स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ) - भाग 2



गतांक से आगे 



ऐतिहासिक महत्व का आँखे खोल देने वाला अत्यंत विचारोत्तेजक लेख, जिसे हिन्दी के प्रत्येक आधुनिक अकादमिक को तो अवश्य पढ़ना ही चाहिए, साथ ही हिंदीतर क्षेत्रों में हिन्दी की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए व उसकी तुलना में हिन्दी के नाम पर सर्वत्र व्याप्त धंधेबाजी में डूबे तथाकथित हिंदीवालों के मूल्यांकन के लिए भी इस लेख का पढ़ना अनिवार्यतम है।
-  क.वा.
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स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ)

गतांक से आगे 

- प्रो. दिलीप सिंह 


स्वतंत्रता के आंदोलन में खादी और स्वदेशी की तरह ही कौमी ज़बान की आवाज ने भी जन-जन को आंदोलित कर दिया था। स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं के इतिहास में यह सभी कुछ तफ़्सील से दर्ज है। इस तरह की संस्थाओं के लिए यह प्रश्न उठाना कि अब इनकी क्या जरूरत है, आज के प्रबुद्ध वर्ग के दिमागी दिवालियेपन की निशानी ही माना जाएगा। 


राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक उत्थान और सामाजिक जागरण आज भी राष्ट्रीय स्तर पर ज्वलंत मुद्दे हैं। इनकी सिद्धि में हिंदी भाषा की भूमिका अब और भी प्रबल बन कर उभर रही है। इन बातों को दुहराने की जरूरत नहीं है। बस इतना ही कहना है कि इन तीनेां के लिए जितना प्रयास और संघर्ष ; अनेकानेक प्रकार की कठिनाइयों और अड़चनों के रहते हुए भी; इन संस्थाओं ने किया है - इनकी संभाल की है - इन्हें संभव बनाया है, उसकी कोई और मिसाल नहीं दी जा सकती। किसी संस्थागत ढाँचे का आदर्श स्वरूप उसके राष्ट्रीय, वैश्विक और प्रगतिशील दृष्टिकोण के मद्देनजर ही रचा और परखा जाता है। स्वतत्रंता के पहले यह दृष्टिकोण राष्ट्रीय, भावात्मक एवं सांस्कृतिक एकता को केंद्र में रख कर विकास पा रहा था और आज उसके दृष्टिकोण भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रिएंबल) में निहित ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ वाले सूत्र से प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं। इन संस्थाओं पर आक्षेप करने वाले चाहे संविधान के भाग 4 क में उल्लिखित नागरिक कर्तव्यों को बिसरा चुके हों पर ये संस्थाएँ इन दस कर्तव्यों में से तीन (ख, ग, च) का पालन इन्हें अपनी सामूहिक जिम्मेदारी मान कर करती चली आ रही हैं - 



(ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे ; 


(ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे ; 


(च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परीक्षण करे। 



कहना यह है कि भारतीय भाषाओं की अस्मिता को राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए, भारत की सामासिक संस्कृति को भाषायी एकता के लिए तथा राष्ट्रीय आंदोलन की गांधीवादी चेतना को भारतीय मूल्यों के प्रसार के लिए अपने भीतर आत्मसात कर लिया है, इन संस्थाओं ने। राष्ट्रीय अखंडता, सामासिक संस्कृति का अनुरक्षण, भाषायी एकता, गांधीवादी चिंतन, भारतीय मूल्य आदि इनके लिए फैशन या नारेबाजी के विषय नहीं है, ये सभी इन संस्थाओं के व्यक्तित्व, इनकी प्रकृति में जज़्ब तत्व हैं। इन संस्थाओं के प्राण-तत्व हैं। यहाँ एक दृष्टांत पर्याप्त होगा कि हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी के द्वंद्व के, जो बेशक उपनिवेशवादी विकृत मस्तिष्क के षड्यंत्र का नतीजा था, इन संस्थाओं ने ही समाधान ढूँढ़े और निकाले। 



इसमें कोई संदेह नहीं और यह आलोचना अथवा शर्मिंदगी का बायस नहीं कि हिंदी संस्थाओं के लक्ष्य और उद्देश्य दोनों ही कहीं-न-कहीं भावनाओं से प्रेरित रहे हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि भाषा, समाज और संस्कृति के प्रश्न स्वतः ही भावना से आ जुड़ते हैं। हिंदी भाषा - यह तो भावनाओं के उद्वेलन के हमेशा केंद्र में रही है। अपनी जोड़ने की मूल प्रकृति के बावजूद यह तोड़ने का साधन भी बनाई जाती रही है। मैंने अभी हिंदी-उर्दू द्वंद्व की बात की। इसी तरह ब्रज बनाम खड़ी बोली हिंदी, भारतीय भाषाएँ बनाम हिंदी और हिंदी बनाम अंग्रेजी का द्वंद्व खड़ा करके और आम जन की भावनाओं को भड़का कर हिंदी भाषा के स्वाभाविक विकास को कितने आघात लगे, लिखने-बताने की आवश्यकता नहीं है। यदि कहना ही चाहें तो हिंदी अस्मिता चोटिल हुई, कई भारतीय भाषाएँ अकारण हिंदी के विरोध में खड़ी दिखाई देने लगीं, देश बँट गया, ‘हिंदी न लादो’ आंदोलन हिंसक तांडव करने लगा। कहना न होगा कि हिंदी की पहचान को कायम रखने का, बँटवारे के दर्द को बाँटने का और हिंदी विरोधी आंदोलनों को क्रमश: हिंदी सौहार्द में बदलने का काम भी इन्हीं हिंदी संस्थाओं ने किया है, और आज भी कर रही हैं। 



इस चर्चा के बाद भी यदि कोई ‘बुद्धि संपन्न’ व्यक्ति इन संस्थाओं की उपयोगिता या प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाता है तो उससे यह पूछना पड़ेगा कि ये प्रश्न तो तभी उठ सकते हैं जब कोई व्यक्ति या संस्था जनता या राष्ट्र के लिए अनुपयोगी या अप्रासंगिक सिद्ध हो चुकी हो। फिर प्रतिप्रश्न यह भी उठता है कि किस दृष्टि से उपयोगी-अनुपयोगी। किस नजरिए से प्रासंगिक-अप्रासंगिक। जनहित और राष्ट्रहित जिन संस्थाओं का आदर्श हो तथा भारतीय भाषाओं के बीच आदान-प्रदान की परंपरा को सुरक्षित रखते हुए राष्ट्रीय एकता की स्थापना जिनका लक्ष्य - उनके लिए हर तरह के प्रश्नचिह्न बचकाने और बे-खयाल ज़हन का ही परिणाम माने जाएंगे। वैसे क्या कहा जाय। हम सभी जान-देख-सुन और पढ़ रहे हैं कि तुलसी और प्रेमचंद ही नहीं, कुछ समय से महात्मा गांधी की प्रासंगिकता पर चर्चा करने को भी प्रबुद्धजनों की एक बड़ी जमात लालायित दिखाई देने लगी है। 



हिंदी भले ही अखिल भारतीय भाषा न हो या न मानी जाय। कोई चाहे तो उसे भारत की प्रमुख संपर्क भाषा भी न माने। एक वर्ग विशेष अपने हठ के चलते चाहे अंग्रेजी को भारत की संपर्क भाषा मनवाने पर तुला हो। पर अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी भाषा के सर्वाधिक प्रचलन से कोई इनकार नहीं कर सकता। नकारा इस तथ्य को भी नहीं जा सकता कि भारत की प्रमुख भाषा के रूप में ही वैश्विक स्तर पर हिंदी के पठन-पाठन को महत्व दिया जा रहा है। हिंदी के प्रचलन में मीडिया और हिंदी फिल्मों के योगदान का जिक्र तो हम बढ़-चढ़ कर करते हैं पर हिंदी की स्वैच्छिक संस्थाओं का इस संदर्भ में कोई नाम भी नहीं लेता; लेना चाहिए। और स-तर्क लेना चाहिए। इसमें क्या संदेह कि हिंदीतर भाषा भाषी क्षेत्रों में हिंदी को सहेजने तथा इसके प्रचार-प्रसार का कार्य ये संस्थाएँ बरसों से कर रही हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन की पहल करने में भी हिंदी की एक स्वैच्छिक संस्था ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा’ आगे आई। मैं अपनी संस्था की बात करूँ तो देश-विदेश के शोध-छात्र हमसे संपर्क करने आते हें। हमारे पुस्तकालय का उपयोग करते हैं। हमारे पदाधिकारियों - अध्यापकों से बातचीत रिकार्ड करते हैं। कुछ ही माह पहले जर्मनी से एक शोध-छात्रा चेन्नई आई थी। वह गांधी चिंतन पर काम करते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के जरिए हिंदी आंदोलन के राजनैतिक पहलुओं की पड़ताल करना चाहती थी। वह छात्रा जर्मनी से हिंदी सीख कर भारत आई थी। उसके पास सभा से संबंधित ढेरों जानकारियाँ थीं। हमारी प्रकाशित सामग्री देख कर वह हतप्रभ हो गई थी। यहाँ भारत में किसे पड़ी है कि वह हमारी पत्रिकाएँ पढ़े। किसकी रुचि हमारी पत्रिकाओं की पुरानी फाइलों में है। कितने लोगों ने देखी होंगी हमारी रजत जयंती, स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित स्मारिकाएँ। वास्तव में यही वे लोग हैं जिनके मन में हिंदी की इन संस्थाओं को लेकर गुबार उठते रहते हैं। 



अब मैं बात दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की करना चाहूँगा क्योंकि तीस वर्षों से मैं इस संस्था के विभिन्न पदों पर सेवा करता आ रहा हूँ। मेरे देखते-देखते दक्षिण भारत में इस संस्था का प्रसार कई गुना बढ़ा है। हिंदी पढ़ने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह संख्या लाखों में पहुँच चुकी है। स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन मिला है। बच्चे-किशोर हिंदी पढ़ने में रुचि दिखा रहे हैं। हिंदी शिक्षण के द्वारा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने सर्व-शिक्षा की धारणा को पुष्ट किया है। हिंदी के माध्यम से भारत की छवि प्रतिबिंबित करने में सभा की पाठ्यपुस्तकों ने मानदंड स्थापित किया है। सभा के प्रकाशन भारतीय भाषाओं के आपसी तालमेल और परस्पर अनुवाद की परंपरा को साक्षात करने वाले हैं। 1964 में स्थापित सभा का विश्वविद्यालय विभाग (उच्च शिक्षा और शोध संस्थान) अपनी नवोन्मेषी दृष्टि के कारण सराहना का पात्र बना है। रोजगारपरक (प्रयोजनमूलक) हिंदी के पाठ्यक्रमों को इसने सबसे पहले एम.ए. स्तर पर प्रारंभ किया। शोध कार्य को नई दिशा दी – व्यतिरेकी भाषा अध्ययन, तुलनात्मक साहित्य, अनुवाद: समीक्षा और मूल्यांकन, हिंदी भाषा का समाजभाषिक - शैलीवैज्ञानिक विश्लेषण आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर शोध कार्य करवा कर संस्थान ने दक्षिण भारत में अपनी अलग पहचान बनाई है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा आधुनिक प्रौद्योगिकी का सही इस्तेमाल करके अपनी कार्य प्रणाली को सक्षम बनाने में भी पीछे नहीं रही है। और सबसे बड़ी बात यह कि इस संस्था ने शिक्षा के भारतीय स्वरूप को सुरक्षित रखा है। और इससे भी बड़ी बात यह कि यहाँ हिंदी शिक्षण ने जाति-धर्म, ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष का भेद मिटा दिया है। सभा के कार्यकर्ताओं में और विद्यार्थियों में भी स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक है। गांधी जी राष्ट्रभाषा हिंदी के महत्व की बात करते समय दक्षिण भारत की स्त्रियों से हिंदी सीखने की विषेष अपील किया करते थे। उनका मानना था कि यदि एक महिला हिंदी सीखेगी तो उसका पूरा परिवार हिंदी के निकट आएगा। लगता है गांधी जी की अपील आज भी दक्षिण भारत की महिलाओं को, लड़कियों को कहीं से प्रेरित करती आ रही है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के महत् कार्य की बात करते समय यह कहना जरूरी लगता है कि इसने उत्तर-दक्षिण के बीच एक मज़बूत सेतु निर्माण का बीड़ा उठा रखा है। यह संस्था दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार का जितना और जैसा काम कर रही है वह निश्चित ही कई सरकारी हिंदी संस्थाएँ मिल कर भी नहीं कर सकतीं। 



कमोबेश हिंदी की सभी संस्थाएँ, खासकर हिंदीतर क्षेत्रों में ; इसी तरह राष्ट्रीय हित में काम कर रही हैं - भाषाओं को जोड़ने का, लोगों को जोड़ने का, देश को जोड़ने का। पर आँखों में खून के आँसू आ जाते हैं इनकी आर्थिक विपन्नता देख कर। आर्थिक सहायता के नाम पर सरकार कुछ ठीकरे इनके सामने फेंक देती है। क्या आप विश्वास करेंगे कि जो हिंदी अध्यापक (प्रचारक) गाँव-गाँव में हिंदी शिक्षण की अलख जगाता है उसे एक हजार रुपये माहवार दिए जाते हैं। जो कार्यकर्ता रात-दिन काम करते हैं, उनका वेतन भी कुछ हज़ार से ज़्यादा नहीं है। जिस विश्वविद्यालय विभाग की चर्चा की गई उसके प्राध्यापकों के लिए आठ हजार, रीडर के लिए बारह हजार और प्रोफेसर के लिए सोलह हजार का अनुदान भारत सरकार प्रदान करती है। इस प्रकार की विपन्नता की स्थिति में भी हिंदी भाषा के लिए विस्तीर्ण कार्य दक्षिण भारत में किया जा रहा है। क्यों उपेक्षा की जा रही है, समझ में नहीं आता। आप देखिए कि कुछ ही बरसों पहले पनपी अन्य हिंदी संस्थाओं और हिंदी के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय को किस तरह सर आंखों पर बैठाए हुए है सरकार। स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं की दयनीय दशा देख कर कभी-कभी यह सोचने के लिए भी मजबूर होना पड़ता है कि हिंदीतर भाषाभाषी प्रांतों में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार और विकास करने का बीड़ा उठाने की सज़ा तो इन संस्थाओं को नहीं दी जा रही है! इन संस्थाओं की ओर सभी पीठ फेरे बैठे हैं। चाहे वे हिंदी के पुरोधा हों, चाहे साहित्य-संस्कृति के अलमबरदार या फिर राष्ट्रीय जनप्रतिनिधि। 



आफ़रीन है इन संस्थाओं को और इनके कार्यकर्ताओं को जो अपनी धुन में हिंदी के लिए निछावर होने का व्रत साधे हुए हैं। जिन्हें आँधी, पानी की कोई परवाह नहीं। गांधी का नाम इनकी ज़बान पर है और बापू के सपने इनकी आँखों में। ये संस्थाएँ धनधान्य में खेलने की न तो इच्छा रखती हैं और न ही इसके लिए हाथ-पैर पटकती हैं। ये अपनी दाल-रोटी में खुश हैं। इन्हें रंज अपनी उपेक्षा का है। जिन्हें देश भर की भरपूर सराहना मिलनी चाहिए थी वे संस्थाएँ तानों और शिकायतों का सामना कर रही हैं। पिछड़ा मान कर इनकी अवहेलना की जा रही है। निश्चित ही बाहरी चमक-दमक का इन संस्थाओं में अभाव है। यहाँ न तो चमचमाते भवन हैं और न ही पाँच सितारा होटलनुमा अतिथि गृह। गांधी की सादगी इनकी आत्मा में बसी है। ये अपना श्रम जानती हैं। श्रम का मूल्य पहचानती हैं। पकी फसल खाने की इनकी आदत नहीं है। इन्होंने हिंदी की ज़मीन गोड़ी और रोपी है कि फसल आने वाली पीढ़ियों को मिल सके। पर अफ़सोस कि इनके कार्यकर्ताओं के पेट जल रहे हैं। 



जो आधुनिक हैं, ‘हिंदी-सेवा’ कर के संपन्न हैं, देश-विदेश में जिन्होंने हिंदी की दुकानें खोल रखी हैं, उनके लिए ये संस्थाएँ दरिद्र हिंदी प्रचारकों की एक भटकी हुई जमात से अधिक कुछ नहीं। ये जब कभी कृपा कर के हमारी संस्थाओं में आते हैं तो इन्हें गांधी के चित्र से, ‘वर दे’ गाने से, दीप-प्रज्वलन से, स्वागत-सम्मान से वितृष्णा होती है कि आज के उत्तर-आधुनिक युग में भी हिंदी के कार्यक्रमों में आप लोग यह सब क्यों करते हैं। इन हार्दिक शिष्टाचारों को वे हमारा पिछड़ापन मानते हैं। उन्हें नहीं मालूम कि हमारी संस्था में उत्तर-आधुनिक साहित्य विमर्श पर ही नहीं, भाषा और भाषाविज्ञान, अनुवाद चिंतन, दूरस्थ शिक्षा के उन अनेक पहलुओं पर गोष्ठियाँ और कार्यशालाएँ होती रहती हैं जिनका नाम भी शायद उन्होंने न सुना होगा। हिंदी की इन संस्थाओं ने आधुनिकता की अंधेरी गलियों में अनंत भटकन के समानांतर एक प्रकाशमान रास्ते का विकल्प हमें दे रखा है। इस रास्ते पर हमारे साथ बहुत ही थोड़े-से लोग चलने को उद्यत होते हैं। बाकी तो इसे एक दिशाहीन, गंतव्यहीन पगडंडी मान कर अपनी गलियों के अंधेरों में ही मगन हैं। 



स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ हिंदीतर राज्यों में द्वितीय भाषा हिंदी के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 को पोसने वाली अमृत बूँदें हैं। इनके अपने प्रेस हैं। मासिक हिंदी पत्रिकाएँ हैं। ढेरों प्रकाशन हैं। छोटे-छोटे केंद्रों पर भी हिंदी पुस्तकालय हैं। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास में ‘राष्ट्रीय हिंदी पुस्तकालय’ है जहाँ दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों के हिंदी शोध छात्रों का तांता लगा रहता है। ये संस्थाएँ प्रौढ़ शिक्षा का बड़ा केंद्र हैं। हिंदी परीक्षाओं के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं है। हिंदी भाषा के माध्यम से ज्ञान-साहित्य का प्रणयन और प्रसार दक्षिण भारत में देख कर प्रारंभ में मैं भी चकित रह गया था। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास दक्षिण की भाषाओं के वाङ्मय धरोहर का संपादन-प्रकाशन करने में तथा अनूदित सामग्री प्रकाशित करने में अग्रणी है। कोश-कार्य भी स्तरीय हुए हैं - खासकर त्रिभाषा और बहुभाषा कोष। अनुवाद अध्ययन को हम विशेष महत्व दे रहे हैं, अनुवाद करने वालों को भी। हिंदी व्याकरण लेखन और भाषाविज्ञान पर पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता को हमारी सभा शुरू से पहचानती आ रही है। पूरे दक्षिण भारत में इन व्याकरणों को सम्मान मिला है - इनका खूब उपयोग किया जा रहा है। दक्षिण भारत के हिंदी सेवी मुझ जैसे हिंदी भाषियों से जब यह प्रश्न करते हैं कि आप लोग दक्षिण भारत की भाषाएँ सीख कर उनके वाङ्मय का हिंदी में अनुवाद क्यों नहीं करते? या कि हिंदी व्याकरण की तनिक भी जानकारी हासिल करने का प्रयत्न हिंदी मातृभाषाभाषी क्यों नहीं करते? तो बगलें झांकने के सिवा हम कुछ नहीं कर पाते। ये दोनों प्रश्न हिंदी प्रदेश के सभी हिंदी पुरोधाओं से भी पूछे जाने चाहिए कि उनमें से कितनों ने भारतीय भाषाओं से हिंदी में अथवा हिंदी से किसी भारतीय भाषा में अनुवाद किया है? या दक्षिण भारत में हिंदी से और हिंदी में किए गए अनुवाद कार्य की उन्हें जानकारी भी है? और यह भी कि क्या आप हिंदी के ‘बेसिक ग्रामर’ की समझ रखते हैं? कहना न होगा कि तब हिंदी के अधिकतर झंडाबरदार भी बगलें झांकते नजर आएँगे। 


( क्रमशः ) 
आगामी अंक में समाप्य




- प्रो. दिलीप सिंह 

[लेखक प्रतिष्ठित हिंदी भाषा-विज्ञानी, शिक्षाविद् एवं दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के कुलसचिव हैं.]

और भाषाविज्ञान/ समाज-भाषाविज्ञान के मेरे गुरु भी.... 










3 टिप्‍पणियां:

  1. गैरसरकारी हिंदी संस्थाएं हिंदी की गौरव हैं. हिंदी को इन्होने ही इतना बड़ा किया है. मुग़ल, अंग्रेज और उसके बाद आई 'काले अंग्रेजों' की सरकारों ने तो इसे बर्बाद करने की कोई कसार नही छोड़ी. इतने अच्छे लेख के लिए लेखक को शत-शत बधाइयाँ .

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  2. समय आ गया है कि हमारे नेताओं को संविधान में उल्लिखित कर्तब्यों को याद दिलाने का और हमारी संस्थाओं की जुझारू कोशिशों को देश के सामने प्रस्तुत करने का- --- - इसी की एक पहल यह शृंखला मानी जाएगी\ बहुत विचारोत्तेजक!

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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