''कविता के पक्ष में नहीं'' : जयंत महापात्र

पुस्तक-चर्चा






''कविता के पक्ष में नहीं''
: जयंत महापात्र की कविता*
ऋषभदेव शर्मा







''कविता के पक्ष में नहीं '' [ २००९ ] के रचनाकार जयंत महापात्र [१९२८] भारतीय अंग्रेजी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित हस्ताक्षरों में सम्मिलित हैं। उनकी पहचान कविता के एक ऐसे प्रशांत स्वर के रूप में है जिसमें सदा भारतीयता अनुगुंजित होती रहती है। उनकी प्रकाशित कृतियों में १७ अंग्रेजी काव्यसंग्रह, ५ ओडिया काव्यसंग्रह, ८ अनूदित काव्यसंग्रह, १ कहानीसंग्रह [ग्रीन गार्डनर ] तथा १ निबंधसंग्रह [डोर आफ पेपर ] सम्मिलित हैं. साहित्य अकादेमी सहित अनेक देशी-विदेशी संस्थाओं द्वारा सम्मानित और पुरस्कृत साहित्यकार जयंत महापात्र की दृष्टि में मानव मन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली शक्ति कविता है, इसीलिए वे चाहते हैं कि कवि को मानव जीवन की परिस्थितियों पर दूसरी तमाम चीजों से अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने अपने काव्य में ऐसा ही किया है और इसीलिए वे सही अर्थों में मनुष्यता के कवि हैं । उनकी कविता में प्रेम है तो प्रेम से मोहभंग भी है। वे वर्तमान काल के एकाकीपन और उससे जुड़े भय तथा यातना को अपनी कविता में वाणी प्रदान करने वाले समर्थ, तथा सही अर्थों में समकालीन, कवि हैं। जीवनराग विविध रूपों में उनकी कविता में फूट पड़ता दिखाई देता है - और जीवन से जुड़े भय तथा भ्रम भी, चाहे वे बुढ़ापे से संबंधित हों या मृत्यु से, भूख से संबंधित हों या आतंक से। उन्होंने सुनहरे अतीत के गीत गाए हैं लेकिन उसके व्यामोह में वे नहीं फँसते। बल्कि अतीत की स्मृतियाँ वर्तमान की व्याख्या करने में उनकी सहायता करती हैं और भविष्य के स्वप्न की प्रेरणा भी बनती हैं । ओडिशा की मिट्टी में पले-पुसे इस महान कवि ने अपनी रचनाओं में स्थानीयता के रंगों को भी खूब उकेरा है - सुंदर भी और विद्रूप भी।


जयंत महापात्र के निकट काव्यरचना परिवेश के वजन के दबाव को स्वीकार करने का, सहनीय बनाने का, एक यत्न है - इस तरह कि वह पोशाक जैसा हल्का हो जाए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे उत्पन्न होने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती हो। नहीं, वह तो ज्यों की त्यों रहती है, हर शाम मंदिर की घंटियों की तरह जागती है और रचनाकार की हड्डियों पर अपना वजन लाद देती है । यह स्वाभाविक भी है क्योंकि कवि न तो उस स्त्री की उपेक्षा कर सकता है जो घुटनों को छाती से लगाए लुटी-पिटी सी बैठी है और न ही उस हवा की आवाज सुनने से इनकार कर सकता है जो माँ की बाँहों में मरती बच्ची की चीख को उठाए फिर रही है। यह पीड़ा धरती से आकाश तक फैली है - धरती फट गई है, उसके हर टुकड़े से उड़ चिडिया दूर चली गई है, और बारिश का तो कहीं अता-पता ही नहीं। ऐसे में जीवन को चारों ओर से घेरता हुआ अनंत भय नाई की दुकान के समानांतर आइनों में प्रतिबिंबित होता नित्य बढ़ता चला जाता है, सुबह प्रकाशमान न होकर ताप भरे कूडे करकटोंवाली भर रह जाती है और सूरज के तले केवल धुँआ-धुँआ बच रहता है। परिणामस्वरूप व्यर्थताबोध आम आदमी की तरह कवि को भी डसने लगता है। दीवारों पर छिपकलियाँ हँसती हैं धीरे धीरे और नम धरती पर कुकुरमुत्ते उगते हैं, जगने पर न रात का बोध होता है न दिन का - लगता है जीवन झूठा है और इस झूठ में समय बीत रहा है। कवि ने इस निरर्थकता और व्यर्थता को गहराई से पकड़ा है और उससे जुड़े खीझ और ऊब के मनोभावों को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की है।


जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में भूख और बदहाली के जो चित्र उकेरे है संभवतः उनकी प्रेरणा ओडिशा की जनजातियों की जीवनस्थितियों से मिली होगी। इसीलिए गोल चक्कर काटते नर्तकों की परिधि पर नृत्य के आवेग के चरम क्षण में कवि ने बीते युगों के क्षण, धरती की शक्ति, पेड़ों की छाया और स्फटिक सबको टूटते देखा है - भुखमरी की शक्तिहीन खामोशी के समक्ष। भूख के साथ ही रात और आतंक के भी अनेकविध चित्रांकन जयंत महापात्र की कविता में मिलते हैं जो इतिहासबोध और समकालीनताबोध की संधिरेखा पर अवस्थित हैं -


‘‘रात आ रही है
केवल समुद्र की मरणांतक शांति
जिसमें एक नाव डूब गई
शहर की अंधी गली ने
बचपन के पेट को चबा लिया
और युवक की आंतों को छलनी कर दिया
मांस के खिलाफ भिंची मुट्ठी सा
फूट पड़ता है जीने का स्वाद
यहाँ कोई अंत नहीं,
हदय की निःशब्द चीखों का,
केवल पवित्र जल्लाद तनकर खड़ा है
इतिहास को हड्डियों की गहराई में काटते हुए।’’ 



अपने बचपन से लेकर देश और मनुष्यता के इतिहास तक का मंथन करके कवि ने यह निष्कर्ष पाया है कि


‘‘हमारे जाये हर एक बच्चे के भीतर अंधकार का एक टुकडा है 
जो उसका पीछा करता है जहाँ भी जाए, दिन-रात।’’


अंधकार का यह टुकड़ा सर्वव्यापी है। बाहर भी है और भीतर भी। इसीलिए इससे बचने की खातिर खिड़की बंद करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि कमरे में भी रात है। रात कमरे में ही नहीं, व्यक्ति के भीतर भी है जिसके अंधेरे में उसे बरसों गुम रहना पड़ता है - अपना रास्ता ढूँढ़ निकालने से पहले। अंधेरा परिवेश में भी है और देश में भी। पर कोशिश करने पर भी रास्ता इसलिए नहीं मिलता कि हम अंधकार से लड़ने के लिए अंधकार का ही सहारा लेते रहते हैं। धरती की परछाइयों के आगे आकाश का रंग शर्मसार होता है क्योंकि हम इतनी सी बात नहीं समझ पाते कि

‘‘मानव का वैर खुद हमसे कैसे हिफाजत करेगा हमारी ?’’ 


परिणाम स्पष्ट है कि पृथ्वी ग्रह हिंसा और असुरक्षा से घिरा हुआ है। आज हर आदमी की आत्मा एक दूसरे की हत्या करने के कारण भारी है। इस युद्ध और आतंकवाद से भरी हुई दुनिया में बुद्ध और ईसा के बाद सर्वाधिक प्रासंगिक यदि कुछ है तो वह है गांधी की अहिंसा का दर्शन। जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में महात्मा गांधी को कई तरह से याद किया है, पुकारा है -


"ईसा के इतने सालों बाद
तुम रो पड़े तो क्या तुमने रुदन को पुकारा?
तुम सभी चीजों की एकता को छूते हो
दिन का लालित्य आता और जाता है
ताकि तुम्हारे शरीर से आसानी से जिंदगी बहे
साथ में खून भी जो कि हमारी नियति को भविष्यवाणी देता है"
ताकि हम यह समझें कि यह देश तुम्हारा कितना साथ देता है।’’




महात्मा गांधी और उनके स्वप्न का स्वराज्य इसलिए भी कवि को बार-बार याद आते हैं कि पिछली आधी शताब्दी में भारत में प्रतिदिन महात्मा गांधी की हत्या हुई है और उनके स्वप्न के साथ बलात्कार हुआ है। लोकतंत्र की विफलता को लक्षित करते हुए कवि एक साधारण जागरूक नागरिक के रूप में स्वयं को भी इस सबके लिए उत्तरदायी मानते हैं -


‘‘छोटी बच्ची का हाथ अंधकार से बना है
मैं इसे कैसे थामूँ ?
सड़क की बत्तियाँ कटे हुए सिर की तरह लटक रही हैं
खून हमारे बीच के उस डरावने दरवाजे को खोलता है
देश का चैड़ा मुँह दर्द से जकड़ा है
और शरीर काँटों की सेज पर
कराह रहा है
इस नन्ही बच्ची के पास बचा है बस बलात्कार किया हुआ शरीर
ताकि मैं उसके पास पहुँचूँ
मेरे अपराध का बोझ
मुझे रोक नहीं पाता उसे बाँहों में भरने से।‘‘ 



इतने पर भी कवि को तब कुछ सांत्वना मिलती है जब इस कीचड़ में से, आत्माओं की एकत्र अस्थियों में से, कमल के ऐसे फूल के खिलने का संकेत मिलता है जो आँसू जैसा पवित्र है । इस फूल की पंखुडियों में से शताब्दियों के अंधकार का खून बह रहा है तथापि संतोष का विषय है कि कब्र के बाहर रोशनी की चोंच खुलती है और पड़ोसी के घर में बच्चा रोने लगता है तो भविष्य के इन शुभ संकेतों के बीच जागरण की संभावनाएँ रूपायित होती दिखाई देती हैं।



अंधकार में बजती टेलीग्राफ की कुंजियों की ठकठकाहट में जीवन का मर्म खोजने वाले रचनाकार जयंत महापात्र की ये अंग्रेजी कविताएँ हिंदी के पाठकों को उपलब्ध कराने के लिए अनुवादक संतोष अलेक्स [१९७१] बधाई के पात्र हैं । मलयालम मातृभाषी संतोष अलेक्स बहुभाषी अनुवादक हैं। वे अंग्रेजी, हिंदी, मलयालम और तेलुगु में परस्पर अनुवाद द्वारा भारतीय भाषाओं और भारतीय साहित्य की निरंतर सेवा में लगे हुए हैं। विशेष रूप से मलयालम साहित्य को हिंदी में उपलब्ध कराने के प्रति वे प्रतिबद्ध और संकल्पित हैं। जयंत महापात्र की कविताओं का यह अनुवाद उन्होंने अत्यंत परिश्रम और निष्ठापूर्वक संपन्न किया है।



मुझे विश्वास है कि समकालीन भारतीय साहित्य के प्रमुख कवि जयंत महापात्र की अंग्रेजी कविताओं के इस अनुवाद का हिंदी जगत में हार्दिक स्वागत होगा तथा संतोष अलेक्स भविष्य में भी इसी प्रकार हिंदी की सेवा करते रहेंगे।

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 * कविता के पक्ष में नहीं  [ कविता संग्रह] ,
अंग्रेजी मूल : जयंत महापात्र ,
 हिंदी अनुवाद : संतोष अलेक्स ,
 शब्दसृष्टि, एस - ६५८ ए, गली न. ७, स्कूल ब्लाक , शकरपुर, दिल्ली - ११० ०९२,
२००९,
 रु.१२५/-,
 ८० पृष्ठ, सजिल्द.



द्वंद्व नहीं, प्रतिद्वंद्विता का सवाल : क्या युद्ध हमेशा सीमाओं पर ही लड़ा जाता है?





द्वंद्व नहीं, प्रतिद्वंद्विता का सवाल

दूसरी बात हाल ही में सामने आई है, जिसका श्रेय ‘माओ : द अननोन स्टोरी’ के लेखक द्वय जुंग चांग और जॉन हैलिडे को है। इस पुस्तक में विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर यह बताया गया है कि माओ त्से तुंग ने भारत पर इसलिए हमला करवाया कि वे अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में जवाहरलाल नेहरू की बढ़ती हुई लोकप्रियता से चिढ़ने लगे थे। माओ का यह सपना भी पूरा हुआ, क्योंकि चीनी आक्रमण के बाद नेहरू की ख्याति और लोकप्रियता पर ग्रहण लग गया और सिर्फ दो वर्ष बाद उनका देहावसान भी हो गया। दरअसल, अतिशय महत्वाकांक्षी और सत्ता-कामी माओ का यह चेहरा भारतीय मीडिया और जनमत से छिपा रहा है, क्योंकि भारत के वामपंथ ने माओ के व्यक्तित्व को एक ‘क्रांतिकारी रहस्यवाद’ से ढक रखा है। इस बीच चीन ने अपने को एक महाशक्ति के रूप में स्थापित किया है, इसमें संदेह नहीं। दूसरी ओर, भारत सरकार और उसका चापलूस बुद्धिजावी वर्ग भारत को भी महाशक्ति के रूप में पेंट करता रहता है, पर चीन और भारत के बीच अभी भी कोई तुलना नहीं है – न सामरिक शक्ति के स्तर पर और न आर्थिक शक्ति के स्तर पर। हाँ, व्यापक गरीबी के मामले में जरूर दोनों एक-दूसरे के आसपास ही हैं। आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप इस समय चीन की राजधानी तथा अन्य शहरों से गरीबों को कुत्तों की तरह खदेड़ा जा रहा है। इसे ‘बैक टू विलेज’ अभियान बताया जा रहा है। उसके बावजूद, भारत में दरिद्रता का प्रकोप कहीं ज्यादा है। हो सकता है, चीन अगले बीस-पचीस सालों में गरीबी की समस्या सुलझा ले, पर भारत की आर्थिक प्रगति की दिशा और तैयारी को देखते हुए यह अवधि पचास वर्ष से आगे भी जा सकती है।








1962 और 2009 के बीच फर्क क्या है? तब हमारा मीडिया सोया हुआ था और आज वह कुछ ज्यादा ही जगा हुआ है। तब अखबारों में वही सब छपता था जो सरकार चाहती थी या मुहैया कराती थी। आज मीडिया हर जगह अपना एक एजेंडा तैयार कर लेता है। तब राष्ट्रभक्ति के मोह में असुविधाजनक सवाल नहीं पूछे जाते थे। आज सिर्फ असुविधाजनक सवाल ही पूछे जाते हैं और अकसर झूठी राष्ट्रभक्ति दिखाई जाती है। सनसनी की खोज केंद्रीय महत्व की वस्तु हो गई है और इसके लिए युद्ध का आधारहीन माहौल भी बनाया जा सकता है।































1962 और 2009 के बीच फर्क क्या है? तब हमारा मीडिया सोया हुआ था और आज वह कुछ ज्यादा ही जगा हुआ है। तब अखबारों में वही सब छपता था जो सरकार चाहती थी या मुहैया कराती थी। आज मीडिया हर जगह अपना एक एजेंडा तैयार कर लेता है। तब राष्ट्रभक्ति के मोह में असुविधाजनक सवाल नहीं पूछे जाते थे। आज सिर्फ असुविधाजनक सवाल ही पूछे जाते हैं और अकसर झूठी राष्ट्रभक्ति दिखाई जाती है। सनसनी की खोज केंद्रीय महत्व की वस्तु हो गई है और इसके लिए युद्ध का आधारहीन माहौल भी बनाया जा सकता है।


पिछले कुछ समय से मीडिया में चीन को ले कर खासा तनाव है। कई बार तो ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की गई कि अरुणाचल प्रदेश में चीन का आक्रमण अब हुआ कि तब हुआ। चीन अरुणाचल प्रदेश को अपने देश का हिस्सा मानता है और बताता है, यह कोई नई बात नहीं है। ऐसे ही कुछ बहानों से उसने भारत पर आक्रमण भी किया था। अरुणाचल प्रदेश में, जिसे तब नेफा कहते थे, वह दाखिल भी हो गया था। लेकिन आज यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि वह अपने दावे को साबित करने के लिए सेना भेजने की सोच सकता है। अगर वह ऐसा करता है, तो उसे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होगा। लेकिन यह चीन के राजनय का अनिवार्य हिस्सा है कि वह भारत को और दुनिया को अपने दावे की सतत याद दिलाता रहे। जब दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा का कार्यक्रम बना, तो स्वाभाविक था कि चीन की मुखरता कुछ और कर्कश हो जाती। यही हुआ और सनसनी की तलाश में हमारे मीडिया ने हुआँ हुआँ करना शुरू कर दिया।


यद्यपि भारत सरकार बार बार टीवी चैनलों को चेतावनी जारी करती रही है कि वे तिल का ताड़ बना कर जनता को गुमराह न करें, फिर भी मीडिया के नजरिए में कोई परिवर्तन नहीं आया है। कोई मामूली-सी घटना भी हो जाती है या चीन सरकार द्वारा रुटीन टाइप का बयान भी जारी होता है, तो कुछ चैनलों को जुकाम हो जाता है। अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर अरसे से हो रही घुसपैठों और सीमा पार चल रही सैनिक गतिविधियों को गरम से गरम बना कर पेश करनेवाले हमारे टीवी चैनल अपने इस अज्ञान का परिचय देते थक नहीं रहे कि सन बासठ के हमले का रहस्य क्या था। बासठ के समझे बिना दो हजार नौ को समझा नहीं जा सकता।


अब यह सूरज की रोशनी की तरह साफ हो चुका है कि बासठ में भारत की सीमाओं पर हमला करने के पीछे चीन का इरादा इस देश पर कब्जा करना नहीं था। सैनिक स्तर पर यह शायद असंभव न रहा हो, लेकिन व्यावहारिक यह किसी भी तरह से नहीं था। अगर सैनिक ताकत के बल पर कब्जा हो भी जाता, तो वह कितने दिनों तक टिक सकता था? जो देश सिर्फ पंद्रह साल पहले ब्रिटेन की गुलामी से मुक्त हुआ था, वह अपने पड़ोसी देश की अधीनता स्वीकार कर लेगा, यह बात किसी पागल के दिमाग में भी नहीं आ सकती थी। पर चीन पागल नहीं था, न है। उसकी कुछ नीतियों में शैतानी का तत्व जरूर रहा है और यह आज भी कायम है।
अब यह सूरज की रोशनी की तरह साफ हो चुका है कि बासठ में भारत की सीमाओं पर हमला करने के पीछे चीन का इरादा इस देश पर कब्जा करना नहीं था। सैनिक स्तर पर यह शायद असंभव न रहा हो, लेकिन व्यावहारिक यह किसी भी तरह से नहीं था। अगर सैनिक ताकत के बल पर कब्जा हो भी जाता, तो वह कितने दिनों तक टिक सकता था? जो देश सिर्फ पंद्रह साल पहले ब्रिटेन की गुलामी से मुक्त हुआ था, वह अपने पड़ोसी देश की अधीनता स्वीकार कर लेगा, यह बात किसी पागल के दिमाग में भी नहीं आ सकती थी। पर चीन पागल नहीं था, न है। उसकी कुछ नीतियों में शैतानी का तत्व जरूर रहा है और यह आज भी कायम है।


विभिन्न तथ्यों, विश्लेषणों और रहस्योद्घाटनों से छन कर जो बात सामने आती है, वह यह है कि बासठ की सैनिक कार्रवाई के पीछे चीन के दो इरादे थे – एक, भारत की सीमावर्ती जमीन का जितना बड़ा हिस्सा हड़पा जा सके, हड़प लिया जाए। चीन शुरू से ही विस्तारवाद की नीति का शिकार रहा है। पड़ोसियों की जमीन पर उसकी आँख बराबर लगी रहती है। यहाँ तक कि उसके सैनिक नदी के छोटे-छोटे द्वीपों तक पर कब्जा जमाने के लिए रूसी सैनिकों से टकराते रहते थे। बासठ में जब चीन का यह इरादा पूरा हो गया, तो उसने अपनी आगे बढ़ती हुई सेना को पीछे लौटने का आदेश दे दिया। युद्धों के इतिहास में यह एक विरल घटना थी कि एक शक्तिशाली और विजयी होता हुआ देश पराजित हो रहे देश की जमीन से अपने पाँव पीछे खींच ले।



दूसरी बात हाल ही में सामने आई है, जिसका श्रेय ‘माओ : द अननोन स्टोरी’ के लेखक द्वय जुंग चांग और जॉन हैलिडे को है। इस पुस्तक में विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर यह बताया गया है कि माओ त्से तुंग ने भारत पर इसलिए हमला करवाया कि वे अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में जवाहरलाल नेहरू की बढ़ती हुई लोकप्रियता से चिढ़ने लगे थे। माओ का यह सपना भी पूरा हुआ, क्योंकि चीनी आक्रमण के बाद नेहरू की ख्याति और लोकप्रियता पर ग्रहण लग गया और सिर्फ दो वर्ष बाद उनका देहावसान भी हो गया। दरअसल, अतिशय महत्वाकांक्षी और सत्ता-कामी माओ का यह चेहरा भारतीय मीडिया और जनमत से छिपा रहा है, क्योंकि भारत के वामपंथ ने माओ के व्यक्तित्व को एक ‘क्रांतिकारी रहस्यवाद’ से ढक रखा है। इस बीच चीन ने अपने को एक महाशक्ति के रूप में स्थापित किया है, इसमें संदेह नहीं। दूसरी ओर, भारत सरकार और उसका चापलूस बुद्धिजावी वर्ग भारत को भी महाशक्ति के रूप में पेंट करता रहता है, पर चीन और भारत के बीच अभी भी कोई तुलना नहीं है – न सामरिक शक्ति के स्तर पर और न आर्थिक शक्ति के स्तर पर। हाँ, व्यापक गरीबी के मामले में जरूर दोनों एक-दूसरे के आसपास ही हैं। आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप इस समय चीन की राजधानी तथा अन्य शहरों से गरीबों को कुत्तों की तरह खदेड़ा जा रहा है। इसे ‘बैक टू विलेज’ अभियान बताया जा रहा है। उसके बावजूद, भारत में दरिद्रता का प्रकोप कहीं ज्यादा है। हो सकता है, चीन अगले बीस-पचीस सालों में गरीबी की समस्या सुलझा ले, पर भारत की आर्थिक प्रगति की दिशा और तैयारी को देखते हुए यह अवधि पचास वर्ष से आगे भी जा सकती है।



इसलिए वास्तविकता यह है कि चीन के साथ हमारी असली समस्या सैनिक द्वंद्व की नहीं, आर्थिक प्रतिद्वंद्विता की है। आर्थिक विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत चीन से बहुत पीछे है। विकसित देशों के तमाम औद्योगिक निर्माताओं के लिए चीन विनिर्माण और निर्यात का मक्का बना हुआ है। स्वयं चीन की सरकार अपने उद्योग-धंधों को अधिक से अधिक उत्पादन और निर्यात करने के लिए भारी मात्रा में प्रोत्साहन दे रही है। इस समय चीन में बने सामान से भारत के बाजार पटे हुए हैं। बिजली, इलेक्ट्रानिक्स, खिलौने, कपड़े, जूते, घडियाँ आदि कई क्षेत्र हैं जिनमें चीन का सस्ता सामान हमारे उपभोक्ताओं को लुभा रहा है। भारत में उत्पादन की स्थिति ऐसी है कि बहुत-से निर्माता अपने यहाँ माल तैयार करने के बदले चीन में कारखाना लगाने या वहाँ के उत्पादों का आयात करने में फायदा देखते हैं। राखी, होली और दीपावली जैसे त्योहारों पर तो हमारे बाजारों में चीन ही चीन नजर आता है।


सीमा पर जो भी होगा, हमारे सैनिक संभाल लेंगे, यह विश्वास अतार्किक नहीं है। आखिरकार मामला छोटी-मोटी झड़पों तक ही सीमित रहेगा। लेकिन आर्थिक क्षेत्र में जो परिघटना दिखाई पड़ रही है, वह गुरिल्ला कार्रवाइयों की नहीं, खुले युद्ध की है। इस युद्ध में हम लगातार पराजित हो रहे हैं और सरकारी स्तर पर, उद्योग-धंधों की दुनिया में या मीडिया के जंगल में इसकी कोई चर्चा तक नहीं है। क्या युद्ध हमेशा सीमाओं पर ही लड़ा जाता है?




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चित्र : अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर का भाग भारत से पूरी तरह गायब  है।
राजकिशोर 

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लो आज हमने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उम्मीद

1957 में गुरुदत्त के निर्देशन व अभिनय से युक्त "प्यासा" ने कई संदर्भो में अपनी छाप छोड़ी| इसका साहित्यिक पक्ष भी उनमें से एक है|

टाईम मैगजीन द्वारा २००५  में जारी All-Time 100 Best Films (as chosen by TIME's movie critics Richads Corliss and Richard Schickel ) की सूची में भी इसे स्थान मिला| इसकी अनुशंसा करते हुए कहा गया -
Pyaasa (1957)

Directed By: Guru Dutt
Screenplay: Abrar Alvi
Cast: Guru Dutt, Waheeda Rehman


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ike Japan, India had a golden age in the 1950s. Independence from Britain sparked a robust, questioning artistry. While Satyajit Ray was pioneering the nation's art cinema, commercial filmmakers such as Raj Kapoor (Awaara), Mehboob Khan (Mother India) and Bimal Roy (Do Bigha Zamin) were grafting influences from Hollywood melodramas and Italian neo-realism onto the Indian tradition of musical narrative. Pyaasa, which means thirst, is the most soulfully romantic of the lot. Vijay (Dutt) is an unpublished poet, dismissed by family and office colleagues but befriended by a prostitute (Waheeda Rehman). In a twist out of Sullivan's Travels, Vijay is believed dead and his poetry "posthumously" lionized. The writer-producer-director-star paints a glamorous portrait of an artist's isolation through dappled imagery and the sensitive picturizing of S.D. Burman's famous songs. And Rehman, in her screen debut, is sultry, radiant—a woman to bring out the poet in any man, on screen or in the audience. —R.C.

आज इसी फिल्म के काव्य-संपन्न एक अंश को आप सब से बाँट रही हूँ -




वियोगी बाबा रामदेव


 
 
वियोगी बाबा रामदेव
- राजकिशोर

बाबाओं के प्रति मेंरे मन में शुरू से ही श्रद्धा रही है। सच तो यह है कि मैं बचपन में खुद भी बाबा बनना चाहता था। उन दिनों बाबा-सम्राट रजनीश की बहुत धूम थी। मैंने देखा कि हर्रे-फिटकरी लगे बिना भी रंग कितना चोखा आ सकता है। पार्ट-टाइम काम मुझे बहुत पसंद हैं। नौकरी की नौकरी, आजादी की आजादी। बाबावाद में इसकी पूरी गुंजायश दिखती थी। सुबह या शाम दो घंटे भाषण दो, बाकी समय मस्त रहो। अपनी एक कमी के कारण मैं इस धंधे में जाते-जाते बचा। कमी यह थी कि मैं बहुत कम उम्र में एक समाजवादी के असर में आ चुका था। रोज झूठ बोलने का पेशा अपनाने की हिम्मत नहीं हुई।
 
 
इसलिए जब भी टीवी के रंगीन परदे पर बाबा रामदेव को देखता हूँ, तो उनके प्रति सहज ही श्रद्धा उमड़ आती है। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उन्होंने योग को देश भर में चर्चा का विषय बना दिया है। हर कोई जानता है कि भारत वियोग का नहीं, योग का देश रहा है। सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती ... अहा, कितनी सुंदर जोड़ियाँ हैं। पूजा बजरंगबली की भी होती है, पर अपने कारण नहीं, उस युगल-मूर्ति के कारण जिसकी सेवा में उन्होंने अपनी जवानी होम कर दी। पंत जी ने (आज की पीढ़ी के लिए : गोविंद वल्लभ पंत नहीं, सुमित्रानंदन पंत) ने कहा, वियोगी होगा पहला कवि....। यह कविता वियोग की नहीं, योग को महत्व देने की कविता है। जब दो जन मिलते हैं, तब अपने आप कविता पैदा हो जाती है। वियोग में वह सिर्फ लिखी जाती है।
 
 
योग का असीम महत्व जानते हुए भी पता नहीं क्यों बाबा रामदेव समलैंगिकों को वियोग की स्थिति में देखना चाहते हैं। पहले समाजवाद के और बाद में बाबा रामदेव के प्रभाव से मैं यह मानने लगा था कि मनुष्य-मनुष्य सब एक हैं। क्या स्त्री, क्या पुरुष। दोनों को ही भगवान ने बनाया है। इनमें भेद हो सकता है, विभेद नहीं। इसलिए पुरुष-स्त्री साथ रहें, जैसा कि वे रहते आए हैं, या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री, इससे क्या फर्क पड़ता है। साथ ही रहते हैं, एक-दूसरे के साथ थुक्का-फजीहत तो नहीं करते। आपस में प्यार ही तो करते हैं, लड़ते-झगड़ते तो नहीं। फिर समलैंगिकों को आशीर्वाद देने के पहले बाबा उनके खिलाफ अदालत जाने की क्यों सोच रहे हैं, समझ में नहीं आता।

 
बाबा को क्या यह पता नहीं कि अदालत में सत्य का परीक्षण नहीं हो सकता? अदालत का सत्य जो भी हो, वह क्षणिक होता है। भारत की एक अदालत ने भगत सिंह को फाँसी पर चढ़वा दिया था। आज उस अदालत के जज दिखाई पड़ जाएँ, तो जनता उन्हें मार-मार कर भरता बना देगी। विदेश की दर्जनों अदालतों ने ‘लेडी चैटर्ली’ज लवर’ को अश्लील करार दिया था। लोग छिप-छिप कर इस किताब को पढ़ते थे। फिर वह अदालत आई जिसने कहा कि इस उपन्यास में कहीं भी अश्लीलता नहीं है। इसलिए मैं तो ईश्वर की अदालत को छोड़ कर और किसी अदालत में विश्वास नहीं करता। मैं समझता था कि बाबा रामदेव भी ईश्वरवादी हैं। इसलिए यह देख कर बड़ी हैरत हुई कि वे ईश्वर से ज्यादा वेतनभोगी जजों पर भरोसा करते हैं। क्या जजों में भी समलैंगिकता नहीं हो सकती ?

 
बाबा रामदेव का कहना है, समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक है। बाबा अपनी जिम्मेदारी पर ऐसा कहते हैं तो होगा। पर इस दुनिया में सर्वज्ञ कौन है? अंतिम तौर पर यह जानने का दावा कौन कर सकता है कि क्या प्राकृतिक है और क्या सांस्कृतिक। विद्वान लोग बताते हैं कि जो सांस्कृतिक है, वह प्राकृतिक भी है। यदि मानव प्रकृति में सांस्कृतिक होने की स्वाभाविक चाह न होती, तो संस्कृति का इतना बड़ा ताना-बाना कैसे खड़ा होता? फिर मानव अपनी गलतियों से सीखता भी है। सौ साल पहले तक राजशाही प्राकृतिक लगती थी। आज लोकशाही ही प्राकृतिक लगती है। आज जो राजशाही का समर्थन करेगा, उसे पागल करार दिया जाएगा।


इसी तरह, हो सकता है, आज समलैंगिकता ऊटपटांग चीज लगती हो, पर कल यही स्वाभाविक लगने लगे। स्त्रियों के जोड़े एक तरफ, पुरुषों के जोड़े एक तरफ। अभी भी धार्मिक सत्संग में, क्लबों में, शादी-ब्याह के मौकों पर क्या स्त्री-पुरुष अलग-अलग नहीं बैठते? विषमलैंगिकता को आग और फूस के साथ की तरह खतरनाक माना जाता है। इससे बेहतर है कि आग आग के साथ रहे और फूस फूस के साथ। या आग में फूस के गुण पैदा हो जाएँ और फूस में आग के। फिर, कौन किसके साथ घर बसाता है, इससे पड़ोसियों को क्या मतलब? दूसरों के बेडरूम में झाँकना  शिष्टाचार के विरुद्ध है। सोच रहा हूँ, बाबा से जल्द ही मिलूँ और उनसे पूछूँ कि योग अच्छा है या वियोग। 
 
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पाकिस्तान विघटन के कगार पर



 
पाकिस्तान विघटन के कगार पर

ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत, वी एस एम

पाकिस्तान का निर्माण भारत की स्वतंत्रता से एक दिन पहले १४ ऑगस्ट १९४७ को हुआ था. कराची में समारोह हुआ था. लॉर्ड मांउट्बेटन, जो अविभाजित भारत के अंतिम वाइसरॉय थे, और मोहम्मद अली जिन्नाह, जो पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल थे, साथ साथ समारोह में पहुँचे थे। वाइसरॉय की बग्घीयात्रा सुखद नहीं रही क्योंकि आसूचना विभाग ने पूर्व चेतावनी दी थी कि उन पर कोई अँग्रेज़ विरोधी बम से हमला करेगा. अंतिम वाइसरॉय ने स्वयं लिखा है की बग्घी में बैठे बैठे वे लगातार भीड़ में उस आदमी को खोजने में व्यस्त रहे, जिसका हाथ ऊपर उठे बम फेंकने के लिए और वे स्वयं बचाओ मुद्रा में आते हुए अपने सुरक्षा कर्मियों को सतर्क कर दें। ईश्वर की कृपा से ऐसा कुछ नहीं हुआ. जिन्नाह को सत्ता सौंपने के बाद वो फ़ौरन नयी दिल्ली वापस आ गये और तब जा कर उन्हे चैन मिला। पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही असुरक्षा की भावना इतनी प्रबल थी की स्वयं लॉर्ड माउंटबैटन भी उस से बच नहीं सके, आम आदमी की कौन कहे. हिंदू और मुसलमान के बीच ऐसी मारकाट मची हुई थी कि लोग कहने लगे प्रशासन, क़ानून और व्यवस्था में, इस से अच्छे तो अँग्रेज़ ही थे.


पाकिस्तान किसे मिला

पाकिस्तान निर्माण में उस समय के युनाइटेड प्रॉविन्सस के मुसलमान अग्रणी थे. हिंदू विरोधी भी वही सबसे अधिक थे. अखंड भारत जैसा शब्द वे सुनने को राज़ी नहीं थे, उस मुद्दे पर विचार-विमर्श का प्रश्न ही नहीं उठता था. हज़ारों की संख्या में वे अपना घर-बार त्याग कर, सपरिवार पाकिस्तान गये. कराची पहुचें तो वहाँ के मुसलमानों ने न स्वागत किया, न सत्कार. उन्हे मोहाजिर नाम दिया गया. कल्पना के स्वर्ग में वे बने शरणार्थी. किन्ही किन्ही की बहू-बेटियों को भी स्थानीय मुसलमान भगा ले गये. अंततः उन्हें अपना राजनैतिक दल बनाना पड़ा और कम से कम कराची की राजनीति में वर्चस्व बनाना पड़ा. भारत से आ कर पाकिस्तान में बसने वाले मुसलमानों को, मारे गये और पलायन किए हुए हिंदुओं की ज़मीन जायदाद मिल गयी लेकिन कराची और आस-पास ही में. अन्य स्थानों पर वहाँ के स्थानीय मुसलमानों ने क़ब्ज़ा जमाया और मोहाजिर को तो घास भी नहीं डाली.


सेना हो या हो राजनीति - सभी विभागों में पाकिस्तानी पंजाब के मुसलमानों की तूती बोलती रही. सेना में उनकी संख्या प्रबल होने से सेना प्रमुख पंजाबी ही बनता रहा. जब जब लोकतंत्र का तख्ता पलटा गया और सेना का शासन हुआ तो मार्शल लॉ प्रशासक पंजाबी मुसलमान ही बना. असैनिक प्रशासनिक सेवा में भी उसी प्रांत का बोलबाला था. बलूच, सिंधी और पठान अपने को अलग-थलग समझने लगे. पठानों में से काई लोग तो मार्शल लॉ प्रशासक आदि उँचे ओहदे पर आसीन हुए, जैसे फील्ड मार्शल अयूब ख़ान लेकिन बलूच बेचारे कहीं के नहीं रहे. सिंध से प्रधान मंत्री हुए जैसे भुट्टो परिवार से दो और अब राष्ट्रपति ज़ारदारी लेकिन आम आदमी अपने को उपेक्षित पाता रहा. पाकिस्तान से अलग हो कर स्वतंत्र होने की भावना बलूचिस्तान के लोगों में सबसे प्रबल रही है. पाकिस्तानी सेना ने वहीं क़हर ढाया और ऐसा नृशंस अत्याचार किया कि हलाकू को भी शर्म आ जाए. जनरल टिक्का ख़ान को तो लोगों ने "बुचर ऑफ बलूचिस्तान" की उपाधि दे डाली. पाकिस्तान के बिखरने में और टूटने में बलूचिस्तान की भूमिका प्रमुख रहेगी.



पाकिस्तान कब टूट कर बिखर जाएगा ? यह एक महत्वपूर्ण बात है और इस पर शीघ्रता में कोई भविष्यवाणी नहीं कर देनी चाहिए जो बाद में झूठी साबित हो. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि संसार के अधिकतर पत्रकार यह मानते हैं कि  पाकिस्तान का स्वास्थ्य ठीक नहीं है. अभी कोई चिकित्सक भी आस-पास नहीं है जो मर्ज़ जान कर सही दवा दे सके. पाकिस्तान का कोई शुभ चिंतक दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है. अधिकतर लोग तो "नीम हकीम ख़तरये जान हैं" और वहाँ नीम मुल्ला ख़तरे इमान की भी कमी नहीं है. यदि परमात्मा कभी किसी सही मायने में पाकिस्तानी को जन्म देता है जो केवल दाढ़ी शरिया को ही इस्लाम का सही रूप ना समझ ले, तो हो सकता है कि पाकिस्तान विघटन के कगार से वापस लौट आए.


हम आने वाले कल की प्रतीक्षा करेंगे और आशा करेंगे कि नयी सुबह की नयी किरण नये जीवन का संचार करेगी. उम्मीद है कि पाकिस्तान के शासक और लोग अपने देश को आतंक मुक्त करने की कोशिश सही मायने मे करेंगे और आस पास के देशो में आतंकवाद का निर्यात करने में अब समय और ऊर्जा नष्ट नही करेंगे।




आत्मविश्वास और ऊपर उठाएँ








   आत्मविश्वास और ऊपर उठाएँ 


ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत
विशिष्ट सेवा मैडल





मेरे अनेक मित्र मुझ से अक्सर पूछते हैं कि मेरे चेहरे पर मुस्कान सदैव कैसे बनी रहती है. मैं उनका उत्तर केवल एक और मीठी मुस्कान से देता हूँ. वे और भी चकित हो जाते हैं. आँखों ही आँखों में पुनः प्रश्न करते हैं - प्रभु, कुछ तो बताएँ. आत्म श्लाघा का दोष लगने के डर से मैं कुछ कह नहीं पाता. मेरे मौन को जिज्ञासु मेरा कोरा अभिमान न समझें, इस कारण कुछ स्वर स्फुटित होते हैं.

लक्ष्य क्षमता से परे न हो


मुझे पाकिस्तान का भारत के विरोध में विष वमन बिलकुल पसंद नहीं है. मैं अक्सर सोचता हूँ कि उनकी ईंट का जवाब पत्थर से दूँ. उनके ऊपर चढाई कर दूँ. लक्ष्य अच्छा है किन्तु उसे पाना मेरी क्षमता के बाहर है. यदि मैं अकेले ही वाघा सीमा की ओरे चल दूँ तो पहले तो अपने देश की पुलिस ही मुझे एक सिरफिरा समझ कर पकड़ लेगी. यदि उनसे बचते -बचाते सीमा पार कर लूँ तो पाकिस्तानी पुलिस पकड़ लेगी. मेरा लक्ष्य एक तरफ धरा रह जाएगा और दूसरी तरफ उनकी गालियाँ सुनने और लात-घूँसा खाने को मिलेगा. पुलिस तो सीमा के आर पार एक सामान है - क्रूर, असभ्य तथा विवेक शून्य. इस लिए मैं अपने को ही दोष दूँगा कि मैंने ऐसा लक्ष्य क्यों चुना जो केवल बुद्धिहीन ही चुन सकते थे. नित्य दो बार संध्या करते समय - "धियो यो नः प्रचोदयात" कहने से क्या लाभ?
यह हवा की चक्की के ऊपर भाले से आक्रमण करना हुआ जो विवेकी मनुष्य नहीं करते. इस काम से मेरा मनोबल नीचे गिरा और हताशा ने आ घेरा.


हताशा और निराशा ऐसे दो राक्षस हैं जिनका हनन करने के लिए राम बाण की आवश्यकता पड़ती है. ये दोनों जुड़वाँ भाई हैं. साथ-साथ रहते हैं और यदि कभी अलग हुए तो आस-पास ही मंडराते रहते हैं. इन्हें भगाना लोहे के चने चबाने सामान है. यह एक अलग प्रश्न है जिस पर और कभी विस्तार से चर्चा होगी . अभी तो हमें केवल इतना सोचना चाहिए कि हम ऐसा उल्टा-सीधा लक्ष्य न चुन लें जो सर दर्द बन जाए .


अपने सामर्थ्य के अनुसार लक्ष्य चुन कर उसे पाने के लिए प्रयास करें. यदि ज्ञान पाने की बात है तो पुस्तकालय जा कर मौलिक पुस्तके पढ़ कर जानकारी लें. यदि शारीरिक काम है तो अपने शारीर को हृष्ट-पुष्ट बनायें जिससे निर्धारित काम को पूरा करने में सफलता अवश्य मिले. हमारा प्रयास यह होना चाहिए की हमें कभी असफलता मिले ही नहीं. यदि मिले, तो हम पुनः प्रयास करके असफलता को सफलता में बदल दें.


एक सफल व्यक्ति के लिए सतत रूप से प्रयास करते रहना अनिवार्य है. प्रश्न यह उठता है कि प्रयास के बावजूद हम कभी कभी असफल हो जाते हैं तो क्या अपने भाग्य को दोष दें? बिलकुल नहीं. "देव देव आलसी पुकारा " और एक विवेकी एवं सफल मानव कभी आलसी नहीं हो सकता है. असफलता का कारण प्रयास में कमी हो सकता है.

असफलता की समीक्षा करते समय यह देखना आवश्यक है कि न्यूनता कहाँ रह गयी. अगले प्रयास में उसे दूर
करके सफलता प्राप्त करें. महाराणा प्रताप कई बार युद्घ हार गए किन्तु निराश नहीं हुए. दानवीर भामाशाह द्वारा दिए गए धन से पुनः सेना संगठित की और मुग़ल किले पर धावा बोल दिया. सभी दुर्ग वापस जीत लिए, केवल चित्तौड़गढ़ नहीं ले सके.

परिवार समर्थन


जीवन में सफलता पाने के लिए हमें परिवार और मित्रों का समर्थन भी प्राप्त करना चाहिए. जीवन में कोई सम्बन्ध एकतरफा नहीं होता. यदि हम सगे-सम्बन्धियों के लिए कुछ करते रहे तो वे भी हमारे लिए कुछ अवश्य करेंगे. - पति-पत्नी के प्रेम सम्बन्ध प्रगाढ़ होने के बावजूद, सांसारिक आराम और सुख-सुविधा के लिए पति और पत्नी को एक दूसरे के लिए नित्य काम करना चाहिए. इस से प्रेम प्रगाढ़ होगा और पति-पत्नी के बीच "वो" कभी भी नहीं आ सकेगा. द्वार पर दस्तक भी नहीं दे सकेगा. इस से हम निश्चिंत हो कर अपना काम कर सकेंगे और सफलता के सहारे अपना मनोबल और अपना आत्मा-विश्वास आकाश की ऊँचाइयों तक पहुँचा सकेंगे . छोटी-मोटी सफलता भी आत्म विश्वास बढ़ने के मार्ग पर एक मील का पत्थर है. हर सफलता एक सोपान है जो हमें आत्मविश्वास को ऊँचाई तक ले जाने में सहायता करती है.


आत्म विश्वास ऊँचा उठाने में तन-मन-आत्मा; इन सभी का योगदान रहता है, स्वस्थ तन में स्वस्थ मन और स्वस्थ आत्मा तथा सशक्त सोच. जब आप अच्छी तरह सोच कर योजना बनाएँगे तो सफलता आप के हाथ चूमेंगी. मार्ग में बाधाएँ  आएँगी, उन्हें पार करते रहे. यदि कहीं गिर पड़ते हैं तो फिर से उठिए और अपने मार्ग पर चलते रहिये. छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुग़लों की ताक़त को तलवारों पर तोला था और हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की थी, एक बार मुग़ल बादशाह के बंदी भी बने. निराश नहीं हुए. मुक्ति-मार्ग की खोज करते रहे. अंततः उन्हें और उनके पुत्र संभाजी को मुक्ति मिली. आगरा से वापस महाराष्ट्र लौट कर छत्रपति शिवाजी महाराज ने पुनः अपना राज्य मुग़ल सेनापति से वापस जीत लिया. यह छत्रपति के ऊँचे आत्म विश्वास के कारण ही संभव हो सका, स्वामी दयानंद सरस्वती ने जब पहली बार कुम्भ मेले में वेद प्रचार आरम्भ किया तो सुन ने वालों की संख्या नहीं के बराबर थी. वे निराश नहीं हुए. स्वाध्याय किया, प्रवचन शैली में सुधार लाये और सरल हिंदी में प्रचार कार्य किया . महती सफलता मिली. आर्य समाज की स्थापना मुंबई में १८७५ में हुयी. फिर उन्हें मुड़ कर नहीं देखना पड़ा.



अंत में यह याद रखिये की विषम परिस्थिति में ईश्वर को याद करें. जैसा पहले अन्य लेखों में मैंने कहा है, आप और हम सदैव प्रार्थना एवं पुरुषार्थ का संगम करें. दोनों हमारे साथ हैं तो हमारे यज्ञ में राक्षस नहीं आएँगे. यदि राक्षस आ भी गए तो हमारे यज्ञ का विध्वंस नहीं कर पाएँगे. प्रार्थना और पुरुषार्थ से मिली शक्ति हमारे शस्त्रागार का ब्रह्मास्त्र है जो न केवल राक्षस को अपितु राक्षसी प्रभाव को भस्म कर देगी. फिर हमारा आत्म विश्वास आकाश को छूने लगेगा. तमस को, अन्धकार को हम अपने आत्म विश्वास से भेद कर प्रकाश का संचार कर सकेंगे और कहेंगे - तमसो मा ज्योतिर्गमय  










दुर्गम मृत्यु-चक्र में जीवन



बचपन में सर्कस देखने जाते समय जैसा कौतूहल व अवाक् भाव लिए लौटते थे, उसमें "मौत का कुआँ" जैसे "खेले" बंद गोले में होने और मेले-ठेले में दिखाए जाने के बावजूद भी लगभग अविश्वसनीय-से और भयोत्पादक हुआ करते थे| आप सबने भी देखा ही होगा वह "मौत का कुआँ "| 

मौत का वह कुआँ इस दुर्गम अभ्यास के आगे कहाँ ठहरता है, आप भी देखिए और बताइये  -





विवाह के इस चित्र का दर्द


विवाह के इस चित्र का दर्द 

मेरे एक मित्र ने मुझे गत दिनों पुणे में संपन्न हुए एक विवाह का चित्र संलग्न कर के भेजा | उस चित्र को देख कर हँसूँ  या `धत् तेरे की कहूँ' समझ नहीं पाई | भई  माना कि भारत में स्वाइन फ्लू के मामले हैं, मामलों के अंत दुखदायी हैं बहुतेरे, .. पर बंधुवर! विवाह कर रहे हो तो इस खानदानी ऐतिहासिक चित्र की नजाकत को तो समझो और कम से कम उतनी देर-भर के लिए तो अपने मास्क उतार दो | तरीके और भी हो सकते थे | ... खैर उनकी मीमांसा करना हमारा धर्म नहीं है, हम तो बस चित्र को आप से बाँटने से न रह पाए ;

सो आप भी देखिए और बताइये कि क्या अपने विवाह जैसे अवसर के इस अमोल चित्र का यही रूप होना अनिवार्य था ?

बड़ा कर देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें|









शक्ति संग्रह के अभाव में प्रेम सिर्फ कविता है, सत्य मात्र सुभाषित है






गरीब के पास जाओ वह राह दिखाएगा

राजकिशोर


गरीब का घर आधुनिक भारत की सबसे बड़ी पाठशाला है। वहाँ अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र से ले कर धर्म, दर्शन और समाजशास्त्र सब की शिक्षा मिल सकती है। अगर चंद्रमा का वास्तविक रहस्य उसकी सतह की चट्टानों में नहीं, उसके बड़े-बड़े गह्वरों में छिपा हुआ है, तो गरीब के घर में ही भारत की वर्तमान दशा-दिशा को समझने की कुंजी का वास है। गरीब से हम क्या सीखते हैं, यह उस गरीब पर नहीं, उस गैर-गरीब पर निर्भर है जो उसके पास जाता है। गरीब इसलिए भी गरीब है क्योंकि उसके पास अपना और अपनी स्थिति का विश्लेषण करने की क्षमता नहीं है। उससे ज्यादा पढ़ा-लिखा, उससे ज्यादा समझदार उसके पास जाता है तो उसके पास ऐसे औजार होते हैं जिनसे वह गरीबी के सत्व को आत्मसात कर सकता है। याद रखना जरूरी है कि जब महात्मा गाँधी निलहे किसानों की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए चंपारण गए, तब जा कर उन्हें भारतीय स्थिति का मर्म समझ में आया। यहीं उन्हें वे तीन स्त्रियाँ मिलीं जो उनकी जाँच टीम के सामने गवाही देने के लिए एक साथ नहीं आ सकती थीं क्योंकि उनके घर में एक ही साबुत साड़ी थी जिसे पहन कर बाहर निकला जा सकता था। उस परिवार की इस स्थिति को देखा, जाना और समझा उन अनेक व्यक्तियों ने भी जो गाँधी जी की जाँच टीम में शामिल थे, पर भविष्य में कम से कम कपड़े पहनने का निर्णय अकेले गाँधी ने किया। कहने की जरूरत नहीं कि बाकी सभी महानुभावों की नजर निलहे किसानों पर जुल्म की समस्या तक सीमित थी, जब कि गाँधी इसके साथ-साथ या कहिए इसके आईने में और भी बहुत कुछ देखने के लिए उत्सुक और आत्म-प्रशिक्षित थे। हर चीज हर चीज से जुड़ी हुई होती है – कहीं मित्र भाव से और कहीं शत्रु भाव से, यह हम न देखना चाहें, तो कोई क्या कर सकता है?



महात्मा गाँधी के उदाहरण से यह सबक मिलता है, अगर सबक लेने में हमारी कोई दिलचस्पी रह गई है, कि गरीब के पास जाओ, तो किस तरह जाओ। तुम जैसा जाओगे, वैसा ही वहाँ पाओगे। अगर नेतागीरी करने जा रहे हो, तो गरीब के घर जा कर नेतागीरी करोगे तथा बाहर से फूल कर, कुप्पा हो कर लेकिन भीतर से कुछ और दीन-हीन हो कर वहाँ से लौटोगे। ऐसी यात्राओं को अगर दलित पर्यटन का नाम दिया जा रहा है, तो क्या गलत है! पर्यटक आनंद प्राप्त करने के लिए ही कहीं जाता है। वह अगर गम वाली, तकलीफ वाली जगह पर जाता है, तो डॉक्टर की तरह, स्वयंसेवक की तरह नहीं जाता है। वह बाद में दूसरों को यह बताने के लिए जाता है कि उसने दुख और अभाव की कैसी दर्दनाक बस्तियाँ देखी हैं। तो नेतागीरी करने के लिए गरीब के घर जाओगे, तो वहाँ कुछ देख कर नहीं, बल्कि अपना कुछ दिखा कर वहाँ से लौटोगे। इससे न तुम्हारा भला होगा, न गरीब का। वह बेचारा शुरू में अपने घर में बड़े आदमियों का स्वागत करने के अवसर से भले ही थोड़ा गौरव-दीप्त हो ले, पर धीरे-धीरे यह सब उसके लिए एक और बोझ बनता जाएगा। एक ही नौटंकी रोज देखी जाए, तो एक समय के बाद हँसी नहीं आती, गुस्सा आता है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को गरीबनिवाजी के लिए जिस तरह निर्देश जारी किए जा रहे हैं और इसे आत्म-शिक्षण का नहीं, लोक शिक्षण का कार्यक्रम बनाने का यत्न किया जा रहा है, उसके बाद राहुल गाँधी को भी अपनी ऐसी व्यक्तिगत यात्राओं के बारे में पुनर्विचार करना पड़ सकता है।



गरीब के पास जाने का एकमात्र तरीका वही हो सकता है जो किसी और के पास जाने का है : प्यार से जाओ। तुम सेंसस के कर्मचारी नहीं हो। तुम चकबंदी अधिकारी नहीं हो। न ही मलेरिया इंस्पेक्टर हो। तुम्हें वहाँ जा कर कुछ सूचनाएँ नहीं जुटानी हैं न कुछ सूचनाओं का प्रसारण करना है। सीमित प्रयोजन वाली यात्राएँ सीमित परिणाम ही दे सकती हैं। गरीब के पास जाओ, तो इसलिए जाओ कि उसके प्रति तुम्हारे मन में प्रेम है। प्रेम ही उसकी झोपड़ी में और उसके माहौल में तुम्हारी आँखें खोले रखेगा और तुम्हें वह सब कुछ देखने को बाध्य करेगा जिसके कारण तुम्हारे और उसके बीच तरह-तरह की दूरी बनी हुई है। प्रेमिल हृदय के बिना तुम्हारे लौट आने के बाद यह दूरी कम नहीं होगी। बल्कि बढ़ती रहेगी, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था सफल और विफल के बीच अलंघ्य दूरियाँ पैदा करने के सिद्धांत पर ही टिकी हुई है। तुम्हारे भीतर अगर पहले से ही गरीब के प्रति प्रेम से भरा हुआ नहीं है, तुम सिर्फ उत्सुकतावश वहाँ जाते हो, तब भी अगर तुम्हारा दिल खुला हुआ है और तुम्हारा दिमाग साफ है, तो ज्यादा संभव है कि तुम्हें गरीब से प्रेम हो जाए। उसकी अभावग्रस्तता देख कर, उसकी वैचारिक असंगतियों पर गौर कर यह भावना तुम्हारे भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगेगी कि तुम्हारे प्रेम का सच्चा पात्र अगर कोई है, तो यही है, यही है, यही है।



तब तुम गरीब से धड़ाधड़ सीखने भी लगोगे। उसका घर देख कर तुम्हारे मन में यह विचार आएगा कि निवास की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें सबको अपने लिए थोड़ी खुली जगह मिले। तब तुम्हें बड़े-बड़े फ्लैटों और कोठियों पर गुस्सा आने लगेगा। तुम्हें लगेगा कि रहने की जमीन और घर बनाने के साधनों का मौजूदा बँटवारा दुष्टता और पाप से भरा हुआ है। जब तुम उसके घर में पड़े अनाज की किस्मों और मात्रा पर नजर डालोगे, तो तुम्हें दिल्ली, मुंबई और दूसरे शहरों में खाद्य और पेय पदार्थों की गुणवत्ता, विविधता और उपलब्धता पर ग्लानि होने लगेगी। जब तुम देखोगे कि गरीब के घर में नहाने-धोने और पीने के पानी का इंतजाम कैसा है, बिजली है या नहीं और है तो कितनी है, बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं कि नहीं और जाते हैं तो क्या पढ़ कर लौटते हैं, स्त्रियों की स्थिति कैसी है, उनकी सहनशीलता को किस असंभव लंबाई तक खींच कर ताना हुआ है, तब तुम गहरे सोच में पड़ जाओगे। तुम्हारा दिमाग चकरघिन्नी खाने लगेगा कि हे भगवान, नागरिकों का एक छोटा-सा वर्ग किस संवैधानिक, धार्मिक, नैतिक या लोकतांत्रिक अधिकार से नागरिकों की इतनी विशाल आबादी को दबोच कर, एक अंधे कुएँ में औंधे लटका कर रखे हुए है। तब तुम्हारा हृदय विद्रोह कर उठेगा और तुम अपने ही वर्ग के विरोधी बन जाओगे। लुटेरों के साथ रहते हुए, घूमते-फिरते हुए, उनका हँसी-मजाक सुनते हुए तुम्हारा रोआँ-रोआँ जलने लगेगा।



गरीबी सिर्फ भौतिक ही नहीं होती। वह वैचारिक भी होती है। जब तुम गरीब के घर में रहोगे, उस घर में रहनेवालों और आने-जानेवालों से बातचीत करोगे, उनकी भावनाओं को अपने हृदय में स्थान दोगे, उनकी तर्क प्रणाली पर विचार करोगे, तब भी तुम्हारा दिल किसी जलते हुए मकान की तरह प्रज्वलित हो उठेगा। तुम्हारे अंधेरे दिमाग में ये चिनगारियाँ दीपावली के आसमान की तरह भेदने लगेंगी कि दुनिया में ज्ञान-विज्ञान का इतना विस्फोट हो चुका है, मनुष्य और उसकी स्थिति के बारे में इतना कुछ जाना-समझा जा चुका है, ईश्वर और धर्म की हकीकतें सामने आ चुकी हैं, विषमता के अधिकांश स्रोत हथेली पर रखे हुए आँवले की तरह एकदम स्पष्ट हैं, दुख और सुख को स्रोत बहुत ज्यादा गोपनीय नहीं रह गए हैं, आजादी और गुलामी के रेशे करीब-करीब पहचान लिए गए हैं, मानव अधिकारों के नक्शे में रेखाएँ और रंग एक पर एक भरते ही जा रहे हैं, तब भी, हाँ, तब भी मानवता के इतने बड़े हिस्से का वैचारिक अस्तित्व इतना धूसर क्यों है? सूचना का अधिकार दे दिया गया है, पर ज्ञान पर अभी भी मुट्ठी भर लोगों का कब्जा है। लड़ते तो हाथ-पैर ही हैं, पर लड़ने की प्रेरणा और ताकत दिमाग से मिलती है। जब तुम गरीबी के इन पहलुओं से साक्षात्कार करोगे, तब बाहर ही नहीं, भीतर भी बहुत कुछ बदलने के लिए आकुल हो उठोगे। जो ज्ञान समाज में फैल नहीं सका या फैलाया नहीं जा सका, वह अंतत: शोषण के औजार के रूप में ही अस्तित्व में बना रह सकते है। जब तुम सच्चे दिल से यह अनुभव करोगे, तब, अपने जीवन में शायद पहली बार, यह अनुभव कर सकोगे कि गरीब का घर एक बहुत बड़ी पाठशाला है। जब तुम अमीर के घर जाते हो, तो सिर्फ जानकारी बढ़ा कर लौटते हो। हो सकता है, तुम्हारे भीतर द्वेष भी पैदा हो। जब तुम गरीब के घर जाते हो, तो तुम्हारे व्यक्तित्व के दबे हुए, मुरझाए फूल खिल उठते है। यथार्थ के उन पहलुओं से तुम्हारी नजदीकी कायम होती है जिनके अभाव में तुमने अपने आपको कुएँ का मेढ़क या एक्वेरियम की मछली बना रखा था।



लेकिन कुछ भी होने के लिए प्रेम अकेला काफी नहीं है। वह प्रेरणा दे सकता है, शक्ति पैदा नहीं कर सकता। शक्ति के लिए तो लोगों के पास जाना होगा। एकाकी की शक्ति पूजा देह बल या शस्त्र बल पैदा करता है। ये पाशविक शक्ति की अभिव्यक्तियाँ या उसका विस्तार हैं। सच्ची शक्ति का जन्म तो लोगों के साथ मिलने से होता है। जब लोगों का जुड़ाव होता है, तब हिंसा अनावश्यक या अर्थहीन हो जाती है। सत्य में सामर्थ्य आ जाती है। इस सामर्थ्य के हिस्सेदार के रूप में ही व्यक्ति भी तेजस्वी और बलशाली हो उठता है। जो जनता से जुड़े बिना, उसके साथ सघन रिश्ता बनाए बगैर अनशन पर बैठ जाते हैं या सत्याग्रह करने लगते हैं, उन्हें समय से पहले ही नींबू-पानी पी कर उठ जाना पड़ता है। शक्ति संग्रह के अभाव में प्रेम सिर्फ कविता है, सत्य मात्र सुभाषित है।



इसलिए जब तुम गरीब के घर जाते हो, तो वहाँ सिर्फ प्रेम का जागरण नहीं होता, शक्ति का भी संधान होता है। तुम देख पाते हो कि शक्ति का सच्चा स्रोत कहाँ है। तब तुम खुद को भी शक्तिशाली महसूस करते हो। तुम्हारा असहायपन दूर होने लगता है। गरीब से दूर रह कर तुम अपने ही सत्य के सामने निरुपाय अनुभव करते हो, अपने ही प्रेम के सामने नपुंसक बन जाते हो। गरीब के साथ एकाकार होना प्रेम की शक्ति को पहचानना है, उस शक्ति का संचार करना है। तब पाठशाला एक अद्वितीय शस्त्रागार भी बन जाती है। इस शस्त्रागार की सबसे बड़ी महिमा यह है कि इसमें किसी के प्रति घृणा या द्वेष के लिए कोई जगह नहीं होती। प्रेम ही परिवर्तन का औजार बन जाता है। यह रास्ता कहीं और दिखाई नहीं देगा। बाकी रास्ते किसी न किसी बिंदु पर जा कर रुक जाते हैं। यह रास्ता सीधा, प्रशस्त और अंतहीन है।

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सादगी का गेम शो


सादगी का गेम शो 
  डॉ. वेदप्रताप वैदिक
 
 
किसे सादगी कहें और किसे अय्याशी ? हवाई जहाज की 'इकॉनामी क्लास' में यात्रा को सादगी कहा जा रहा है| इन सादगीवालों से कोई पूछे कि हवाई-जहाज में कितने लोग यात्रा करते हैं ? मुश्किल से दो-तीन करोड़ लोग ! 100 करोड़ से ज्यादा लोग तो हवाई जहाज को सिर्फ आसमान में उड़ता हुआ ही देखते हैं| तो हवाई- यात्रा सादगी हुई या अय्याशी ? देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो साल में एक बार भी रेल यात्रा तक नहीं करते| करोड़ों ऐसे हैं कि रेल और जहाज उनकी पहुंच के ही परे हैं| करोड़ों लोग ऐसे भी हैं, जो कभी कार में ही नहीं बैठे| तो क्या मोटर कार, रेल और जहाज में यात्रा करने को अय्याशी माना जाए ? नहीं माना जा सकता| जिन्हें जरूरत है और जिनके पास पैसे हैं, वे यात्रा करेंगे| उन्हें कौन रोक सकता है ? वे यह भी चाहेंगे कि विशेष श्रेणियों में यात्रा करें| सवाल सिर्फ आराम का ही नहीं है, रूतबे का भी है| रूतबा असली मसला है, वरना दो-तीन घंटे की हवाई- यात्रा और पांच-छह घंटे की रेल- यात्रा में कौन थककर चूर हो सकता है| अगर पूरी रात की रेल या जहाज की यात्रा है तो रेल की शयनिका या जहाज की 'बिजनेस क्लास' को अय्याशी कैसे कहा जा सकता है ? जिन्हें गंतव्य पर पहुंचकर तुरंत काम में जुटना है, उनके लिए यह आवश्यक सुविधा है|




लेकिन हमारे नेताओं ने कई 'अनावश्यक सुविधाओं' को 'आवश्यक सुविधा' में बदल दिया है| माले-मुफ्त, दिले-बेरहम | नेताओं के आगे रोज़ नाक रगड़नेवाले धनिक अगर इन सुविधाओं को भोग रहे हैं तो नेता पीछे क्यों रहें ? पांच-सितारा होटलों में रहनेवाले नेता क्या सच बोल रहे हैं ? देश के बड़े से बड़े पूंजीपति की भी हिम्मत नहीं कि वह अपने रहने पर एक-डेढ़ लाख रू. रोज़ महिनों तक खर्च कर सके| वह नेता ही क्या, जो अपनी जेब से पैसा खर्च करे| या तो कोई पूंजीपति उसका बिल भरता है या डर के मारे होटल ही उसे लंबी रियायत दे देता है| मंत्रियों ने यह कहकर पिंड छुड़ा लिया कि होटलों के साथ 'उनका निजी ताल-मेल' है| पत्रकारों को खोज करनी चाहिए थी कि यह निजी ताल-मेल कैसा है? यदि ये मंत्री लोग अपना पैसा खर्च कर रहे होते तो प्रणब मुखर्जी को कह देते कि भाड़ में जाए, आपकी सादगी ! हमारी जीवन-शैली यही है| हम ऐसे ही रहेंगे, जैसा कि मुहम्मद अली जिन्ना कहा करते थे| वे यह भी पूछ सकते थे कि मनमोहनजी, प्रणबजी, सोनियाजी, अटलजी, आडवाणीजी ! जरा यह तो बताइए कि आपके घर कौनसी पांच-सितारा होटलों से कम हैं ? क्या उनका किराया दो-तीन लाख रू. रोज से कम हो सकता है ? डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि भारत का आम आदमी तीन आने रोज़ पर गुजारा करता है और प्रधानमंत्री (नेहरू) पर 25 हजार रू. रोज खर्च होते हैं ! आज हमारे मंत्रियों पर उनके रख-रखाव, सुरक्षा और यात्र पर लाखों रू. रोज़ खर्च होते हैं जबकि 80 करोड़ लोग 20 रू. रोज़ पर गुजारा करते है| सिर्फ पांच-सितारा होटल छोड़कर कर्नाटक भवन या केरल भवन में रहने से सादगी का पालन नहीं हो जाता और न ही साधारण श्रेणी में यात्र करने से ! ये कोरा दिखावा है लेकिन यह दिखावा अच्छा है| इस दिखावे के कारण देश के पांच-सात लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को कुछ शर्म तो जरूर आएगी, जैसे कि एक सांसद को आई थी, सोनियाजी को इकॉनामी क्लास में देखकर ! साधारण लोगों पर भी इसका कुछ न कुछ असर जरूर पड़ेगा|




लेकिन इससे देश की समस्या का हल कैसे होगा ? बाहर-बाहर सादगी और अंदर-अंदर अय्रयाशी चलती रहेगी| सादगी हमारा आदर्श नहीं है| हमने हमारे समाज को अय्रयाशी की पटरी पर डाल दिया है और हम चाहते हैं कि हमारी रेल सादगी के स्टेशन पर पहुंच जाए| हमने रास्ता केनेडी और क्लिंटन का पकड़ा है और हम चाहते हैं कि हम लोहिया और गांधी तक पहुंच जाएं| नेताओं के दिखावे से हम आखिर कितनी बचत कर पाएंगे ? बचत और सादगी का संदेश देश के दहाड़ते हुए मध्य-वर्ग तक पहुंचना चाहिए| हम यह न भूलें कि जो राष्ट्र अय्रयाशी के चक्कर में फंसते हैं, वे या तो दूसरे राष्ट्रों का खून पीते हैं या अपनी ही असहाय जनता का! रक्तपान के बिना साम्राज्यवाद और पूंजीवाद जिंदा रह ही नहीं सकते| गांधीजी ठीक ही कहा करते थे कि प्रकृति के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि सारे संसार के लोग अय्याशी में रह सके| हमने अपने देश के दो टुकड़े कर दिए हैं| एक का नाम है, 'इंडिया' और दूसरे का है, 'भारत' ! इंडिया अय्याशी का प्रतीक है और भारत सादगी का ! भारत की छाती पर हमने इंडिया बैठा दिया है| 'इंडिया' के भद्रलोक के लिए ही पांच-सितारा होटलें हैं, चमचमाती बस्तियां हैं, सात-सितारा अस्पताल हैं, खर्चीले पब्लिक स्कूल हैं, मनोवांछित अदालते हैं| चिकनी सड़कें, वातानुकूलित रेलें और जहाज हैं जबकि 'भारत' के (अ) भद्रलोक के लिए अंधेरी सरायें हैं, गंदी बस्तियां हैं, बदबूदार अस्पताल हैं, टूटे-फूटे सरकारी स्कूल हैं, तिलिस्मी अदालते हैं, गड्रढेदार सड़के हैं, खटारा बसें हैं और मवेशी-श्रेणी के रेल के डिब्बे हैं| जब तक यह अंतर कम नहीं होता, जब तक समतामूलक समाज नहीं बनता, जब तक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, सुरक्षा और मनोरंजन की न्यूनतम व्यवस्था नहीं होती, सादगी सिर्फ दिखावा भर बनी रहेगी| हमारे नेतागण अपनी शक्ति 'भारत' से प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग 'इंडिया' के लिए करते हैं| 'भारत' की सादगी उसकी मजबूरी है| उसका आदर्श भी 'इंडिया' ही है| इसीलिए हर आदमी चूहा-दौड़ में फंसा हुआ है| मलाई साफ़ करने पर तुला हुआ है| उसे कानून-क़ायदे, लोक-लाज और लिहाज़-मुरव्वत से कोई मतलब नहीं है| इस मामले में नेता सबसे आगे हैं| जो जितना बड़ा नेता, वह उतने बड़े ठाठ-बाठ में रहेगा| इस जीवन-शैली पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती| उल्टे, दिल में यह हसरत जोर मारती रहती है कि हाय, हम नेता क्यों न हुए ? अगर आम लोगों को इस अय्याशी पर एतराज़ होता तो वे चौराहों पर नेताओं को पकड़-पकड़कर उनकी खबर लेते, उनकी आय और व्यय पर पड़े पर्दो को उघाड़ देते और भ्रष्टाचार के दैत्य का दलन कर देते| यह कैसे होता कि अकेली दिल्ली में नेताओं के बंगलों के रख-रखाव पर 100 करोड़ रू. खर्च हो जाते और देश के माथे पर जूं भी नहीं रेंगती| हमारे नेता और अफसर हर साल अरबों रू. की रिश्वत खा जाते हैं और आज तक किसी नेता ने जेल की हवा नहीं खाई | जापान और इटली में भ्रष्टाचार के कारण दर्जनों सरकारें गिर गईं और ताइवन के प्रसिद्घ राष्ट्रपति चेन जेल में सड़ रहे हैं लेकिन हमारे सारे नेता राजा हरिशचंद्र बने हुए हैं| हमारे नेता और अफसर इसीलिए राजा हरिशचंद्र का नक़ाब ओढ़े रहते हैं कि भारत के लोगों ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है| यह राष्ट्रीय स्वीकृति ही हमारे लोकतंत्र् का कैंसर है| यह कैंसर शासन, प्रशासन, संसद, अदालत और सारे जन-जीवन में फैल रहा है| इसे देखकर अब किसी को गुस्सा भी नहीं आता| अय्रयाशी ही भ्रष्टाचार की जड़ है| ठाठ-बाट, अय्याशी और दिखावा हमारे राष्ट्रीय मूल्य बन गए हैं| अय्याशी के दिखावे को सादगी के दिखावे से कुछ हद तक काटा जा सकता है लेकिन जिस देश में अय्रयाशी सत्ता और संपन्नता का पर्याय बनती जा रही हो, वहां सादगी का दिखावा कुछ ही दिनों में दम तोड़ देगा| यह ठीक है कि विदेह की तरह रहनेवाले सम्राट जनक, प्लेटो के दार्शनिक राजा, अपनी मोमबत्तीवाले कौटिल्य, टोपी सीनेवाले औरंगजेब और प्रारंभिक इस्लामी खलीफाओं की तरह नेता खोज पाना आज असंभव है लेकिन सादगी अगर सिर्फ दिखावा बनी रही और अय्याशी आदर्श तो मानकर चलिए कि भारत को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता !
 
 
 
 
 
 

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