भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए *

पुस्तक चर्चा  
भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए *
 


निस्संदेह समय बदल गया है और हम नवजागरण काल में नहीं उत्तरआधुनिक काल में जी रहे हैं , तथापि जिन कुछ चीज़ों की प्रासंगिकता आज भी नहीं बदली है उनमें एक है राष्ट्र और राष्ट्रभाषा का वह संबंध जिसे पारिभाषित करते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था - निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति कौ मूल / बिन निज भाषा ज्ञान के , मिटे न हिय कौ सूल. भारतेंदु की चिंता का आधार था हम भारत के लोगों का अंग्रेजी-मोह. वह अंग्रेजी-मोह अपने विकट रूप में आज भी जीवित है और भारतीय जीवनमूल्यों को हानि पहुँचाने के साथ हमारे भाषायी गौरव को लगातार क्षीण कर रहा है.यह देखकर किसी भी देशप्रेमी भारतीय को खेद ही हो सकता है कि हमारा भाषायी स्तर दिनोदिन गिरता जा रहा है तथा हमारे समाज की भाषायी समझ कुंठित हो रही है. इसमें संदेह नहीं कि हिंदी आज अंतरराष्ट्रीय भाषा है और वैधानिक रूप से विश्व भाषा की सारी योग्यताएँ उसमें हैं . प्रसन्नता की बात यह है कि अंग्रेजी - मोह के बावजूद हिंदी का प्रचार - प्रसार भी बढ रहा है. अधिक उचित यह कहना होगा कि आज के तकनीकी क्षेत्रों में उसका व्यवहार बढ़ रहा है, इससे एक बार फिर हिंदी को निर्भ्रांत रूप में व्याकरणसम्मत सिद्ध करने की चुनौती सामने है.



हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए, इस आकलन में एक बड़ी बाधा यह रही है कि भाषा के स्वरूप का ज्ञान करानेवाला हमारा व्याकरण अंग्रेजी भाषा के व्याकरणिक ढाँचे से आवश्यकता से अधिक जकड़ा हुआ है. ज़रूरत इस चीज़ कि है कि हिंदी व्याकरण को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए कि वह अंग्रेजी की अनुकृति लगने के स्थान पर हिंदी की प्रकृति और प्रवृत्ति का आइना बन सके. यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि -


१. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है, 
२. वह सब से अधिक सरल भाषा है, 
३. वह सब से अधिक लचीली भाषा है,  
४, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं तथा 
५. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है, 
 
 
लंबे समय से महसूस किए जा रहे इस अभाव की पूर्ति के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत स्तर पर कई तरह के प्रयास हुए हैं , परंतु डॉ. बदरीनाथ कपूर द्वारा प्रस्तुत 'नवशती हिंदी व्याकरण' इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सफल प्रतीत होता है. डॉ. बदरीनाथ कपूर हिंदी के वरिष्ठतम भाषाविदों में से हैं. वे प्रतिष्ठित कोशकार हैं तथा भाषाचिंतन के क्षेत्र में आज भी सक्रिय है. उन्होंने कई वर्ष के दीर्घ अध्यवसाय से यह व्याकरण तैयार किया है, यह जानना रोचक होगा कि कुछ समय पूर्व जब वे शारीरिक उत्पातों और व्याधियों से इस प्रकार त्रस्त थे कि ३-४ वर्ष तक उन्हें शय्याग्रस्त रहना पड़ा, तब उन्होंने व्याकरण सम्बन्धी चिंतन -मनन में ही संबल प्राप्त किया , कदाचित ऐसा संबल जिसने जीवनरक्षक औषधि का काम किया. इससे व्याकरण चिंतन के साथ उनके गहन तादात्म्य का अनुमान किया जा सकता है. विवेच्य पुस्तक उनके इसी चिंतन से प्रकट नवनीत है. यह आधुनिक हिंदी का वैज्ञानिक पद्धति से तैयार किया गया अकेला व्याकरण है जो नियमों और प्रयोगों को आमने सामने रख कर उदाहरणों के साथ सही और गलत भाषा व्यवहार की पहचान कराता है. डॉ. बदरीनाथ कपूर की यह स्थापना प्रेरणास्पद है कि - 
 
 
"व्याकरण नियमों का पुलिंदा भर नहीं होता, वह भाषाभाषियों की ज्ञान गरिमा, बुद्धि वैभव , रचना कौशल, सौंदर्य बोध, सजग प्रवृत्ति और सर्जनक्षमता का भी परिचायक होता है. अकेली 'अष्टाध्यायी' ने संस्कृत भाषा को विश्व में जितना गौरव दिलाया उतना किसी अन्य विधा के ग्रंथ ने नहीं. अतः व्याकरण पर नाक-भौंह सिकोड़ना नहीं चाहिए बल्कि उसके प्रति पूज्य भाव रखना चाहिए. व्याकरण भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए समाज को प्रेरित करता है."

विवेच्य पुस्तक में कुल अस्सी पाठ हैं, जिनमें व्याकरण संबंधी सभी विषय और तथ्य समाहित हैं. खास बात यह है कि हर पाठ में बाएँ पृष्ठ पर नियम और उदाहरण हैं, तथा दाहिने पृष्ठ पर अभ्यास दिए गए हैं , जिसके कारण यह पुस्तक स्वयं-शिक्षक बन गई है. आरम्भ में ही 'कुछ नवीन तथ्य' शीर्षक से हिंदी की प्रक्रति और प्रवृत्ति के उस वैशिष्ट्य को उजागर किया गया है जो इस भाषा को संस्कृत और अंग्रेजी दोनों की रूढ़ व्यवस्थाओं से स्वतंत्र अपनी व्यवस्था के निर्माण के लिए प्रेरित करता है. चाहे कर्ता की पहचान हो या कर्म की, क्रियापदों के वर्गीकरण की बात हो या संयुक्त क्रियाओं की, वाच्य की चर्चा हो या काल की - इन सभी स्तरों पर हिंदी के निजीपन को रेखांकित और व्याख्यायित करने के कारण यह व्याकरण छात्रों और अध्यापकों के साथ ही सामान्य पाठकों के लिए भी हिंदी का ठीक प्रयोग सीखने में बहुत मददगार साबितहोगा, इसमें दो राय नहीं. 
 
 
लेखक ने अब तक चले आ रहे व्याकरणों में दिए जाने वाले रूढ़ हो चुके उदाहरणों से आगे बढ़ कर हर पाठ में आधुनिक जीवन संदर्भ वाले ऐसे उदाहरण शामिल किए हैं जो पर्याप्त रोचक और सरस हैं. जैसे - वह हमारा सलामी बल्लेबाज है./वह हमारे देश की प्रधानमंत्री थीं/हमें ठंडी आइसक्रीम खाने के लिए नहीं मिली थी/मोबाइल काम कर रहा है/आतंकियों ने सिपाही पर गोली चलाई/जिनके घर जले, उन्होंने प्रदर्शन किया.



यद्यपि लेखक ने भाषा मिश्रण को खुले मन से स्वीकार किया है, तथापि ऐसे प्रयोगों की व्याकरणिकता पर भी विचार करने की आवश्यकता थी जो मानक के रूप में स्वीकृत न होते हुए भी शैलीभेद के रूप में प्रचुरता में प्रयुक्त हैं. ऐसे तमाम प्रयोगों को समेटे बिना हिंदी के बोलीय आधार को पूरी तरह संतुष्ट नहीं किया जा सकता. संभवत: चूक से ही सही पर एक ऐसा वाक्य पुस्तक में आ भी गया है -' क्रिकेट खेलने वाले देशों के लोग सचिन तेंदुलकर का नाम अवश्य सुने होंगे'.



पुस्तक की उपादेयता को तीन परिशिष्टों में दी गई शब्द सूचियों, अभ्यासों के उत्तर और विवेचित विषयों की अनुक्रमणिका ने और भी बढा दिया है. इस यथासंभव परिपूर्ण , नवीन, सरल और सरस व्याकरण को सामने लाने के लिए राजकमल प्रकाशन बधाई के पात्र हैं.



- ऋषभ देव शर्मा


*नवशती हिंदी व्याकरण /

डॉ. बदरीनाथ कपूर / 
राजकमल प्रकाशन , १-बी , नेताजी सुभाष मार्ग, 
नई दिल्ली - ११० ००२ /
२००६ / ९५ रुपये / २३६ पृष्ठ.  


यहीं हैं, यहीं कहीं हैं शैलेंद्र सिंह : आलोक तोमर





यहीं हैं, यहीं कहीं हैं शैलेंद्र सिंह

आलोक तोमर


अक्सर नोएडा में अपने टीवी चैनल सीएनईबी के दफ्तर जाते वक्त आम तौर पर यह संयोग होता ही था कि फोन बजे और दूसरी ओर से शैलेंद्र सिंह बोल रहे हो। पहले इधर उधर की बातें, फिर अपनी कोई ताजा कविता और आखिरकार टीवी चैनलों की दुनिया से हुआ मोहभंग, जिसका सार यह होता था कि कौन सी दुनिया में आ कर फँस गए?


शैलेंद्र सिंह से करीब बीस साल पहले मुलाकात हुई थी जब वे काम तलाशते हुए कनॉट प्लेस में शब्दार्थ फीचर एजेंसी के दफ्तर में आए थे। पतला दुबला लड़का और पतली आवाज। उन दिनों मैं अपराध का एक स्तंभ लिखता था वह उन्हें पढ़ने को दिया। अगले दिन शैलेंद्र प्रकट हुए और दो लेख लिख कर लाए थे और मेरे लेख का अंग्रेजी अनुवाद भी कर लाए थे। अंग्रेजी ऑक्सफोर्ड वाली नहीं थी मगर अच्छी थी। इसके बाद वे शब्दार्थ से जुड़े रहे और कहने में अटपटा लगता है लेकिन पाँच हजार रुपए महीने में काम करते रहे।


इसके बाद जब इंटरनेट प्रचलित हुआ तो डेटलाइन इंडिया की स्थापना की। शैलेंद्र वहाँ भी साथ थे और बहुत टटकी भाषा में बहुत जल्दी लेख और खबरें लिखते थे और मुझे याद है कि उन दिनों हमारे साथ काम कर रहे दीपक वाजपेयी से, जो अब एनडीटीवी में है, उनकी प्रतियोगिता चलती थी। दीपक की भी अंग्रेजी अच्छी है। दीपक कानपुर और शैलेंद्र बिहार के लहजे में अंग्रेजी बोलते थे।
फिर एक दिन शिद्वार्थ बसु के साथ तय हुआ कि अंग्रेजी के मशहूर कार्यक्रम हू विल वी दि मिलियनायर की तर्ज पर स्टार प्लस के लिए कार्यक्रम बनाया जाए। स्टार के तब के वाइस प्रेसीडेंट समीर नायर कार्यक्रम संचालक के तौर पर अमिताभ बच्चन को लेना चाहते थे। अमिताभ लिए भी गए और कौन बनेगा करोड़पति के नाम से इस कार्यक्रम ने इतिहास रच दिया। प्रश्न बनाने और पटकथा लिखने की टीम में शैलेंद्र फिर हमारे साथ थे। याद आता है कि मुंबई में स्टार की मास्टर पीस बिल्डिंग में रिहर्सल चल रही थी और फोटोग्राफर मौजूद था। मैने शैंलेद्र से कहा कि अमिताभ बच्चन के साथ फोटो खिंचवाने का ये अच्छा मौका है। शैलेंद्र का जवाब मुझे चकित कर गया। उसने कहा कि फोटो खिंचवा कर महान बनने से अच्छा है कि अपने फील्ड में ऐसा काम किया जाए अमिताभ बच्चन खुद हमारे साथ फोटो खिंचवाने आए।


वक्त की कमी और बार बार मुंबई जाने की असुविधा के कारण मैंने केबीसी छोड़ा और स्टार प्लस के लिए ही एनडीटीवी द्वारा बनाए गए कार्यक्रम जी मंत्री जी की पटकथा लिखने में जुट गया। शैंलेद्र केबीसी में बने रहे। इस बीच आज तक से बुलावा आया और कुछ महीनों के लिए मैं आज तक में था और शैलेंद्र रोज शाम को ऑफिस के रिसेप्शन पर मिलते थे कि उन्हें टीवी की पत्रकारिता करनी है। उदय शंकर से कह कर उनका इंटरव्यू हुआ और अपनी प्रतिभा के आधार पर ही वे आज तक में पहुंचे। उदय जब स्टार में गए तो शैलेंद्र को साथ ले गए। शैलेंद्र मुंबई में शायर बन गए। निदा फाजली जैसे बड़े लोगों के साथ उठने बैठने लगे। एक किताब भी उनकी आई। बाद में दूसरी भी आई।


शैलेंद्र बहुत भावुक और एक हद तक बात बात में रो पड़ने वाले इंसान थे। अपनी बेटी के जन्मदिन पर बुलाया और नहीं जा पाया तो रो पड़े। बेटे आयाम का नाम तय करने में देर लगा दी तो रो पड़े। जान लेने वाली इस दुर्घटना के पहले एक बार और गाड़ी ठोक ली थी और जब डाँट लगाई तो भी रो पड़े। अपने सरोकारों के प्रति जिद्दी इंसान इतना भावुक भी हो सकता है यह शैलेंद्र को देख कर ही जाना जा सकता है।


एक जमाने में होम टीवी हुआ करता था। उसके एक कार्यक्रम की पटकथा तो मैं लिखता था और फैक्स कर देता था लेकिन सेट पर भी एक लेखक चाहिए था तो शैलेंद्र को आजमाया और वे सफल हुए। जहाँ तक याद आता है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संसार से शैलेंद्र का यह पहला वास्ता था।


जैसा कि पहले कहा शैलेंद्र के फोन बहुत बेतुके और अकारण होते थे। आप बैठक में हैं, फोन नहीं उठा पा रहे मगर शैलेंद्र सिंह घंटी बजाते रहेंगे। आखिरकार आप जब फोन सुनेंगे तो वे कहेंगे कि भैया आपकी आवाज सुनने के लिए फोन किया था। आप ठीक तो है? जब राजदीप सरदेसाई शैलेंद्र को आईबीएन-7 में लाए तो लाख से ज्यादा वेतन की पर्ची ले कर उन्होंने मुझे इंडिया टीवी के बाहर बुलाया और कंपनी की ओर से मेरी स्विफ्ट कार भी गर्व से दिखाई। इसी कार ने आखिरकार उनकी जान ली।


मुझे अब तक समझ में नहीं आता कि शैलेंद्र इतने बेतुके काम क्यों करता था? उसके साथी बताते हैं कि रात साढ़े ग्यारह बजे का बुलेटिन प्रसारित होने के बाद अगले दिन का कार्यक्रम बनाते बनाते डेढ़ बज गए और दो बजे वे ऑफिस से निकले। घर गाजियाबाद के वैशाली में हैं मगर वैसे ही ठंडी हवा खाने के लिए वे एक्सप्रेस हाइवे पर मुड़ गए। उल्टी दिशा में। शराब वे इन दिनों नहीं पीते थे लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है, पूरा दिन और सुबह तक काम करने के बाद शैलेंद्र को नींद का झोका आया होगा और उन्होंने एक खड़े ट्रक में गाड़ी घुसा दी। ये उनकी अंतिम यात्रा थी।


शैलेंद्र सिर्फ बयालीस साल के थे। इस बीच उन्होंने दो टीवी कार्यक्रमों और तीन चैनलों में काम किया। गजलों और कविताओं की दो किताबें लिख डालीं। गीता का अपनी तरफ से भाष्य कर डाला और उसे सुनाने के लिए वे बहुत उतावले थे, अक्सर फोन पर शुरू हो जाते थे और जैसा उनके साथ रिश्ता था, डाँट खा कर फोन बंद करते थे। आखिरी फोन मौत के दो दिन पहले आया था जिसमें उनका प्रस्ताव था कि मुंबई चल कर सीरियल और फिल्में मैं लिखूँ और उनमें गाना शैलेंद्र लिखेंगे। ऑफिस के गेट पर पहुँच चुका था इसलिए हाँ बोल कर फोन काट दिया। कमरे में पहुँचा तो फोन फिर बजा। शैलेंद्र ही थे और कह रहे थे कि भैया आप अपने आपको गंभीरता से नहीं लेते।


अगर शैलेंद्र आज होते तो मैं पूछता कि बेटा तुमने खुद अपने आपको गंभीरता से कहाँ लिया हैं? इतनी सारी प्रतिभा, काम के प्रति अनुशासन और मेहनत करने की अपार शक्ति के बावजूद अगर शैलेंद्र सिंह ने अपनी जिंदगी के साथ इतना बड़ा निर्णायक खिलवाड़ कर डाला तो वे सिर्फ अपने और हिंदी पत्रकारिता के नहीं, अपनी पत्नी, बेटे आयाम और बेटी आस्था के भी अपराधी है।


यह लिखने के ठीक बाद मैं शैलेंद्र की अंतिम क्रिया में निगमबोध घाट जाऊँगा और उस सपने को जलता हुआ देखूँगा जिसके एक बड़े हिस्से का साक्षी मैं भी रहा हूँ। शैलेंद्र सिंह का फोन नंबर अपने मोबाइल से डिलिट करने की मेरी हिम्मत नहीं है क्योंकि मेरे लिए शैलेंद्र यहीं है, यहीं कहीं हैं। पता नहीं कितने दिनों तक लगेगा कि फोन बजेगा और शैलेंद्र अपना कोई किस्सा कहानी सुनाने लगेगा। सपनों के भी कहीं अंत होते है?





हिन्दी हास्य-परिवार पर एक और संकट ( कवि सुरेन्द्र शर्मा के परिवार में)



हिन्दी हास्य-परिवार पर एक और संकट (कवि सुरेन्द्र शर्मा के परिवार में)




हिन्दी हास्य कविता परिवार पर आसन्न संकटों का क्रम अभी थमा नहीं लगता। ओमप्रकाश आदित्य जी सहित तीन लोगों का प्राणांत, उसी दुर्घटना में घायल इस परिवार के साहित्यिक बंधु , पश्चात् अल्हड़ जी का विदा होना और अब सुरेन्द्र शर्मा जी के परिवार में यह शोक का काल|


अभी अभी आदरणीय कमलकान्त बुधकर जी का संदेश मिला है| जो निस्संदेह दुखद है। मैं दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आप से बुधकर जी का संदेश बाँट रही हूँ ,जो कुछ यों है -


"हिन्‍दी हास्‍य परिवार पर इन दिनों सचमुच कोई भारी संकट ही है। मेरे पास एक एसएमएस वरिष्‍ठ हास्‍यकवि श्री सुरेन्‍द्र शर्मा की ओर से आया है। उनकी इकतीस वर्षीया पुत्रवधू श्रीमती प्रियता बीते रविवार को अचानक परिवार को बिलखता छोड स्‍वर्ग सिधार गईं। आज हरिद्वार में उनकेपति उनके अंतिम अवशेष गंगा में विसर्जित कर रहे हैं। प्रियता अपने पीछे अपने भरपांच और दो वर्ष की दो बेटियाँ भी बिलखती छोड़ गयी हैं। न्‍दी हास्‍य परिवार पर इन दिनों सचमुच कोई भारी संकट ही है। मेरे पास एक एसएमएस वरिष्‍ठ हास्‍यकवि श्री सुरेन्‍द्र शर्मा की ओर से आया है। उनकी इकतीस वर्षीया पुत्रवधू श्रीमती प्रियता बीते रविवार को अचानक परिवार को बिलखता छोड स्‍वर्ग सिधार गईं। आज हरिद्वार में उनकेपति उनके अंतिम अवशेष गंगा में विसर्जित कर रहे हैं। प्रियता अपने पीछे अपने भरे पूरे परिवार में पांच और दो वर्ष की दो बेटियां भी छोड गई हैं।

भाई सुरेन्‍द्र शर्मा के एसएमएस के अनुसार स्‍वर्गीया प्रियता की आत्‍मशांति के निमित्‍त 26 जून 2009 को शाम 5 से 6 के बीच एक प्रार्थनासभा आईपी कॉलेज और सुश्रुत ट्रोमा सेंटर के पास गुरू जंभेश्‍वर संस्‍थान सिविल लाइंस दिल्‍ली में आयोजित है। "

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एक गीत `उनके' नाम : जी भर रोया

कुछ दिन की स्तब्ध कर देने वाली घटनाओं के क्रम में आज की सुबह हुई, एक और ऐसा समाचार आया कि सभी अवसन्न रह गएतभी मुझे निम्न संदेश के साथ एक गीत प्राप्त हुआआप भी पढ़ सकते हैं --
कविता वाचक्नवी




प्रिय कविता जी,
यह सप्ताह हिन्दी के हास्य कवियों के लिए बहुत घातक निकला. भोपाल वाली सड़क दुर्घटना के सदमे से उबरा नही था कि आज बड़े भाई श्री उदय प्रताप सिंह जी का sms मिला कि आज अल्हड़ बीकानेरी भी हमसे बिछड़ गए. एक गीत उन सभी दिवंगत कवि मित्रों के नाम , जिनका साथ मुझे 40 वर्षों से मिला था

बुद्धिनाथ



जी भर रोया
*********



रोज एक परिजन को खोया
पाकर लम्बी उमर आज मैं
जी भर रोया।


जिनके साथ उठा-बैठा
पर्वत-शिखरों पर
उनको आया सुला
दहकते अंगारों पर
जो था मुझे जगाता
सारी रात हँसा कर
वह है खुद लहरों पर सोया।


एक-एक कर तजे सभी
सम्मोहन घर का
रहा देखता मैं निरीह
सुग्गा पिंजर का
हुआ अचंभित फूल देखकर
टूट गया वह धागा
जिसमें हार पिरोया।


किसके-किसके नाम
दीप लहरों पर भेजूँ
टूटे-बिखरे शीशे
कितने चित्र सहेजूँ
जिसने चंदा बनने का
एहसास कराया
बादल बनकर वही भिगोया।


- डॉ. बुद्धिनाथ




इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार --- (४)

आलेख का अन्तिम भाग

आलेख के इस चौथे व अन्तिम भाग के साथ ही यह लेखमाला समाप्त हो रही है। जिन भी प्रकार के भ्रमों अथवा दिलासों में आम भारतीय, चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में रहता हो, किसी न किसी प्रकार आश्वस्त रहता है, वे सारे कितने भोथरे व युक्तिहीन हो सकते हैं, यह विचार का विषय है। यह आशंका केवल भाषा के प्रश्नों तक ही सीमित नहीं है, अपितु भारत व भारतीयों के अस्तित्व के अनेकविध पक्ष इस हमले की परिधि में आते हैं। उन पर भी गहराई से विचार कर वातावरण निर्मित किए जाने की तीव्र आवश्यकता है।

इस प्रकार के लेखों द्वारा भय, नारेबाजी अथवा निरर्थक हल्ला मचाने की मानसिकता को प्रश्रय देना हमारा उद्देश्य नहीं है, अपितु वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए आँख खोलने वाले सत्यों का उद्घाटन कर उनकी प्रतिक्रिया स्वरूप किसी सार्थक पहल का वातावरण निर्मित करना है।

समाज के बौद्धिक वर्ग की भूमिका शरीर में मस्तिष्क की भूमिका के तुल्य होती है। जिस प्रकार मस्तिष्क सभी चेतनाओं का केन्द्र है व उसके द्वारा ही शरीर की क्रिया-प्रतिक्रिया पर नियन्त्रण होता है, उसी प्रकार समाज के बौद्धिक वर्ग तक सन्देश पहुँचने से पूरे समाज तक इसके पहुँचने की प्रबल संभावना बनती है।

इन्हीं प्रकार के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए ‘हिन्दी भारत’ समूह अपने प्रत्येक सदस्य से अपनी विशेषज्ञता के लाभ व सक्रिय सहयोग की अपेक्षा करता है। लेखकों को आपकी टिप्पणियों से निश्चय ही बल तो मिलता ही है, परस्पर संवाद का वातावरण भी निर्मित होता है,जो मनुष्य व मनुष्यता के प्रश्नों के निदान की प्रथम शर्त है। विश्व के कोने- कोने में बसे भारतीयों के मध्य सम्वाद स्थापित कर उन्हें निकट लाना व आपसी सद्भाव बना कर बातचीत का वातावरण निर्मित कर विचार-विमर्श की स्थितियाँ बनना एक बड़ी व सार्थक पहल ही होगी। ऐसे प्रत्येक यत्न का समूह स्वागत करता है।

भविष्य में भी प्रभु जोशी जी के अन्य विषयों पर लिखे सुचिन्तित लेख हमें प्राप्त होंगे, ऐसा आश्वासन उन्होंने हमें दिया है। आप सभी की प्रतिक्रियाएँ भी उन तक पहुँचा दी जाएँगी। सभी का प्रतिक्रियाओं के लिए भी आभार।
सादर
~ कविता वाचक्नवी
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इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार --- (४)
~प्रभु जोशी


यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं - उसे `पत्रकारिता´ ने ही विकसित किया था । क्योंकि, तब की उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था जो बोलता था । अब तो खून में लौह तत्व की तरह एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेन्ट) बहने लगा है । अत: वही तो बोलेगा । उसी लौहतत्व की धार होगी जो हिन्दी की गर्दन उतारने के काम में आयेगी । हालांकि अखबार जनता में मुगालता पैदा करने के लिए कहते हैं, पूंजी उनकी जरूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है । अर्थात् सारा लोहा उनका, हमारी होगी धार । अर्थात् भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा । तुम्हीं बताओ उन टायगर इकनॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टायगरों की होगी, कहां गये वे टायगर ? उनके तो तीखे दांत और मजबूत पंजे थे । नई नस्ल के ये कार्पोरेटी चिन्तक रोज-रोज बताते हैं - हिन्दुस्तान विल बी टायगर ऑफ टुमॉरो ।

भैया, ये जुमले सुनते-सुनते हमारे कान पक गये हमें टुमॉरो का कुछ नहीं बनना, बल्कि जो कुछ बनना है आज का बनना है । हम कल के टायगर होने के बजाय आज की गाय होने और बने रहने में संतुष्ट हो लेंगे । गाय घास खायेगी तथा दूध और गोबर देगी और उससे हमारी खेतियों की सेहत ठीकठाक बनी रहेगी । लेकिन तुम हो कि थोड़े से चमड़े के लिए पूरी की पूरी गाय मार रहे हो ।

तब की पत्रिकारिता में अपने देश और समाज को गढ़ने-रचने का साहस था, संकल्प था, समझ और स्वप्न भी था (बेशक उसमें राष्ट्रीय पूंजीवाद की भूमिका भी थी।)। वह जख्मी कलम के साथ बारूद और बंदूक की बर्वरता के खिलाफ लड़ी थी । इस कारण वह भाषा के मसले को गहरे ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रही थी । यहाँ गांधी का प्रसंग उल्लेखनीय लगता है । वे भी पत्रकार थे । आजादी की घोषणा के बाद जब बी.बी.सी. ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा था `संसार को कह दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती । गांधी अंग्रेजी भूल गया है।´ यह एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण के बड़े स्वप्न का उत्तर था । उन्हें यह अहसास था कि अपनी भाषा के अभाव में राष्ट्र फिर से गुलामी के नीचे चला जाएगा । उन्होंने स्वयं को वर्गच्युत करके, जिस तरह भारतीय समाज के आखिरी आदमी के बीच खुद को नाथ लिया था, उसने उन्हें इस बात के लिए और अधिक दृढ़ कर लिया था कि अंग्रेजी की औपनिवेशिक दासता से मुक्त नहीं हुए तो इतनी लम्बी लड़ाई के बाद हासिल की गई आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । उन्होंने ये बात कई-कई जगह और अपनी चिटि्ठयों तथा पर्चों में भी बार-बार लिखी और छापी ।

मगर आज सबसे बड़ी त्रासदी तथा विसंगति यही है कि हमारी पत्रकारिता नई गुलामी खोलने का रास्ता सिर्फ अपनी धंधई बुद्धि की व्यावसायिक अधीरता के कारण कर रहा है । इस पत्रकारिता में, जो `माल´ की तरह उत्पादित और वितरित हो रहा है । कहीं कहीं तो छापकर प्रेस से सीधे गोदामों में भरी जा रही है । क्योंकि अब सर्कुलेशन नहीं केवल प्रिंट आर्डर को देखना है । क्योंकि वह विज्ञापनों की दर तय करता है । उसमें न तो अतीत के आकलन का गहरा विवेक रहा है - और, न ही `भविष्य में झाँक सकने वाली दृष्टि´। एक किस्म का धंधई उन्माद है, जिसे पूंजी का प्रवाह पैदा कर रहा है । इसलिए, वह केवल अपने व्यावसायिक साम्राज्य के लिए अराजक होने की हद तक, भाषा, संस्कृति और समाज को विखण्डित करने से भी संकोच नहीं करेगी। यों भी उसके लिए अब समाज को मात्र एक उपभोक्तावर्ग की तरह देखने की लत पड़ गई है । अब उसके लिए देश की जनता राष्ट्र की नागरिक नहीं बल्कि उसके प्रॉडक्ट (?) की ग्राहक है । इसके साथ विडम्बना यह भी है कि सम्पूर्ण हिन्दी भाषाभाषी समाज भी, भाषा के साथ किए जा रहे ऐसे विराट छल को गूँगा बन कर देख रहा है ।

यहाँ यह पुनर्स्मरण कराना जरूरी है कि हिन्दी का समकालीन भाषारूप आज विकास की जिस सीढ़ी तक पहुँचा है, उसे गढ़ने और विकसित करने में नि:संदेह हमारी हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका बहुत बड़ी रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश वही पत्रकारिता जिसे भाषा अभी तक का अपना सबसे अधिक विश्वसनीय माध्यम मानते आ रही थी, कि सबसे बड़ा धोखा उसी से खा रही है । उसके लिए सर्वाधिक संदिग्ध वही बन गया है । आज दैनिक पत्रकारिता उस मादा श्वान की तरह है, जो अपने ही जन्मे को भी खा जाती है ।
यह भ्रम हमें दूर कर लेना चाहिए कि अब भाषा बोले जाने वाले लोगों की संख्या से बड़ी नहीं होती । बोला जाना `कामचलाऊ संप्रेषण´ का संवादात्मक रूप है, चिन्तनात्मक नहीं । वह हमेशा ही आज अभी ताबड़तोड़ बनाम अनियंत्रित अधीरता से भरा होता है । नतीजतन उसे इस बात की कोई जरूरत और फुरसत नहीं होती कि वह अंग्रेजी के किसी नये शब्द का पर्याय ढूंढे या उसके लिए नया शब्द गढ़े । जैसे कि पिछली पीढ़ी ने मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट के लिए पहले संसद सदस्य शब्द गढ़ा फिर अन्त में सांसद शब्द बनाया । लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अंग्रेजी को जस का तस उठाकर अपनी फोरी जरूरत पूरी कर लेता है । इसी आदत ने हिन्दी में शेयर्ड वॉकुबेलेरी को बढ़ाया और अखबारों ने लगे हाथ उसे एक अभियान की तरह उठा लिया । इसलिए भाषा के इस खिचड़ी रूप का जयघोष करते हुए, जो लोग भाषा की सुंदर सेहत का प्रचार कर रहे हैं, या तो वे इस खतरनाक मुहिम का हिस्सा हैं, या फिर उनकी समझ का कांकड़ ही छोटा है ।

इसके साथ ही ऐसे महामूर्खो या फिर चालाकों की कमी नहीं है जो हर समय इस बात की डूंडी पीटते रहते हैं कि लो अब तो तुम्हारी हिंग्लिश ब्रिटेन में भी लोकप्रिय हो गई है । यह बात ऐसे महातथ्य की तरह प्रचारित की जा रही है जैसे हमारी हिन्दी ने अंग्रेजी की सदियों की कुलीनता की कलाई झटक कर उसे सिंहासन से उतारकर सड़क पर ला दिया है । गौरांग प्रभु ने कुलीनता के कवच को खदेड़कर तुम्हारी हिंग्लिश का झगला धारण कर लिया है । यह हिन्दी की उपलब्धि नहीं सिर्फ भारतीयों की गुलाम मानसिकता की सूचना है । यह दासी का क्वीन के करीब पहुंच जाने का मूर्ख और मिथ्या रोमांच है, जो हिंग्लिशियाते अखबारों की प्रथम पृष्ठों की खबर बनाता है ।

पिछले ही दिनों ऐसी ही पगला डालने वाली एक खबर और रही कि हिन्दी के कुछेक शब्दों को ऑक्सफर्ड डिक्शनरी ने ले लिया । ऑक्सफर्ड डिक्शनरी हिन्दी गर्भित हो गई है । ये वे शब्द थे जिनके लिए अंग्रेजी में उपयुक्त या पर्याय असम्भव था क्योंकि वे अपना विकल्प खुद थे । उनको अंग्रेजी में उलथाया जाता तो वे अपना अर्थ ही खो देते । बस....क्या था ? अखबार बताने लगे कि ये लो हिन्दी छाने लगी अंग्रजी पर । एक अपढ़ महान ने तो यह तक कह दिया कि आज हमने डिक्शनरी पर विजय पाई है, एक दिन ब्रिटेन पर पा लेंगे । बहरहाल यह वैसी ही विदूषकीय प्रसन्नता थी जो मालवी की एक कहावत को चरितार्थ करती है कि एक नदीदे को किसी ने दे दी कटोरी तो उसने उससे पानी पी-पीकर ही अपना पेट फोड़ लिया । जबकि यह ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ज्ञानात्मक उदारता नहीं बल्कि नव उपनिवेशवादी बिरादरी का पूरा सुनिश्चित अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान है, जो भारतीयों को तैयार करता है कि जब अंग्रेजी जैसी महाभाषा उदार होकर हिन्दी के शब्दों को अपना रही है तो हिन्दी को भी चाहिए कि वह अंग्रेजी के शब्दों को इसी उदारता से अपनाये । अंग्रेजी के शब्दकोष में हिन्दी के शब्दों का दाखिला बमुश्किल एक प्रतिशत होगा । अर्थात् दाल में नमक के बराबर भी नहीं । लेकिन हमारे अखबार तो नमक में दाल मिला रहे हैं । हिन्दी को विशाल हत्या और समावेशी बनाने और बताने का कैसा उदाहरण है ।

जब भी अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को हिंग्लिश बनाये जाने की चिंता प्रकट की जाती है, तो कुछ लोग अपनी अज्ञानता में और चालाक लोग अपनी धूर्तता में एक कविताई सच के जरिए हमें समझाने के लिए आगे आ जाते हैं कि कुछ है हस्ती मिटती नहीं हमारी । जबकि हकीकत ये है कि हमारी हस्ती कभी भी पस्ती में बदल चुकी है । हमारी भाषा हमारी संस्कृति कभी के घुटने टेक चुकी है । हमारा पूरा व्यक्तित्व (परसोना) पिछले दशकों में पश्चिमी हो चुका है, जो अब अमेरिकाना होने की तरफ बढ़ रहा है । किसी ने कहा था- आज लोग अमेरिका जाकर अमेरिकाना बन रहे हैं, लेकिन शीघ्र ही वह समय आयेगा जबकि अमेरिका आपके घर में घुसकर आपको अमेरिकन बना दिया जायेगा । यह मिथ्या कथन सी लगने वाली बात धीरे-धीरे सत्य का रूप धारण कर रही है । इसलिए अब मॉडिर्नज्म एक पुराना और बासी शब्द है, जिसे छिलके की तरह उतारकर उसकी जगह नया अमेरिकाना शब्द जगह ले चुका है । यहां तक कि विज्ञापनों में अब अमेरिकी मॉडलों का उपयोग इस तरह किया जाता है गालिबन भारतवंशियों! ये तुम्हारे नये देव पुरूष हैं और तुम्हें इन्हीं के सम्मुख दण्डवत होना है ।

दरअसल, अस्मिता की इन दिनों एक नई और माध्यम निर्मित अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए उसका प्रचार और वकालत की जा रही है । यूं भी अब वही सबको परिभाषित करता है और तमाम जीवन और समाज के तमाम मूल्यों का प्रतिमानीकरण करने का औजार बन चुका है । दूसरी तरफ हम अपनी सनातन रूढ़ सांस्कृतिक आत्मछवि से इतने मोहासक्त है कि प्रत्यक्ष और प्रकट पराजय को स्वीकारना नहीं चाहते हैं । बर्बर उपनिवेश के विरूद्ध लड़ने की निरन्तरता को जीवित बनाये रखने के लिए ऐसी अपराजय का अस्वीकार पराधीनता के दौर में राष्ट्रवाद की नब्जों में प्राण फूंकने के काम आता था । कुछ है कि हस्ती मिटती ही नहीं - तब यह दम्भोक्ति अचूक और अमोघ बनकर काम करती थी । जन-जन को जोड़ने और जगाने का जुमला था ये कि लगे रहो भैया । निश्चय ही उस दम्भोक्ति ने ब्रिटिश उपनिवेश के विरूद्ध संघर्ष में समूचे राष्ट्र को लगाये रक्खा और हमने अंग्रेजों को हकालकर बाहर कर दिया । लेकिन वह अपने दंश का जहर खून में इस कदर शामिल कर चुका था कि हम आज हिन्दी को हिन्दी से हिंग्लिश बनाते देख रहे हैं कि कहते हैं कि कुछ नहीं होगा, वह हर हाल में बची रहेगी । हस्ती है कि मिटती नहीं ।

कहने की जरूरत नहीं कि युद्धातुर उतावली से गुरूचरा दास जैसे लोग अपने तर्कों में बार-बार डेविड क्रिस्टल की पुस्तक लेंग्वज डेथ का हवाला इस तरह देते हैं, जैसे वह भाषा की भृगु संहिता है, जिसमें भाषा की मृत्यु की स्पष्ट भविष्योक्ति है - अत: आप हिन्दी की मृत्यु को लेकर छाती माथा मत कूटो । जबकि इससे ठीक उलट बुनियादी रूप से वह पुस्तक भाषाओं के धीरे-धीरे क्षयग्रस्त होने को लेकर गहरी चिंता प्रकट करती है। भाषाई उपनिवेशवाद (लिंग्विस्टक इम्पेरेजिज्म) के खिलाफ सारी दुनिया के भाषाशास्त्री को सचेत करती है पर हिन्दी वाले हैं कि सुन्न पड़े हैं । हिन्दी साहित्य संसार में विचरण करने वाले साहित्यकार तो ‘तेरी कविता से मेरी कविता ज्यादा लाल’ में लगे हुए हैं या हिन्दी की वर्तनी को दुरूस्त कर रहे हैं । जबकि इस समय सबको मिलजुलकर इस सुनियोजित कूटनीति के खिलाफ कारगर कदम उठाने की तैयारी करनी चाहिए ।

बहरहाल, इस सारे मसले पर एक व्यापक राष्ट्रीय विमर्श की जरूरत है । हमें याद रखना चाहिए कि कई नव स्वतंत्र राष्ट्रों ने अपनी भाषा को अपनी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया । इसलिए आज उनके पास उनका सब कुछ सुरक्षित है। हमने अपनी राजनीतिक भीरूता के चलते भाषा के मसले पर पुरूषार्थ नहीं दिखाया । इसी की वजह है कि हमसे आज का ये धोखादेह समय हमारे सर्वस्व को जिबह के लिए मांग रहा है । आज हमारी आजादी वयस्क होते ही राजनीति के ऐसे छिनाले में फंस गई है कि सारा देश मीडिया में चल रहे व्यवस्था का मुजरा देख रहा है । पूरा समाज मीडिया और माफिया आपरेटेड बन गया है । अब मीडिया ही आरोप तय करता है, वही मुकदमा चलाता है और अंत में अपनी तरह से अपनी तरह का फैसला भी सुनाता रहता है और विडम्बना यह कि वह यह सब जनतंत्र की दुहाई देकर करता है, जबकि अपनी आलोचना का हक वह किसी को नहीं देता और अपने आत्मालोचन के लिए तो उसके पास समय ही नहीं है ।

राजनीति ने तो भाषा, शिक्षा, संस्कृति जैसे प्रश्नों पर विचार करना बहुत पहले ही स्थगित कर रखा है । वह तो देश को बाजार तथा एजीओ के भरोसे छोड़कर मुक्त हो गई है । यों भी उसमें प्रविष्टि की अर्हता हत्या और घूस लेकर कानून के शिकंजे से सुरक्षित बाहर आ जाना हो गया है - और जो इन अर्हताओं से रहित हैं, वे देश को एक प्रबंध संस्थान की तरह चलाने को भूमण्डलीकरण की वैश्विक दृष्टि मानते हैं और वे उसके राजनीतिक प्रबंधक का काम कर रहे हैं । यह राजनीतिक संस्कृति की समाज से विदाई की घड़ी है, जिसने संस्थागत अपंगता को असाध्य बन जाने की तरफ हांक दिया है । हम क्या थे ? हम क्या हैं और क्या होंगे अभी ? जैसे प्रश्नों पर बहस करना मूर्खों का चिंतन हो गया है । जबकि ये प्रश्न शाश्वत रहे हैं और हमेशा ही उत्तरों की मांग करते रहेंगे । इसलिए हमें अपने इतिहास को जीवित बचाकर रखना जरूरी है, क्योंकि भविष्य का जब सौदा होगा उसमें हमारी कम हमारे अतीत की भूमिका बहुत बड़ी होती है । वरना यह भाषा की मृत्यु के साथ दफ्न हो जायेगा। वे हमें हालीवुड की तरह भविष्यवादी फंसातियों में जीने के लिए तैयार किये दे रहे हैं।

कुछ दिनों में विश्व हिन्दी सम्मेलन होने जा रहा है, उसमें तालियां कूटने के बजाय इस प्रश्न पर बहुत शिद्दत से सोचा जाना चाहिए कि क्या हम शेष संसार से मुल्क बोस्निया, जाना, चीन, आिस्ट्रया, बल्गारिया, डेनमार्क, पुर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, बेिल्जमय, क्रोएशिया, फिनलैण्ड, फ्रांस, हंग्री, नीदरलैण्ड, पौलेण्ड या स्वीडन की तरह अपनी ही मूल भाषा में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र के लिए जगह बनाने के लिए क्या कर सकते हैं । क्योंकि बकौल सेम पित्रोदा सिर्फ एक प्रतिशत ही है जो लोग अंग्रेजी जानते हैं । या कि हमें अफ्रीकी उपमहाद्वीप बन जाने की तैयारी करना है । अंत में अफ्रीका महाद्वीप में स्वाहिली लेखक की पीड़ा को भारतीय उपमहाद्वीप की पीड़ा का पर्याय बनाना है । उसने कहा कि जब ये नहीं आए थे तो हमारे पास हमारी कृषि, हमारा खानपान, हमारी वेशभूषा, हमारा संगीत और हमारी अपनी कहे जाने वाली संस्कृति थे - इन्होंने हमें अंग्रेजी दी और हमारे पास हमारा अपने कहे जाने जैसा कुछ नहीं बचा है । हम एक त्रासद आत्महीनता के बीच जी रहे हैं ।

हमारी हिन्दी पत्रकारिता को सोचना चाहिए कि विदेशी धन और खुद को मीडिया मुगल बनाने के बजाय वह सोचें कि अन्तत: भारतीय भाषाओं को आमतौर पर और हिन्दी को खासतौर पर हटाकर वह देश को आत्महीनता के किस मोड़ की तरफ घेरने जा रही है । साथ यह भी सोचें कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आरती उतारने वाले भर रह जायें और देवपुरूष कोई अन्य हो जाये । बाहर की लक्ष्मी जायेगी तो वह विष्णु भी अपना ही लायेगी । आपके क्षीरसागर के विष्णु सोए ही रह जायेंगे।।

क्या हमारे हिंग्लिशियाते अखबार इस पर कभी सोचते है कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पाल गुडमेन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी है कि हमारे रक्त में रची बसी भाषा को उसके मास मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं । दरअसल औपनिवेशक दासत्व से ठूंस-ठूंसकर भरे हमारे दिमागों ने हिन्दी के बल पर पेट भर सकने की स्थिति को कभी बनने ही नहीं दिया, उल्टे धीरे-धीरे शिक्षा में निजीकरण के नाम पर शहरों में गली-गली केवल अंग्रेजी सिखाने की दुकानें खोलने के लिए लायसेंस उदारता के साथ बांटे गये । उन्हें इस बात का कतई इल्हाम नहीं रहा कि वे समाज और राष्ट्र के भविष्य के साथ कैसा और कौन सा सलूक करने की तैयारी करने जा रहे हैं । पूंजीवादी भूमण्डलीकरण से देश स्वर्ग बन जायेगा, ऐसी अवधारणाएं हिन्दी में अधकचरे ग्लोबलिस्टों की इतनी भरमार है कि वे एक अरब लोगों के भविष्य का मानचित्र मनमाने ढंग से बनाना चाहते हैं - और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूंगों की नहीं अंधों की शैली में आंख मीचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है, उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिंता एक तरह का देसीवाद है जो भूमण्डलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हजम नहीं कर पा रहा है । वे इसे मरणासन्न देसीवाद का छाती-माथा कूटना कहकर उससे अलग होने के लिए उकसाने का काम करते हैं ।

भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के अवतार पुरूष होने का जो डंका पीटा जाता है, उसके बारे में एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने एक वाक्य की टिप्पणी में हमारी औकात का आकलन करते हुए कहा कि भारत के आई.टी. आर्टिजंस तो आभूषणों की दुकानों के बाहर गहनों को पालिश करके चमकाने वाले लोग भर हैं । माइक्रोसाफ्ट उत्पाद बनाता है और भारतीय उसे केवल अपडेट करते हैं । यह वाक्य हमारे सूचना सम्राट होने के गुब्बारे की क्षणभर में हवा निकाल देता है और दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बात यह है कि हम इसी के लिए (आई.टी. आर्टिजंस) के लिए अपनी भाषाओं को मार रहे हैं । हम चमड़े के लिए भैंस मारने पर आमादा है ।

यदि हमें हिन्दी को आमतौर पर और तमाम भारतीय अन्य भाषाओं को खासतौर पर बचाना है तो पहले हमको प्राथमिक शिक्षा पर एकाग्र करना होगा और विराट छद्म को नेस्तानबूत करना होगा, जो बार-बार ये बता रहा है कि अगर प्राथमिक शिक्षा पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अनिवार्य कर दी जाये, तो देश फिर से सोने की चििड़या बन जायेगा । जहां तक भाषा में महारत का प्रश्न है, संसार भर में हिन्दुतान के ढेरों प्रतिभाशाली वैज्ञानिक उद्योगपति और रचना लेखक रहे हैं, जिन्होंने अपनी आरंभिक शिक्षा अंग्रेजी में पूरी नहीं की । इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण और अविलम्ब ध्यान देने वाली बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर बढ़कर विकराल होते निजीकरण पर भी सफल नियंत्रण पाना होगा । तभी हम अपना जैसा कहे जा सकने वाला थोड़ा बहुत सुरक्षित रख पाने की स्थिति में होंगे । भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में बदलने का परिणाम यह होगा कि आने वाले 25 वर्ष बाद हमारी हजारों सालों की भारतीय भाषाएं बच्चों के लिए केवल जादुई लिपियां होंगी ।

कहानी और कविता पर मीरा स्मृति सम्मान : प्रविष्टियाँ आमंत्रित





कहानी और कविता पर मीरा स्मृति सम्मान



मीरा फाउन्डेशन, इलाहाबाद की ओर से हिन्दी की रचनात्मक मेधा को सम्मानित करने के लिए हर साल मीरा स्मृति सम्मान दिया जाएगा। सम्मान राशि २५ हज़ार रुपये होगी। फाउन्डेशन द्वारा जारी सूचना के अनुसार साहित्य भण्डार, इलाहाबाद के सहयोग से यह सम्मान एक वर्ष कहानी के लिए दूसरे वर्ष कविता के लिए प्रदान किया जाएगा


वर्ष २००९ का सम्मान कहानी विधा पर केंद्रित होगा तथा वर्ष २०१० का सम्मान कविता विधा पर प्रदान किया जाएगा


इस वर्ष के कथा सम्मान के लिए प्रविष्टि पहुँचने की अन्तिम तिथि ३० जून २००९ है जनवरी २००७ से ३१ दिसम्बर २००८ के बीच प्रकाशित कृतियाँ ही इस वर्ष के सम्मान के लिए विचारणीय होंगी

सम्मान के लिए कृतिकार की आयु सम्मान वर्ष से पूर्व के वर्ष के ३१ दिसम्बर को ५० वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए


कृतियाँ भेजने के लिए पता -

संयोजक : मीरा स्मृति सम्मान
साहित्य भण्डार
५०, चाहचंद,
इलाहाबाद - २११००३



इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार ------ (३)

इसलिए बिदा करना चाहते हैं---(3)

इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार ------ (३)
~प्रभु जोशी


पिछले दिनों अमेरिका में गरीब मुल्कों की आँखें खोल देने वाली एक पुस्तक छप कर आयी है, जिसे न लिखने के लिए सी.आई.ए. ने एक मिलियन डॉलर रिश्वत देने की पेश की थी - लेकिन, लेखक ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और साहस जुटा कर प्रायश्चित के रूप में लिख ही डाली यह पुस्तक : कन्फेशन ऑव एन इकोनोमिक हिटमैन´ । नोम चोमस्की और डेविड सी. कोर्टन जैसे बुिद्धजीवियों ने लेखक को उत्साहित करते हुए कहा कि इसका प्रकाशन शेष संसार का तो हित करेगा ही, बल्कि, इससे अमेरिका का भी हित ही होगा । इसलिए इसका छपना जरूरी है ।

बहरहाल, पुस्तक के लेखक जॉन पार्किन्स ने उसमें विस्तार से बताया कि किस तरह बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिए अमेरिका ने तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के आर्थिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया कि नतीजतन वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी विपन्न हो गए । कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे ही बहुराष्ट्रीय निगमों और विश्व बैंक के पूर्व कर्मचारी हिन्दी के अखबारों के `तथाकथित-सम्पादकीय पृष्ठों´ पर कब्जा करते जा रहे हैं । वे ही हमारे भूमण्डलीय युग के चिंतक और राष्ट्र निर्माता बन गये हैं । भारत में अंग्रेजी के अश्वमेध में भिड़े ये लोग अंग्रेजी की अपराजेयता का इतना बखान करते हैं कि सामान्यजन ही नहीं कई राजनेताओं और शिक्षाविदों को लगता है, जैसे आर्थिक प्रलय की घड़ी सामने है और उसमें अब केवल अंग्रेजी ही मत्स्यावतार हैं । अत: हमें लगे हाथ उसकी पीठ पर इस आर्यभूमि को चढ़ा देना चाहिए, वर्ना यह रसातल में डूब जायेगी । ये सब देश को बचाने वाले लोग हैं । वे कहते हैं एक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने तुम्हें सभ्य बनाया । अब जो आ रही हैं वे तुम्हें सम्पन्न बनायेगी । माँ तो मांगने पर ही रोटी देती है, ये तुम्हें बिना मांगे माल देंगे । तुम्हें मालामाल कर देंगी । फिर भी तुम मांगोगे मोर । इसलिए हिन्दी को छोड़ो और अंग्रेजी का दामन थामो ।

अंग्रेजी की विरुदावली गा-गाकर गला फाड़ते ये किराये के कोरस गायक, यह क्यों भूल जाते हैं कि चीनी (जिसमें ढाई हजार चिह्ननुमा अक्षर हैं)- जापानी जैसी चित्रात्मक लिपियों वाली भाषाओं ने अंग्रेजी की वैसाखी के बगैर ही बीसवीं सदी के सारे ज्ञान-विज्ञान को अपनी उन्हीं चित्रात्मक लिपियों वाली भाषा में ही विकसित किया और आज जब संसार में व्यापार, तकनॉलाजी या आर्थिक क्षेत्रों के संदर्भ खुलते हैं तो कहा जाता है, लिंचपिन आव वल्र्ड-इकोनॉमी एण्ड टेकनोलॉजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान । हालांकि कुछ लोग अब जापान के साथ चीन का भी नाम लेने लगे हैं और यह किसी से छुपा नहीं है कि अब अमेरिका चीन से भी चमकने लगा है । क्योंकि वह शीघ्र ही सूचना प्रौद्योगिकी पर कब्जा करने वाला है । क्योंकि, अमेरिका में पढ़ रहा एक चीनी छात्र, यदि वहाँ रहकर कोई कम्प्यूटर सॉफ्टवेअर विकसित करता है तो साथ ही साथ उसे वह अपनी चीनी भाषा में विकसित करता है और अपने देश में पहुंचते ही वह उसे स्थापित कर देता है । जबकि, हिन्दी की नागरी लिपि, जो संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों में श्रेष्ठ और वैज्ञानिक है, को अंग्रेजी का रास्ता साफ करने के लिए निर्दयता के साथ मारा जा रहा है । वे अपने धूर्त मुहावरे में बताते हैं कि अखबार इस तरह हिन्दी को नष्ट नहीं कर रहे हैं, बल्कि ग्लोबल बना रहे हैं । वे हिन्दी को एक फ्रेश लिंग्विस्टक लाइफ दे रहे हैं । हम जानना चाहते हैं कि भैया आप किसे मूर्ख बना रहे हैं - जिस हिन्दी को राष्ट्र संघ की भाषा सूची में शामिल नहीं करवा सके, उसे `हिंग्लिश´ बनाकर ग्लोबल बनायेंगे ? और हिंग्लिश बन कर, हिन्दी ग्लोबल होगी कि वह अंग्रेजी के `महामत्स्य´ के पेट में पहुंच जाएगी ।

श्रीमान् आप आग लगा कर उस पर आग के आगे पर्दा खींच रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि `बेवकूफो ! हिन्दी सकुशल है और वह जिंदा बची रहेगी ।´ अंग्रेजी की लपट में स्वाहा नहीं होगी । यदि हो भी गई तो बाद उसके वह राख के रूप में रहेगी, पर रहेगी जरूर । भाषा की भस्म को कपाल पर पोत कर तुम प्रसन्न रहना । ठीक है, हिन्दी तुम्हारी जबान पर रहे न रहे पर वह तुम्हारे ललाट पर तो रहेगी ही । पहले हिन्दी `ललाट की बिंदी´ भर थी, अब तो तुम उससे पूरा ललाट लीप लेना । फिर तुम तो आत्मावादी हो । वासांसि जीर्णानि यथा विहाय वाले हो इसलिए भलीभांति जानते हो कि आत्मा अमर होती है । हिन्दी की आत्मा अमर है और रहेगी । वो सिर्फ पुराने कपड़े बदल रही है । उसके पुराने कपड़ों की हालत ‘नौ गज साड़ी फिर भी जाँघ उघाड़ी’ वाली उक्ति की तरह हो चुकी थी (शब्द का बहुत बड़ा जखीरा अर्थात् मोटे-मोटे शब्दकोश), लेकिन फिर भी लफ्जों के लाले । हिन्दुस्तान की एक बुकराई हुई एक अंग्रेजी लेखिका ने कहा -`बताइये हिन्दी के पास एटम के लिए कोई शब्द ही नहीं है फिर भला उसमें विज्ञान की शिक्षा कैसे संभव है।´) बहरहाल तुम्हारी हिन्दी जींस पहन रही है । उसे स्मार्टनेस की तरफ जाना है । वह फिलहाल ग्रीन रूम में है । लद्धड़ता छोड़कर एक फ्रेश लिग्विस्टिक लाईफ को हासिल करने की तरफ बढ़ रही है ।

थामस फ्रीडमेन ने वैश्वीकरण की हकीकत उजागर करते हुए ठीक ही कहा है कि ग्लोबलाइजेशन का अर्थ सरकारों और बहुराष्ट्रीय नियमों का पारस्परिक संबंध भर है । वह कहता है कि इसीलिए ग्लोबलाइजेशन की प्राथमिक कार्रवाई यही होती है कि जिस किसी चीज से भी `राष्ट्रीयता´ की बू आये, उसे अविलम्ब हटाइये । इस `सैद्धान्तिकी´ के मुताबिक निश्चय ही `हिन्दी´ ग्लोबलाइजेशन के पहले निशाने पर है, चूंकि इससे राष्ट्रीयता की बहुत तीखी और बरदाश्त बाहर गंध आती है । वजह यह कि हिन्दी का रिश्ता राष्ट्रभाषा के रूप में नाथ देने से यह भारत के कुछ प्रदेशों की जनता की नजर में राष्ट्रीय अस्मिता का पर्याय बन गयी है । नतीजतन इस पर चढ़े राष्ट्रीयता के इस कवच को हटाना जरूरी है, वर्ना यह मारे जाने में काफी समय लेगी । बहुत मुमकिन है कि लोग इसकी हत्या के प्रकट पैंतरों को देख कर हो-हल्ला करते हुए एकमत होने लगें । लेकिन भूमण्डलीकरण की सफलता तभी है जब लोग भाषा और भूगोल को लेकर एकमत होना छोड़ दें ।

इसी संभावित संकट को भाँप कर दलाल लोग यह कहते फिरते हैं कि हिन्दी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा के पाखण्ड से मुक्त करके `जनता की गाढ़ी कमाई से खींचे गए´ पैसों का बहाया जाना अविलम्ब रोका जाये । क्योंकि इससे उसे अकारण ही ऑक्सीजन मिलती रहती है । जबकि उसकी ब्रेन डेथ हो चुकी है । उसमें सोचने समझने की क्षमता ही नहीं है । राजभाषा के नाम पर धन उड़ेलने से एक और समस्या पैदा हो जाती है, जिस पुराने रूप को अखबार नष्ट करने में मेहनत करते हैं, दूसरी ओर राजभाषा वाले सरकारी प्रयासों से भाषा का वह पुराना रूप एक मानक के रूप में जिंदा बना रहता है । अंग्रेजी इस बात में तो आरंभ से सतर्क रही और उसने हिन्दी का अन्य नाम भारतीय भाषाओं से सहोदरा संबंध बनाने ही नहीं दिया, उलटे वैमनस्य और अदम्य वैरभाव को बढ़ाये रखा- लेकिन, हिन्दी की, अपनी बोलियों से जड़ें इतनी गहरी बनी और रही आयीं कि उसको वहां से उखाड़ना मुश्किल रहा । बहरहाल, ये काम अब मीडिया ने अपने हाथ में ले लिया है । बोलियों का संहार करने में जो काम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर रहा है, उसे दस कदम आगे जाकर हिन्दी के अखबार कर रहे हैं । जो अखबार साढ़े तीन रूपये में बिकते हुए जानलेवा आर्थिक कठिनाई का रोना रो रहे थे, वे अब डेढ़ रूपये में चौबीस पृष्ठों के साथ अपनी चिकनाई और रंगीनी बेच रहे हैं । स्पष्ट है, यह वह विदेशी चंचला धनलक्ष्मी है । क्या ये लोग नहीं जानते कि यह पूंजी `अस्मिताओं´ का `विनिमय´ नहीं, बल्कि अस्मिताओं का सीधा-सीधा `अपहरण´ करती हैं । यह अखबारों को अपनी `हवाई सेना´ बनाकर, `विचारों का विस्फोट´ करती है, और विस्फोट वाली जगह पर थल-सेना कब्जा कर लेती है । इसी के चलते अखबार `बाजारवाद´ के लिए जगह बनाने का काम कर रहे हैं । वे पहले `विचार´ परोसते थे, अब `वस्तु´ परोस रहे हैं - अलबत्ता, खुद `वस्तु´ बन गये हैं । इसी के चलते अखबारों में संपादक नहीं, ब्राण्ड मैनेजर बरामद होते हैं । अखबारों की इस नई प्रथा ने, `मच्छरदानी´ की `सैद्धान्तिकी´ का वरण कर लिया है । कहने को वह `मच्छर-दानी´ होती है परन्तु उसमें मच्छर नहीं होता । वह बाहर ही बाहर रहता है । ठीक इसी तरह अखबार में अखबारनवीस को छोड़कर सारे विभागों के भीतर सब वाजिब लोग होते हैं । बस संपादकीय विभाग में सम्पादक नहीं होता । इसीलिए आपस में पत्रकार बिरादरी एडिटोरियल को एडव्हरटोरियल विभाग कहती है । सम्पादकीय विभाग विज्ञापन विभाग का मातहत है । यहाँ तक कि प्रकाशन योग्य सामग्री भी वही तय करता है । यों भी सम्पादकीय पृष्ठ दैनिक अखबारों में अब बुद्धिजीवियों के वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए नहीं, राजनीतिक दलों के `व्यू-पाइण्ट´ (?) के लिए आरक्षित होते जा रहे हैं । वे राजनीतिक जनसंपर्क हेतु सुरक्षित पृष्ठ हैं । यह उसी पूंजी के प्रताप का प्रपात है, जो बाहर से आ रही है ।

ऐसे में वे पूछना चाहें कि बताइए भला यह कैसे हो सकता है कि आप पूंजी तो हमारी लें और `भाषा और संस्कृति´ आप अपनी विकसित करें । यह नहीं हो सकता । हमें अपने साम्राज्य की सहूलियत के लिए `एकरुपता´ चाहिए । सब एक-सा खायें । एक-सा पीयें । एक-सा बोलें । एक-सा लिखें-लिखायें । एक-सा सोचें। एक-सा देखें। एक-सा दिखायें । तुम अच्छी तरह से जान लो कि यही संसार के एक ध्रुवीय होने का अटल सत्य है । हमारे पास महामिक्सर है - हम सबको फेंट कर `एकरूप´ कर देंगे । बहरहाल, उन्होंने भारत के मीडिया को अपना महामिक्सर बना लिया । इसलिए, अब अखबार और अखबार के बीच की पहले वाली यह स्पर्धा जो धीरे-धीरे गला काट हो रही थी अब क्षीण हो गयी है । चूंकि अब वे सब एक ही अभियान में शामिल, सहयात्री हैं । उनका अभीष्ट भी एक है और वह है, `वैश्वीकरण´ के लिए बनाये जा रहे मार्ग का प्रशस्तीकरण । सो आपस में बैर कैसा ? हम तो आपस में कमर्शियल कजिन्स हैं । आओ हम सब मिलकर मारें हिन्दी को, अब भारत की असली हिन्दी पत्रकारिता यही है ।
[ क्रमश: ]

जाना तो हर एक को एक दिन जहान से, जाते जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।।










स्मरण
: ओमप्रकाशआदित्य


जाना तो हर एक को एक दिन जहान से
जाते जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।।


आठ जून। खंड प्रलय घटित हो गई मानो। इसे खंड प्रलय न कहें तो क्या कहें? एक ओर तो रंगकर्मी हबीब तनवीर की चिर विदाई तथा दूसरी ओर हिंदी काव्यमंच की तीन प्रतिभाओं का आकस्मिक तिरोधान। लाड़सिंह गूजर और नीरज पुरी के साथ ओमप्रकाश ‘आदित्य’ सूर्योदय की वेला में अस्त हो गए।


समाचार पढ़कर वे दिन याद आ गए जब कवि सम्मेलनों में जाना शुरू ही किया था। बहुत आकर्षित किया था किशोर मन को उन दिनों डॉ। ब्रजेंद्र अवस्थी, देवराज दिनेश और ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की कविता प्रस्तुत करने की अपनी-अपनी भंगिमाओं ने। ब्रजेंद्र अवस्थी और देवराज दिनेश तो पहले ही चले गए अब ओमप्रकाश ‘आदित्य’ भी नहीं रहे। ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने ‘आदित्य’ जी पर लिखने को कहा तो ‘दिनकर’ (‘आदित्य’ और ‘दिनकर’ दोनों सूर्य के पर्याय हैं ) की पंक्ति याद आ गई - ‘‘गीतकार मर गया, चाँद रोने आया!’’


ओमप्रकाश ‘आदित्य’ ऐसे ही कवि थे जिनके निधन पर सचमुच प्रकृति को भी रोना आ रहा होगा। मृत्यु तो ध्रुव सत्य है, निश्चित है; लेकिन वह कैसे घटित होगी, यह अनिश्चित है। कैसी विड़ंबना है कि इस महान हास्य-व्यंग्यकार को अपने चाहनेवालों को शब्दों की उँगलियों से गुदगुदाकर हँसी में लोट-पोट करके लौटते हुए सड़क दुर्घटना में जाना था। जिसकी कविता के लिए लोग रात-रात भर नींद से लड़ते थे, शायद वाहन चालक पर उतरी नींद का नशा उसकी मृत्यु का कारण बना। दुर्घटना, विड़ंबना और मृत्यु जैसे शब्द ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की उस प्रसिद्ध कविता की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने हिंदी के नए-पुराने कवियों को छज्जे पर खड़ी एक स्त्री के आत्महत्या के प्रयास की ‘सिचुएशन’ पर कविता लिखने को कहा है। आदित्य जी की यह कविता कुछ स्थायी छंदों के अतिरिक्त हर कवि सम्मेलन में नया आकार प्राप्त कर लेती थी। उन्हें विभिन्न कवियों की लेखन और वाचन शैली की इतनी अच्छी पकड़ थी कि हर कवि सम्मेलन में उपस्थित महत्वपूर्ण कवियों की पैराड़ी भी इस रचना में जुड़ती जाती थी। यदि ‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का विकसनशील महाकाव्य है जिसमें समय-समय पर अन्य कवियों ने अपनी रचना जोड़ी तो ‘सिचुएशन’ ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की ऐसी विकसनशील कविता है जिसमें स्वयं उन्होंने समय-समय पर अन्य कवियों की शैली में अपनी रचना जोड़ी। उस पर कमाल यह कि प्रस्तुतीकरण भी वे हू-ब-हू उन्हीं रचनाकारों की तरह करते थे। ‘गोरी बैठी छत्त पर’ शीर्षक यह ‘सिचुएशन’ कविता मैथिलीशरण गुप्त की शैली में आरंभ होती -


‘‘अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो।
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे,

हे राम, रक्षा कीजिए अबला न भूतल पर गिरे।’’

कविता सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, गोपाल प्रसाद व्यास, काका हाथरसी,, श्याम नारायण पांडेय और गोपाल प्रसाद नीरज जैसे दिग्गज कवियों के अलग-अलग स्टाइल में आगे बढ़ती जाती और श्रोता हास्य रस में सराबोर होते रहते। यह देखना अपने आप में एक चमत्कारपूर्ण अनुभव था कि दिनकर या श्याम नारायण पांडेय की वीररसपूर्ण शब्दावली किस प्रकार ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की कला का संस्पर्श पाकर हास्य उत्पन्न करने लगती थी। दिनकर की पैरोड़ी आज भी याद आती है -


‘‘दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला।
हिमगिरि के उत्स निचोड, फोड़ पाताल बनो विकराला।
ले ध्वंसों के निर्माण प्राण से गोद भरो पृथ्वी की।
छत पर से मत गिरो गिरो अंबर से वज्र-सरीखी।’’

ओमप्रकाश ‘आदित्य’ के मित्रों और प्रशंसकों को वे दिन सुलाए नहीं भूल सकते जब रेडियो, दूरदर्शन और काव्यमंचों पर ओमप्रकाश ‘आदित्य’ अपने समकालीन दिग्गज हास्य कवियों के साथ हास्य रस को साहित्यिक और स्तरीय रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। तब तक हास्य कविता चुटकुले और फूहड़पन में नहीं ढली थी और सही अर्थों में रसानुभूति कराती थी। कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति मात्र से उनके चाहनेवाले मुस्कराने लगते थे। धाराप्रवाह शैली में रचना प्रस्तुत करते समय वे इस तरह हास्य रस की फुलझड़ियाँ छोड़ते कि श्रोता सात्विक हास्य में बरबस ठहाके लगाने से खुद को रोक नहीं पाता था। उनके प्रशंसक कविता पढ़ने के उनके इस निराले अंदाज को कभी नहीं भूल पाएँगे कि ‘वे पहले एक साँस में गाते हुए कविता प्रस्तुत करते, फिर बड़े धीरे से फुसफुसाते हुए कविता की वह पंक्ति गुनगुनाते जो सारे माहौल में हँसी का स्फुरण कर देती।’ यह शैली उनके कवि स्वभाव का अंग थी, पहचान थी।


ओमप्रकाश ‘आदित्य’ अपने समकालीन सामाजिक और राजनैतिक परिवेश के प्रति अत्यंत जागरूक थे। इन दोनों ही क्षेत्रों की विसंगतियाँ इन्हें विचलित भी करती थीं और रुष्ट भी। ऐसी विसंगतियों को ही वे कविता का विषय बनाते थे। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि वे इस कड़वे यथार्थ को इस तरह प्रस्तुत करते थे कि वह मीठी और गहरी मार करे, चुभे और बेचैन करे। असंतोष और आक्रोश को व्यक्त करनेवाली ऐसी व्यंग्यपूर्ण रचनाओं की एक बड़ी सीमा इनमें आक्रोश को नारे की तरह परोस देने में निहित होती है। ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की रचनाधर्मिता उनकी इस कलात्मकता में है कि उन्होंने अपने आक्रोश को नारा नहीं बनने दिया। कवित्व की क्षति करके मंच पर गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना उनकी दृष्टि में कवि और काव्य की शालीनता के विरुद्ध था -

‘‘शेर से दहाड़ो मत,
हाथी से चिंधाड़ो मत,
ज्यादा गला फाड़ो मत,
श्रोता डर जाएँगे ,
घर के सताए हुए आए हैं बेचारे यहाँ
यहाँ भी सताओगे तो ये किधर जाएँगे?’’

उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की एक विशेषता यह भी थी कि वे सहज हास्य के बीच करुणा को इस तरह पिरोते थे कि उसका त्रासद प्रभाव श्रोता के मन पर अंकित हो जाता था। जैसे अपनी एक प्रसिद्ध कविता को वे इस साधारण सी लगनेवाली उक्ति के साथ आरंभ करते हैं कि -

‘‘इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं,
जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं।’’


श्रोता हँसना शुरू करता है कि तभी कवि अगली पंक्तियों में रुदन को सामने ले आता है -


‘‘गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है,
हिंदुस्तान में यह क्या हो रहा है।’’


श्रोता इस हास्य और करुणा के द्वंद्व में कभी खिलखिलाता है तो कभी ‘च्च्च्च्’ करता है। कविता आगे बढ़ती है और श्रोता को पहले रोमांटिक बनाती है और बाद में राजनैतिक विड़ंबना की ऐसी पटकनी देनी है कि चेतना में सनसनी जाग उठे -

‘‘जवानी का आलम गधों के लिए है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है।
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है
ये संसार सालम गधों के लिए है।’’


आगे कवि ने इस विड़ंबना की ओर भी इशारा किया है कि योग्य व्यक्ति इस तथाकथित लोकतंत्र में उपेक्षित पड़े है तथा अयोग्य व्यक्ति सब पदों पर काबिज़ है। ऐसा लगता है कि छोड़े तो घास को तरस रहे हैं और गधे च्यवनप्राश खा रहे हैं। इसलिए कुछ न कर पानेवाला आम आदमी अंततः इस सबको भूल जाना चाहता है, पर भूलने से पहले कवि उसे बड़े व्यंजनापूर्ण परंतु सहज ढंग से असली गधे की पहचान करा देता है।


‘‘जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक से चीखे वो असली गधा है।’’



अंत में मृत्यु के संदर्भ में ‘नीरज’ की शैली में रचित ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की ये पंक्तियाँ ‘त्वदीमं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये’ की तर्क पर दिवंगत ‘आदित्य’ को निवेदित हैं -

‘‘हो न उदास रूपसी, तू मुस्कुराती जा,
मौत में भी जिंदगी के फूल तू खिलाती जा।
जाना तो हर एक को एक दिन जहान से,
जाते-जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।’’



- ऋषभदेव शर्मा





इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार --- (2)



इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार --- (2)
~ प्रभु जोशी


बहरहाल, अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेजगति के साथ हिन्दी के खिलाफ शुरू हो चुकी है । इस हिंसा के जरिए भाषा की हत्या की सुपारी आपके अखबार ने ले ली है । वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक-संकोच अनुभव किए खासी अच्छी उतावली के साथ उतर चुका हैं । उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है । (डविड क्रिस्टल तो एक शब्द की मृत्यु को एक व्यक्ति की मृत्यु के समान मानते हैं । ऑडेन तो बोली के शब्दों को इरादतन अपनी कविता में शामिल करते थे कि कहीं वे शब्द मर न जायें - और टी.एस. इलियट प्राचीन शब्द, जो शब्दकोष में निश्चेष्ट पड़े रहते थे, को उठाकर समकालीन बनाते थे कि वे फिर से सांस लेकर हमारे साथ जीने लगे।) आपको शब्द की तो छोड़िये, भाषा तक की परवाह नहीं है, लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अंगेजी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं । आप हिन्दी के डेढ़ करोड़ पाठकों का समुदाय बनाने का नहीं, बल्कि हिन्दी के होकर हिन्दी को खत्म करने का इतिहास रचने जा रहे हैं । आप धन्धे में धुत्त होकर जो करने जा रहे हैं, उसके लिए आपको आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी । आपका अखबार उस सर्प की तरह है, जो बड़ा होकर अपनी ही पूंछ अपने मुंह में ले लेता है और खुद को ही निगलने लगता है । आपका अखबार हिन्दी का अखबार होकर हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है, जो कारण जिलाने के थे वे ही कारण मारने के बन जाएँ इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है । यह आशीर्वाद देने वाले हाथों द्वारा बढ़कर गरदन दबा दिये जाने वाली जैसी कार्यवाही है । कारण कि हिन्दी के पालने-पोसने और या कहें कि उसकी पूरी परवरिश करने में हिन्दी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही आई है ।

जबकि, आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से उपजी `भाषा-चेतना´ ने इतिहास में कई-कई लम्बी लड़ाइयाँ लड़ी हैं । इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो आप पायेंगे कि आयरिश लोगों ने अंग्रेजी के खिलाफ बाकायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी । फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएं अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरूद्ध न केवल इतिहास में अपितु इस `इंटरनेट युग´ में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी हैं । इन्होंने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया ।

बहरहाल मेरे इस पत्र का उत्तर अखबार मालिक ने तो नहीं ही दिया, और वे भला देते क्या ? और देते भी क्यों ? सिर्फ़ उनके सम्पादक और मेरे अग्रज ने कहा कि हिन्दी में कुछ जनेऊधारी तालिबान पैदा हो गये हैं, जिससे हिन्दी के विकास को बहुत बड़ा खतरा हो गया है । यह सम्पादकीय चिंतन नहीं अखबार के कर्मचारी की विवश टिप्पणी थी । कयोंकि उनसे तुरंत कहा जायेगा कि श्रीमान अपनी भाषा प्रेम और नौकरी में से कोई एक चुन लो ।
बहरहाल, अखबार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले चार सालों से वे अपने संकल्प में जुटे हुए हैं । और अब तो हिन्दी में अंग्रेजी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने, विदेशी पूंजी को पचा कर मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी अखबारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी नागरी-लिपि को बदल कर, रोमन करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब इस तरफ कूच कर रहे हैं । उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेण्डा बना लिया है । क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय इस सायबर युग में रोमन लिपि की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है । यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है । जी हाँ, कम्प्यूटर माऊस की पीठ पर चढ़कर ।

अंग्रेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - `अंग्रेजों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत जरूरी है । और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं ।’ ठीक इसी युक्ति से हिन्दी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के ये चिंतक यही बता रहे हैं कि हिन्दी का मरना, हिन्दुस्तान के हित में बहुत जरूरी हो गया है । यह काम देश सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश ऊपर उठ ही नहीं पाएगा । परिणाम स्वरूप वे हिन्दी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं ।
ये हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए `बाआसानी संहार´ किया जा सकता है।

वे कहते हैं कि हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइये- `प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म´ । अर्थात्, बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को `सायास´ बदला जा रहा है । बल्कि, `बोलने वालों´ को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और म.प्र. के कुछ अखबारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है । बहरहाल, इसका एक ही तरीका है कि अपने अखबार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनंदिनी शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेजी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में शेयर्ड - वॉकेबलरी की श्रेणी में आते हैं । जैसे कि रेल, पोस्ट कार्ड, मोटर आदि-आदि ।

इसके पश्चात धीरे-धीरे इस शेयर्ड वकैब्युलरि में रोज-रोज अंग्रेजी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये । जैसे पिता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स, विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी, रविवार की जगह संडे, यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि । अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दो कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें ।

यह चरण, `प्रोसेस ऑव डिलोकेशन´ कहा जाता है । यानी की हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम ।

ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे `स्नोबॉल थियरी´ काम करना शुरू कर देगी - अर्थात् बर्फ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे घुलमिलकर इतने जुड़ जाएँगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा । यह थियरी भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी से ऐसे जुड़ जायेंगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा ।

इसके पश्चात शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अंग्रेजी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात इनक्रीज द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेज़ेज़ । मसलन `आऊट ऑफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन/ आदि आदि । कुछ समय के बाद लोग हिन्दी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जायेंगे । उदाहरण के लिए हिन्दी में गिनती स्कूल में बंद किये जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रूपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पायेगा, जब तक कि उसे अंग्रेजी में सिक्सटी एट नहीं कहा जायेगा । इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अखबार से उठाकर दे रहा हूं ।

´मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफ़र्टस् किये हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं । क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं । इन प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है ।´

इस तरह की भाषा को लगातार पांच-दस वर्ष तक प्रिंट माध्यम से पढ़ते रहने के बाद अखबार के पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिन्दी में बोले तो वह गूँगा हो जायेगा । उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं `इल्यूज़न ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन´। अर्थात् हिन्दी की जगह अंग्रेजी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म ।

हिन्दी को इसी तरीके से हिन्दी के अखबारों में `हिंग्लिश´ बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में लोग इस सारे सुनियोजित एजेण्डे को भाषा के परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रकिया ही मानने लगे हैं और हिन्दी में यह होने लगा है । गाहे-ब-गाहे लोग बाकायदा इस तरह इसकी व्याख्या भी करते हैं । अपनी दर्पस्फीत मुद्रा में वे बताते हैं जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम प्रज्ञा के सहारे ही इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिन्दी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इल्हाम हो चुका है और ये तो होना ही है ।

एक भली चंगी भाषा से उसके रोजमर्रा के सांस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे बोली में बदल दिये जाने को क्रियोल कहते हैं । अर्थात् हिन्दी का हिंग्लिश बनाना एक तरह का उसका क्रियोलीकरण है । और कांट्रा ग्रेजुअलिज्म के हथकंडों से बाद में उसे डि-क्रियोल किया जायेगा ।

भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले चरण को कहा है कि फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी । बनाम हिन्दी को नागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि में छापने की शुरूआत करना । अर्थात् हिन्दी पर अंतिम प्राणघातक प्रहार । बस हिन्दी की हो गई अन्त्येष्टि । चूंकि हिन्दी को रोमन में लिख पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी में वह नितांत अपठनीय हो जायेगी । हिंग्लिश को रोमन लिपि में छाप देने का श्रीगणेश करना । इसी युक्ति से गुयाना में जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते थे, को फ्रेंच द्वारा डि-क्रियोल कर दिया गया और अब वहां देवनागरीइसी की जगह रोमन लिपि को चला दिया गया है । यही काम त्रिनिदाद में इस षड्यंत्र के जरिए किया गया है

जबकि, विडम्बना यह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूर्त दलालों के दिशा निर्देश में संसार की इस दूसरी बड़ी बोले जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीन कर, उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के कई अखबार जुट गए हैं । उन्होंने यह स्पष्ट धारणा बना ली है कि वे अब हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार निकाल रहे हैं, बल्कि अंग्रेजी के अखबार की नर्सरी का काम कर रहे हैं । क्योंकि, देर सबेर इसी को ही तो भारत की राष्ट्रभाषा बनाना है । प्राथमिक शिक्षा के लिए विश्व बैंक द्वारा प्राप्त धन का यही तो आखरी सुफल है, क्योंकि आगे जाकर समूची आरंभिक शिक्षा के कायान्तरण के कर्मकाण्ड को पूरा किया जाना एक अघोषित शर्त है, जिसमें हिन्दी के कई अखबार मिल-जुलकर आहुतियाँ दे रहे हैं । वे स्वाहा-स्वाहा करते हुए हिन्दी की आहुति चढ़ा रहे हैं ।

वे आजादी मिलने के साथ ही गांधी-नेहरू की पीढ़ी द्वारा कर दी गयी महाभूल को वे दुरूस्त करने में लगे हैं, जिसके चलते अंधराष्ट्रवादी उन्माद में हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह बिठा दिया था - जबकि, यह तो सत्ता की भाषा बनने के लायक ही नहीं थी। यह तो अपढ़ गुलामों और मातहतों और अज्ञानियों की भाषा थी और उसे वैसा ही बने रहना चाहिए । इसी किस्म की इच्छा और संकल्प की अनुगूँज गुरूरणदास जैसे लोगों के प्रायोजित लेखों से सुनाई देती है, जो इन अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर छपते रहते हैं । वे बार-बार कहते हैं कि जल्द ही हिन्दुस्तान दुनिया की आने वाले दो सौ वर्षों के लिए `भाषाशक्ति´ बनने वाला है - जबकि वे जानते हैं कि इससे बड़ा धोखा और कोई हो ही नहीं सकता । वास्तव में वे भारत को 2000 बरस के लिए गुलाम बनाने के लिए ठेके का काम ले चुके हैं । वे उसे उस दिशा में घेरने की निविदा हाथिया चुके हैं । इस घेरने के काम में अखबार सबसे सुंदर और सुविधाजनक लाठी है ।
-----क्रमश:


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