मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज (१३)


मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज
नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता - [१३]



अंग्रेज़ों ने जिस प्रकार समस्त देश में संस्कृति पर आक्रमण करके जनता के मानसिकता को कुंठित किया, उसी हथियार का प्रयोग उन्होंने मणिपुर में भी किया। इसका ब्योरा डॉ। देवराजजी इस प्रकार देते हैं :-

"अंग्रेज़ों ने मणिपुरी समाज पर सांस्कृतिक आक्रमण किया। इसका एक उदाहरण है मणिपुर में अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए पहले स्कूल का खोला जाना। इसी से मनोनुकूल कर्मचारी उपलब्ध हो सकते थे, ईसाई धर्म का प्रचार हो सकता था और परम्परागत विचारों पर अंग्रेज़ी विचारधारा का प्रभुत्व स्थापित किया जा सकता था। पोलिटिकल एजेंट जांस्टन के प्रयास से सन १८३५ में मणिपुर में एक मिडिल स्कूल स्थापित हो गया। अपनी सैन्य शक्ति के बल पर अंग्रेज़ मणिपुरी शासकों के भाग्यविधाता बनने और उन्हें मणिपुरी जनता के विरुद्ध अपने पक्ष में खडा़ करने में पहले ही सफ़ल हो गये थे, अब अपने सांस्कृतिक आक्रमण के बल पर वे यह सिद्ध करने में भी सफ़ल हो गए कि मणिपुरी समाज के पास न तो समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है, न गरिमापूर्ण साहित्य और न वैज्ञानिक चिन्तन-दृष्टि।"


"भारतेंदु को भी इसी प्रश्न ने समग्र भारतीय समाज के संदर्भ में झिंझोडा था और उन्होंने निर्णय किया था कि सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक तथा भाषायी दासता को समाप्त किए बिना अंग्रेज़ों द्वारा थोपी गई राजनीतिक दासता से मुक्ति पाना असम्भव है। इतिहासकारों के अनुसार टीकेन्द्रजीत और थाङ्गाल की फ़ांसी ने बंगाल के क्रांतिकारियों में हलचल मचा दी। जिस प्रकार इन इतिहास-पुरुषों ने मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राणों की बलि चढा़ई, उससे भारतीय क्रांतिकारियों ने बहुत प्रेरणा प्राप्त की।"


"यहाँ एक तथ्य पर ध्यान देना होगा। परिस्थितियों के प्रभाव से मणिपुरी समाज में जो परिवर्तन आया, उसने आत्म-निरीक्षण की आवश्यकता प्रतिपादित की तथा उसके परिणामस्वरूप यहां परम्परागत सामाजिक मूल्य बदलने शुरू हुए। थोकचोम मधु सिंह जैसे समाज सेवी घर-घर जा कर लोगों को इस बात के लिए राजी़ करने लगे थे कि वे अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना प्रारम्भ करें। व्यक्तिगत स्तर पर हिंदी प्रचार आंदोलन भी उन्हीं दिनों अस्तित्व में आ गया था। हिंदी का सर्वप्रथम विद्यालय थोकचोम मधुसिंह के घर पर ही खुला था। विभिन्न दिशाओं में ये परिवर्तन बडी़ तीव्र गति से घटे।"



.....क्रमश:
(प्रस्तुति: चंद्र मौलेश्वर प्रसाद)

चिट्ठाजगत (चजइ -२००८) के ईनाम घोषित

चिट्ठा जगत द्वारा आयोजित श्रेष्ठ प्रविष्टी (पोस्ट) के चयन की प्रक्रिया पूरी हो कर आज उसके परिणाम घोषित कर दिए गए हैं। जिसकी सूचना निम्नवत् प्राप्त हुई है. सभी विजेताओं को बहुत- सी बधाई व और श्रेष्ठ लेखन के लिए शुभकामनाएँ। इन चुनी गई प्रविष्टियों में एक प्रविष्टि मेरी अपनी भी है जो संहिता पर प्रविष्टी के रूप में थी व जिसे यहाँ देखा जा सकता है, ( हिन्दी भारत पर आगामी पोस्ट के रूप में भी).

इस उत्साहवर्धन के लिए मैं चिट्ठाजगत दल की आभारी तो हूँ ही साथ ही अपने सहयोगी बंधुओं एवं पाठकों की भी हृदय से आभारी हूँ ।

परिणामों की विशद सूचना इस प्रकार जारी की गयी है -


http://chittha.chitthajagat.in/2007/12/blog-post_31.html के परिणाम अब घोषित हो रहे हैं। क्या कहा, देर हो गई? शुक्र मनाइए कि अगली प्रतियोगिता शुरू होने के पहले पहली वाली के इनाम घोषित हो गए! देरी के लिए क्षमा, हमें माफ़ कर के कहें कि देर आयद दुरुस्त आयद, और देखिए किसे मिले हैं इनाम -

प्रथम पुरस्कार
http://hindini.com/fursatiya/?p=384 दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो

द्वितीय पुरस्कार - २
http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/01/congress-madarsa-tricolour-and-bribe.htmlदेशभक्तिके लिये मदरसों को कांग्रेस की रिश्वत
http://diaryofanindian.blogspot.com/2008/01/blog-post_26.html ज्ञानजी! दिमाग में भी एक जठराग्नि होती है

तृतीय पुरस्कार - ३
http://drparveenchopra.blogspot.com/2008/01/blog-post_07.html खुदमोलखरीदा जाने वाला एक शैतान ...
http://nahar.wordpress.com/2008/01/01/cheaters/ दानवीर कर्ण अफ्रीकामें जन्मे थे!

http://wahmoney.blogspot.com/2008/01/blog-post_11.html डर पर हावीलालच


पंचों द्वारा इन पाँच लेखों का विशेष उल्लेख भी किया गया है-
http://anitakumar-kutchhumkahein.blogspot.com/2008/01/blog-post_08.htmlवोकाले छः दिन

http://prashant7aug.blogspot.com/2008/01/blog-post_16.html और वोडरीसहमी सी चुपचाप बैठी थी
http://bamulahija.blogspot.com/2008_01_11_archive.html टाटा की कार औरमेरे कार-टून

http://kakesh.com/?p=248 पुरस्कार, विवाद और राखी सावंत

http://kvachaknavee.spaces.live.com/blog/cns!AA34A2EB2E55BB28!298.entryयौन शिक्षा और भारत का भविष्य


आप सबको बधाई, इनाम पाने वाले लेखकों से सीधे संपर्क किया जाएगा।


सधन्यवाद,
चिट्ठाजगत सेवा दल


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कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा - प्रभु जोशी (२)





कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा
- प्रभु जोशी






( गतांक
से आगे )


आप थोड़ा ध्यान देकर देखें तो अचरज से भर जायेंगे कि हम-सबको ‘एड्स’ एक महारोग की तरह अपनी प्रचार-पुस्तिकाओं में जितना खतरनाक जान पड़ता है, जबकि ‘मनाये जाने’ में वह दोगुना उत्साह और आनंद देता है । यही वजह है कि अपनी आजादी के साठ साल का जश्न मनाने वाले महादेश में, ‘पन्द्रह-अगस्त’ या ‘छब्बीस-जनवरी’ से बड़ा उत्सव (मेगा-फेस्टिवल) अब एड्स-दिवस हो गया है । इसके बाकायदा ‘बीट्स’ के साथ तैयार किये गये स्वागतगान कोरस में गाते हुए, आयोजक एन.जी.ओ. राष्ट्रीय-एकता का मिथ्या भ्रम प्रकट कर रहे हैं । वे नए समाजवादी समाज का प्रारूप गढ़ते हुए कह रहे है कि एड्स के सामने अमीर-गरीब सब एक हैं ।


कण्डोम-वितरण बनाम कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम सुनहरी पताकाओं और बैनरों पर लहराता हुआ आयोजित होता है । इस प्रसंग को एक विशेष अभिप्राय के साथ देखें कि जब बिलगेट्स भारत आते हैं तो वे ‘सूचनाक्रांति’ के संदेश से ज्यादा, ‘कंडोम-क्रांति’ के प्रतीक बन जाते हैं । उनके स्वागत में बैंगलोर में आठ-आठ फीट ऊंचे कण्डोम के द्वार बनाये जाते हैं । यही सैक्स को पारदर्शी बनाने की सार्वजनिक पहल है, जिसमें शामिल है, सांस्कृतिक संकोच का सामूहिक ध्वंस । बावज़ूद इसके चैतरफा चुप्पी । यह वैज्ञानिक रीति से तैयार किया जा रहा गूंगायन है, जिसे भारत की सहमति माना जाता है ।


दरअसल, यह बाज़ारवाद की भारत में मनने वाली नई और आयातित दीवाली है, जिसमें हम सबको मिलजुल कर अपनी संस्कृति और परम्परा के पैंदे में बारूद भर कर उसकी किरच-किरच उड़ानी है । वजह यह कि, उनके लिए सबसे बड़ीा दुर्भाग्य और दिक्कत तो यही है कि सैक्स अभी भी भारत में, आचरण की सांस्कृतिक-संहिता बना हुआ है । दरअसल, भ्रष्टाचार हत्या, लूट, घूँस जैसे कामकाजों को अंजाम देने में हम शशोपंज में नहीं पड़ते-लेकिन, एक यही क्षेत्र है, जो रोड़े अटकाता है । इसकी चरित्र से वेल्डिंग कर दी गई है, जो टूट नहीं पा रही है । बस कण्डोम की करारी चोट ही इसे अलग करेगी । मालवी में कहें तो चरित्र की झालन टूटेगी तो इसी से ।


बहरहाल, हमें पश्चिम की तर्ज पर भारतीय समाज में भी वैज्ञानिक चतुराई का अचूक इस्तेमाल करते हुए सैक्स को केवल फिजिकल एक्ट बनाना और बताना है, ताकि उसके प्रति दृष्टिकोण में बाज़ार के अनुकूल परिवर्तन किया जा सके । कण्डोम, ऐसे धूर्त सांस्कृतिक छद्म को वैज्ञानिक-आवरण देता है, जो सामूहिक और खामोश सहमति का आधार बनाता है । इसी के चलते साम्राज्यवादी विचार की जूठन पर पल रहे लोगों की एक पूरी रेवड़ ‘सेक्समुक्ति’ को दूसरी आज़ादी की तरह बता रही है, जिसमें ‘कण्डोम’, ‘वंदेमातरम्’ के समान पूरे देश में एक जनव्यापी उत्तेजना पैदा करेगा और कर भी रहा है । वे कण्डोम की छाया तले एकत्र हो रहे हैं ।


बहरहाल, विचारहीन विचार के श्री चट्टे और श्री बट्टे, मुन्नाभाई की तर्ज पर लगे हुए हैं - कण्डोम-क्रांति में । क्योंकि, किसी भी देश में जितने लोग, इस बहुप्रचारित महारोग से मरते हैं, उससे चैगुनी संस्थाएं और लोग इस पर पल रहे हैं। कई संस्थानों की तो बात छोड़िये, सरकारों तक की अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा घटक ही एड्स है । भारत में ढेरों ऐसे लोगों और संस्थाओं का इसी से पेट पल रहा है । क्या करें, पापी पेट का सवाल है - इसलिए, ‘विचार और तकनीक’ मिलकर, भूख को बदलने में भिड़ गए हैं । विडम्बना यह कि भूख को बदलने के धतकरम में हमारी ‘सत्ता का सक्रिय साहचर्य’ शुरू हो गया है । वह यौनक्षुधा के लिए अब पांच रूपये के ‘पैकेट में ही पिंजारवाड़ी/जी.बी. रोड, सोनागाछी या कमाठीपुरा’ उपलब्ध करा रही है। वह जान चुकी है कि देश को ब्रेड बनाने के कारखाने की अब उतनी ज़रूरत नहीं रह गई है, क्योंकि भारतीय इलेक्ट्राॅनिक-मीडिया ने जनता की भूख की किस्म बदल दी है । नतीज़तन, इस महाद्वीप की गरीब जनता को रोटी से ज्यादा कण्डोम की जरूरत है । यह एक नया आनंद-बाज़ार है, जिसमें देश की आबादी नई और बदल दी गई भूख के बंदोबस्त में जुटी हुई हैं । कहना न होगा कि अब समाजशास्त्र और माल के सौंदर्यीकरण से बने सांस्कृतिक अर्थशास्त्र (कल्चरल इकोनामी) को मिलाकर एक ऐसी कुंजी तैयार की जा रही है, जिससे वे इस बूढ़े और बंद समाज के सांस्कृतिक-तलघर का ताला खोल सकें, ताकि यौनिकता (सेक्चुअल्टी) का आलम्बन बनाकर चैतरफा बढ़ने वाले बाज़ार को, उसे अधिगृहीत करने में आसानियाँ हो जायें ।


उनकी मार तमाम कोशिशें जारी हैं और वे लगभग सफल भी हो रही है कि घर के शयनकक्षों में सोया वर्जनायुक्त एकांत, बाज़ार के अनेकांत में बदल जाये । इसी के चलते विपणन (मार्केटिंग) की विज्ञापन बुद्धि यौनिकता को बाज़ार से नाथ कर पूंजी का एक अबाध प्रवाह बनाती है, जिसमें युवा पीढ़ी की अधीरता का भरपूर दोहन किया जाता है । यही वजह है कि चतुराई के साथ बाज़ार और सेक्स को परस्पर घुला-मिलाकर एकमेक किया जा रहा है । ठीक ऐसे क्षण में एड्स नामक महारोग ईज़ाद हो गया या कर लिया गया। इसने ‘बाज़ार’ और ‘सेक्स’ को एक दूसरे का अविभाज्य अंग बना दिया । बहरहाल, मुक्त-व्यापार और मुक्त-सेक्स एक दूसरे के पूरक हैं । वे एक दूजे के लिए हैं। ‘बाज़ार का सेक्स’ और ‘सेक्स का बाज़ार’। बाज़ार का डर और डर का बाज़ार - ये सिर्फ रोचक पदावलियाँ भर नहीं हैं, बल्कि गरेबान पकड़ कर देसी समझ को दुरूस्त कर देने वाली, सल्टाती सचाइयाँ हैं । आज ‘बाज़ार’ से सरकारें डरती हैं। साल के तीन सौ पैंसठ दिन समाज और समय की खाल खींचने वाला मीडिया डरता है । मीडिया अपनी निर्भीकता में संसद की बखिया उधेड़ सकता है । राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के खिलाफ बोल सकता है । यहाँ तक कि वह दरिंदे दाऊद के खिलाफ भी खड़ा हो जाता है, लेकिन एड्स के खिलाफ बोलने में उसके प्राण काँपते हैं, क्योंकि एड्स के बहाने जो मुखर यौनिकता आ रही है, वह ‘बाज़ार’ की भी प्राणशक्ति है और स्वयं मीडिया की भी । फैशन, फिल्म, खानपान, वस्त्र-व्यवसाय और सौंदर्य-प्रसाधन सामग्री- ये सभी मिलकर जो नया बाज़ार खड़ा करते हैं, उस सबके केन्द्र में यौनिकता है । सेक्चुअल्टी इज द लिंचपिन आॅफ आल दीज ट्रेड्स । क्योंकि, यौनिकता ही वर्जनाओं को तोड़ती हैं और उसे प्रखर बनाते जाने में उनकी सारी शक्ति लगी हुई है । वे जानते हैं, ये मांगगे मोर । धीरज धरो । इन्हें भारतीय औरत की देह से साड़ी और सलवारों को दूर होने दो । पता-चलेगा, पश्चिम की स्त्री से अधिक अपील इधर है ।




भाग >>>

( क्रमश : )




मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ.देवराज


मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ.देवराज
नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता - १२


इतिहास साक्षी है कि आपसी फूट से ही आक्रमणकारी सफ़ल हुए हैं। मणिपुर का इतिहास भी यही संदेश देता है। आपसी वैमनस्य ही खोङ्जोम युद्ध की हार का कारण बना। हम गुटों में बँट कर अपने को कमज़ोर बनाते हैं और विदेशी इस का लाभ उठाते हैं। मणिपुर में पराधीनता के कारण बताते हैं डॉ। देवराज जी :-


"इस अंधेरे के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार शताब्दियों तक चलनेवाली व्यक्ति केंद्रित राजतान्त्रात्मक-व्यवस्था थी। यह प्रणाली कभी भी जन-कल्याण पर आधारित नहीं हो सकती। इस सत्य से कौन इन्कार करेगा कि राजतन्त्र अन्ततः जनता के भावनात्मक शोषण पर आधारित होता है। जब सत्ता का असली चेहरा सामने आ जाता है तो जनता में आक्रोश और निराशा का भाव उत्पन्न होता है। मणिपुर में भी यही देखने में आया। विभिन्न कारणों से यहाँ राजा और जनता के सम्बन्ध मधुरता से कटुता की ओर बढे़। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तब मिलता है जब पामहैब [महाराजा ग़रीबनवाज़] ने शांतिदास गोसाईं के प्रभाव में वैष्णव मत को राजधर्म के समान घोषित किया और जनता ने तत्कालीन राजगुरु खोङनाङथाबा के नेतृत्व में विरोध का स्वर ऊँचा किया। यह कटु सत्य है कि उस समय राजा द्वारा किया गया वह कार्य अवांछित धार्मिक व सांस्कृतिक हस्तक्षेप था।"


"वैष्णव मत के सामाजिक भेदभाव और कर्मकांड प्रधान व्यवहार ने भी जनता की सजगता को मंद ही किया। जो लोग पहले तलवार चलाने में दक्षता प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य मानते थे, वे राधा-कृष्ण की रास लीला और नट-संकीर्तन में कुशलता प्राप्त करने लगे। वैष्णव मत के प्रचार से माधुर्य भक्ति, छापा-तिलक और संगीत इस सीमा तक जीवन का अंग बन गया कि जनता की सामाजिक और राजनीतिक चेतना सुप्त होती चली गई। परम्परागत राज्य-सत्ता के लिए यही हितकर भी था। परलोक की चिंता जितनी बढ़ती जाती थी, इहलोक का विवेक उतना ही कम होता जाता था। यह दशा पहले से ही मणिपुर को खोङ्जोम की हार की ओर ले जा रही थी।"

......क्रमशः


[प्रस्तुति: चंद्रमौलेश्वर प्रसाद]

कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम: सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा

कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा
- प्रभु जोशी





हम यदि ग़ौर से देखें तो पिछले पाँच-सौ साल के कालखण्ड में, भारतीयों के बीच शायद ही किसी शब्द को इतना अधिक गौरवान्वित किये जाने का इतिहास बरामद हो सकेगा, जितना कि इस हमारे मौजूदा समय में 'भूमण्डलीकरण' शब्द को किया जा रहा है । आज, आप जीवन के, न केवल सामाजिक आर्थिक बल्कि, यों कहें कि किसी भी क्षेत्र में जायें, वहाँ 'मूल्यों' और मान्यताओं के ध्वंस के बाद उठती चीख को चुप्पी में बदलने के लिए निर्विवाद रूप से सिर्फ एक ही शब्द, लगभग अमोघ अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है - और, वह है: 'भूमण्डलीकरण'।

निस्संदेह, यह शब्द भी नहीं, अलबत्ता कहा जाए कि एक किस्म का मारक मुँहतोड़ मुहावरा है, जो आपकी तमाम वैध आपत्तियों को भी छीन लेता है । सामने वाले को तुरन्त कह दिया जाता है, 'भैया, यह तो भूमण्डलीकरण है। ऐसा तो होगा ही । लो, कर लो क्या करते हो।'


अभी, बिलकुल अभी-अभी की बात है कि हमारे यहाँ 'पिता और पुत्र' के बीच की असहमतियाँ, फिर चाहे व उम्र और अहं की ही क्यों न रही हों - 'पीढ़ियों का द्वन्द्व' कहलाती थीं। लेकिन, अब बाप के सामने बेटे द्वारा की गई बदसलूकी और बदअखलाकी भूमण्डलीकरण की शिरोधार्य विवशता है । यहाँ, ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'भूमण्डलीकृत मीडिया' ने, भारतीय समाज में एक नया बाप गढ़ना शुरू कर दिया है । शुद्ध-सिन्थेटिक बाप, जिसके व्यवहार की व्याख्या पिता की सर्वस्वीकृत छवि को ही संदिग्ध बनाती है । मसलन, घर निकलते वक्त जवान बेटा, जब जेब में पेन, चश्मा और मोबाइल रखता है, तो मीडिया का यह 'मेन्युफैक्चर्ड-बाप' दौड़कर, उसकी जेब में कण्डोम रख देता है और अपनी इस अचूक तत्परता पर आत्ममुग्ध होकर 'क्लोज़-शाॅट' में मुसकराता है ।

जी हां, यह बात मेरे दिमाग में जन्मी कोई स्वैर-कल्पना या फैण्टेसी नहीं है, बल्कि, यह दृष्य एक तल्ख हकीकत है, जिसे आप और हम छोटे पर्दे पर कण्डोम-प्रमोशन के पवित्र संकल्प से भरे विज्ञापनों में लगभग रोज ही देखते हैं । मीडिया का छोटे पर्दे पर नमूदार होता यह दैनंदिन बाप है । क्योंकि, भूमण्डलीकरण की सूक्ष्म आंख ने देख लिया है कि अब भारतीय स्त्री का कोई भरोसा नहीं रह गया है और वह कहीं भी, कभी भी मूॅड आने पर आपके बेटे का ब्रह्मचर्य बिगाड़ सकती है । इसमें बापों द्वारा बेटे में बदचलनी देखना मूर्खता है । यह आधुनिकता के विरूद्ध, नई वर्जना है । नतीजतन, बापों की बिरादरी को सावधान और चिंतित किया जा रहा है कि आप अपने तमाम भुलक्कड़ बेटों के लिए कण्डोम के पुख्ता प्रबंध में मुस्तैद रहें । ज्यादा बुद्धिमानी तो इसी में होगी आप पेन, चश्मे और मोबाइल से पहले ही रख दें ।


अफसोस तो यह कि इस स्तर पर फिलवक्त केवल कमबख्त भारतीय-बाप भर चिंतित हैं । माँए नहीं। वे शिथिल और इस मसले पर नितान्त असावधान हैं, क्योंकि उनमें अभी भी ढिठाई है और वे तथाकथित अपनी सांस्कृति शर्म से पिण्ड छुड़ाने में कामयाबी हासिल नहीं कर पा रही हैं । यही वह मुख्य वजह है कि वे अपनी भोली-भाली बेटियों के पर्स में 'सुरक्षा का यह चिकना हथियार' रखने से झिझकी हुई हैं । लेकिन, धीरज रखिए ऐसे चिंताग्रस्त-मातृत्व के अभाव की क्षतिपूर्ति के लिए देश भर की शिक्षण-संस्थाएं शीघ्र ही आगे आने वाली हैं । वे अपने परिसरों में, माँ द्वारा अपनी लाड़लियों के प्रति छोड़ दिए गए ज़रूरी दायित्व को, संस्थागत-जिम्मेदारी की तरह ग्रहण करते हुए, कण्डोम की आसान उपलब्धता के लिए वेण्डिंग-मशीन लगायंेगी, ताकि कुलशील कन्याएं दूकानों से कण्डोम क्रय किये जाने की स्त्रियोचित शर्म या 'एम्ब्रेसमेण्ट' से बच सकें । वे लगे हाथ सिक्का डालकर बचा लेंगी, अपनी पुरानी पीढ़ी की माँओं से मिली बासी सांस्कृतिक-झिझक । यही है असली भूमण्डलीकरण । साँप को मारा जा सके और लाठी के न टूटने का भ्रम भी पूरी तरह जीवित बचा रहे । जबकि, दोनों के ही साबुत रहने का एजेण्डा है ।


कहने की ज़रूरत नहीं कि तीसरी दुनिया के देशों में भूमण्डलीकरण का सबसे पहले फूंके जाने वाला शंख यही है । वे कहते हैं, कि अब हम किसी देश को ग़ुलाम बनाने के लिए युद्धपोतों के साथ नहीं, केवल कण्डोम के साथ दाखिल होते हैं और बाद इसके तो हमारी विजय का डंका उस मुल्क के लोग, खुद अपने हाथों से बजा देते हैं । अब अस्त्रों और उसकी किस्में बदल गई है । अब तमाम निपटारे, संस्कृति के कुरूक्षेत्र में ही कर दिये जाते हैं । इसलिए, अब सत्ता का संकट हो या फिर आर्थिक-संकट, इन्हें सांस्कृतिक संकट में बदल दिया जाता है । यह संकटों का कायान्तरण है । ठीक इसी क्षण में उन्हें बताया जाता है कि सांस्कृतिक संकटों के समाधान समाजशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से किये जाने चाहिए और वैज्ञानिक दृष्टि वही है, जो अब आपको भूमण्डलीकरण दे दे ।


बहरहाल, वैज्ञानिक बघनखे तैयार किये जाते हैं - और, 'एड्स का भय' इस शताब्दी का सबसे पुख्ता बढ़िया और बड़ा बघनखा है, जिस पर वैज्ञानिकता की धार और चुधियाँ देने वाली चमक चढ़ा दी गई है । वह पुरानी और पूरबी संस्कृतियों के पेट की अंतड़ियाँ खंगाल दिए दे रहा है ।
भाग >>>

( क्रमश : )

समकालीन साहित्य सम्मेलन : दुबई में ( ३० जुलाई - ३ अगस्त )

मुम्बई के डॉ. महेंद्र कार्तिकेय द्वारा स्थापित वा पोषित `समकालीन साहित्य सम्मलेन' अपनी प्रति वर्ष की जाने वाली संगोष्ठियों की निरंतरता के साथ साथ इस कारण भी महत्त्वपूर्ण रहा है कि इसमें सभी प्रकार के वाद से मुक्त हो कर सभी खेमों के रचनाकार/ आलोचक सम्मिलित होकर निर्विवाद भाग लेते रहे हैं। यह भी ध्यातव्य है कि यह किसी सरकारी, विश्वविद्यालीय या ऐसे ही किसी खाते से संयोजित होने वाला सम्मेलन या संगोष्ठी नहीं होता है। चेन्नई व कानपुर के आर्मापुरा कॉलेज में आयोजित इसके वार्षिक अधिवेशनों में सम्मिलित होने का सुखद संयोग मुझे भी मिल चुका है। तब डॉ. महेंद्र कार्तिकेय जीवित थे व अपने स्वभाव की सहजता से सभी को सदा के लिए अपना मित्र व प्रशंसक बना लिया करते थे।


व्यक्ति - विशेष के प्रयासों द्वारा संचालित ऐसी बहुत कम संस्थाएं होती हैं जो अपने उस कर्णधार के न रहने के पश्चात् भी अनवरत उसी प्रकार कार्य करती रहें । हर्ष की बात यह है कि समकालीन साहित्य सम्मलेन के साथ ऐसा नहीं हुआ। डॉ.महेंद्र कार्तिकेय के सुपुत्र वैभव कार्तिकेय ने इसे उतनी ही लगन व निष्ठा से अपना लिया जैसी पिता की कभी अपेक्षा व स्वप्न रहा होगा। गत कई वर्षों से `समकालीन साहित्य सम्मेलन ' महेंद्र जी की अनुपस्थिति में भी निरंतर उसी प्रकार अपने वार्षिक अधिवेशन पूरी तन्मयता से आयोजित कर रहा है। जिसके लिए संस्था के अन्य पदाधिकारियों के साथ -साथ वैभव कार्तिकेय की लगन ही मूल है।


इस वर्ष संस्था का ३० वाँ अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन (२९ जुलाई से ३ अगस्त तक) दुबई में आयोजित होने जा रहा है । जिसकी सूचना व प्रेस विज्ञप्ति को यहाँ देखा जा सकता है। दुबई अथवा आसपास के नगरों में रहने वाले जो भी लोग हिन्दी साहित्य के गंभीर चिंतन - मनन में रूचि रखते हों वे इसका लाभ उठा सकते हैं।


शुभकामनाओं सहित
( कविता वाचक्नवी )




इतिहासपुरुष की प्रामाणिकता


रामायण की प्रामाणिकता को लेकर भले ही इस देश की कर्तव्यच्युत सरकारें कुछ भी कहती रहें किंतु प्रश्न यह है कि एक कथा-चरित्र मात्र घोषित किया जाने वाला नायक भला इतना कीर्तिवान् कैसे हो गया कि कंबोडिया, इन्डोनेशिया, लंका, थाईलैंड, मलेशिया, भूटान, भारत, बर्मा, सिंगापुर व और भी इसी प्रकार १०-१५ देशों की सांस्कृतिक धारा में महानायक की भाँति इतिहास पुरूष के रूप में विद्यमान है।

जिन दिनों भारत में क्षुद्र व संकीर्ण स्वार्थों में लथपथा कर इतिहास को झुठलाने की अगड़म बगड़म व साजिशें चल रही थीं, घोषणाएँ हो रही थीं, उन दिनों श्रीलंका सरकार ने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर के एक सी डी जारी की थी और अपने यहाँ रामायण की इतिहासमत्ता की प्रामाणिकता की घोषणा की थी। इस सन्दर्भ में जो सी डी व स्थलों के चित्र जारी किए गए उनमें से कुछ की बानगी यहाँ देखी जा सकती है।




चित्र विवरण निम्नानुसार है - ( अच्छा हो कि सभी चित्रो पर क्लिक करके बड़ा कर देखें, विशेषत: संजीवनी वाला चित्र जहाँ आज भी दुर्लभ औषधियाँ उपजती हैं । )


१ - अशोक वाटिका ( जहाँ रावण ने सीताजी को रखा था )

२ - हनुमान द्वारा जलाया गया रावण - महल

३ व ४ - सुग्रीव की गुफा के कुछ चित्र

५ - इसे संजीवनी पर्वत कहा जाता है जहाँ से संजीवनी-वटी लाई गई

६ - पानी में तैरते शिलाखंड

७ - रामसेतु का एक चित्र




























The Myth that .... ( SpiritMag ) Dr.Harish Chandra


SpiritMag July '08

Volume II, No. 11

X. The Myth that Material Sciences are Based on Direct Perception – Part II






Last month we reviewed the functioning of the three units of the Mind domain: mind, memory and intellect - termed as manas, ahamkara and buddhi by Kapila, the author of the treatise known as Samkhya. We also discussed two prominent methods of cognition (pramana): direct perception (pratyaksa) and inference (anumana)। The layman believes that direct perception is superior to inference. But, the truth is that both are equally acceptable methods to ascertain truths. Indeed, our life is more based on inference because we generally function in 'advance mode' to take care of a pain that is anticipated in future. For example, we buy grocery in advance and prepare food much before hunger strikes us. Then we observed that scientists learn the properties of the minute sub-atomic particles through inference and not direct perception.




Now let us discuss our study of gross objects by direct perception. How direct is the so-called direct perception? Let us consider this first: you have never seen me but you see a photograph of mine, and then somebody asks you if you have seen me. You will then say: "I haven't seen him in real sense but I have seen his photograph." Even if you see an event on television live yet you feel that you haven't quite seen the event direct through your own eyes; it was brought to your eyes by the electronics of a camera, transmission and receiving systems, et al. But, as we had discussed the functioning of the Mind domain, we would then deduce that even direct perception is not much different from seeing an event live on television. Let us review a trivial event of sight through our body-Mind combine. The overall sequence may be summarized as if I (the soul) observe what is displayed to me eventually by my intellect unit, something that was sighted by my eyes. My eyes function as a camera with a convex lens, giving rise to an inverted image on my retina. The image is then transmitted through a maze of optic nerves in the brain region. Finally, it is picked up by the mind unit – the receiving station. Then it is stored in the memory that is almost like a built-in VCR (Video Cassette Recorder) that routinely stores and records meticulously whatever has been received by it from the mind, so that the observer may 'replay' it. Thereafter, the memory unit 'projects' the event onto the screen, called intellect. Then I, the soul, the observer, become aware of it and I say that I have seen it.



The internal functioning is not much different from a Home Video System (HVS) except that it is highly miniaturized and swift। Furthermore, it is highly complex that besides the audio and video signals that are handled by a modern HVS, the Mind domain handles the signals of smell, taste and texture, too. Thus, we can say that our seeing an event direct through the eyes is same as watching it on a HVS live, albeit with a highly spophisticated 'inner electronics' of the body-Mind combine. If the latter is not accepted as 'direct perception' than the former should also not be accepted as 'direct perception'.



In this context, let us understand what Patanjali states in the very beginning of Yoga-Sutra (1।2) while defining Yoga:


Yogascittavrttinirodhah



i.e., Yoga is to subdue all the functions of the intellect unit, i.e. that of the entire Mind domain, our intellect being in the closest proximity of the soul. The soul, the conscious entity that is me, is constantly 'watching' the intellect unit. Once such a state of the Mind domain is achieved then (ibid 1.3),



tada drastuh svarupe--avasthanam



i.e., the observer (the soul) then gets to know itself. That is, the soul (real I) has an opportunity to know itself only when the intellect unit has nothing to display. This state leads to 'self-realization' – atma-saksatkara। In other words, getting to know myself is the most direct way when even the subtle instruments of the Mind domain are not involved. This is the most direct way than the so-called direct perception when we rely on the intricate instruments of the Mind domain, along with the bodily sense organs.



In the present two-part articles, we have attempted to discuss: Our Mind domain is a subtle body consisting of intricate instruments that the soul utilizes for direct perception. However, the so-called direct perception, say for the sight, is not much different from seeing an event live on television. As the latter is not accepted as 'direct perception' the former also cannot be accepted so.



Our study of material sciences is based on both inference and direct perception। Scientists study the minute particles mostly through inference because they are not amenable to our senses directly because of their minute size। We do study the gross objects through 'direct perception' but then the above discussion must be borne in mind. Now returning to Yoga, we noted that if we were able to subdue the functions of the Mind domain as explained in Patanjali's treatise on Yoga by gaining proficiency in true Yoga (as opposed to what is generally prevalent these days) then we could know our consciousness - our soul - in the most direct manner.



In the present discussion, we have attempted to explode the myth that material sciences are based on direct perception whereas spiritual sciences are based on inference। Our concern has been the layman's view that direct perception is superior and more reliable method of direct cognition than inference is। We have observed:



1. Material sciences pertaining to the minute particles are based on inference because such particles are not amenable to our senses। Moreover, there are theoretical limits in view of the Heisenberg's principle of uncertainty.


2. Even the so-called direct perception (of gross objects) is not quite direct। It is almost like watching an event live on a television albeit through the Mind, which is much more sophisticated than our Home Video System is.




Our present attempt is not to belittle direct perception or inference. These are accepted norms of our functioning. Our intention is to simply put the inner sciences on a strong footing that it is a scientific study like that of material sciences. Otherwise, the layman believes that the material sciences are 'more scientific' than the 'spiritual/inner sciences'. So much so that he goes on to believe that the material sciences are based on direct perception while the inner sciences are based on inference, and hence, even imaginary. We have refuted that belief and even stated that the truth is other way around. The material sciences are based on inference in so far as the studies of small particles is concerned and even the studies of the gross objects through 'direct perception' is not quite a direct method when the external electronics of HVS are replaced by the 'inner electronics'. On the other hand, the inner sciences are studied in the most direct manner by the observer relying on no instruments. Thus, the layman's belief is a mere myth.





Next month, we will attempt to see how we humans are different from animals and birds. They are a composite of body, Mind and soul, too. We will then examine the Mind domain and see the reasons why we lead life in a more dynamic manner than they do. For example, a particular bird makes its nest almost the way its ancestors did many centuries ago but a human being builds a house different from that of another person. Indeed, the same person builds the second house quite different from the first house built a few years ago.






- Dr Harish Chandra

B. Tech. (IIT Kanpur)

Ph. D. (Princeton, USA)








CIS News






Dr. Harish Chandra conducted a workshop on "Energetically Living Stress-Free" in Leicester (UK) besides delivering two talks during the week of July 6-13। In the next few days, he is scheduled to speak at Liverpool (July 19, 0773 784 4495), July 24 and 27 (Birmingham, 0789 085 8487), Manchester (TBA, 01625 53 6161), and Coventry (TBA, 0247 666 1116)। He is scheduled to conduct a workshop on "Towards Self-Empowerment" Saturday, July 26, 10 am to 2 pm in Birmingham - for registration, call 0789 085 8487. He will be on air everyday Radio XL Birmingham, Aug 16-24 for an hour long talk.


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सरफरोशी की तमन्ना : रामप्रसाद बिस्मिल






सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है






(ऐ वतन,) करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महिफल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महिफल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है



वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है



है लिए हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तय्यार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


हाथ, जिन में हो जुनूँ कटते नहीं तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला- सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है



हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिए लो बढ़ चले हैं ये कदम.
जिन्दगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है



यूँ खड़ा मक़्तल में कातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंजिल में है,



जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है

मणिपुरी कविता- मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज (११)


मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज

नवजागरण कालीन मणिपुरी कविता - 11




अंग्रेज़ों ने अपने पैर मणिपुर में जमा लिए और अपना एजेंट भी नियुक्त कर दिया। देश के अन्य भागों में स्वतन्त्रता की जो आग भड़क रही थी, उसकी गर्मी मणिपुर में भी महसूस की गई। प्राणों की आहुति देनेवाले आज़ादी के परवानों की गूँज मणिपुर से निकली पर इस भूभाग को अंग्रज़ी विशाल उपनिवेश का भाग बनने से नहीं रोक सकी। इस संग्राम का वर्णन डॉ. देवराज अपनी इस पुस्तक में इस प्रकार करते हैं :-

"अंग्रेज़ी सरकार का हित साधन करने के लिए असम का चीफ़ कमिश्नर क्विंटन बडी़ तैयारी के साथ २२ मार्च, १८९१ को इम्फ़ाल पहुँचा। इसके बाद की कहानी मणिपुर की स्वाधीनता के सूर्यास्त की कहानी है। मणिपुर के महान वीर पाओना ब्रजवासी ने अपने चार सौ योद्धा सैनिक साथियों के साथ २३ अप्रेल, १८९१ के दिन खोङ्जोम नदी के किनारेवाली पहाडी़ पर साधन-सम्पन्न अंग्रेज़ी सेना से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की, २७ अप्रेल, १८९१ को मणिपुर की राजधानी पर यूनियन जैकफ़हराया गया, टीकेन्द्रजीत वीर सिंह एवं थाङ्गाल जनरल को गिरफ़्तार कर लिया गया, १३अगस्स्त १८९१ को इन दोनों इतिहास पुरुषों को इम्फ़ाल नगर केपोलो ग्राउंडमें फ़ाँसी पर लटका दिया गया और इसके बाद मणिपुर अंग्रेज़ों के विशाल उपनिवेशी साम्राज्यवाद का छोटा-सा भाग बन गया।"

"मणिपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटर में फ़ांसीवाली घटना इन शब्दों में दर्ज है - "पोलो ग्राउंड में टिकटी को सीधा खडा़ किया गया तथा निर्देशानुसार फ़ांसी लगाई गई। जहां तक दृष्टि जाती थी मैदान सफ़ेद वस्त्रधारी स्त्रियों से भरा था। राजा के समय यदि मृत्युदंड पाए किसी अपराधी के बचाव के लिए काफी संख्या में स्त्रियाँ आ जाती थीं तो प्रायः उसका प्राणदंड स्थगित हो जाता था। अब भी इसी आशा में हज़ारों की संख्या में स्त्रियां एकत्रित हो गईं कि शायद पुरानी परिपाटी को बरकरार रखा जाय। किंतु जैसे ही तख्ता गिरा और सेनापति और तांखुल जनरल परलोक सिधारे, एकत्रित जनसमुदाय के हृदय से गहरी कराह निकली। इस सब को ध्यान में रखते हुए इतिहासकारों का यह निष्कर्ष अनुचित नहीं है कि मणिपुर के सन्दर्भ में अंग्रेजों ने पूरी तरहजिसकी लाठी उसकी भैंसवाले सिद्धांत को व्यवहार में उतारा।" .........



(क्रमश:)


प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

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