण बेदी के मामले में हमारे नेतागण अपनी जुबान ज़रा सम्हालकर चला रहे हैं।
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‘उदारीकरण का उन्माद और आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन : सरलता के सहारे हत्या की हिकमत
आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन
सरलता के सहारे हत्या
पिछले दिनों राजभाषा के नीति-निर्देशों को लेकर गृह मंत्रालय का एक जो नया ‘ परिपत्र ' प्रकाश में आया है (क्लिक - "हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा" ) , उसने भाषा के संबंध में निश्चय ही एक नये ‘विमर्श‘ को जन्म दे दिया है। क्योंकि, भाषा केवल ‘सम्प्रेषणीयता‘ का माध्यम भर नहीं है, बल्कि वह मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार भी है। फिर क्या किसी भी राष्ट्र की भाषा की संरचना में मनमाने ढंग से छेड़छाड़ की जा सकती है ? क्या वह मात्र एक सचिव और समिति के सहारे हाँकी जा सकती है ? निश्चय ही इस प्रश्न पर समाजशास्त्री, शिक्षा-शास्त्री, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक विद्वानों को बहस के लिए आगे आना चाहिए। यहाँ प्रस्तुत है , इस प्रसंग में एक बौध्दिक-जिरह को जन्म देने वाली कथाकार प्रभु जोशी की टिप्पणी
सरलता के सहारे हत्या की हिकमत
प्रभु जोशी
भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय की सेवा-निवृत्त होने जा रही एक सचिव सुश्री वीणा उपाध्याय ने जाते-जाते राजभाषा संबंध नीति-निर्देशों के बारे में एक ताजा-परिपत्र जारी किया कि बस अंग्रेजी अखबारों की तो पौ-बारह हो गयी। उनसे उनकी खुशी संभाले नहीं संभल पा रही है। क्योंकि, वे बखूबी जानते हैं कि बाद ऐसे फरमानों के लागू होते ही हिन्दी, अंग्रेजी के पेट में समा जायेगी। दूसरी तरफ हिन्दी के वे समाचार-पत्र, जिन्होंने स्वयं को ‘अंग्रेजी-अखबारों के भावी पाठकों की नर्सरी‘ बनाने का संकल्प ले रखा है, उनकी भी बांछें खिल गयीं और उन्होंने धड़ाधड़ परिपत्र का स्वागत करने वाले सम्पादकीय लिख डाले। वे खुद उदारीकरण के बाद से आमतौर पर और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने के बाद से खासतौर पर अंग्रेजी की भूख बढ़ाने का ही काम करते चले आ रहे हैं।
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षडयंत्र है या अनभिज्ञता
षडयंत्र है या अनभिज्ञता
- प्रो. सुरेन्द्र गंभीर
मान्यवर प्रभु जोशी जी और राहुलदेव जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर हमारा ध्यान खींचा है।
भारत में हिन्दी की और न्यूनाधिक दूसरी भारतीय भाषाओं की स्थिति गिरावट के रास्ते पर है। ऐसी आशा थी कि समाज के नायक भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए स्वतंत्र भारत में क्रान्तिकारी कदम उठाएँगे परंतु जो देखने में आ रहा है वह ठीक इसके विपरीत है। यह षडयंत्र है या अनभिज्ञता इसका फ़ैसला समय ही करेगा।
भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक है परंतु वह अपनी ही भाषा की सीमा में होनी चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज अंग्रेज़ी और उर्दू के बहुत से शब्द ऐसे हैं जिसके बिना हिन्दी में हमारा काम सहज रूप से नहीं चल सकता। ऐसे शब्दों का हिन्दी में प्रयोग सहज और स्वाभाविक होने की सीमा तक पहच चुका है और ऐसे शब्दों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह भी ठीक है कि हिन्दी में भी कई बातों को अपेक्षाकृत सरल तरीके से कहा जा सकता है। परंतु यह सब व्यक्तिगत या प्रयोग-शैली का हिस्सा है। विभिन्न शैलियों का समावेश ही भाषा के कलेवर को बढ़ाता है और उसमें सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करता है।
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हिन्दी का ताबूत
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कल यहीं प्रकाशित " हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा" पर वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव जी ने अपनी जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उसका अविकल पाठ यहाँ दे रही हूँ।
हिन्दी का ताबूत
- राहुल देव
हिन्दी के ताबूत में हिन्दी के ही लोगों ने हिन्दी के ही नाम पर अब तक की सबसे बड़ी सरकारी कील ठोंक दी है। हिन्दी पखवाड़े के अंत में, 26 सितंबर 2011 को तत्कालीन राजभाषा सचिव वीणा ने अपनी सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी कर के हिन्दी की हत्या की मुहिम की आधिकारिक घोषणा कर दी है। यह हिन्दी को सहज और सुगम बनाने के नाम पर किया गया है। परिपत्र कहता है कि सरकारी कामकाज की हिन्दी बहुत कठिन और दुरूह हो गई है। इसलिए उसमें अंग्रेजी के प्रचलित और लोकप्रिय शब्दों को डाल कर सरल करना बहुत जरूरी है। इस महान फैसले के समर्थन में वीणा जी ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली केन्द्रीय हिन्दी समिति से लेकर गृहराज्य मंत्री की मंत्रालयी बैठकों और राजभाषा विभाग द्वारा समय समय पर जारी निर्देशों का सहारा लिया है। यह परिपत्र केन्द्र सरकार के सारे कार्यालयों, निगमों को भेजा गया है इसे अमल में लाने के लिए। यानी कुछ दिनों में हम सरकारी दफ्तरों, कामकाज, पत्राचार की भाषा में इसका प्रभाव देखना शुरु कर देंगे। शायद केन्द्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के उनके सहायकों और राजभाषा अधिकारियों द्वारा लिखे जाने वाले सरकारी भाषणों में भी हमें यह नई सहज, सरल हिन्दी सुनाई पड़ने लगेगी। फिर यह पाठ्यपुस्तकों में, दूसरी पुस्तकों में, अखबारों, पत्रिकाओं में और कुछ साहित्यिक रचनाओं में भी दिखने लगेगी।
अधर में लटकी अन्ना टीम
अधर में लटकी अन्ना टीम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अन्ना आंदोलन के दो सशक्त स्तंभ तो ढह ही चुके हैं और एक पहले से ही हिल रहा है। स्वामी अग्निवेश ने अपने विरोध और मोहभंग को मोबाइल फोन से निकालकर अब लाउडस्पीकर पर चढ़ा दिया है। प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर मुँह खोलकर अपने लिए दरवाजा बंद कर लिया है। अन्ना की टिप्पणी के बावजूद अगर वे इस आंदोलन का हिस्सा बने रहते हैं तो उनकी इज्जत कितनी बची रह पाएगी, यह वे स्वयं समझ सकते हैं। जस्टिस हेगड़े पहले दिन से ही अपनी बीन अलग बजाते रहे हैं। यहाँ अगर इस बहस में न पड़ा जाए कि कौन सही और कौन गलत तो भी यह मूल प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि अभी इस आंदोलन को शुरू हुए छह माह ही हुए हैं और इसमें इतनी दरारें क्यों पड़ती जा रही हैं?
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संभव है आप भी मेरी तरह भावुक हो कर फूट फूट कर रो पड़ें
आप को अत्यंत सुखद आश्चर्य हो सकता है अथवा संभव है कि आप भी मेरी तरह भावुक हो कर फूट फूट कर रो पड़ें कि इस पाकिस्तानी चैनल के प्रस्तोता ने लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की सादगी, ईमानदारी, त्याग, आदर्शों और जीवन पर एक समूचा कार्यक्रम ही समर्पित कर दिया ( आगे स्वयं देखें )।
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हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा
हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा
गृह मंत्रालय के एक नए आदेश के अनुसार अब से सरकारी कार्यालयों में कामकाज में कामकाज राजभाषा हिन्दी की अपेक्षा हिंगलिश में किया जा सकेगा। चिदम्बरम के विश्वबैंक के एजेंडा का सच। सरकार ने हिन्दी पर आखिरी हथौड़ा चला दिया है, हमला बोल दिया है।
यदि आप हिन्दी से प्रेम करते हैं तो देश-भर में अपने अपने तरीके से इस आदेश के विरुद्ध आंदोलन चलाएँ और इस आदेश की होली जलाएँ, विरोध की हिम्मत दिखाएँ।
नीचे, प्रभु जोशी जी के सौजन्य से प्राप्त, आदेश की मूल प्रति --
भारतीय भाषाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए : भोपाल घोषणा-पत्र
भारतीय भाषाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए
भोपाल घोषणा-पत्र
(नीचे के प्रारूप से जो भी मित्र सहमत हों वे अपने हस्ताक्षर करते चलें ताकि शीघ्रातिशीघ्र केंद्र सरकार को भेजा जा सके।
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भोपाल में 24 और 25 सितम्बर 2011 को `भूमण्डलीकरण और भाषा की अस्मिता' विषय पर आयोजित परिसंवाद के हम सभी सहभागी महसूस करते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की अस्मिता ही नहीं, अस्तित्व तक खतरे में हैं।
स्वतन्त्र भारत को एक सम्पन्न, समतामूलक तथा स्वाभिमानी देश के रूप में विकसित होना चाहिए था। यह जीवन के सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं के उपयोग से ही सम्भव था, किन्तु न केवल हमारी अपनी भाषाओं की उपेक्षा की गयी, बल्कि इनकी कीमत पर अंग्रेजी को अनुचित बढ़ावा दिया गया। इसके पीछे जो वर्गीय नज़रिया था, उसने हमें एक औद्योगिक राष्ट्र बनने से रोका, हमारी खेती को चौपट किया, आम जनता से सरकारी तन्त्र की दूरी बढ़ाई और शिक्षा तथा पूँजी के वर्चस्व ने इस प्रकिया की रफ्तार को खतरनाक ढ़ंग से बढ़ाया है।
हम मानते है कि वर्तमान भूमण्डलीकृत निजाम में भारत की जो हैसियत, भूमिका और दिशा है उसमें ज़्यादातर हिन्दुस्तानियों की भौतिक खुशहाली तथा सांस्कृतिक उन्नति की कोई गारन्टी नही है। उनकी अपनी भाषाओं का दमन, उनकी भौतिक विपन्नता और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में उनकी समुचित हिस्सेदारी के अभाव के लिए जिम्मेदार है। इसलिए हमारी नजर में जन-भाषाओं की रक्षा, तरक्की और फैलाव का सुनिश्चित कार्यक्रम अपना कर तथा इस पर अमल की प्रक्रिया में शिक्षा, प्रशासन, न्याय तथा जीवन के सभी अहम पहलुओं से जुड़ी व्यवस्थाओं में गहरे परिवर्तन ला कर हम भारत के संविधान के आदर्शों एवं लक्ष्यों को हासिल कर सकते है।
अंगे्रजी से हमारा कोई दुराव नही है हम इसकी शक्ति, दक्षता और खूबसूरती के कायल है। हम चाहते है कि हमारे लोग दुनिया की अन्य समृद्ध भाषाओं के साथ-साथ अंगे्रजी से भी लाभान्वित हो, लेकिन हम नही चाहते कि अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा सम्पूर्ण भारत के समग्र विकास में रोड़े खड़े करे तथा हिन्दुस्तानियों की एक बहुत बड़ी जमात को अपने ही घर में पराया बना दे। हमें यकीन है कि अंग्रेजी के सच्चे प्रेमी अंग्रेजी को शोषण, अन्याय, विषमता तथा अविकास का औजार बनते देखकर खुश नही हो सकते। इसलिए हम इस भोपाल घोषणा-पत्र को अंगीकार करते हुए यह चाहते है और माँग करते हैं कि -
1. भारत के सार्वजनिक में यथासंभव भारतीय भाषाओं का प्रयोग हो।
2. नीचे से लेकर ऊपर तक समस्त शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाये। इसकी तुरन्त शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से की जाये। जिन विषयों की बेहतरीन किताबें भारतीय भाषाओं में नहीं है, उन्हें तैयार करने का काम विद्वानों की टोलियों को सौंपा जाए। यह काम ज्यादा से ज्यादा दस वर्ष की मियाद मंे पूरा किया जाना चाहिए। इसके चार चरण हो सकते हैं-पहले माध्यमिक शिक्षा स्तर तक, उसके बाद स्नातक स्तरप तक, फिर उत्तर-स्नातक और शोध तक और अन्त में तकनीकी विषयों की शिक्षा।
3. किसी भी भारतीय को अंग्रेज या कोई विदेशी भाषा सीखने के लिए बाध्य न किया जाये। प्रत्येक भारतीय को संविधान-मान्य भाषा में उच्चतम स्थान तथा पद तक जानेका अधिकार होना चाहिए।
4. सभी तरह की औद्योगिक प्रक्रियाओं तथा जन माध्यमों से अंग्रेजी को रुखसत करते हुए देशी भाषाओं को उनका हक दिया जाये।
5. धारा सभाओं, प्रशासन एवं अदालतों से अंग्रेजी को हटाने के लिए एक मियाद तय की जाये और किसी भी हालत में उस मियाद को न बढ़ाया जाये।
6. राज्यों की भाषा क्या हो, इस पर विवाद नहीं है। पर केन्द्र का मामला उलझा हुआ है। हम महसूस करते हैं कि बहुभाषी केन्द्र चलाना व्यावहारिक नहीं है। इसलिए, जैसा कि संविधान कहता है, केन्द्र की भाषा हिन्दी ही रहे, लेकिन केन्द्रीय नौकरियों की संख्या और नौकरशाहों की शक्ति को देखते हुए केन्द्र की राजभाषा के रूप में हिन्दी को ऐसे अतिरिक्त अवसर नहीं मिलने चाहिए, जिससे अन्य भाषा-भाषियों को अनुभव हो कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। इसलिए हम चाहते हैं कि केन्द्र के पास सेना, मुद्रा, विदेश नीति तथा अन्तरराज्यीय संसाधन जैसे विषय ही रहें और बाकी सभी अधिकार राज्यों, जिलों एवं स्थानीय निकायों के बीच बांट दिये जाएं। इससे कई राज्यों में हिन्दी के प्रति जो आक्रोश दिखाई पड़ता है, वह खत्म हो सकता है और भारतीय भाषाओं की पारिवारक एकता मजबूत हो सकती है।
7. जनसंचार माध्यमों पर पूंजी के नियंत्रण को हम खतरनाक मानते हैं। अतः जनसंचार के किसी भी माध्यम से भाषा नीति का फैसला उस माध्यम से मालिकों तथा उसमें काम करने वालों की बराबरी पूर्ण सहमति और ऐसी सहमति न बन पाने पर ‘एक व्यक्ति: एक वोट‘ के आधार पर होना चाहिए।
8. हमारे देश का नाम भारत है। अपने ही देशवासियों के मुँह से ‘इण्डिया‘ सुनकर हमें अच्छा नहीं लगता। इसलिए ‘इण्डिया, दैट इज भारत‘ को हटाकर सिर्फ भारत रखा जाये। इसी तरह, भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय रेल, आकशवाणी आदि जैसे सभी राष्ट्रीय संस्थानों के अंग्रेजी नामों कोक हटाकर उनके भारतीय नामों को ही मान्य करना होगा। ‘इण्डियन आॅयल‘ तथा ‘एअर इण्डिया‘ जैसे सभी अंग्रेजी नामों को हटा कर उनकी जगह भारतीय नाम देने का काम तुरन्त हो।
भोपाल घोषणा-पत्र किसी प्रकार के ‘शुद्धतावाद‘ या इकहरेपन का आग्रही नहीं है, न ही यह भारत को बाकी दुनिया से काट कर रखने की हिमायत करता है। घोषणा-पत्र की समझ यह है कि भौतिक रूप से सम्पन्न तथा मजबूत और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रौढ़ एवं प्रगतिशील भारत ही विश्व बिरादरी में अपना उचित तथा गौरवपूर्ण स्थान बना सकता है। इसकी शुरुआत भारत की भाषाई अस्मिता की रक्षा के संघर्ष से ही हो सकती है। हमारी भाषाएं बचेंगी, तभी हम भी बचेंगे। अर्थात् हमें पूरे आदमी और पूरे समाज की तरह जीवित रहना है, तो अपनी भाषाओं की अस्मिता को बचाने तथा समृद्ध करने की लड़ाई उसकी तार्किक परिणति तक लड़नी ही होगी। भोपाल घोषणा-पत्र निष्ठा, दृढ़ता और विनम्रता के साथ इस लड़ाई के लिए सभी का आवाहन करता है।
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खबर इस देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील, लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार और सत्तारूढ़ दल की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के पढ़ने लायक है। ये तीनों महिलाएँ हैं और तीनों भारत की सर्वोच्च संस्थाओं की सिरमौर हैं। ये तीनों महिलाएँ इस खबर को क्यों पढ़ें, यह मैं बाद में बताऊँगा।
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