पॉली बेकर की गवाही : बेन्जमिन फ़्रेंकलिन

पॉली बेकर की गवाही
मूल : बेन्जमिन फ़्रेंकलिन
अनुवाद : चंद्र मौलेश्वर प्रसाद



[बेन्जमिन फ्रेंकलिन (१७०६-९०) एक बहुप्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वे एक लेखक, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, प्रकाशक, आविष्कारक एवं पर्यावरणविद थे। १८वी शताब्दी की अमेरिकी क्रान्ति में उनका बडा़ योगदान रहा। इस क्रान्ति में उन्होंने फ्रांस के सहयोग से अमेरिका को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। परिणामस्वरूप तेरह राज्यों के संगठन से अमेरिकी संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई और सन १७७६ में अमेरिका को ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी मिली। आविष्कारक के रूप में विद्युत रॉड, बायफोकल, लौह भट्टी स्टोव और आर्मोनिका वाद्य यंत्र उनकी कुछ उपलब्धियां हैं। लेखक और प्रकाशक के रूप में उनकी ख्याति ‘पूअर रिचर्ड अल्मनाक’ और ‘पेन्सिल्वानिया गज़ेट’ से प्रारंभ हुई। उनकी लघुकथा ‘द स्पीच ऑफ़ पॉली बेकर’ का अनुवाद प्रस्तुत है।]


पॉली बेकर ने अमेरिकी अदालत के कठघरे में पाँचवीं बार अपने पाँचवें नाजायज़ बच्चे को जन्म देने के अपराध के लिए अपना बयान यूँ दिया:---

"मैं इस सम्मानित बेंच के सामने कुछ शब्द कहने की धृष्ठता कर रही हूँ। मैं एक गरीब और किस्मत की मारी नारी हूँ, जिसके पास वकील की फीस के लिए भी पैसे नहीं हैं। मैं यहां पर अपनी गरीबी और तंगहाली का बयान नहीं करूंगी और न ही कोई लम्बी तकरीर करके कोर्ट का समय बरबाद करूंगी। मैं जानती हूँ कि मेरी तकरीर से न कानून का फैसला बदलेगा और न ही मेरी तकदीर का। मेरी नम्र प्रार्थना यही है कि न्यायाधीश ही सरकार से अनुरोध करें कि मुझ पर लगने वाले जुर्माने की रकम वह अदा कर दें।


"आदरणीय, मुझे पाचवीं बार इसी जुर्म के लिए अदालत में घसीटा गया है। पहले दो बार मैंने जुर्माने की भारी रकम अपनी जमापूंजी में से देकर छुटकारा पा लिया। पिछले दो जुर्मानों का भुगतान न करने के कारण मुझे सार्वजनिक सजा की ग्लानि झेलनी पडी़ थी।


"ये जुर्माने न्यायिक प्रावधानों के अंतर्गत तर्कसंगत हो सकते हैं, परंतु कभी-कभी प्रावधान भी न्यायोच्चित नहीं होते और इन्हें रद्द करना पड़ता है। इसीलिए कानून बदले भी जाते हैं और जब तक ऐसे कानून नहीं बदले जाते, तब तक उन लोगों को इस अन्याय का परिणाम भुगतना पड़ता है। मैं समझती हूं कि यह कानून, जिसके अंतर्गत मुझे सज़ा मिल रही है, वह तर्कसंगत न होने के साथ-साथ मुझ जैसी स्त्रियों के लिए सख्त भी है, जो समाज के उस तबके में पैदा हुए जहां गरीबी का राज है और किसी भी अन्याय का प्रतिरोध नहीं किया जाता और न ही किसी पुरुष, महिला या बच्चे पर हो रहे अन्याय का।


"मैंने पांच सुंदर बच्चों को जन्म दिया। मैं नहीं जानती, ऐसा कौन सा कानून है, जो इन्हें रोक सके। मैंने अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों से संघर्ष करके इनका लालन-पालन किया। इस जिम्मेदारी को और अच्छी तरह निभा पाती, यदि मुझ पर मोटी रकम का जुर्माना न लगाया जाता - यह जुर्माना जो मेरे जीवन की पूरी बचत लील गया। क्या यह गुनाह है कि हम इस देश में बच्चों को जन्म दें जहां आबादी की कमी है और अधिक लोगों की जरूरत है? मैं समझती हूं कि इस कृत्य की सराहना होनी चाहिए न कि सज़ा! मैंने किसी महिला का पति नहीं छीना, न किसी नवयुवक को कामुक प्रेरणा दी और न ही किसी ने मेरे खिलाफ़ कोई व्याभिचार का मामला दर्ज कराया। मेरा जुर्म है, तो केवल इतना कि मैंने बिना विवाह किए बच्चे को जन्म दिया, परंतु इसमें मेरी क्या गलती है? मैं हमेशा चाहती थी और अब भी चाहती हूं कि मेरा भी विवाह हो, मेरा भी घर-परिवार हो, क्योंकि मुझमें एक सुघड़ गृहणी के सभी गुण हैं। मैंने कभी भी किसी से भी विवाह के लिए इन्कार नहीं किया, बल्कि जब भी किसी ने मुझसे विवाह की पेशकश की तो उसे सहर्ष स्वीकार किया और उस व्यक्ति की ईमान्दारी पर भरोसा करके अपने आपको समर्पित कर दिया। उसका परिणाम यह है कि उस समर्पण की सज़ा मुझे भुगतनी पड़ रही है।



"वह व्यक्ति आज न्यायविद बनकर इस देश के न्यायालय में बैठा है। मैं समझती थी कि न्याय की खातिर वह इस न्यायालय में आएगा और मेरा बचाव करेगा, परंतु आज मुझे न्यायविद के शोषण और धोखाधडी़ के खिलाफ आवाज़ उठानी पडी़। मैं यहां उसके किए की सज़ा भुगतने खडी़ हूं और वह सरकारी अधिकार के मद में चूर न्यायपीठ पर बैठा है। यह तो ऐसा ही हुआ कि चोर के हाथ में तिजोरी की चाबी हो! यदि शादी एक धार्मिक संस्कार है और मैंने धार्मिक उल्लंघन किया है, तो इसकी सज़ा मुझे धर्म देगा। मुझे स्वर्ग नहीं, नर्क भोगना होगा तो वह मैं भोग लूंगी। क्या इतनी सज़ा काफी नहीं है जो मुझे इस न्यायालय की सज़ा भी भुगतनी पडॆगी? लेकिन मैं यह कैसे मान लूं कि ईश्वर मुझसे नाराज़ है कि मैंने इन बच्चों को जन्म दिया। यह तो परमात्मा की ही देन है, उन्हीं के हस्तशिल्प का करिश्मा है ये सुंदर बच्चे, जिनके शरीर में अनश्वर आत्मा फूंकी है उसने।


"क्षमा करें महानुभाव, मैं भावावेश में बह गई, मैं कोई आध्यात्मिक ज्ञाता नहीं हूं और न ही कोई कानूनविद्‌। आप लोग तो कानून बनाने वाले, कानून जानने वाले हैं, आप तो प्रकृति के इस न्याय को अन्याय का दर्जा न दें। ज़रा सोचिये, आज कितने नवयुवक है, जो परिवार का बोझ नहीं सम्भाल सकते, इसके कारण विवाह नहीं करते, ऐसी कितनी महिलाएं हैं, जो अपनी आर्थिक परिस्थितियों के कारण गर्भपात कराती होंगी [जो किसी हत्या से कम नहीं]। क्या इनका जुर्म मेरे जुर्म से बडा़ नहीं, जो आनेवाली पीढी़ को बढ़ने से रोक रहे हैं....वह भी इस देश में, जहां अधिक आबादी की आवश्यकता है। ऐसी महिलाएं क्या करें, जिन्हें पुरुष भोगना तो चाहते हैं, परंतु परिवार के बंधन में नहीं बधना चाहते? क्या यह कानून के विरुद्ध नहीं है और क्या ऐसे पुरुषों पर अधिक जुर्माना नहीं लगना चाहिए? यदि सभी पुरुष ब्याह करे तो ईश्वर का यह निर्देश ‘बडो़ और बढाओ’ पूरा होगा। स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक होकर वृद्धि करेंगे और समाज बढे़गा।


"मैंने अपना प्राकृतिक धर्म निभाया है और इसके लिए मुझे कानूनी व सामाजिक द्ण्ड भी मिला है। इसका पुरस्कार तो मुझे मिलना ही चाहिए और इससे अच्छा पुरस्कार क्या होगा कि मुझ पर जुर्माना लगाने की बजाय मेरी स्मृति में मेरी एक प्रतिमा स्थापित की जाए!"

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पता चला कि दूसरे ही दिन एक न्यायविद ने पॉली से शादी कर ली और अब वह पंद्रह बच्चों की माँ है। यह पता नहीं चल पाया कि इनमें वो पांच बच्चे भी शामिल है या नहीं....


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1 टिप्पणी:

  1. ५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. मन प्रफुल्लित है और आपको पढ़ना सुखद. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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