मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज

‘हिन्दी भारत’ का एक उद्देश्य यह भी है कि हिन्दी के माध्यम से सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य पर विचार-विमर्श को सम्भव बनाया जाए। इसी क्रम के अन्तर्गत मणिपुरी कविता के विकास व प्रवृत्तियों के अध्ययन पर केन्द्रित डॊ। देवराज (अधिष्ठाता-- मानविकी संकाय, मणिपुर विश्वविद्यालय,मणिपुर) के चर्चित ग्रन्थ " मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में " के चयनित अंशों को ‘हिन्दी भारत’ के सदस्यों के लिए प्रस्तुत करने की योजना `हिन्दी भारत'( समूह) पर चल रही है

यह लेखमाला विविध भारतीय भाषाओं के साहित्य को मुख्य धारा में सम्मिलित करने व हिन्दीतर लेखन को हिन्दी के माध्यम से हिन्दी पाठकों के संज्ञान में लाने के उद्देश्य व इच्छा से आरम्भ की गई थी। मणिपुर की (बल्कि सप्तभगिनी क्षेत्र की)स्थिति इन अर्थो में बहुत दुरूह है कि एक ओर तो भौगोलिक दृष्टि से चीन उस पर छाया है, दूसरी ओर समाज-सांस्कृतिक दृष्टि से ईसाई मिशनरी अपना आधिपत्य जमाए हैं। एक और विडम्बना यह कि इन परिस्थितियों के साथ चेहरे-मोहरे आदि की भिन्नता के कारण वे देश में अलग थलग से छूटे रहे हैं। जबकि वहाँ के स्थानीय लोग भौगोलिक व सांस्कृतिक भारत से उतने ही सम्बद्ध हैं जितना कि कोई भी अन्य प्रदेश का वासी। ऐसे में उन लोगों को देश की मुख्यविरासत, धारा, संस्कृति,समाज व परिदृश्य में सम्मिलित करने की नितान्त आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उपर्युक्त बाधाओं को भुलाकर उन्हें निकटता व आत्मीयता से अपनाने की पहल प्रत्येक भारतीय को करनी ही चाहिए। ताकि वे भी स्वयम् को इस देश का अविभाज्य अंग अनुभव कर सकें। ऐसी पहल भाषा,साहित्य व व्यवहार से जिन सज्जनों ने की ,उनमें प्रो। देवराज का नाम अग्रगण्य है। वे मणिपुरी भाषा व साहित्य के संरक्षण-सम्वर्धन का कार्य अनेक प्रकार के शोधों द्वारा व उसे हिन्दी भाषा में उपलब्ध करा कर बहुत अरसे से कर रहे हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वहाँ की परिस्थिति जान को सदा जोखिम में पड़े रखने से इतर नहीं है। विकट परिस्थितियों से जूझते हुए सम्पन कराए इस कार्य के लिए पूरे भारतीय समाज को प्रो. देवराज सरीखे लगन के धनी व्यक्तियों का आभारी होना चाहिए, विशेषत: भारत व भारतीयता से प्रेम करने वाले जन को।

नवजागरण कालीन मणिपुरी साहित्य पुस्तक रूप में उपलब्ध है, कुछ शोध भी इस दिशा में हिन्दी में मिल सकते हैं। आगामी समय में यत्न रहेगा कि तद्विषयक अधिक जानकारी उपलब्ध कराई जाए।

इस बार से प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी

मणिपुरी कविता पर केन्द्रित प्रो . देवराज की पुस्तक के लेखमाला के रूप में अनवरत प्रकाशन के लिए चन्द्रमौलेश्वर जी का जो सहयोग मिल रहा है, तदर्थ वे धन्यवाद के पात्र हैं

~कविता वाचक्नवी

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पुस्तक का नाम : मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में
लेखक : डॉ. देवराज
प्रथम संस्करण : २००६
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, ७/३१, अनसारी रोड़, दरियागंज,दिल्ली-११० ००२


मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टिमें
डॉ. देवराज
(१)
एक दिन डॉ. ऋषभदेव शर्माजी बैठा था तो मेरी नज़र उपर्युक्त पुस्तक पर पडी़। मणिपुरी कविता की जानकारी मिली जो मैं आप सब से बाँटना चाहूँगा। ज़ाहिर है कि सारी पुस्तक एक सांस में पढना ��"र उस पर पर लिखना सम्भव नहीं है, अतः हम अंशों में इस पुस्तक का अध्ययन करेंगे। तो, आइए चलें, प्रारम्भ भूमिका ही से किया जाय। मणिपुर के प्रसिद हिंदीमर्मज्ञ इबोहल सिंह काग्ङ्जम ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी है। यह माना जाता है कि मणिपुरी साहित्य का प्राचीन काल प्रथम शताब्दी से होता है। मणिपुरी साहित्य पर बंगला साहित्य का प्रभाव भी रहा। इस साहित्य में काव्यपरम्परा की विशेष भूमिका भी रही। इबोहलसिंह काङ्जम बताते हैं कि: "डॉ. देवराज पिछले बीस वर्षों से मणिपुर में रह रहे हैं। जब से वे यहा आए, तब से यहाँ के स्थानीय हिंदी प्रचारकों एवं मणिपुरीभाषा के साहित्यकारों के सम्पर्क में रहे। स्वयं कवि हैं��"र काव्य-अध्ययन में विशेष रुचि लेते हैं। बीस वर्षों के मणिपुर-प्रवास के दौरान मंणिपुर के बारे में उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया, विशेष कर मणिपुरीकाव्य-परम्परा के बारे में। मणिपुरी कविता की प्रवृत्तियों के बारे में उनका ज्ञान काफ़ी गहरा है। यह उनके लेखों तथा साहित्यिकसभादquot;ं में व्यक्त्त विचारों से मालूम होता है। उनके द्वारा तैयार किये गए लेखों का मणिपुरी अनुवाद जब धारावाहिक रूप में स्थानीय दैनिकपत्र ‘पोक्नफम’में छपा, तब जो प्रतिक्रियाएँ पाठकों ��"र अन्य साहित्यकारों से आई, वे ही उनके मणिपुरी कविता के मर्म- ज्ञानकी सबूत थीं। अब मणिपुरी कविता का जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया है, वे उसे हिन्दी पाठकों एवं विद्वानों तक पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। मणिपुरीभाषा-भाषी होने के नाते मैं हर्ष का अनुभव कर रहाहूँ ��"र डॉ. देवराज का ऋण भी मानता हूँ मणिपुरी भाषा��"र साहित्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जेसे हमें ही अपनी मातृभाषा ��"र साहित्य के लिए करना चाहिए था ��"र हम आज तक नहीं कर पाए। डॉ। देवराज धन्यवाद के पात्र हैं।"
( क्रमश: )
-चन्द्रमौलेश्वर

'क्षण के घेरे में घिरा नहीं‘ : त्रिलोचन का स्मरण


'क्षण के घेरे में घिरा नहीं' : त्रिलोचन का स्मरण

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पुस्तक : क्षण के घेरे में घिरा नहीं
प्रधान संपादक : देवराज
संपादक : अमन
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन,
मातृ भवन, १७-सावित्री एन्क्लेव,
नजीबाबाद-२४६७६३ (उत्तर प्रदेश)
संस्करण : २००८
मूल्य : पचास रुपए
पृष्ठ संख्या : ६४
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कविवर त्रिलोचन शास्त्री ९ दिसंबर, २००७ को ९० वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। हिंदी साहित्य जगत की विशिष्ट परंपरा रही है कि यहाँ साहित्यकारों को या तो पुरस्कार-सम्मान आदि मिलने पर याद किया जाता है या दिवंगत होने पर! त्रिलोचन जी के संबंध में भी कैसे चूक हो सकती थी! देश भर की हिंदी पत्रिकाओं ने उन पर श्रद्धांजलि और स्मृति परक आलेख छापे और अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। लेकिन इस सब के बीच एक स्मृति सभा नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुई जो रस्मी-रवायती न थी। दरअसल त्रिलोचन १९९० में नजीबाबाद में संपन्न माता कुसुमकुमारी हिंदीतर भाषी हिंदी साधक सम्मान समारोह में आए थे और जनपद के साहित्य प्रेमियों के कंठहार बन गए थे। इसीलिए जब उनके निधन का समाचार सुना तो १० दिसंबर को ये तमाम लेखक और साहित्य प्रेमी नजीबाबाद में मध्यकालीन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. प्रेमचंद्र जैन के घर पर इकट्ठे हुए और अपने प्रिय कवि त्रिलोचन को टुकड़ों-टुकड़ों में याद किया। इस अवसर पर देश के विविध अंचलों से अलग-अलग साहित्यकारों के संदेश मोबाइल फोन पर संपर्क करके प्राप्त किए गए। तभी यह भी तय किया गया कि इन संदेशों को पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा। काम शुरू हो गया और प्रस्तावित पुस्तक केवल संदेशों तक सीमित नहीं रह सकी बल्कि जिन्होंने मोबाइल-सभा में संदेश दिए थे, उन्होंने अच्छे खासे समीक्षात्मक आलेख उपलब्ध करा दिए इसलिए पुस्तक का स्वरूप भी बदल गया और इस तरह एक समीक्षा पुस्तक ही तैयार हो गई। शीर्षक है ‘क्षण के घेरे में घिरा नहीं‘।
‘क्षण के घेरे में घिरा नहीं‘ (२००८) के प्रधान संपादक हैं मणिपुर विश्वविद्यालय के मानविकी विभाग के अधिष्ठाता डॉ देवराज और संपादक हैं नजीबाबाद के युवा पत्रकार अमन। पुस्तक ‘विन्यास‘ की ओर से परिलेख प्रकाशन ने प्रकाशित की है जिसकी परामर्श समिति के संरक्षक डॉ. प्रेमचंद्र जैन है तथा संयोजक हैदराबाद स्थित संस्था ‘विश्वम्भरा‘ की महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी जो विशेष रूप से इस योजना की पूर्ति में सक्रिय रहीं।

पुस्तक में संपादक के ‘पूर्व कथन‘ के अतिरिक्त २६ छोटे-बड़े आलेख हैं, एक साक्षात्कार है, एक रिपोर्ट और ‘पथ पर चलते रहो निरंतर‘ शीर्षक से त्रिलोचन की बारह छोटी-छोटी कविताएँ। कुल मिलाकर त्रिलोचन को समझने-समझाने के लिए पर्याप्त सामग्री है। पुस्तक की समीक्षात्मक दृष्टि को डा. देवराज के शब्दों के माध्यम से सहज ही पकड़ा जा सकता है। वे बताते हैं “त्रिलोचन प्रगतिशील चिंतन की भारतीय परंपरा के प्रमुख लेखकों में से एक होते हुए भी अपने प्राप्य से अधिकतर वंचित रहे। हिंदी कविता में आलोचकों ने उन्हें कभी चर्चा के केंद्र में नहीं आने दिया। उन दिनों तो बिल्कुल नहीं, जब प्रगतिशील विचारधारा का आंदोलन ज्ञात-अज्ञात शक्तियों द्वारा हाशिए की ओर धकेला जा रहा था और उसे त्रिलोचन की ज़रूरत थी। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि हिंदी साहित्य का अध्येता त्रिलोचन की पहचान इस रूप में चिह्नित करता है कि वे हिंदी कविता में अंगरेज़ी छंद सॉनेट को स्थापित करने वाले हैं, कि उन्होंने इस विदेशी छंद को अपने कलात्मक-कौशल से साध कर हिंदी के अन्य जातीय छंदों के समान बना दिया, कि उनके सॉनेट अभिव्यक्ति की सादगी के उदाहरण हैं आदि। सॉनेट और उसकी सादगी के सामने कुछ तथ्यों की जानबूझ कर उपेक्षा की जाती है - जैसे, त्रिलोचन ने हिंदी में निराला की मुक्त छंद की परंपरा को सही रूप में सबके सामने रखा और कविता की मुक्ति तथा मनुष्य की मुक्ति के बीच विद्यमान वास्तविक संबंध को पुनर्प्रस्तुत किया, उन्होंने अपने लेखों में हिंदी आलोचना की कमज़ोरियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई, उनकी कहानियों में अपने देशकाल की ईमानदार अभिव्यक्ति है, उनके पत्रों में संबंधों को जीने की असाधारण ललक है, वे लोक और शास्त्र का अद्भुत संगम थे आदि। इस तरह त्रिलोचन का सॉनेट साहित्य भाव और भाषा की असाधारण सादगी की भेंट चढ़ जाता है, जिसकी चकाचौंध में सॉनेट के भीतर व्यक्त जीवन संघर्ष अप्रकाशित ही रह जाता है और उनके रचना संसार के शेष पक्ष यों ही परे सरका दिए जाते हैं।”


अपने आलेख में वाचस्पति (वाराणसी) ने बड़ी तल्खी से सवाल उठाया है कि पतनशील उच्च और मध्य वर्ग की बाजारवादी मानसिकता को खाद-पानी देने वाले, भ्रष्ट हिंदी और फूहड़ अंग्रेजी के वर्णसंकर दैनिकों में अपना वर्तमान और भविष्य तलाशने वाले बुद्धिबली, निधन के बाद बड़ी शिद्दत से त्रिलोचन जैसे बोली-बानी के अद्भुत संगतराश को आखिर क्यों याद कर रहे हैं? उन्होंने त्रिलोचन की विरासत का विस्तार करने में जनपदीय युवतर कवियों की भागीदारी के प्रति विश्वास भी प्रकट किया है।

नंदकिशोर नवल (पटना) ने त्रिलोचन को क्लासिकी गंभीरता का कवि सिद्ध किया है तो विजेंद्र (जयपुर) ने उन्हें संघर्षशील जनता से जुड़ी कविता रचने वाले जातीय कवि के रूप में देखा है। ऋषभदेव शर्मा ने उनकी विराटता और विलक्षणता का आधार साधारणता को माना है तो कविता वाचक्नवी (हैदराबाद) ने विचारधारा के आधार पर साहित्य और साहित्यकारों को बाँटने वालों की अच्छी खबर ली है और इसे सर्वनाश का द्योतक माना है। त्रिलोचन के पात्रों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने लोक संस्पृक्ति को उनकी कविता की ताकत माना है। ए।अरविंदाक्षन (कोच्चि) ने समन्वय करते हुए लिखा है कि यदि लोक त्रिलोचन का सहज यथार्थ है तो उनकी कविता का अन्वेषित यथार्थ क्लासिकी का है। इसीलिए उन्हें कालिदास से होते हुए त्रिलोचन तुलसी तक की कविता-यात्रा करते दिखाई देते हैं।

हरिपाल त्यागी (दिल्ली) ने त्रिलोचन को उदार भारतीय आत्मा और मानवीय प्रतिभा से संपन्न कवि बताया है जिनकी भाषा का जादू सिर चढ़कर बोलता था। इसी प्रकार बालशौरि रेड्डी (चेन्नई) ने उनकी कविता के प्रगतिशील तत्व को रेखांकित किया है। अर्जुन शतपथी (राउरकेला) के लिए त्रिलोचन क्रांति पुरुष थे तो एम.शेषन (चेन्नई) के लिए वे आधुनिक कविता को समसामयिक भावबोध से संयुक्त कर उसे ऊँचाई प्रदान करने वाले कलमकार थे। ई.विजयलक्ष्मी (इम्फाल) ने अपने आलेख में त्रिलोचन को अनुत्तरित चुनौती का कवि कहा है तो नित्यानंद मैठाणी (लखनऊ) ने उन्हें हिंदी का एक और कबीर माना है। विनोद कुमार मिश्र (ईटानगर) ने त्रिलोचन के व्यक्तित्व और कृतित्व में व्याप्त जिजीविषा की चर्चा की है तो महेश सांख्यधर (बिजनौर) ने अपने आलेख में कहा है कि यदि आप कवि हृदय नहीं हैं तथा आपकी आँख में पानी नहीं है तो आप न कवि त्रिलोचन को समझ सकते हैं न त्रिलोचन की कविता को।
इसी प्रकार गोपाल प्रधान (सिलचर), दिनकर कुमार (गुवाहाटी), शंकरलाल पुरोहित (भुवनेश्वर), नरेंद्र मारवाड़ी (बिजनौर), ऋचा जोशी (मेरठ), अरुणदेव, बलवीर सिह वीर, राजेंद्र त्यागी, पुनीत गोयल, चंचल और अमन (नजीबाबाद) ने भी अपने आलेखों में त्रिलोचन के साहित्य के अलग-अलग आयामों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है।

‘जीवित व्यक्ति ही साहित्य देता है‘ शीर्षक से वाचस्पति द्वारा १९७० में लिया गया त्रिलोचन जी का साक्षात्कार इस समस्त चर्चा को परिपूर्णता प्रदान करता है। और अंत में हैं त्रिलोचन की कुछ कविताएँ। निस्संदेह समकालीन साहित्य के एक शलाका पुरुष को उसके चाहने वाले लेखकों और पाठकों की ओर से दी गई यह सारस्वत श्रद्धांजलि स्पृहणीय है।
प्रो.ऋषभदेव शर्मा

The Memory and Its Programming + SCIENCE AND RELIGION

Dr Harish Chandra's article in SpiritMag Feb '08 - 14
SpiritMag February '08Volume II, No. 6



VIII. The Memory and Its Programming

Last month we had discussed the three constituent units of the mind domain ? mind, memory and intellect. The first unit of mind functions as the link between the subtle mind domain and the gross body. It picks up the incoming knowledge from the sense organs for sight, sound, smell, taste and touch. In the outward direction, it activates the organs for karma and brings the body in action. The memory unit stores the incoming knowledge for future reference before 'projecting' it to the intellect unit that 'displays' the incoming knowledge for the soul's perception. Now, the decision is taken by the soul with the help of the intellect and then relayed to the memory and mind units, and then to the body's motor organs for outgoing karma.


हिंदी के हिंडोले में जरा तो बैठ जाइए

हिंदी के हिंडोले में जरा तो बैठ जाइए

हिंदी भाषा ने अपनी हजार साल से ज्यादा की यात्रा में अभी तक अनेक पड़ाव पार किए हैं, उतार-चढ़ाव देखे हैं। उसकी इस विकासयात्रा की एक बड़ी विशेषता है कि वह सदा जन-मन की ओर प्रवाहित होती रही है। यदि यह कहा जाए कि हिंदी की ताकत उसके निरंतर जनभाषा होने में है, राजभाषा होने में नहीं, तो शायद कोई अतिशयोक्ति न होगी। अपभ्रंश के अनेक क्षेत्रीय रूपों से जब दूसरी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ रूपाकार ग्रहण कर रही थीं, उसी समय हिंदी ने भी अपने प्रारंभिक रूप की आहट दी। यह आहट सुनाई पड़ी अलग-अलग बोलियों और उपभाषाओं के रूप में। एक ओर इसका यह राजस्थानी रूप था -
कहिरे भरहेसर कुण कहीइ।
मइ सिउँ रणि सुरि असुरि न रहीइ॥
चक्रधरइ चक्रवर्ती विचार।
तउ अह्म पुरि कुंभार अपार॥
- भरतेश्वर बाहुबली रास
(भरतेश्वर की क्या कहते हो, मेरे सामने तो युद्ध में सुर-असुर भी नहीं ठहरते। यदि उस चक्रवर्ती को चक्रधारण का ही अधिक विचार हो गया है तो हमारे यहाँ तो एक नहीं, कई चक्रधारी कुम्हार हैं।)

यह थी 1184 ई. की हिंदी। पृथ्वीराज चौहान के समकालीन चंदबरदायी की कविता में 1300-1400 ई. में इसका अलग पड़ाव दिखाई देता है -
मति घट्टी सामंत मरण हउ मोहि दिखावहु।
जम चीठी विणु कदन होइ जउ तुमउ बतावहु॥
- पृथ्वीराज रासो
(हे सामंत! क्या तुम्हारी मति घट गई है जो मुझे इस तरह मृत्यु का हौवा दिखा रहे
हो। क्या यम के परवाने के बिना कभी मौत आ सकती है - तुम्हीं बताओ।)

दूसरी ओर इन दोनों के बीच अमीर खुसरो की रचनाओं में आरंभिक खड़ीबोली और ब्रजभाषा के रूप देखे जा सकते हैं -
"गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपणे, रैन भई चहुँ देस॥"

इसी प्रकार हिंदी का एक आरंभिक रूप यदि सरहपाद जैसे सिद्ध और गुरु गोरखनाथ जैसे नाथपंथी कवियों की भाषा में प्रकट हो रहा था, जिसका पौरुषपूर्ण संस्करण आगे चलकर कबीरदास जैसे कवि की भाषा में मुखर होकर संध्याभाषा, सधुक्कड़ी और खिचड़ी कहलाया तो एक अन्य रूप विद्यापति की पदावली में व्यक्त हो रहा था -
"नंदक नंदन कदंबक तरुतर
धिरे-धिरे मुरली बजाव।"
(नंद का पुत्र कदंब के वृक्ष तले धीरे-धीरे मुरली बजा रहा है।)
यह मुरली मैथिली में बजी, तो ब्रजी में गूँज उठी। इस तथ्य से हम सब भलीभांति परिचित हैं। राजस्थान से लेकर मिथिला तक, या कहें कि गुजरात से लगती सीमा से लेकर बंगाल से लगती सीमा तक व्याप्त विविध बोलियों के रूप में हिंदी भाषा ने अपनी आरंभिक उपस्थिति दर्ज कराई। इसके बाद का अर्थात कबीरदास के समय से लेकर आज तक की हिंदी भाषा की यात्रा का पूरा इतिहास तो हमें मालूम है ही। लेकिन इस इतिहास को बार-बार दुहराने और समझने की आज के समय में सबसे ज्यादा जरूरत है।

आज जब हिंदी ने अपने आपको साहित्य और संपर्क के परंपरागत प्रयोजन क्षेत्रों के साथ-साथ राजकाज, प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान, आधुनिक वाणिज्य-व्यवसाय तथा तकनीकी के लिए उपयुक्त भाषा के रूप में सब प्रकार सक्षम सिद्ध कर दिया है (भले ही अपनी राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी या गुलाम मानसिकता की हीनभावना के कारण हम इस सत्य को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने में हिचकते हों) तथा बाजार में और कंप्यूटर पर व्यापक प्रयोग की अपनी संभावनाओं को प्रकट कर दिया है, दुनिया की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली शीर्ष भाषाओं में शामिल होकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने की दावेदारी प्रस्तुत कर चुकी है। ऐस समय में हिंदी के इस बहुक्षेत्रीय और बहुबोलीय आधार की स्मृति बनाए रखना बेहद जरूरी है क्योंकि हिंदी केवल उतनी सी नहीं है, जितनी सी वह राजभाषा हिंदी या खड़ी बोली हिंदी या मानक हिंदी के रूप में दिखाई देती है।

इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि हिंदी का प्रयोग देश भर में किया जाता है या जब इस बात पर गर्व करते हैं कि हिंदी बोलने/जानने वाले विश्वभर में हैं, तो इसका अर्थ है कि हिंदी का प्रयोग करने वाला भाषा-समाज अनेक भाषा-कोडों का प्रयोग करता है। ये भाषा-कोड एक ओर तो उसकी तमाम बोलियों से आए हैं, दूसरी ओर इनका विकास हिंदी की इन बोलियों के विविध भाषाओं के साथ संपर्क से हुआ है। हाँ, जहाँ यह संपर्क अत्यंत घनिष्ठ है, वहाँ हिंदी के विविध रूपों का संप्रेषण घनत्व भी अधिक है तथा जहाँ संपर्क में उतनी घनिष्ठता नहीं है, वहाँ संप्रेषण में भी उतना घनत्व नहीं है। इन स्थितियों में ही हिंदी के बंबइया, हैदराबादी, मद्रासी आदि संस्करण विकसित हुए हैं। इसी प्रकार भारतवंशियों द्वारा आबाद किए गए देशों में भी हिंदी का अपना-अपना रूप है। अंग्रेजी मिश्रण से विकसित संस्करण को भी नकारा नहीं जा सकता। हमें आज हिंदी के विकास की अनेक दिशाओं के रूप में इन सब संस्करणों को स्वीकृत और सम्मानित करना होगा। तभी जनभाषा को विश्वभाषा की प्रतिष्ठा प्राप्त होगी।

हमें इस प्रवृत्ति के बारे में गंभीरता से सोचना होगा कि हिंदी परिवार की बोलियाँ/भाषाएँ मूलत: परस्पर नाभिनालबद्ध हैं और किसी तात्कालिक लाभ के लिए उनकी यह परस्पर एकता खंडित नहीं की जानी चाहिए। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं से लेकर सरकारी योजनाओं तक के नियामकों को इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि इन समस्त बोलियों/भाषाओं से संबलित हिंदी भाषा समाज का विस्तार भौगोलिक और सांख्यिकीय दृष्टि से अत्यंत व्यापक है। अत: जब अन्य भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी को रखा जाए तो उसके इस विस्तार के अनुरूप विविध योजनाओं में उचित अनुपात में भागीदारी प्रदान की जाए। लोकतंत्र के इस साधारण से सिद्धांत की उपेक्षा का अर्थ है - हिंदी भाषा के व्यापक बोलीय आधार की उपेक्षा। इससे असंतोष पैदा होता है और अलग-अलग बोलियों के प्रयोक्ता समाज में तात्कालिक लाभों के लिए अलग से सूचीबद्ध किए जाने का मोह जागता है। यदि इस प्रवृत्ति पर रोक न लगी, तो सब बोलियाँ खिसक जाएँगी और हिंदी के समक्ष खुद अपनी पहचान का संकट खड़ा हो सकता है। हिंदी की सारी बोलियाँ मिलकर ही हिंदी भाषा रूपी रथ की संज्ञा प्राप्त करती हैं। यदि रथ के घोड़े, पहिए और आसन आदि को एक-एक कर अलग करते जाएँ तो रथ कहाँ बचेगा! अत: हिंदी की बोलियों की एकजुटता में ही हिंदी का अस्तित्व है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें हिंदी के रथ को बिखरने से बचाना होगा।

यहाँ हम यह भी उल्लेख करना जरूरी समझते हैं कि हिंदी जिस प्रकार बोलीगत विभेदों से भरी-पूरी संपूर्ण भाषा है, उसी प्रकार वह शैलीगत भेदों से भी परिपूरित है। हजार साल से ज्यादा की अपनी विकास यात्रा में हिंदी ने विभिन्न भाषाओं के संपर्क और ऐतिहासिक सामाजिक दबावों के परिणामस्वरूप अपने इन शैलीगत भेदों को निर्मित किया है। ध्यान में रखना होगा कि जिस प्रकार बोलीगत भेद एक दूसरे के सहयोगी हैं, उसी प्रकार हिंदी के शैलीगत भेद भी एक दूसरे के पूरक हैं। यहाँ हम खासकर दक्खिनी हिंदी और उर्दू के प्रदेय की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। इन दोनों शैलियों के बिना हिंदी का इतिहास अधूरा है। उसे भी हिंदी साहित्य के अंग के रूप में ग्रहण करना अपनी विरासत को पहचानने और उससे जुड़ने के लिए आवश्यक है।
हिंदी जैसी व्यापक और अक्षेत्रीय--सार्वदेशिक और अंतरराष्ट्रीय--भाषा के लिए यह सदा स्मरण रखना आवश्यक है कि भाषा 'बहता नीर' है। इस बहते नीर की घाट-घाट पर अलग-अलग रंगत है। इस पर तथाकथित शुद्धतावाद नहीं थोपा जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि हमें जीवन के समस्त विविध प्रयोजनों और भाषा प्रयोक्ता समाज के वैविध्यों के अनुरूप जहाँ एक ओर उच्च हिंदी पर गर्व है, वहीं उसके हिंदुस्तानी/गंगाजमुनी रूप पर भी नाज है तथा उर्दू रूप पर भी फ़ख्र है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी के मिश्रण से बने गए भाषा रूप से भी हमें उतना ही प्रेम होना चाहिए जितना दूसरे भाषा रूपों से। हम किसी भाषा रूप को हिकारत की नज़र से देखेंगे तो यह उचित नहीं होगा। मीडिया के विविध प्रकार के प्रकाशनों और प्रसारणों के कारण जो इन विविध भाषा रूपों का विकास हो रहा है, वह भी प्रशंसनीय है।

14 सितंबर को जब-जब हम हिंदी दिवस मनाएँ तो भारत के संविधान के अनुच्छेद-343 से अनुच्छेद-351 तथा अनुसूची-8 के प्रावधानों का तो खयाल रखें ही, यह भी खयाल रखें कि राजभाषा की यह सारी व्यवस्था भारत की जातीय अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने तथा विकसित करने के उद्देश्य से की गई है। इसे केवल सरकारी कामकाज की भाषा तक सीमित रखना उचित नहीं होगा। बल्कि सच तो यह है कि अनुच्छेद-351 के निर्देश के अनुरूप हिंदी का सामासिक स्वरूप राजभाषा की अपेक्षा व्यापक जनसंपर्क, साहित्य, मीडिया, वाणिज्य-व्यवसाय, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी की भाषा के रूप में हिंदी के व्यापक व्यवहार से ही संभव है। यदि हम - हमारी सरकारें - सचमुच हिंदी को विश्वभाषा के पद पर आसीन देखना चाहती हैं तो उसका जो संवैधानिक अधिकार लंबे अरसे से लंबिंत/स्थगित पड़ा है, उसे तुरंत बहाल किया जाए। सभी भारतीय भाषाओं को इससे बल मिलेगा तथा परस्पर अनुवाद द्वारा उनके माध्यम से हिंदी भी बल प्राप्त करेगी। अनुवाद ही वह माध्यम है जो हिंदी को समूचे भूमंडलीय ज्ञान की खिड़की बना सकता है, अत: इस दिशा में भी ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। मौलिक लेखन और अनुवाद दोनों मिलकर हिंदी के इस सामासिक और वैश्विक स्वरूप का पुनर्गठन करेंगे - इसी शुभकामना के साथ हम सर्वभाषाभाषी समाजों को हिंदी के हिंडोले में झूलने के लिए आमंत्रित करते हैं, जैसाकि किसी कवि का सहज आह्वान है :-
बिहरो 'बिहारी' की बिहार वाटिका में चाहे
'सूर' की कुटी में अड़ आसन जमाइए।
'केशव' के कुंज में किलोल केलि कीजिए या
'तुलसी' के मानस में डुबकी लगाइए॥
'देव' की दरी में दुरी दिव्यता निहारिए या
'भूषण' की सेना के सिपाही बन जाइए।
अन्यभाषाभाषियों मिलेगा मनमाना सुख
हिंदी के हिंडोले में ज़रा तो बैठ जाइए॥

- ऋषभदेव शर्मा

एक शोक सभा मोबाईल के जरिए



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विशेष
Wednesday, 26 December 2007

कवि त्रिलोचन शास्त्री

रेखांकन : मुजीब हुसैन




हिन्दी के खबरिया चैनल और अखबारों में बैठे लोगों को खबरों के नाम पर फिल्म और टीवी से जो भी जूठन या खबरें मिल जाती है उनको बेचारे दर्शकों के सामने परोस दिया जात है। फूहड़ नाच गानों और फिल्मी सितारों की बकवास को दिन भर परोसने के पीछे चैनल वालों का अजीब तर्क है कि उनके दर्शक पढ़े-लिखे नहीं है इसीलिए उनको अपने दर्शकों की रुचि का ध्यान रखते हुए ऐसी ही दो कौड़ी की खबरें दिखाना होती है। तो क्या यह मानलें कि चैनल में बैठे लोगों का भी पढा़ई-लिखाई से कोई वास्ता नहीं है। इस बात में कुछ दम इसलिए लगता है कि किसी चैनल पर कभी किसी हिन्दी साहित्यकार की किसी कृति से लेकर उसके जीने या गुजर जाने पर कोई चर्चा नहीं होती। देश के जाने माने हिन्दी कवि त्रिलोचन के निधन पर देश भर के साहित्यकारों ने मोबाईल के जरिए अपनी संवेदनाएं व्यक्त कर उनको याद किया। पेश है यह रिपोर्ट।







हिन्दी की प्रगतिशील चिंतन परंपरा के प्रमुख स्तंभ और आम आदमी के अपने कवि त्रिलोचन शास्त्री के निधन पर उत्तर-प्रदेश के ऐतिहासिक नगर, नजीबाबाद में 10 दिसंबर को एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें स्थानीय साहित्यकारों के अतिरिक्त मोबाइल फोन के माध्यम से देश के विभिन्न राज्यों के प्रसिद्ध साहित्यकारों ने शोक संवेदना व्यक्त कर त्रिलोचन शास्त्री को श्रद्धांजलि अर्पित की। हिन्दी विद्वान डॊ। प्रेमचन्द जैन की अध्यक्षता में उन्हीं के आवास पर संपन्न इस सभा का संचालन मणिपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर देवराज ने किया।




शोक सभा में अरूणाचल से डॊ। विनोद मिश्र ने मोबाइल पर दिये अपने श्रद्धांजलि वक्तव्य में कहा कि त्रिलोचन की कविताओं में लाहौर में रिक्शा चलाने वाले लोगों की तस्वीर भी दिखायी देती है और किसानों की पीड़ा भी। जयपुर से प्रख्यात जनवादी साहित्यकार विजेन्द्र ने त्रिलोचन शास्त्री को लोकधर्मी परंपरा का बहुत बड़ा कवि, तपस्वी व मनीषी बताते हुए कहा कि उन्होंने हिन्दी साहित्य में अनुकरणीय कीर्तिमान रचा। दिल्ली से प्रख्यात वयोवृद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने कहा कि त्रिलोचन भी चले गये अब, मन नहीं लगता। मैं भी जाना चाहता हूँ!, बस पता नहीं कब जाना होगा। यह कहते हुए वह अत्यंत भावुक हो गये।



कोल्हापुर से डॊ। अर्जुन चह्वाण ने उन्हें सरलता एंव सादगी से भरा हुआ महान आदमी बताते हुए कहा कि त्रिलोचन की सादगी और सरलता दिखावे की नहीं थी। उन्होंने अपनी कविता में भी कोई छद्म नहीं पाला। बनारस में निवास कर रहे वाचस्पति जी हिन्दी के बहुत से मूर्धन्य साहित्यकारों के संपर्क में रहे हैं। नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री से उनकी घनिष्ठता रही है। उन्होंने बनारस से ही मोबाइल पर कहा कि त्रिलोचन जी संध्याकाल में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आ जाते थे। प्रेमचन्द जैन और गुरूवर शिवप्रसादजी के साथ आचार्य हजारी प्रसाद जी के यहाँ भी जाते थे।


महाप्राण निराला ने 1940 में अपनी एक रचना में अपना रचनात्मक अकेलापन देखा था- ``मैं अकेला/ देखता हूँ आ रही/ मेरे दिवस की सांध्य वेला।´´ वाचस्पति जी ने भावुक होकर कहा कि पिछले कुछ समय से धरती और दिगंत के कवि त्रिलोचन ने भी अपनी सांध्य वेला का अनुभव अपने जीवन में करना प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन उनका स्वर `धरती´ जो उनका पहला संग्रह था उसी से मिलता हुआ था-आज मैं अकेला हू¡/ अकेला रहा नहीं जाता/ सुख-दु:ख एक भी/ सहा नहीं जाता। त्रिलोचन पिछले वर्षों में सचमुच अकेले हो गये थे। पेट का अलसर फट जाने के कारण वह अपने छोटे पुत्र के साथ ज्वालापुर भी रहे। वह जब तक जीवित रहे चलते रहे। `शब्द´ नाम के सॊनेट संग्रह को वह अपना उत्तम संग्रह मानते थे।


नजीबाबाद के साहित्यकार राजेंद्र त्यागी ने कहा उन्होंने जिस विधा को अपनाया है, वह दुर्लभ है। ऐसा साहित्य अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। पटना से प्रगतिशील साहित्य चिन्तक डॊ। नन्दकिशोर नवल ने विगलित हृदय से त्रिलोचन जी का स्मरण किया। उन्होंने कहा कि उनसे मेरा संबन्ध 1967 से था। जब वे पटना आते थे, मेरे घर ही ठहरते थे। त्रिलोचन अपनी परंपरा के अंतिम कवि थे। वे आधुनिक कविता के सबसे बड़े कवि भी थे। शमशेर, केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध और त्रिलोचन प्रगतिवादी कवि थे। जिनमें चार पहले ही जा चुके थे। श्रद्धांजलि वक्तव्य के अंत तक आते-आते नवल जी मोबाइल पर ही फूट-फूट कर रोने लगे।



गुवाहाटी से प्रखर पत्रकार, पूर्वोदय के अधिशासी संपादक रवि शंकर `रवि´ ने कुछ वर्ष पहले त्रिलोचन के लिए एक कविता लिखी थी, जिसे वे उन्हें स्वयं सुनाना चाहते थे। अचानक त्रिलोचन जी के चले जाने से वह अवसर भी चला गया। हैदराबाद से प्रख्यात कवयित्री और विश्व भर में हिन्दी साहित्य, भाषा और देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में जुटी डॊ। कविता वाचक्नवी ने कहा कि ऐसा अनुभव हो रहा है, मानो मुझे व्यक्तिगत क्षति हुई है। उनका भाषा में जो सतत् प्रयोगधर्मिता का अंदाज रहा वह मुझे लुभाता रहा। भाषा पर उनका संपूर्ण नियंत्रण था। वे भाषा के आचार्य कवि थे। नन्द किशोर नवल की भाँति ही डॊ. कविता वाचक्नवी भी त्रिलोचन जी को मिली घातक उपेक्षा से भीतर तक आहत थीं। उन्होंने कहा कि इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि जब भारतीय साहित्य का यह शिखर पुरूष पूरी तरह अशक्त स्थिति में पहुँच गया तो हिन्दी के छुटभैये ठेकेदारों ने इनके संबन्ध में तरह-तरह के स्पष्टीकरणनुमा वक्तव्य जारी किए। सचमुच हिन्दी वालों ने ही उन्हें मार डाला।



नजीबाबाद निवासी साहित्यकार बलवीर सिंह वीर ने इस दु:खद अवसर पर त्रिलोचन जी के प्रति अपनी भावनाएँ प्रकट करते हुए कहा कि आज प्रगतिवादी चेतना का अंतिम स्तंभ ढह गया है। उनके चले जाने से हिन्दी को जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। राउरकेला से ओड़िया और हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान अर्जुन शतपथी ने अपने श्रद्धांजलि वक्तव्य में कहा कि उनके उठ जाने से निश्चय ही हिन्दी जगत की बहुत बड़ी हानि हुई है। त्रिलोचन जी जैसे पितामह कल्प प्रगतिवादी कवि का स्थान सदा के लिए रिक्त रह जायेगा। उन्होंने कवि त्रिलोचन के साथ बिताए समय को भी स्मरण किया।



त्रिलोचन जी के निधन के समाचार के समय हिन्दी के युवा समीक्षकों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा त्रिचुरापल्ली में थे। उन्होंने वहीं से मोबाइल पर कहा कि त्रिलोचन जी के जाने से ऐसा लगा, जैसे अपने परिवार का कोई शिखर खिसका हो। त्रिलोचन जी के न रहने से जनपक्षीय काव्य के क्षेत्र में एक शून्य उत्पन्न हो गया है। वे बहुभाषाविद् थे और शब्दों से कौतुक करने वाले थे। वे भारतीय साहित्य के मूल सरोकारों की पहचान रखने वाले ऐसे कवि थे, जिन्हें हम कालिदास के साथ जोड़कर देख सकते है। भारत की अन्य भाषाओं को भी उन्होंने आत्मसात किया हुआ था। उन्होंने नजीबाबाद के माता कुसुमकुमारी हिन्दीतरभाषी हिन्दी साधक सम्मान समारोह में सन् 1990 में मुख्य अतिथि के रूप में भारत- भर के लेखकों को संबोधित करते हुए हिन्दी भाषा के मानकीकरण का सवाल उठाया था। वह बात आज भी हमारे सामने ज्यों की त्यों है। वे हिन्दी का सार्वदेशिक रूप में मानकीकरण चाहते थे।प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा ने इस बात पर बल दिया कि यदि हम हिन्दी के सार्वदेशिक मानक रूप का विकास करेंगे तो यह हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। गुवाहाटी से सैंटीनल हिन्दी दैनिक के सम्पादक दिनकर कुमार ने कहा कि महान चिंतक और जुझारू जीवन जीने वाले त्रिलोचन शास्त्री के निधन से हिन्दी कविता में कभी न भरा जा सकने वाला एक और शून्य दर्ज हो गया है।



आधुनिक हिन्दी समालोचना में रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और प्रकाशचन्द्र गुप्त की परंपरा को नया अर्थ देने वाले, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रोफेसर शंभुनाथ ने कहा कि त्रिलोचन शास्त्री जी ने अनेकता व प्रगतिशीलता की ओर बढ़ते हुए भी अपना संबन्ध लोक संस्कृति और काम करने वालें हाथों से हमेशा बनाये रखा। उन्होंने बहुत अच्छे सॉनेट लिखे हैं। उनकी मृत्यु से प्रगतिशील कवियों का अंतिम स्तंभ भी टूट गया है। साहू जैन महाविद्यालय, नजीबाबाद के हिन्दी विभाग में कार्यरत डॊ। अरूण देव जायसवाल ने अपने श्रद्धांजलि वक्तव्य में कहा कि त्रिलोचन जी आज हमारे बीच से उठकर चले गये, परन्तु इसकी भूमिका बहुत पहले तैयार हो गयी थी। एक रचनाकार का अपने रचनाकर्म से धीरे-धीरे च्युत हो जाना ही अंतत: उसे उसकी मृत्यु की ओर ठेलता जाता है। डॊ. जायसवाल ने पाश्चात्य छन्द सॉनेट को ठेठ हिन्दी छन्द की प्रकृति के अनुरूप ढालने में त्रिलोचन जी की ऐतिहासिक भूमिका का स्मरण भी किया।



नजीबाबाद के चित्रकार एंव कवि इंद्रदेव भारती ने कहा कि त्रिलोचन शास्त्री आम आदमी के अपने कवि थे। वे उसकी पीड़ा को अच्छी तरह समझते थे। भारती जी ने यह भी कहा कि त्रिलोचन जी की कविताएँ सदैव जीवित रहेंगी। ओड़िया-हिन्दी के वरिष्ठ अनुवादक, शंकरलाल पुरोहित ने भुवनेश्वर से त्रिलोचन शास्त्री को भावुक होकर स्मरण करते हुए कहा कि वे त्रिलोचन जी से पहली बार 35 साल पहले बनारस में मिले थे। वे एकदम किसी ग्रामीण गरीब किसान की तरह लग रहे थे। चेन्नई से मोबाइल पर जाने माने हिन्दी और तेलुगु लेखक डॊ। बालशौरि रेड्डी ने त्रिलोचन जी को याद किया। वे उनसे अनेक बार मिले थे। रेड्डी जी ने कहा कि प्रगतिशील धारा के शक्तिमान कवि त्रिलोचन के अभाव में हिन्दी साहित्य के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। संकट यह है कि उन्होंने काव्य और काव्यभाषा के लिए जीवनभर जिस संघर्ष चेतना की अगुवाई की, वह कार्य अब कौन करेगा।


हिन्दी और मणिपुरी की समीक्षक और अनुवादक डॊ. विजयलक्ष्मी ने इम्फाल से अपने श्रद्धांजलि वक्तव्य में त्रिलोचन जी को उनकी कविताओं के जरिए समझने और समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि उन्हें यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका कि वे त्रिलोचन जी से मिल पातीं, लेकिन यह भी तो सही है कि कवि किसी न किसी अंश में अपनी हर कविता में होता है। कोचीन, केरल से प्रख्यात अनुवादक और समालोचक डॊ. अरविंदाक्षन ने त्रिलोचन जी के कवि व्यक्तित्व के साथ ही उनके शोधकर्ता ओर शब्दकोश संपादक रूप को भी याद किया।



अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में हिन्दी साहित्य और जैन दर्शन के मर्मज्ञ डॉ। प्रेमचन्द जैन ने त्रिलोचन शास्त्री के जीवन और व्यक्तित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बनारस के उस कालखण्ड का जीवंत चित्रण किया जब त्रिलोचन जी बनारस में प्रसिद्ध कथाकार शिवप्रसाद सिंह के साथ सांध्यकालीन भ्रमण पर निकलते थे और साहित्य चर्चा करते थे। डॊ. जैन ने हिन्दी के इस महान कवि की एक और विशेषता का उल्लेख भी किया, वह थी अपनी कविता के साथ ही अन्य कवियों की कविताओं का स्मरण और प्रभावशाली पाठ। त्रिलोचन जी निराला की, राम की शक्ति पूजा की अद्भुत आवृत्ति किया करते थे।



इस तरह श्रद्धांजलि अर्पित की राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों के साहित्यकारों ने अपने प्रिय युगजीवी लेखक को जिनकी भौतिक उपस्थिति वहाँ नहीं थी (कुछ लोगों को छोड़ कर) लेकिन क्या सचमुच भारत के इस महान कवि की शोक-सभा में साहित्य सेवी अनुपस्थित थे? मोबाइल के सहारे लगातार लगभग चार घण्टे चलने वाली ऐसी सभा भारतभर में और कहाँ-कहाँ हुई!



प्रस्तुति:

अमन

कुमार ए-7, आदर्श नगर,

नजीबाबाद-२४६७६३

0 9897742814 / ९४५६६७७१७७

पुनीत गोयल

01341220345

विश्वम्भरा'


`विश्वम्भरा' की
विशेष कविगोष्ठी व लोकार्पण






"मूल्य संक्रमण के वर्तमान दौर में पत्रकारिता के दायित्व को नए सिरे से पारिभाषित करने की आवश्यकता है। आज के समय में व्यवसायिकता और उपभोक्तावाद का इतना अधिक दबाव है कि समाज और संस्कृति की चिंता करने वाली मिशनरी पत्रकारिता दुर्लभ होती जा रही है। रंगीन विज्ञापनी पत्रिकाओं ने पाठक के मन-मस्तिष्क के ऊपर हमला बोल रखा है और मूल्यकेंद्रित पत्रकारिता हाशिये में चली गई है।" ये विचार यहाँ 'विश्वम्भरा' की विशेष गोष्टी में अध्यक्ष के रूप में बोलते हुए उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के आचार्य डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने प्रकट किए। वे देहरादून से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'सरस्वती सुमन' के नववर्षांक का लोकार्पण करने के बाद कवियों और पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे। डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने आगे कहा कि आंदोलनकारी और समर्पित पत्रकारिता के अभाव के युग में 'सरस्वती सुमन' एक सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण के लक्ष्य के साथ जुड़ी हुई ऐसी पत्रिका है जो स्थापित लेखकों के साथ-साथ नवोदित रचनाकारों को भी पूरे सम्मान और उत्साह के साथ प्रकाशित करती है।
इस अवसर पर 'सरस्वती सुमन' के सम्पादक डॊ आनंद सुमन मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। संस्था की और से उनका अभिनन्दन भी किया गया। डॉ. सुमन ने अपने सम्बोधन में बताया कि यह पत्रिका उनकी दिवंगत सहधर्मिणी श्रीमती सरस्वती सिंह की स्मृति में प्रारभ की गई है और इसका चरम उद्देश्य एक ओर तो भारतीय संस्कृति के मूल्यों की पुनः स्थापना करना है तथा दूसरी ओर यह नए रचनाकारों को एक मंच प्रदान करने का भी अभियान है।
आरंभ में 'विश्वम्भरा' की महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी ने संस्था और मुख्य अतिथि का परिचय दिया और कहा कि सोद्देश्य पत्रकारिता के क्षेत्र में 'सरस्वती सुमन' का विशिष्ट स्थान बन चुका है। कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में पधारे डॉ. किशोरीलाल व्यास, डॉ. रणजीत तथा डॉ. रामजी सिंह उदयन ने भी पत्रिका के सम्बन्ध में अपने उद्-गार प्रकट किए।
'सरस्वती सुमन' के नववर्षांक के लोकार्पण के अवसर पर आयोजित कवि-गोष्टी में सर्वश्री नरेन्द्र राय, बलबीर सिंह, भँवरलाल उपाध्याय, कन्हैया लाल अग्रवाल, गोविन्द मिश्र, बी।एल।अग्रवाल स्नेही, सविता सोनी, उमा सोनी, ज्योति नारायण, अंबादास, प्रकाश कुमार सोनी आदि ने विभिन्न विधाओं की सामाजिक यथार्थ से युक्त कविताओं का पाठ किया। चर्चा-परिचर्चा में सर्वश्री प्रो। टी। मोहन सिंह, डॉ. राजकुमारी सिंह,डॉ. अहिल्या मिश्रा, सम्पत मुरारका, अशोक जालान, नर सिंह, राजेश मुरारका,राजेश निर्मल, शंकर मुरारका, कृष्ण कुमार सोनी, शिवकुमार राजौरिया,आशा देवी सोमाणी, श्रीनिवास सोमाणी आदि ने भी सक्रिय भूमिका निभाई।
कार्यक्रम का संचालन 'विश्वंभरा' के संरक्षक युवा कवि द्वारकाप्रसाद मायछ ने किया। बी बालाजी के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।

"वेदोदय-२०५०" ( इंग्लिश )



Purport:
There are certain things in life that have vicious character. Once we enter into it, we cannot come out of it. Consumption of meat and that of liquor are addictive in nature. On the first occasion, it is repulsive and a wise personoes by that instinct. But a foolish person goes against the God given instinct and pursues them. Then they become more powerful and trap you forever. Gambling and adultery are such acts too. A real strong person is one who can win over these vicious acts. Those who fall for one of these things (meat, liquor, gambling and adultery) are indeed the weakest lot. The Sanskrit word for meat is māmsa. It has an interesting origin; it's made of mām + sa, i.e. 'to me' and 'he/she'. What it means is that today I eat an animal's meat and then there will be a time when 'he/she' will consume 'me'. This is the law of the nature; call it Law of Karma or whatever. What I do today will definitely recoil on me in the future. Today I kill an animal and eat its meat and there will be a time when I will be killed (probably, in the next life) and this animal will eat me whom I have devoured today.


Where Do We Go Wrong?: We think that our Dharma is like other religions, representing certain acts to be performed in a place of worship. The Satya Sanātana Vedic Dharma is not such a narrow thing. It tells us how to lead the human life in a total sense. The Vedas have guidelines for every occasion of life. India's decline for the last five thousand years is primarily due to the attitude that dharma was ignored in more and more spheres of life. This is the time when meat consumption began in the country in a significant manner about three thousand years ago. Then Mahāvīra and Buddha came to remind us the true Indian tradition of ahimsā. Every Indian must sincerely improve his/her personality in a total sense – body, mind and soul included – good health and physique of the body, intelligent and balanced mind, and a sterling character of the soul with love and compassion towards all. We must set an example as individuals who have nothing to do with meat, liquor, gambling and adultery, as Vedas say.

वसंत पंचमी : निराला जयंती





रँग गई पग-पग धन्य धरा


वसंत-पंचमी: सरस्वती पूजन का दिन। सरस्वतीः सृजन की अधिष्ठात्री देवी।
वसंत बर्फ के पिघलने, गलने और अँखुओं के फूटने की ऋतु है। ऋतु नहीं, ऋतुराज। वसंत कामदेव का मित्र है। कामदेव ही तो सृजन को संभव बनाने वाला देवता है। अशरीरी होकर वह प्रकृति के कण कण में व्यापता है। वसंत उसे सरस अभिव्यक्ति प्रदान करता है। सरसता अगर कहीं किसी ठूँठ में भी दबी-छिपी हो, वसंत उसमें इतनी ऊर्जा भर देता है कि वह हरीतिमा बनकर फूट पड़ती है। वसंत उत्सव है संपूर्ण प्रकृति की प्राणवंत ऊर्जा के विस्फोट का। प्रतीक है सृजनात्मक शक्ति के उदग्र महास्फोट का। इसीलिए वसंत पंचमी सृजन की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा का दिन है।

हिंदी जाति के लिए वसंत पंचमी का और भी अधिक महत्व है। सरस्वती के समर्थ पुत्र महाकवि 'निराला' का जन्मदिन भी हम वसंत पंचमी को ही मनाते हैं। गंगा प्रसाद पांडेय ने 'निराला' को महाप्राण कहा है। उनमें अनादि और अनंत सृजनात्मक शक्ति मानो अपनी परिपूर्णता में प्रकट हुई थी। यह निराला की महाप्राणता ही है कि उन्होंने अपने नाम को ही नहीं, जन्मतिथि और जन्मवर्ष तक को संशोधित कर दिया। अपनी बेटी की मृत्यु पर लिखी कविता 'सरोज स्मृति' में एक स्थान पर उन्होंने भाग्य के लेख को बदलने की अपनी ज़िद्द का उल्लेख किया है। सचमुच उन्होंने ऐसा कर दिखाया। यह महाकवि की महाप्राणता नहीं तो और क्या है?
महाप्राण निराला का जन्म यों तो माघ शुक्ल एकादशी, संवत् १९५५ तदनुसार इक्कीस फरवरी १८९९ ई. को हुआ था, लेकिन उन्होंने अपने निश्चय द्वारा वसंत पंचमी को अपना जन्म दिन घोषित किया। हुआ यों कि गंगा पुस्तकमाला के प्रकाशक दुलारे लाल भार्गव ने सन् १९३० ई. में वसंत पंचमी के दिन गंगा पुस्तकमाला का महोत्सव और अपना जन्मदिन मनाया। इस अवसर पर निराला ने उनका परिचय देते हुए निबंध पढ़ा। डॉ.रामविलास शर्मा बताते हैं कि "उन्होंने देखा कि दुलारेलाल भार्गव वसंत पंचमी को अपना जन्मदिवस मनाते हैं। उन्होंने निश्चय किया कि वह भी वसंत पंचमी को ही पैदा हुए थे। वसंत पंचमी सरस्वती पूजा का दिन, निराला सरस्वती के वरद् पुत्र, वसंत पंचमी को न पैदा होते तो कब पैदा होते? नामकरण संस्कार से लेकर जन्मदिवस तक निराला ने अपना जन्मपत्र नए सिरे से लिख डाला।"
निराला की आराध्य देवी है सरस्वती और प्रिय ऋतु है वसंत। वसंत को प्रेम करने का अर्थ है सौंदर्य को प्रेम करना। सरस्वती की आराधना का अर्थ है रस की आराधना। निराला की कविता इसी सौंदर्यानुभूति और रस की आराधना की कविता है। सृष्टि के कण-कण में छिपी आग वसंत में रंग-बिरंगे फूलों के रूप में चटख-चटख कर खिल उठती है। कान्यकुब्ज कॉलिज, लखनऊ के छात्रों ने एक बार उन्हें दोने में बेले की कलियाँ भेंट दी थीं; निराला ने अपनी कविता 'वनवेला' उन्हें भेंट कर दी। उन्हें सुगंधित पुष्प बहुत प्रिय थे। रंग और गंध की उनकी चेतना उन्हें अग्नि तत्व और पृथ्वी तत्व का कवि बनाती है। वे पृथ्वी की आग के कवि हैं तथा वसंत पंचमी पृथ्वी की इस आग के सरस्वती के माध्यम से आवाहन का त्योहार। वसंत अपने पूरे रंग वैभव के साथ उनके गीतों में उतरता है-प्रिय पत्नी मनोहरा की स्मृति भी जगमग करती जाग उठती है। रंग और गंध की मादकता तरु के उर को चीरकर कलियों की तरुणाई के रूप में दिग्-दिगंत में व्यापने लगती है -
"रँग गई पग-पग धन्य धरा -
हुई जग जगमग मनोहरा।
वर्ण गंध धर,
मधु-मकरंद भर
तरु उर की अरुणिमा तरुणतर
खुली रूप कलियों में पर भर
स्तर-स्तर सुपरिसरा।"
कवि को लगता है कि कला की देवी ने कानन भर में अपनी कूची इस तरह फूलों के चेहरों पर फिरा दी है कि सब ओर रंग फूटे पड़ रहे हैं -
"फूटे रंग वासंती, गुलाबी,
लाल पलास, लिए सुख, स्वाबी,
नील, श्वेत शतदल सर के जल,
चमके हैं केशर पंचानन में।"

रंगों की बरात लिए वसंत आता है तो आनंद से सारा परिवेश सराबोर हो उठता है।
वसंत और कामदेव का संबंध शिव के साथ भी है। शिव काम को भस्म भी करते हैं और पुनर्जीवन भी देते हैं। शिव पुरुष भी हैं और स्त्री भी। निराला भी अर्धनारीश्वर हैं। उनमें एक ओर पुरुषत्व के अनुरूप रूपासक्ति और आक्रामकता थी तो दूसरी ओर नारीत्व के अनुरूप आत्मरति तथा समर्पण की प्रबल भावना भी थी। वे सड़क पर कुर्ता उतारकर अपना बलिष्ठ शरीर प्रदर्शित करते हुए चल सकते थे तो सुंदर बड़ी-बड़ी आँखों और लहरियादार बालों से उभरती अपनी 'फेमिनिन ग्रेसेज' पर खुद ही मुग्ध भी हो सकते थे। यही कारण है कि वसंत की कुछ कविताओं में वे स्त्रीरूप में भी सामने आते हैं -
"सखि, वसंत आया।
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु पतिका
मधुप-वृंद बंदी
पिक-स्वर नभ सरसाया।"
वसंत का यह हर्षोंल्लास संक्रामक है। प्रकृति से प्राणों तक तनिक-सा छू ले, तो फैलता जाता है। कुंज-कुंज कोयल की कूक से पगला जाता है। सघन हरियाली काँप-काँप जाती है। प्राणों की गुफा में अनहद नाद बज उठता है। रक्त संचार में रसानुभूति का आवेग समा जाता है। यह सब घटित होता है केवल स्वर की मादकता के प्रताप से -
"कुंज-कुंज कोयल बोली है,
स्वर की मादकता घोली है।"
यही मादकता तो 'जुही की कली' की गहरी नींद का सबब है। वासंती निशा में यौवन की मदिरा पीकर सोती मतवाली प्रिया को मलयानिल रूपी निर्दय नायक निपट निठुराई करके आखिर जगा ही लेता है-
"सुंदर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिए गोरे कपोल गोल ;
चौंक पड़ी युवती
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्रमुख हँसी-खिली
खेल रंग प्यारे-संग।"
कबीर हों या नानक, सूर हों या मीरा - सबने किसी न किसी रूप में जुही की कली और मलयानिल की इस प्रेम-क्रीड़ा को अपने मन की आँखों से देखा है। भक्ति और अध्यात्म का मार्ग भी तो इसी प्रकृति पर्व से होकर जाता है। तब प्रियतम और वसंत-बहार में अद्वैत घटित होता है -
"आए पलक पर प्राण कि
वंदनवार बने तुम।
उमड़े हो कंठ के गान
गले के हार बने तुम।
देह की माया की जोती,
जीभ की सीपी की मोती,
छन-छन और उदोत,
बसंत-बहार बने तुम।"
यह वसंत-बहार हँसने, मिलने, मुग्ध होने, सुध-बुध खोने, सिंगार करने, सजने-सँवरने, रीझने-रिझाने और प्यार करने के लिए ही तो आती है। निराला इस ऋतु में नवीनता से आँखें लडाते हैं -
"हँसी के तार के होते हैं ये बहार के दिन।
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन।
निगह रुकी कि केशरों की वेशिनी ने कहा,
सुगंध-भार के होते हैं ये बहार के दिन।
कहीं की बैठी हुई तितली पर जो आँख गई,
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन।
हवा चली, गले खुशबू लगी कि वे बोले,
समीर-सार के होते हैं ये बहार के दिन।
नवीनता की आँखें चार जो हुईं उनसे,
कहा कि प्यार के होते हैं ये बहार के दिन।"
इस वसंत-बहार का ही यह असर है कि कवि को बाहर कर दिए जाने का तनिक मलाल नहीं। कोई सोचे तो सोचा करे कि कवि को देस-बदर कर दिया या साहित्य से ही बेदखल कर दिया। पर उसे यह कहाँ मालूम कि भीतर जो वसंत की आग भरी है, वह तो कहीं भी रंग-बिरंगे फूल खिलाएगी ही। इस आग से वेदना की बर्फ जब पिघलती है तो संवेदना की नदी बन जाती है। चमत्कार तो इस आग का यह है कि सख्त तने के ऊपर नर्म कली प्रस्फुटित हो उठती है। कठोरता पर कोमलता की विजय; या कहें हृदयहीनता पर सहृदयता की विजय -
"बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
भीतर, पर भर दिया गया हूँ।
ऊपर वह बर्फ गली है,
नीचे यह नदी चली है,
सख्त तने के ऊपर नर्म कली है;
इसी तरह हर दिया गया हूँ।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।"
जब सख्त तने पर नर्म कली खिलती है तो उसकी गंध देश-काल के पार जाती है -
"टूटें सकल बंध
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गंध।"
और तब किसी नर्गिस को खुद को बेनूर मानकर रोना नहीं पड़ता। वसंत की हवा बहती है तो नर्गिस की मंद सुगंध पृथ्वी भर पर छा जाती है। ऐसे में कवि को पृथ्वी पर स्वर्गिक अनुभूति होती है, क्योंकि-
"युवती धरा का यह था भरा वसंतकाल,
हरे-भरे स्तनों पर खड़ी कलियों की माल।
सौरभ से दिक्कुमारियों का तन सींच कर,
बहता है पवन प्रसन्न तन खींच कर।"
वसंत अकुंठ भाव से तन-मन को प्यार से खींचने और सींचने की ऋतु है न! रस-सिंचन का प्रभाव यह है कि -
"फिर बेले में कलियाँ आईं।
डालों की अलियाँ मुस्काईं।
सींचे बिना रहे जो जीते,
स्फीत हुए सहसा रस पीते
नस-नस दौड़ गई हैं खुशियाँ
नैहर की कलियाँ लहराई।"
इसीलिए कवि वसंत की परी का आवाहन करता है -
"आओ; आओ फिर, मेरे वसंत की परी छवि - विभावरी,
सिहरो, स्वर से भर-भर अंबर की सुंदरी छवि-विभावरी!"
वसंत की यह परी पहले तो मनोहरा देवी के रूप में निराला के जीवन में आई थी और फिर सरोज के रूप में आई। सौंदर्य का उदात्ततम स्वरूप 'सरोज-स्मृति' में वसंत के ही माध्यम से साकार हुआ है -
"देखा मैंने, वह मूर्ति धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
श्रृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित धार
गाया स्वर्गीय प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग - रंग,
रति रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही।"
इतना ही नहीं, राम और सीता का प्रथम मिलन भी इसी ऋतु में संभव हुआ -
"काँपते हुए किसलय, झरते पराग-समुदाय,
गाते खग-नव जीवन परिचय, तरु मलयवलय।"
वसंत का यह औदात्य निराला की कविता 'तुलसीदास' में रत्नावली को शारदा (सरस्वती) बना देता है।
निराला वसंत के अग्रदूत महाकवि हैं। वसंत की देवी सरस्वती का स्तवन उनकी कविता में बार-बार किया गया है। वे सरस्वती और मधुऋतु को सदा एक साथ देखते हैं-
"अनगिनत आ गए शरण में जन, जननि,
सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि।"
निराला अपनी प्रसिद्ध 'वंदना' में वीणावादिनी देवी सरस्वती से भारत में स्वतंत्रता का संस्कार माँगते हैं। वे मनुष्य ही नहीं, कविता की भी मुक्ति चाहने वाले रचनाकार हैं। यह मुक्ति नवता के उन्मेष से जुड़ी है। वसंत और सरस्वती दोनों ही नवनवोन्मेष के प्रतीक हैं -
"नव गति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर नव स्वर दे!"
सरस्वती को निराला भारत की अधिष्ठात्री देवी मानते हैं। वे मातृभूमि और मातृभाषा को सरस्वती के माध्यम से प्रणाम करते हैं -
"जननि, जनक-जननि जननि,
जन्मभूमि - भाषे।
जागो, नव अंबर-भर
ज्योतिस्तर-वासे!"
यह देवी 'ज्योतिस्तरणा' है जिसके चरणों में रहकर कवि ने अंतर्ज्ञान प्राप्त किया है और यही देवी भारतमाता है जिसके चरण-युगल को गर्जितोर्मि सागर जल धोता है -"भारति, जय, विजय करे।
कनक-शस्य-कमलधरे।"
कनक-शस्य-कमल को धारण करने वाली यह देवी शारदा जब वर प्रदान करती है तो वसंत की माला धारण करती है -
"वरद हुई शारदा जी हमारी
पहनी वसंत की माला सँवारी।"
वसंत की माला पहनने वाली यही देवी नर को नरक त्रास से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। सरस्वती धरा पर वसंत का संचार कर दे तो 'जर्जर मानवमन, को स्वर्गिक आनंद मिल जाए। बस, चितवन में चारु-चयन लाने भर की देर है -
"माँ, अपने आलोक निखारो,
नर को नरक त्रास से वारो।
पल्लव में रस, सुरभि सुमन में,
फल में दल, कलरव उपवन में,
लाओ चारु-चयन चितवन में
स्वर्ग धरा के कर तुम धारो।"
जब धरती को सरस्वती की चारु-चयन-चितवन मिलती है तो पार्थिवता में अपार्थिवता का अवतार होता है-
"अमरण भर वरण-गान
वन-वन उपवन-उपवन
जागी छवि खुले प्राण।"
वसंत ने जो अमर संगीत सारी सृष्टि में भर दिया है, उसके माध्यम से साकार होने वाली कला और सौंदर्य की देवी ने कवि के प्राणों को इस प्रकार बंधनमुक्त कर दिया है कि उसमें महाप्राणता जाग उठी है। निराला की महाप्राणता का स्रोत वसंत की अनंतता के प्रति उनके परम-विश्वास में ही निहित है -
"अभी न होगा मेरा अंत
अभी-अभी ही तो आया
मेरे वन में मृदुल वसंत -
अभी न होगा मेरा अंत।"


-ऋषभ देव शर्मा
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