मील का 73 वाँ पत्थर



मील का 73 वाँ पत्थर
संजय तिवारी

मिथक बन चुका वह पत्रकार अभी भी अथक दिखाई देता है. बंगाली किनारे वाली धोती पर मटके के माड़ीदार कुर्ते में गांधी शांति प्रतिष्ठान के पुरातन और सनातन व्यवस्था की अद्यतन मिसाल बन चुके इस स्रोतशाल में उस 73 साल के अदम्य उत्साही 'नौजवान' पत्रकार ने केक पर चाकू फेरा तो लगा कि उस नौजवान के मन में पैदाइश के 73 साल बाद आगे और 73 मील पत्थर पार करने की ललक शिशुवत हो चली है. वह केक काटनेवाले 'नौजवान' कोई और नहीं, भारतीय पत्रकारिता के एकमात्र जीवित स्तंभ पुरुष प्रभाष जोशी हैं.



बुधवार 15 जुलाई को उनका 73वाँ जन्मदिन था. यह आयोजन साल दर साल इसी तरह से इसी शांति प्रतिष्ठान के किसी कोने में होता है. कभी पूजा करनी हो तो बाहर बरामदे में व्यवस्था बन जाती है. खाने की व्यवस्था लान में हो जाती है और मिलना जुलना कहीं भी. तीन चार सालों से मैं भी लगातार जा रहा हूँ. लोग आते हैं लेकिन मैंने कभी यह नहीं देखा कि कोई बधाई लेकर आया हो. प्रभाष जोशी के इस बेहद निजी कार्यक्रम में जो लोग भी आये हुए दिखते हैं वे सब कृतज्ञता ही जताते हैं. आखिर ऐसा क्या दिया है प्रभाष जोशी ने कि हर आगंतुक अपने आप को ऋणी महसूस करता है? ऐसे उल्लास और आनंद के दिन पर भी उनके सामने सिर्फ अपने होने का अहसास कराता है. इस व्यक्ति ने पिछले दौर में ऐसा क्या किया है कि इस दौर के धुरंधर और नामी पत्रकार ऋण उतारते से प्रतीत होते हैं?



पिछले दौर की तो देखी नहीं, जो सुनी उसमें किस्से कहानियाँ अधिक हैं. भारत किस्सागोई का देश है. और अगर पत्रकार हो तो फिर कहने ही क्या. पत्रकार किस्सों की किताब लिखता रहता है सुबह से शाम. आईएनएस से प्रेस क्लब और नोएडा के अट्टों चौहट्टों तक. जब मिलो एक नया किस्सा. आम आदमी को लगता है कि पत्रकार है तो जो बोलेगा वह सही बोलेगा लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. कम से कम जब वह अपने लोगों के बारे में बात करता है तो शायद ही कभी सही और सटीक बात करे. इसे आप पत्रकारिता की त्रासदी भी मान सकते हैं कि पत्रकार भी किस्सागोई करता है, पर यही सच है. भारतीय पत्रकारिता के लिए प्रभाष जोशी भले ही न मिटनेवाली नाम पट्टी हो लेकिन हिन्दी पत्रकारों के लिए यह नाम किस्सागोई का दूसरा नाम है. न जाने कितनी कहानियाँ और न जाने कितने प्रसंग. अब तो पाठक भी पत्रकार को लेखनी से कम उनकी मिथकीय चर्चाओं से अधिक जानते हैं. किसी जमाने में एक अखबार निकला था जनसत्ता. वह आज भी निकल रहा है. उस जमाने में प्रभाष जोशी नामक एक आदमी ने इतिहास लिख दिया था. दिल्ली से बाहर पूरे देश में कालेज के हास्टल से लेकर गाँव की पगडंडियों तक अखबार का दूसरा नाम जनसत्ता ही होता था. जैसे आजकल मुंबई के नौजवान अंग्रेजी का मिड-डे अखबार सिर्फ इसलिए खरीदते हैं ताकि वे अपने संगी साथियों के बीच साबित कर सकें कि वे मिड-डे पढ़ते हैं वैसे ही पिछले दौर में जनसत्ता ने अपना मुकाम हासिल किया था. ऐसा वक्त भी आया कि अखबार को लिखना पड़ा कि अब और नहीं छाप सकते.



अखबार की इस बुलंदी के पीछे बस यही एक नर्बदा का सपूत खड़ा था जिसने साहित्यकारों को बिना किनारे किये पत्रकारिता को स्थापित कर दिया. अस्सी और नब्बे के दशक ऐसे दशक थे जब हिन्दी पत्रकारिता का अर्थ ही होता था-साहित्यिक शुद्धि. आश्चर्य होता है कि पत्रकारिता के इतने लंबे अनुभव के बाद भी भारतीय पत्रकारिता में साहित्य के बिना पत्रकारिता की कल्पना नहीं की गयी थी. लेकिन प्रभाष जोशी ने कांकर पाथर का ऐसा प्रयोग किया कि नामवर सिंह उनके अजीज और अग्रज बने रहे लेकिन पत्रकारीय भाषा से लालित्य बोध का आग्रह समाप्त हो गया. जब जनसत्ता निकला तो तकनीक का ऐसा व्यापक प्रभाव नहीं था जैसा आज है. इसलिए शब्द ब्रह्म और नाद की कोटि में विराजते थे. उन शब्दों को खड़खड़ करते किसी सांचे में उतारकर पान की दुकान और साहित्यकार के भवन में एक साथ स्थापित कर देने का काम प्रभाष जोशी ने ही किया. इन बातों का ज्यादा अर्थ तब समझ में नहीं आता जब आप सिर्फ सूचनाओं के लेन-देन में ही व्यस्त रहते हैं. लेकिन जैसे ही आपको यह आभास होता है कि सूचना सीधे तौर पर संवेदनाओं से जुड़ी हुई है तो भाषा का आग्रह पूर्वाग्रह होने लगता है. इन दो पाटों के बीच पत्रकारिता को सही सलामत अपनी मंजिल तक पहुँचा देना तब चुनौती थी, अब भी है बस संदर्भ और शब्द बदल गये हैं.



ऐसे प्रभाष जोशी के पिछले कई सारे जन्मदिन चुपचाप ही देखता रहा हूँ. किस्से भी सुनता रहा हूँ और कई अवसरों पर मिलता भी रहा हूँ. अभी भी मेरा उनके साथ कोई प्रगाढ़ संबंध हो गया हो ऐसा नहीं है. प्रगाढ़ता की जरूरत भी नहीं है. प्रभाष जोशी ने भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी को जनसत्ता के जरिए जो विश्वसनीयता दिलाई उसका कुछ तो फायदा हम जैसे नौसिखिए पत्रकारों को भी मिल रहा है. इतना ऋण तो कोई भी पत्रकार उनका मानेगा ही कि कहीं किसी प्रभाष जोशी नामक आदमी ने एक अखबार के जरिए कुछ प्रयोग किये जो आनेवाली कई पीढियों के लिए मशाल रूप में विद्यमान रही. भाषा के सामने जैसी चुनौती आगे दिखाई देती है उसमें प्रभाष जोशी का यह काम और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. हमारी संपर्क भाषा का विस्तार किस ओर हो? नीचे जड़ की ओर या फिर ऊपर आसमान की ओर? हमारी संपर्क भाषा को पोषण हमारी लोकभाषाओं और बोलियों से मिले या फिर तकनीक के प्रभाव में अचानक ही अबूझ शब्दों की बमबारी से शब्द उठाये जाएँ? यह तय करना पत्रकारिता के लिए बहुत जरूरी होगा. क्योंकि इसी को तय करने के बाद हम तय कर पायेंगे कि हमें काम क्या करना है? पत्रकारिता करनी है तो किसकी, कैसे और किस रूप में? विदेशी शब्द हमारी जड़ों को वह आवाज नहीं दे सकते जो मुद्दा बन जाएँ. जड़ों में दबे हुए शब्द जो पोषण दे रहे हैं हम न जाने क्यों उससे जानबूझकर कटना चाहते हैं. जवाब आपको भी तलाशना है.


ऐसे प्रभाष जोशी की किस्सागोइयों में जाने की जरूरत नहीं है. मिथकों की किंवदंतियाँ बनती ही हैं. उनके साथ भी ऐसा ही है. स्याह सफेद के अलौकिक आवरण में ब्रह्माण्ड लिपटा हुआ है. फिर यहाँ तो हम सब लौकिक जीवन जी रहे हैं. क्षण भर की चेतना लेकर आये हैं और अगले क्षण विदा हो जाएँगे. ब्रह्माण्ड के अनंत आकाशगंगाओं में जुगनुओं की कोई बिसात होती है क्या? पल में प्रकाश और पल में अंधेरा. लेकिन मनुष्य देह में यह पल प्रतिपल का खेल ब्रह्माण्ड की इस अद्भुद रचना धरती का इतिहास लिखती है. कलम की स्याही और शब्दों की साधना आनेवाले कल के अखबार और सूचना तंत्र को हमसे जोड़ती है. वेद कितेब तो रोज दरवाजे पर चलकर नहीं आते लेकिन अखबार आते हैं. उन अखबारों में वही शब्द लिखे होते हैं जिन्होंने बेद कितेब को कालजयी जीवनसूत्र का मार्गदर्शक बना दिया है. जब कोई अनहद को सुनता है तो वही शब्द वहाँ भी नाद रूप में प्रकट होते हैं. तब समझ में आता है कि कल के अखबार और परसों की पत्रिका में जिन शब्दों को सूचना प्रसारण के लिए इस्तेमाल किया गया है वह भी ध्वनियाँ उत्पन्न करेंगे. प्रभाव पैदा करेंगे और मनुष्य के मन में ही नहीं वातावरण में भी तरंगे उठायेंगे. उन तरंगो का समाज और जीवन पर प्रभाव होगा जिसके लिए आखिरकार शब्द ही जिम्मेदार होंगे. सूचना लेने देने के कठोर और नीरस कार्य में प्रभाष जोशी ने अनहद का जो प्रभाव पैदा किया है वह पूरी पत्रकारिता के लिए बेद कितेब है.



यह कहना तो काल के नियम के खिलाफ होगा कि अगले तिहत्तर साल बाद भी प्रभाष जोशी रहेंगे ही. लेकिन तिहत्तर साल बाद भी बहुत कुछ रहेगा. दिल्ली की ये सड़कें रहेगीं, ईंट पत्थरों के ये भवन रहेंगे, अखबार रहेंगे और अखाबारों में काम करनेवाले पत्रकार भी रहेंगे. शायद उनमें से कोई कभी यह किस्सागोई छेड़ दे कि एक प्रभाष जोशी थे..........हिन्दी के पत्रकार.........तब शायद किस्सागोई भी पत्रकारिता का पाठ बन जाएगा. इस जुगनू का आकाशगंगाओं के बीच बस यही इतना योगदान है. क्या यह कम है?


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