क्यों रामलीला मैदान जलियाँवाला बाग नहीं है !




न आकस्मिक न विकल्पहीन
राजकिशोर



रामलीला मैदान की घटना की तुलना जलियाँ वाला बाग गोलीकांड से करना अनुचित नहीं है। दोनों घटनाओं में बहुत साम्य है। कुछ महत्वपूर्ण फर्क भी हैं। जलियाँवाला बाग में लोग सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू को रिहा करने की माँग के समर्थन में सभा करने आए थे। इन दोनों गांधीवादी नेताओं को गिरफ्तार कर पंजाब पुलिस ने किसी अनजान जगह पर छिपा रखा था। जनसभा का आयोजन करने वाले किसी तरह की हिंसा करने नहीं आए थे। हत्याकांड के बाद उनके पास से एक भी हथियार बरामद नहीं हुआ। लेकिन ब्रिगेडियर डायर को लगा कि अगर इस जन सभा को होने दिया गया, तो देश भर में बगावत हो जाएगी। वह ऐसी किसी बगावत को कुचलना चाहता था। वह नब्बे सशस्त्र सिपाहियों के साथ बाग में घुसा और उसने बिना किसी चेतावनी के फायर करने का हुक्म दे दिया। वह दरअसल स्वतंत्रता संघर्ष की कमर तोड़ना चाहता था। वह रौलट एक्ट से उपजे देशव्यापी असंतोष को अपने इस कदम से कुचल देना चाहता था।


रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के आह्वान पर जो पचासेक हजार लोग जुटे हुए थे, वे सरकार के किसी कदम का विरोध नहीं कर रहे थे। वे रामदेव की इस माँग की हिमायत करने आए थे कि विदेशों में जमा काले धन को भारत लाओ और उस पैसे को गरीब जनता की तकलीफों को दूर करने में लगाओ। यह एक सकारात्मक माँग थी। सरकार भी इसके पक्ष में है और समय-समय पर इस बारे में उचित कार्रवाई करने का भरोसा भी दिलाती रही है। बाबा के प्रतिनिधि आचार्य बालकृष्ण के साथ जो लिखित सहमति हुई थी, उसमें भी यह आश्वासन था। देश भर के लोग बाबा की इस माँग का समर्थन करते हैं। इस तरह, सैद्धांतिक रूप से देखा जाए, तो काला धन के प्रति दृष्टिकोण के मामले में रामदेव, सरकार और देश के बीच किसी तरह की मौलिक असहमति नहीं है। उच्चतम न्यायालय भी सरकार को फटकार चुका है कि वह विदेश में जमा काला धन को वापस क्यों नहीं ला रही है?


फिर दिल्ली पुलिस ने डायर जैसी कार्रवाई क्यों की? कारण वही था जिसने डायर को उस बर्बर कार्रवाई के लिए प्रेरित किया था। जलियाँवाला बाग की जनसभा में डायर देशव्यापी गदर की संभावना देख रहा था। यह उसका अपना आकलन था। इस मूल्यांकन में उसके पास ब्रिटिश सरकार की सहमति नहीं थी। इसके विपरीत दिल्ली पुलिस को अपना आकलन करने की स्वतंत्रता नहीं है। वह कोई भी बड़ा कदम केंद्र सरकार के आदेश से ही उठाती है। रामलीला मैदान में जुटी जनता से देश को खतरा नहीं था। बल्कि देश की सहानुभूति इस सत्याग्रह के साथ थी। लेकिन केंद्र सरकार अपने ऊपर खतरा महसूस कर रही थी। इसलिए सत्याग्रह खत्म करवाने की उसकी साजिश सफल नहीं हुई, तो वह सत्याग्रहियों को बलवाई मान कर उन पर टूट पड़ी।


खतरे का यह एहसास केंद्र को क्यों होने लगा था? इसके पीछे अन्ना हजारे के अनशन का उसका अनुभव था। अब भी मेरा मत यही है कि अन्ना ने अपना आमरण अनशन तोड़ने में बहुत जल्दी कर दी। अगर वे अपनी मूल माँग पर अड़े रहते, तो उन्हें निश्चय ही सफलता मिलती। पूरा देश उनके समर्थन में उमड़ पड़ा था। मीडिया अकंप रूप से और प्रतिक्षण उनका साथ दे रहा था। अखबारों का रुख अन्ना के पक्ष में और सरकार के खिलाफ था। भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा मजबूत वातावरण एक अभूतपूर्व घटना थी। सरकार पूरी तरह से घबराई हुई थी। इसीलिए उसने जैसे-तैसे समझौता कर खतरे से अपने को बचा लिया।


अब बाबा रामदेव के रूप में उससे भी बड़ा खतरा सरकार की ओर बढ़ रहा था। यही वजह है कि जब बाबा का विमान दिल्ली की जमीन पर उतरा, तो एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार-चार मंत्री उनकी अगवानी के लिए दौड़ पड़े। इमरजेंसी के बाद यह भारत की राजसत्ता के नर्वस होने का सबसे बड़ा उदाहरण था। वह सोच रही थी कि बाबा से मान-मनुहार कर आसन्न संकट को टाल देगी। यह असंभव नहीं था, क्योंकि रामदेव कोई राजनीतिक आदमी नहीं हैं। उन्हें कायल कर दिया जाता कि सरकार इस मामले में वाकई चिंतित हैं और हर संभव कदम उठाने के लिए तैयार है, तो वे जरूर मान जाते।


लेकिन सरकार का इरादा शुरू से ही संदिग्ध था। वह काले धन के खिलाफ कार्रवाई को भविष्य में जितनी दूर धकेल सकती थी, उतनी दूर धकेलने पर आमादा थी। अन्ना के साथ धोखाधड़ी कर ही चुकी थी। अब बाबा को  फँसाने का खेल खेला जा रहा था। बाबा सतर्क थे और किसी हवाई आश्वासन की कीमत पर अपना सत्याग्रह वापस लेने को तैयार नहीं थे। अन्ना के साथ समझौता आसान था, क्योंकि मामला लोकपाल बिल का था। बाबा का मामला गंभीर था, क्योंकि मामला काले धन का था। काले धन के बिना देश की वर्तमान अर्थव्यवस्था चल नहीं सकती।


इसीलिए सरकार ने रामदेव और उनके अहिंसक समर्थकों पर अचानक हमला बोल दिया। हम जिससे तर्क में पार नहीं पा सकते, उसे पाशविक बल से दबाने की कोशिश करते हैं। जलियाँवाला बाग में भी यही हुआ था, रामलीला मैदान में भी यही हुआ था। उस समय सिपाहियों के पास बंदूकें थीं, इस समय लाठियाँ और आंसू गैस के शेल थे, इससे मूल स्थिति बदल नहीं जाती। मुख्य बात यह है कि डायर ने भी चेतावनी नहीं दी थी और दिल्ली पुलिस ने भी चेतावनी नहीं दी। चेतावनी दिए बिना टूट पड़ना मनुष्यता के किसी भी तर्क से बाहर है। इसे सिर्फ लोकतंत्र पर कुठाराघात बतलाना पहाड़ को राई बताना है। यह मानवता के विरुद्ध गंभीर अपराध है। डायर के पास भी विकल्प थे। वह चाहता तो बहुत कम हिंसा से जलियाँवाला बाग को खाली करा सकता था। दिल्ली पुलिस के पास भी विकल्प थे। लेकिन केंद्र का आदेश था कि जैसे भी हो, रामलीला मैदान को तुरंत खाली कराओ। नौकरी बचाने के लिए आदमी क्या-क्या नहीं करता है। न डायर के किसी सैनिक ने निहत्थे लोगों पर गोली चलाने से इनकार किया न दिल्ली पुलिस के किसी सदस्य ने। 


लेकिन यह अपराध क्या आकस्मिक था? बिलकुल नहीं। डायर को यह अपराध करने से पहले सोचने की जरूरत इसलिए नहीं थी कि वह रोज देखता था कि ब्रिटिश पुलिस और फौज दमन करने में किसी भी हद तक जा रही है। दिल्ली पुलिस को भी कुछ सोचने की जरूरत इसलिए नहीं थी कि पूरे देश की पुलिस रोज-ब-रोज ऐसी बर्बरता दिखाती ही रहती है। दिल्ली की पुलिस इसका अपवाद नहीं है। यहाँ की हिरासतों से भी लोग टूटी टाँगें ले कर बाहर निकलते रहे हैं। यहाँ  भी हिरासत में बलात्कार और हत्या होती है। इसीलिए लोग पुलिस को अपना मित्र नहीं, दुश्मन मानते हैं।


एक अहम फर्क जरूर है। जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने जाँच बैठाई थी। जाँच समिति ने डायर को दोषी ठहराया था। लेफ्टिनेंट-जनरल सर हेवेलॉक ने डायर से कहा कि तुम्हें सेवामुक्त किया जाता है। बाद में भारत के कमांडर-इन-चीफ चार्ल्स कार्लमाइकल ने डायर को कहा कि वह इस्तीफा दे दे और उसकी पुनर्नियुक्ति नहीं होगी।


आज उस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती। क्योंकि लालकिला मैदान में जो कुछ हुआ, वह दिल्ली पुलिस की अपनी या स्वतंत्र कार्रवाई नहीं थी। आदेश ऊपर से था। अब कोई राजा अपने ही खिलाफ जाँच समिति कैसे बैठा सकता है?


इसीलिए देश को स्वतंत्र और शक्तिशाली लोकपाल की जरूरत है।







12 टिप्‍पणियां:

  1. सुचिंतित , तथ्यपूर्ण और विचारोत्तेजक आलेख पढवाने के लिए धन्यवाद .

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  2. सटीक विश्लेषण! आधी रात में निर्दोष नागरिकों के साथ जो कुछ भी हुआ वह शर्मनाक है।

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  3. पेज डिजाइन पढ़ने में बाधक हो रहा है, इसलिए फिलहाल बस इतना कहते हुए वापस.

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  4. फेस बुब आदि का विज्ञापन के कारण पढने में बाधा उत्‍पन्‍न हो रही है। इसलिए इसे हटाए। यहाँ तक की टिप्‍पणी में भी बाधा है।

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  5. हम कुछ न कहें लेकिन हर हाल में ये तय है
    हम गोद में जिनके हैं वो हमको निगल लेंगे।

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  6. जिन मित्रों को "पोस्टशेयरिंग-विजेट" के कारण पढ़ने में समस्या आई है, उनके प्रति खेद है | ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद |

    वस्तुतः मेरा लैपटॉप सर्वाधिक रिजोल्यूशन ( 1600 x 1200) का है और इसमें वह कहीं दूर दूर तक भी पोस्ट को स्पर्श नहीं करती |

    अभी मैंने राहुल जी व अजित जी की टिप्पणी के बाद रिजोल्यूशनटेस्टर की साईट पर जा कम रिजोल्यूशन पर टेस्ट करके देखा तो पाया कि कम रिजोल्यूशन वाली स्क्रीन पर यह सिकुड़ कर पोस्ट पर छा जाता है |

    अत: अब इसकी अवस्थिति बदल दी है | अब उन मॉडल के सिस्टम में भी सही दिखाई देगा,कोई समस्या नहीं होनी चाहिए | बताइयेगा, कि क्या अब अनुकूल है |

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  7. डायर और डाएरिया में उतना ही फर्क है जितना ब्रिटन और इटली में :)

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  8. बाबा की देशभक्ति निष्कपट है । वे स्वयं एक सरल व्यक्तित्व के धनी हैं जो देश का उत्थान चाहते हैं और देशवासियों की खुशहाली। रामलीला मैदान में हुए कृत्य की जितनी भी निंदा की जाए कम होगी।

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  9. हाँ अब पोस्‍ट पढने में खलल नहीं है लेकिन यह अभी भी दाए हाथ पर स्थित है।

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  10. सादर वंदे मातरम्!


    सच में जलियांवाला बाग़ ही बना दिया था रामलीला मैदान को …
    छिः ! रग़-रग़ में वीभत्सी
    अंगरेज़ों की रूह सवार !
    जलियांवाला की घटना
    दिखलादी तुमने साकार !


    और यह भी तय है कि स्वयं अपने विरूद्ध जांच कराए … यह तो नामुमकिन है ।

    4 जून की काली रात की बर्बर सरकारी दमन कार्यवाही से हर ईमानदार भारतीय की तरह मेरा भी मन द्रवित है ,व्यथित है , आहत है !

    मैंने एक कवि के नाते लिखा -
    अब तक तो लादेन-इलियास
    करते थे छुप-छुप कर वार !
    सोए हुओं पर अश्रुगैस
    डंडे और गोली बौछार !
    बूढ़ों-मांओं-बच्चों पर
    पागल कुत्ते पांच हज़ार !

    सौ धिक्कार ! सौ धिक्कार !
    ऐ दिल्ली वाली सरकार !

    पूरी रचना के लिए उपरोक्त लिंक पर पधारिए…
    आपका हार्दिक स्वागत है

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  11. आपने तटस्थ और सटीक विश्लेषण किया है। सच तो यह है कि काले धन के मुद्दे ने देश के नेतृत्व को बेनकाब कर दिया है और अन्य राजनैतिक दलों की वास्तविकता सब के सामने ला दी है। तत्कालीन परिस्थितियों में बाबा रामदेव की जान बचाकर उनके अनुयायियों ने कुछ गलत नहीं किया। हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि बाबा रामदेव कोई घुटे हुए राजनीतिज्ञ नहीं हैं और न ही वे कोई सशस्त्र युद्ध लड़ने गए थे। दरअसल अपनी सरलता के कारण बाबा ने अपने अनुयायियों पर जरूरत से ज्यादा विश्वास कर लिया था और आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएँ व आशाएँ उनसे पाल ली थीं। वे यह भूल गए थे कि यह वही जनता है जो भ्रष्टाचारियों को न केवल चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजती है, बल्कि अवसर पड़ने पर नैतिकता को ताक पर रखकर स्वार्थ-सिद्धि हेतु प्रतिकार करने की बजाय स्वयं भ्रष्ट बन जाती है और भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों तथा पुलिस प्रशासन के इशारों पर नाचती है। आम आदमी जब तक अपनी ताकत को नहीं पहचानेगा और नेताओं, नौकरशाहों तथा पुलिस प्रशासन को अपना स्वामी-नियंता मानती रहेगा, तब तक देशवासी यूँ ही त्रस्त होते रहेंगे एवं भ्रष्टाचार व कालाधन दिनोदिन बढ़ता रहेगा और देश की दुर्दशा होती रहेगी।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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