साड्डा चिड़ियाँ दा चंबा वे, बाबुल असाँ उड्ड जाना

साड्डा चिड़ियाँ दा चंबा वे, बाबुल असाँ उड्ड जाना
स्वर : रेशमाँ



पंजाबी के सबसे दर्दभरे लोक गीतों की कोई सूची बनाई जाए तो उनमें शतक-भर से प्रथम स्थान पर रहने वाले एकमात्र गीत की पंक्तियाँ हैं- " साड्डा चिड़ियाँ दा चंबा वे, बाबुल असाँ उड जाना"। यह बेटियों का गीत है, संभावित विरह का गीत है, पराएपन के दर्द का गीत है, बिदाई को नकारने व पिता द्वारा घर से विदा करने की बाध्यता का गीत है और न जाने क्या क्या तो भरा है इसमें। एक प्रकार से संवादात्मक गीत। भारत विभाजन से पूर्व संयुक्त भारत में गाने वाले आज दो देशों में बँट गए हैं, पर वही गीत आज भी वे दुहराते हैं जो कभी उनकी साझी विरासत हुआ करते थे। पाकिस्तान की वरिष्ठ शास्त्रीय गायिका रेशमाँ जी के स्वर में बरसों पूर्व रेकोर्ड इस गीत का अपना ही आनंद (?, दर्द ) है - इसके पारंपरिक शब्दों वाले रूप को आज सुनते हैं -




लंबे जूते में चौड़े पाँव


राग
दरबारी



लंबे जूते में चौड़े पाँव







माना जाता है कि जो एक बार कम्युनिस्ट हो गया, वह जीवन भर के लिए कम्युनिस्ट हो गया। भारत के समाजवादियों के बारे में भी यह सच है। फर्क यह है कि कम्युनिस्ट चरित्र में धारावाहिकता होती है। वह उलटा-पुलटा बोलता भी है, तो अकेले नहीं -- अपनी पूरी बिरादरी के साथ। समाजवादी में यह गुण नहीं पाया जाता। वह अपने मूल विचारों का दमन करना जानता है। यही कारण है कि एक जमाने में राममनोहर लोहिया के अनुयायी इस समय अनेक दलों में पाए जाते हैं और कहीं भी कसमसाते दिखाई नहीं देते। मुलायम सिंह यादव ने दल तो नहीं बदला, वे अपने को ही बदलते रहे। इसीलिए कई प्रसंगों में वे उससे ज्यादा हँसी के पात्र नजर आते हैं जितने वे वास्तव में हैं।



सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी के प्रयोग पर पाबंदी के पक्ष में मुलायम सिंह का चुनाव घोषणा पत्र एक ऐसा दस्तावेज है जो अपने आपमें तो सही है, पर उस पर धूल की इतनी परतें चढ़ चुकी हैं कि उसकी मूल भावना कहीं दिखाई नहीं देती। मुलायम सिंह जब पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब उनकी राजनीतिक चेतना आज की तुलना में कम प्रदूषित यानी बेहतर थी। तब उन्होंने अंग्रेजी के इस्तेमाल के प्रति अपना जो लोहियाई अनुराग दिखाया था, वह उनके तब के निकटवर्ती समाजवादी अतीत की प्रतिध्वनि और कुछ हद तक सुहावनी थी। कम से कम हम जैसे लोगों के लिए, जिनकी आंख लोहिया साहित्य पढ़ कर और लोहिया के भाषण सुन कर खुली थी।



उन दिनों मुलायम सिंह हिन्दी तथा अन्य लोक भाषाओं के प्रयोग पर जोर दे रहे थे। वे चाहते थे कि केंद्र उत्तर प्रदेश सरकार से हिन्दी में पत्र व्यवहार करे। उन्होंने अपनी यह इच्छा भी जताई थी कि गैर-हिन्दी भाषी राज्यों से उनकी सरकार उनकी भाषा में ही पत्र व्यवहार करेगी। यह एक क्रांतिकारी प्रस्ताव था। लोहिया का मानना था कि भारत में सत्ता हासिल करने के लिए इन तीनों में किन्हीं दो घटकों का योग आवश्यक है -- जाति, संपत्ति और अंग्रेजी। मुलायम सिंह ने जाति पर हमला किया। पर संपत्ति पर हमला करने में उनकी थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं थी। आज मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के अमीरतम नेताओं में हैं, जबकि लोहिया की मृत्यु के समय उनके पास कुछ हजार रुपए भी नहीं थे। मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अपने दिवंगत राजनीतिक गुरु की स्मृति में अंग्रेजी पर धावा बोलने की कोशिश जरूर की, पर इस विस्फोट से जो बवाल पैदा हुआ, उससे वे खुद दहल गए और उन्होंने अपने इस प्रयोग को आगे बढ़ाने से हाथ खींच लिया। पर दूसरी आदतों की तरह समाजवादी आदतें भी जल्दी नहीं मरतीं। वर्तमान लोक सभा चुनाव के कोलाहल में अंग्रेजी विरोध का उनका भूत फिर जाग उठा है और देश के सारे बुद्धिजीवी उन पर हो-हो कर हँस रहे हैं।



इन बुद्धिजीवियों की संकीर्णता पर अफसोस होता है। ये बौद्धिक नहीं, बुद्धिकर्मी हैं। अगर इन्हें देश और समाज की सच्ची चिंता होती, तब भी ये मुलायम सिंह के अंग्रेजी विरोध पर हँसते पर उस हँसी की अंतर्वस्तु कुछ और होती। तब वे कहते कि अंग्रेजी हटाने की बात तो सही है, क्योंकि अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रख कर और उस वर्चस्व को बढ़ाते हुए भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता। देश के हर आदमी को अंग्रेजी में सिद्ध बनाने की कोशिश केवल कभी सफल नहीं हो सकती, बल्कि ऐसी कोशिश देश के लिए अहितकर भी है। दुनिया भर में किसी भी देश ने पराई भाषा में विकास नहीं किया है। सच्चा विकास तो अपनी भाषा में ही होता है। इसके बाद वे बौद्धिक लोग मुलायम सिंह से पूछते कि सर, अन्य सभी नीतियों को यथावत रख कर आप अंग्रेजी के बहिष्कार के प्रयत्न में कैसे सफल हो सकते हैं? अंग्रेजी की विदाई तो समाजवाद की ओर कदम बढ़ाते हुए समाज में ही सकती है, पूंजीवादी व्यवस्था तो पूर्व-उपनिवेशों में उसी भाषा को आगे बढ़ाएगी जिस भाषा की गुलामी उन पर थोपी गई थी। भारत पर अगर जर्मन आधिपत्य होता, तो आज हमारा भद्रलोक अंग्रेजी नहीं, जर्मन बोलता होता। इसलिए भारत के सार्वजनिक जीवन, शिक्षा और संस्कृति में अंग्रेजी का बढ़ता हुआ उपयोग पूर्व गुलामी का ही नया संस्करण है। हर गुलामी विषमता से पैदा होती है और फिर बदले में विषमता को दृढ़ करती है। इसलिए अन्य विषमताओं को स्वीकार करते हुए सिर्फ एक विषमता से लोहा ले पाना असंभव है। मुलायम सिंह यही करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं, सो अंग्रेजी विरोध का उनका यह अभियान कभी सफल नहीं हो सकता।



असल में, मुलायम सिंह ने जब समाजवाद की दीक्षा ली थी, तब से आज के बीच दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। जूता लंबा होता गया है और मुलायम सिंह का पैर चौड़ा होता गया है। पहले उनके दोस्त और साथी साधारण लोग हुआ करते थे। आज वे अमर सिंह जैसी विभूतियों से घिरे हुए हैं। इसलिए तर्क की माँग तो यही है कि उन्हें अपनी फाइव स्टार चौकड़ी के राजनीतिक और समाजिक चरित्र के अनुसार ही बोलना चाहिए। छद्म ही करना हो, तो आडवाणी और राहुल की तरह करना चाहिए। तभी उनकी आवाज में प्रामाणिकता आएगी। तमाम तरह के पाखंडों के बीच अगर वे एक सच का उच्चारण करेंगे, तो मुसीबत में फँस जाएँगे लंबे जूते में चौड़ा पैर नहीं समा सकता।



यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि भारत में भाषा का सवाल इस कदर उलझ और बिगड़ चुका है कि निकट भविष्य में उसका कोई संतोषजनक समाधान नहीं दिखाई देता। राष्ट्रभाषा की तो अब कोई जिक्र ही नहीं करता। यहां तक कि वे भी नहीं, जो अपने को राष्ट्रवाद का कट्टर प्रहरी बताते हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि राष्ट्रभाषा का सवाल जो उठाएगा, उसे पागल करार दिया जाएगा, जबकि असली पागल वे हैं जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में तो देखते हैं, पर उसकी कोई कॉमन भाषा हो, ताकि भारत के एक कोने की जनता दूसरे कोने की जनता से संवाद कर सके, इसका विरोध करते हैं। एक जमाने में सोचा जाता था कि अंतत: हिन्दी का विकास संपर्क भाषा के रूप में होगा। हिन्दी अभी भी गरीब और निम्न मध्य वर्ग के लोगों की संपर्क भाषा है। पर देश का शिष्ट वर्ग, जो असल में विशिष्ट वर्ग है, बड़ी तेजी से अंग्रेजी को अपना रहा है। देश रिक्शे की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, पर इस विशिष्ट वर्ग के सदस्य मोटरगाड़ी की रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। आज कोई भी अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य है। हालत ऐसी हो चुकी है कि आप अंग्रेजी नहीं जानते, तो आपको पहली नजर में मूर्ख या अविकसित मान लिया जाएगा। भारतीय समाज का निर्णायक वर्ग अंग्रेजी को अपना दिलो-दिमाग दे चुका है। ऐसे माहौल में मुलायम सिंह अगर अंग्रेजी के विरोध में अपनी जबान फड़फड़ाते हैं, तो सभी वर्चस्वशाली लोग उन्हें जनता का दुश्मन करार देंगे। यही हो भी रहा है। यह इस बात का एक मजबूत उदाहरण है कि पॉप गाते-गाते अगर आप अचानक बिरहा की धुन छेड़ दें, तो क्या होगा।

- राजकिशोर


मेरे रोम- रोम से तुम्हारी कस्तूरी फूटती है




मेरे रोम- रोम से तुम्हारी कस्तूरी फूटती है
- कविता वाचक्नवी







आप
में से जो लोग कविता पढ़ने (लिखने-भर नहीं) में रुचि रखते हैं उन्होंने गहरी संवेदनात्मक से लेकर विचार-प्रखर तक और आग लगा देने वाली से लेकर नथुने फड़काने वाली तक कई प्रकार की कविताएँ सुनी - पढ़ी होंगीवैसे जो लोग साहित्य वालों को दोयम दर्जे का समझते हैं उन्होंने भी कम से कम अपने मिडिल स्कूल तक भाषा वाले विषयों में कविताएँ अवश्य पढ़ी ही होंगीइन अर्थों में प्रत्येक मिडिल क्लास तक पढ़ा व्यक्ति भी उसकी शक्ति से परिचित होता है, उसकी धार से परिचित होता है उसके स्वरूप से परिचित होता ही हैऔर, एक मजे की बात और है कि युवावस्था के कच्चे प्रेम में पड़ कर लगभग सभी ने कविता का आश्रय लिया होगा, भले ही अपनी लिखी हों या किसी दूसरे की शायरी, कविताई या कलाम से काम चलाया होगायहाँ एक रोचक तथ्य और है ( लिंग विभाजन वाले माफ़ करें) कि आयु के उस दौर में श्रृंगाररस ( संयोग और वियोग दोनों ही) में डूबे लोगों का यदि सर्वेक्षण किया जाए तो युवतियों से अधिक युवक कविता का सहारा लेते हैं, भले ही राज--दिल बयान करना हो या दर्द--दिलदिल के टुकड़े दिखाने हों या चाक--जिगरयह तथ्य जाने किस इंगित की ओर इशारा करता है कि लड़कियों की अपेक्षा ऐसी स्थिति में अकवि से अकवि युवक अधिक संख्या में कविताई को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में प्रयोग करते है



यह तो रही प्रस्तावना, मुद्दा यह है कि आख़िर कविता की आवश्यकता है क्यों, क्या करती है कविता, कैसी होती है या क्या छिपा रहता है उसमें कि हर देश, हर भाषा में कवि को अत्यन्त श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होता है, ...और भी सम्बद्ध कई तथ्य, ! आप भारत में हिन्दी के कवि की स्थिति का उदाहरण देकर मेरी बात काटने की दिशा में मत जाइए क्योंकि जो तर्क आप देने जा रहे हैं वही तर्क इसे प्रमाणित करता है कि हिन्दी के कवि की दुर्गत जैसी स्थिति के बावजूद भी यहाँ कवि वर्षा में कुकुरमुत्तों की मानिंद क्षण- क्षण और- और प्रकट होते रहते हैं, कुछ भी लिख कर कवि कहलाने के लोभ में त्रस्त होने ( `करने' पढ़ा जाए) की सीमा तक व्यस्त रहते हैं और दूसरों की रचनाओं पर हाथ साफ़ करने तक का परहेज भी वे नहीं मानते| ये सब तथ्य इसी बात का तो प्रमाण हैं कि कवि होना कोई बहुत ही बड़ी उपलब्धि की बात है, और कविता, वह कोई अत्यन्त विशिष्ट कौशलबात वहीं आती है कि कविता की आवश्यकता ही रहे तो ये सारे जंजाल मिटें। नित नए नए ज्ञान-विज्ञान के युग में क्या जरूरत है इसकी ?




झंडा और डंडा उठाने वाले लोग मेरी ओर लपकने को तैयार हो रहे होंगे कि अरे हमारी कुछ प्रविष्टियों को लिंकित करो और जाओ यहाँ सेलिंक को हायपर लिंक बना उसको दुहराते दिखाना भर ही तो चर्चाकार का काम है, इस से आगे वह यहाँ क्यों लिखने लगे हैं ? अपने मत देने का आपका अधिकार है, पर हमारा उस से विमत होने का भी अधिकार बना रहने की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुझे आगे बढ़ना होगा




तो, फिर आते हैं कविता परमुझे लगभग वर्ष -भर पूर्व कि एक घटना याद रही ही । श्री उदय प्रताप सिंह, (वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजनेता) के सान्निध्य में एक कवि गोष्ठी हुई, उनके साथ कुछ अरब देश के अधिकारी भी थे तो उर्दू हिन्दी के गिने - चुने कवियों को आमंत्रित किया गया था काव्यपाठ के लिएसंभवतः मैं अकेली महिला रचनाकार रही हूँगीउर्दू के कई बड़े शायर मुम्बई से भी आए थेमैंने उस दिन रिश्तों पर अपनी गज़लें पढींकार्यक्रम के अंत में जब उन राजनयिक के वक्तव्य का समय आया तो उन्होंने एक बहुत मार्के की बात की, जिस से कविता की आवश्यकता का सही सही अनुमान हो जाता हैउन्होंने कहा कि सायंस, गणित, भौतिकी, रसायन या अभियांत्रिकी के किसी भी विद्यार्थी को सारा ज्ञान -विज्ञान पा लेने के बाद भी साहित्य के अतिरिक्त कोई विषय ऐसा नहीं जो यह बताता हो कि, भले मानुष ! संसार में सम्बन्धों और रिश्तों की क्या जरूरत हैमनुष्य से मनुष्य के सम्बन्ध की सीख कोई नहीं देता, दे सकतारिश्ते वाली ग़ज़लों का उदाहरण देकर उन्होंने इसे इतने पारदर्शी तरीके से बताया कि रिश्तों की यह समझ और उनकी जरूरत केवल काव्य और साहित्य ही बयान कर सकता है, सिखला सकता है, समझा सकता हैसाहित्य में स्नातकोत्तर और उस से आगे शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों को भारतीय पाश्चात्य काव्यशास्त्र ( पोएटिक्स ) भी पढ़ाया जाता हैउसमें आरंभिक स्तर पर काव्य के तत्व से लेकर काव्य के प्रयोजन भी सम्मिलित होते हैंमुझे कई बार लगता है कि नैसर्गिक प्रतिभा से इतर कवि बनने के अभ्यासियों को कम से कम इतना तो अवश्य पढ़ना चाहिएताकि वे अपनी कविताओं का मूल्यांकन कर सकें और बेहतर योगदान दे सकें




जो लोग पाठकीय रुचि वाले कभी नहीं रहे, ब्लॉग प्रणाली ने उन्हें कुछ कुछ पढ़ने को विवश कर दिया है, भले ही इसलिए कि दूसरों का पढ़ कर टिप्पणी करेंगे तो बदले में टिप्पणी आएगी भीऔर साथ ही, पुस्तक को खरीद कर पढ़ना सभी के लिए उतना सुगम नहीं है, जितना नेट ने तात्क्षणिकता सुगमता से पाठकीयता को प्रसरित किया है। नेट पर कविताओं की संख्या में दिनों दिन, दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है। बहुत अच्छी कविताएँ भी देखने पढ़ने को उपलब्ध हो रही हैं और बहुत दोयम दर्जे की भी। मुझे याद है, अपने विद्यार्थी जीवन के वे दिन जब एक कविता को इसलिए पढाया जाता था कि विद्यार्थियों को उदाहरण दिया जा सके कि ऐसी निरर्थक कविता भी क्या कविता। उस कविता को वर्षों पुरानी स्मृति से छाँट कर याद करुँ तो एकाध पंक्ति याद है -

" काश अगर मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता
........
.......
........
तो-तो-तो-तो
ता-ता-ता-ता
तोता होता
तो क्या होता "


तो अच्छी कविताओं और काव्य-भ्रष्ट कविताओं का अम्बार हिन्दी के सौभाग्य व दुर्भाग्य दोनों की कहानी कहता है। लोगों को यही नहीं पता कि कविता होती क्या है, उसके तत्त्व क्या हैं। उसकी देह क्या है व आत्मा क्या है। किसी ने देह को साध लिया तो किसी ने उसे भी साधने की जरूरत न समझी और अपने को कविराज मानते-मनवाते रहे।
इसी प्रकार का एक उदाहरण है, जहाँ एक ख्यातनाम कवि ( ...) ने अपनी माँ पर केंद्रित कविता में काफ़िया मिलाने के चक्कर में कमाल कर दिया। यह रचना भी पूरी मुझे स्मरण नहीं, किंतु उसमें संभवत: जीवन के द्वंद्वों की डोर पर संतुलन साधे चलने वाली माँ बताते हुए `नटनी' का काफ़िया प्रयोग किया गया था - "नटनी जैसी माँ" । इतने तक तो ठीक था, अब उसके आगे की पंक्ति में माँ की उपमा रोटी पर " चटनी जैसी माँ" कह कर बयान कर दी गयी। हद्द हो गयी भई यह तो। काव्यभाषा का संस्कार कहाँ से लाइयेगा?




माँ पर ऐसी ऐसी मार्मिक कवितायेँ लिखी गयी हैं कि संवेदना और श्रेष्ठता की दृष्टि से हिन्दी में इनका आँकड़ा सर्वाधिक होगा, इससे अगला स्थान संभवतः बेटियों पर केंद्रित कविताओं का निकलेगा। तो, सर्वाधिक सबल सम्बन्ध पर ऐसे चलताऊ ढंग से लिखना कभी कभी कितना घातक हो सकता है। यह ध्यान देने की बात है।अस्तु !




आज हिन्दी ब्लॉग जगत में इधर पढने को मिलीं माँ पर केंद्रित कविताओं में से कुछ को इस बार बाँटा जाए |




गत दिनों बोधिसत्व जी की माँ पर केंद्रित कविता माँ का नाच पढ़ने को मिली थी, कविता में माँ की पीड़ा का चित्र देखिए -



मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है
नाच रही थी माँ

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में

अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घुमती जा रही थी
फिर गाने कि जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान

वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान ।



आप ने किसी एक फ़िल्म के `मेरे पास माँ है' वाले संवाद की तो खूब चर्चा सुनी होगी, अब ज़रा इन पंक्तियों पर ध्यान दें -

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई,
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई




माँ के जीवन क्रम का एक चित्र यह, यहाँ भी देखें

माँ की डिग्रियाँ


घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा

बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा



माँ की डिग्रियों वाली कविता के बरक्स इस कविता को भी रख कर देखें कि माँ का मातृत्व इन औपचारिकताओं से कहीं परे की चीज है -

अनपढ़ माँ

चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से
दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ''नौ बाई चार'' की
कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
...लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व मापना
उसके लिए स्यापा है
...क्योंकि उसने मेरी छाती को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है

वह नहीं समझ सकती
कि 'ए' को 'सी' बनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता है
...लेकिन अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए
कौन-सा फॉर्मूला अपनाना होता है।

मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर
ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
...उसने तो बस ख़ुशबू सूंघकर बता दिया
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।

घर की
कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों,
घर की आमदनी
और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
...लेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिध्दान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।

वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
....स्वर साधना के लिए
वह संगीत का
कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
...लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे
कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया,
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुगल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में
किस पार्टी के निशान पर मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीवाली पर कौन-सी साड़ी जानी है।

मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है
झगड़े की सम्भावनाओं को भाँप कर
बात की दिशा मोड़ सकती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ सकती है

दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में
रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुशबू से
सुबह-शाम सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
सो नहीं पाती है।

सच!
कोई भी माँ अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि
कई-कई डिग्रियाँ बटोरने के बावजूद
बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी कैसे चलानी होती है।


माँ को तलाशती रतन चौहान की एक छोटी-सी कविता के मर्म तक पहुँच कर मौन के सिवा कुछ नहीं सूझेगा -


माँ के लगाए गए सहजन में
फूल आ गए हैं

उसकी नर्म टहनियाँ
वसन्त हो गई हैं

अब अब कुछ ज़्यादा काँपने
लग गए माँ के हाथों ने
इसे अपनी सहोदर धरती
की कोख में रोपा था दो एक ऋतु पहले

झुर्रियों से भरी माँ की उंगलियों को छूकर
धरती आर्द्र हो गई थी

सहजन बूढ़ी माँ का बेटा
है
ग्रीष्म की लू लपट में
माँ की स्मृतियों को छाँह देता हुआ

सहजन में फूल आ गए हैं
माँ नहीं है


समीरलाल जी की इस कविता में निहित वेदना को भी गत दिनों आप ने अवश्य अनुभव किया होगा -



मेरी माँ लुटेरी थी...

माँ!!

तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम,मेंहदी,सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...

और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी एनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में

लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?

वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मोहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में

आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मोहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मोहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!

हाँ माँ!

सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरा पन.
तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!

स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मोहल्ले के लुटने की

और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की....





ऐसे ही माँ की कमी महसूसती एक पुकार यहाँ भी है -

माँ


माँ !
तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने,
कभी गाई होगी
याद नहीं
फिर भी जाने कैसे
मेरे कंठ से
तुम झरती हो।


तुम्हारी बंद आँखों के सपने
क्या रहे होंगे
नहीं पता
किंतु मैं
खुली आँखों
उन्हें देखती हूँ ।



मेरा मस्तक
सूँघा अवश्य होगा तुमने
मेरी माँ !
ध्यान नहीं पड़ता
परंतु
मेरे रोम- रोम से
तुम्हारी कस्तूरी फूटती है ।



तुम्हारा ममत्व
भरा होगा लबालब
मोह से,
मेरी जीवनासक्ति
यही बताती है ।




और
माँ !
तुमने कई बार छुपा-छुपी में
ढूँढ निकाला होगा मुझे
पर मुझे
सदा की
तुम्हारी छुपा-छुपी
बहुत रुलाती है;

बहुत-बहुत रुलाती है ;
माँ !!!





माँ की स्मृति में ऋषभदेव जी की लिखी इस कविता में संबंधों कि तरलता के साथ लोक में रमे माँ के चित्र विभोर कर देते हैं -


बनाया था माँ ने वह चूल्हा


चिकनी पीली मिट्टी को
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर



उस दिन
आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,
हमारे घर का बगड़
बूँदों में नहा कर महक उठा था,
रसोई भी महक उठी थी -
नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था.



गाय के गोबर में
गेहूँ का भुस गूँथ कर
उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से
और आषाढ़ के पहले
बिटौड़े में सजाती थी उन्हें
बड़ी सावधानी से .



बूँदाबाँदी के बीच बिटौड़े में से
बिना भिगोए उपले लाने में
जो सुख मिलता था ,
आज लॉकर से गहने लाने में भी नहीं मिलता.



सूखे उपले
भक्क से पकड़ लेते थे आग
और
उँगलियों को लपटों से बचाती माँ
गही में सेंकती थी हमारे लिए रोटी
- फूले फूले फुलके.



गेहूँ की रोटी सिंकने की गंध
बैठक तक ही नहीं , गली तक जाती थी.
हम सब खिंचे चले आते थे
रसोई की ओर.



जब महकता था बारिश में बगड़
और महमहाती थी गेहूँ की गंध से रसोई -
माँ गुनगुना उठती थी
कोई लोकगीत - पीहर की याद का.



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



आग बढ़ती है
तो रोटी जलने लगती है.
तेरे बहनोई को जली रोटी पसंद नहीं रे!
रोटी को बचाती हूँ तो उँगली जल जाती है.



माँ की उँगलियाँ छालों से भर जाती थीं
पर पिताजी की रोटी पर एक भी काला निशान कभी नहीं दिखा!



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके ,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



आग बुझती है
तो रोटी फूलती नहीं
तेरा भानजा अधफूली रोटी नहीं खाता रे!
बुझी आग जलाती हूँ तो आँखें धुएँ से भर जाती हैं.



माँ की आँखों में मोतियांबिंद उतर आया
पर मेरी थाली में कभी अधफूली रोटी नहीं आई!



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



रोटी बनाना सीखती मेरी बेटी
जब तवे पर हाथ जला लेती है,
आँखें मसलती
रसोई से निकलती है.
तो लगता है
माँ आज भी गुनगुना रही है .



मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी
.
गत दिनों आई माँ पर केंद्रित इन कुछ कविताओं के क्रम को विराम देते हुए मैं चर्चा परिवार की ओर से योगेन्द्र कृष्ण जी की माँ को भावांजली देती हूँ व उनकी आत्मा की सद्‍गति की प्रार्थना करती हूँ.

माह पूर्व एक संगोष्ठी में पटना जाने पर भाई योगेन्द्र कृष्ण से सपत्नीक मिलने का अवसर मिलाउनके सौजन्य ने प्रभावित कियागत दिनों उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया उन्होंने अपनी पीड़ा को सबसे बाँटते हुए जो लिखा उसके बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता -


श्मशान में माँ

30 मार्च को मेरी माँ का निधन हो गया। दुःख इसलिए भी अधिक है कि माँ बहुत लंबे समय तक हमारे साथ रहीं और कभी यह मह्सूस करने का शायद अवसर ही नहीं दिया कि वे हमें छोड़कर चली भी जायेंगी। जबकि वे हम पांच भाइयों, एक बहन और दर्जनों पोता-पोतियों, नाती-नातिनों के बीच अंतिम समय तक अपने स्नेह और प्यार में बंटती रहीं। मृत्यु के समय उनकी आयु लगभग 95 वर्ष थी।
उसी दिन रात्रि में पटना के गुलबी घाट में उनका दाह-संस्कार कर दिया गया।

गंगा के इस श्मशान घाट के अपने कुछ ताज़ा ग़मग़ीन अनुभवों को भी आपसे साझा करने का मन है।

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उनका भी निष्काम देखो
जो तुम्हें नहीं जानतीं
फिर भी तुम्हारे लिए
तुम्हारे साथ जलकर राख हो रही हैं
वे ढेर सारी लकड़ियां
अंत तक तुम्हारी देह से
मिलकर एक हो रही हैं
राख में राख
क्या अलग कर पाएंगे हम
लकड़ी और देह की राख
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धू-धू कर जलती चिताएं हैं
आकाश में उठता काला धुआं
और रात्रि की भयावह नीरवता
को चीरती घाट की सीढियों से
नीचे उतरतीं कुछ आवाज़ें हैं

असमय एक युवा देह को
तलाश है मिट्टी की…

और फिर
सफ़ेद कपड़े में लपेटे
एक शिशु को दोनो हाथों मे उठाए
उतरता है एक युवक
साथ में और भी कई लोग
पर उतने भी नहीं
जितने कि होने चाहिए
दुःख की इस बीहड़ घड़ी में

और घाट की सीढियों से
उतरता है पीछे-पीछे
भारी पत्थर का एक बड़ा-सा टुकड़ा
बिलकुल अंधेरे में
गंगा तट की तरफ़…

पानी के बड़े बुलबुले छूटने-सी आवाज़
अर्द्ध-रात्रि की बीहड़ बेबस खामोशी को
हल्के से हिलाती है…

छोड़ दिए गए हैं
पत्थर और शिशु देह
कुछ दिनों के लिए
एक दूसरे के साथ
निबद्ध रहने के करार पर…
------

श्मशान घाट तक आने में
कितना वजन था
हमारे कंधों पर
लेकिन नहीं था
फिर भी कोई भार

और अब जबकि लौट रहा हूं
लेकर मुट्ठी भर तुम्हारी राख
क्यों दब रहा है मन इसके भार से…

जैसे कि पत्थर हो कोई
बंधा हुआ मेरी ही देह से…

कल कई दिन बाद उन्होंने लिखा -

बारह दिनों के बाद आज ही सारे अनुष्ठान संपन्न कर वापस घर लौटा हूं। फ़र्श पर और सभी जगह धूल की मोटी परतें हैं पर उन परतों पर नहीं हैं कहीं अब उन नंगे पैरों के निशान……




और अंत में एक बात -

माँ के प्रति इतनी गहरी व इतनी सारी संवेदनाएँ हमारे भीतर विद्यमान रहती हैं, यदि ये संवेदनाएँ किसी भी जीवित माँ का वार्धक्य और जीवन संवार सकने में सफल हो जाएँ तो जाने कितनी माँओं को इन संवेदनाओं की पहुँच सुख दे सकती है। वरना तो ये कागद के लेखे बन कर रह जाती हैं बस.......




गत टिप्पणियाँ

हाय ओए रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा

आज यहाँ पहली प्रस्तुति के रूप में आप सुन पाएँगे एक बहुत लोकप्रिय गीत " हाय ओए रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा"संगीत व आवाज़ के जादू के साथ इस गीत में छिपे भाव का आनंद लीजिए। और हाँ, अपनी राय भी देते जाइयेगा की कैसी लगी आपको यह प्रस्तुति।



बीबीसी हिन्दी (व अन्य)की विष्णुप्रभाकर जी के सम्बन्ध में भारी भूल

कई लोगों ने आज बीबीसी हिन्दी पर इस समाचार को देखा होगा

जिसका आरम्भ कुछ यों है -

"साहित्यकार विष्णु प्रभाकर का निधन

जाने-माने हिंदी साहित्यकार पद्म विभूषण विष्णु प्रभाकर का
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शनिवार को दिल्ली में निधन हो गया. पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था.

विष्णु प्रभाकर 97 वर्ष के थे. उनके परिवार में उनकी दो बेटियाँ और दो बेटे है. विष्णु प्रभाकर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा क्योंकि उन्होंने मृत्यु के बाद अपना शरीर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को दान करने का फ़ैसला किया था.

उन्हें उनके उपन्यास अर्धनारीश्वर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. उनका लेखन देशभक्ति, राष्ट्रीयता और समाज के उत्थान के लिए जाना जाता था.

उनकी प्रमुख कृतियों में 'ढलती रात', 'स्वप्नमयी', 'संघर्ष के बाद' और 'आवारा मसीहा' शामिल हैं. इनमें से 'आवारा मसीहा' प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चटर्जी की जीवनी है जिसे अब तक की तीन सर्वश्रेष्ठ हिंदी जीवनी में एक माना जाता है.

विष्णु प्रभाकर का जन्म 29 जनवरी 1912 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के मीरापुर गाँव में हुआ था. उनकी माता महादेवी एक शिक्षित महिला थीं जिन्होंने अपने समय में परदा प्रथा का विरोध किया था.

हिंदी में प्रभाकर

उनकी पहली नौकरी एक चतुर्थ श्रेणी की थी और उन्हें मात्र 18 रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता था. उन्होंने अपनी इस नौकरी के साथ पढ़ाई भी जारी रखी और हिंदी में प्रभाकर और हिंदी भूषण की डिग्री हासिल की. इसके बाद उन्होंने अंग्रेज़ी में भी स्नातक किया.

बाद में अपनी नौकरी के साथ ही उन्होंने एक नाटक कंपनी में भी भाग लिया और 1939 में 'हत्या के बाद' नामक एक नाटक लिखा जो उनका पहला नाटक था.

बीच में कुछ समय के लिए उन्होंने लेखन को अपना पूरा समय दिया. उन्होंने 1938 में सुशीला नामक युवती के साथ विवाह किया.

स्वतंत्रता के बाद उन्होंने 1955 से 1957 तक आकाशवाणी, नई दिल्ली में ड्रामा निर्देशक के रूप में काम किया. वर्ष 2005 में उन्होंने राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार होने का आरोप लगाते हुए अपना पद्मविभूषण सम्मान लौटाने की बात कही थी."


आश्चर्य अत्यन्त दुःख की बात है कि उपर्युक्त समाचार में "पद्मविभूषण "जाने कितने बजे से यहाँ ऐसे ही लगा है और किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। समाचार में लाल रंग से बोल्ड किए शब्दों को ध्यान से पढ़िए। इनमें बताया गया है कि प्रभाकर जी को पद्म विभूषण सम्मान दिया गया जबकि तथ्य कुछ और हैं। मैंने अभी देखा तो तुंरत जो टिप्पणी उन्हें शिकायत के रूप में क्षमा माँगने के लिए कहते हुए लिखी, उसे अभी तक बीबीसी द्वारा पारित नहीं किया गया। आप उसकी एक कॉपी नीचे देख सकते हैं



" विष्णु प्रभाकर जी के देहावसान के समाचार में आपने एक भारी भूल की है।
विष्णु प्रभाकर जी को पद्मविभूषण नहीं अपितु पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।

भले ही पद्म सम्मानों की साईट पर जा कर देख लें,या अपने यहाँ के २००५ में छ्पे समाचार की आवृत्ति कर लें। यह राष्ट्रीय मानापमान का मामला है, आपको क्षमा माँगते हुए तुरन्त सुधार करना चाहिए"
. वा.



मेरे उक्त तथ्य की पुष्टि के लिए आप निम्न आधिकारिक साईट पर देख सकते हैं-

This page in Hindi (External website that opens in a new window)

Padma Bhushan Awardees

Search Awardees

Showing 141 to 150 of 1003

  • Shri Madurai Thirumalai Nambi Seshagopalan
    Arts : 2004 : India : Tamil Nadu
  • Dr. Smt. N. Rajam
    Arts : 2004 : India : Uttar Pradesh
  • Smt. Poornima Arvind Pakvasa
    Social Work : 2004 : India : Gujarat
  • Prof. Sardara Singh Johl
    Science & Engineering. : 2004 : India : Punjab
  • Shri Soumitra Chatterjee
    Arts : 2004 : India : West Bengal
  • Shri Thoppil Varghese Antony
    Civil Service : 2004 : India : Tamil Nadu
  • Shri Tiruvengadam Lakshman Sankar
    Civil Service : 2004 : India : Andhra Pradesh
  • Shri Vishnu Prabhakar
    Literature & Education : 2004 : India : Delhi
  • Shri Yoshiro Mori
    Public Affairs : 2004 : Japan :
  • Shri Ammannur Madhava Chakyar
    Arts : 2003 : India : Kerala



ऐसी ही स्थिति और ग़लत जानाकारियोम की उपस्थिति नेट पर और कई जगह है, जहाँ जगह जगह `आवारा मसीहा' को उनकी अपनी जीवनी बताया गया है , यहाँ तक कि हिन्दी विकीपीडिया तक पर भी ऐसी ही चूक आज दोपहर तक चली रही थी।जो परिवर्तन मैंने किए उन्हें यद्यपि अब पूरी तरह हटाया जा चुका है,हिन्दीभारत के गत लेख के सन्दर्भ सहित|



ऐसे ही तीसरी घटना - इस लिंक पर जाकर देखें तो पाएँगे कि यहाँ उनका नाम तक प्रभाकरन कर दिया गया है और आवारा मसीहा को `उनकी' जीवनी बताया गया है। कुछ अंश देखें -

Prabhakaran was born on January 29, 1912 in the Mirapur village of Muzaffarnagar district in Uttar Pradesh.

Writer of over 50 published works, Dr Prabhakaran had written novels, plays and story collections in his lifetime.

A unique characteristic of his works is that it had elements of patriotism, nationalism and messages of social upliftment.

Dr Prabhakar was awarded Padma Bhushan and the Sahitya Akademi Award for his novel Ardhanarishvara (The Androgynous God or Shiva).

He had also won lot of acclaim for his biography ''Awara Maseeha''. (ANI)


यहाँ भी मैंने टिप्पणी करके भूल सुधार के लिए आग्रह किया है, किंतु अभी तक न तो सुधार किया गया है व न ही टिप्पणी को ही पारित किया गया है।

आप भी यदि हिन्दी के इन कृती लेखक के प्रति अपना ऋण चुकाने की भावना रखते हैं तो कृपया ऐसे लिंक खोजिए उन्हें भूल सुधार के लिए बाध्य करिएताकि आने वाली पीढियों को नेट खंगालने पर हिन्दी के ऐसे अमर साहित्यकार तक की जानकारी भ्रामक, झूठी, अधूरी, अंतर्विरोधों से भरी ग़लत मिले। शायद इसी तरह हम अपने मन का बोझ कुछ कम कर सकें।


- कविता वाचक्नवी





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