मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - प्रो. देवराज [III]

मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - प्रो. देवराज [III]
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प्राचीन और मध्यकालीन मणिपुरी कविता
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मणिपुरी भाषा के इतिहास को खोजते हुए डॉ. देवराज ने इस भाषा के विभिन्न पडा़वों पर प्रकाश डाला है। यह तो सामान्य बात होती है कि हर समाज अपनी भाषा और संस्कृति को ही प्राचीन मानता है। मणिपुर के लोग भी इसका अपवाद नहीं हैं। वे अपनी संस्कृति और भाषा के विषय में किंवदंतियां भी सुनाते हैं, कदाचित इन दंतकथाओं में कहीं न कहीं इतिहास भी छिपा होता है, परंतु यह कहना कठिन हो जाता है कि किसी कहानी का कितना अंश मिथक है और कितना इतिहास! मणिपुरी भाषा से जुडी़ एक किंवदंती से हमारी यात्रा शुरू होती है। प्रो. देवराज जी बताते हैं कि :-

"मणिपुरी भाषा को उसके वर्तमान नाम के पूर्व ‘मैतेरोल’, ‘मीतै लोन’, ‘मीतै लोल’ आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। इस भाषा की प्राचीनता के विषय में एक किंवदन्ती का प्रचलन है। कहा जाता है कि अतिया गुरु शिदबा ने सृष्टि के प्रारम्भ में अपने पुत्रों - सनामही और पाखङ्बा - को ‘मैतैरोल’ के माध्यम से ज्ञान का प्रारम्भिक पाठ पढा़या था। लोक-विश्वास के अनुसार यह घटना हयिचक की है। मैतैरोल के प्रथम अक्षर का उच्चारण करते ही गुरु शिदबा के पुत्रों को सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था। इसके पश्चात उनके अनुयायियों ने इसी भाषा में सम्पूर्ण विश्व के लिए ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाया। इस विश्वास के आधार पर ज्ञान का प्रकाश सर्व प्रथम मणिपुर [जिसे प्राचीन काल में सना लैबाक्, चक्पा सङ्बा, मैत्रबाक, कङ्लैपाक, युवापलि, कत्ते, मेखले, मोगले आदि नामों से भी अभिहित किया जाता रहा है] में उत्पन्न हुआ था।"
भले ही मणिपुरी भाषा को विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक न भी मानें, तो भी इस भाषा का विकास ईसा की प्रथम शताब्दी से तो प्रारम्भ हो ही चुका था। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश की आजा़दी के ३०-३५ वर्ष तक भी इस भाषा की ओर सरकार का ध्यान नहीं गया, जबकि मणिपुरी के उद्भव और इतिहास का शोध-कार्य विदेशी विद्वानों का ध्यान आकर्षित कर चुका था। इस दयनीय स्थिति पर प्रकाश डालते हुए डॉ. देवराज बताते हैं -

"मणिपुरी भाषा के निर्माण एवं इतिहास को केन्द्र में रखकर प्रारम्भिक खोज-कार्य पश्चिमी विद्वानों ने किया। डॉ. जी.ए.ग्रियर्सन [लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इन्डिया] तथा टी. एस. हडसन [द मैतेज़] के नाम इस विषय में उल्लेखनीय हैं। भारतीय विद्वानों में मणिपुरी भाषा पर विचार करने वालों में सब से गम्भीर कार्य सुनीति कुमार चटर्जी का माना जाता है। स्वयं मणिपुरी लोगों को इस दिशा में ध्यान बहुत बाद में आया। सन् १९५० में जनतान्त्रिक संविधान आत्मार्पित करने वाले भारत की जनता का कितना बडा़ दुर्भाग्य है कि मणिपुर को एक विश्वविद्यालय पाने के लिए १९८० तक प्रतीक्षा करनी पडी़। उच्च शिक्षा के अभाव का दुष्परिणाम यह हुआ कि स्थानीय अध्येता अपनी भाषा और संस्कृति के विषय में शोधपूर्ण कार्य का अनुकूल वातावरण उपलव्ध नहीं कर सके। इस दिशा में युमजाओ सिंह [मैतैलोन व्याकरण], नन्दलाल शर्मा [मैतैलोन व्याकरण], कालाचाँद शास्त्री [व्याकरण कौमुदी], द्विजमणि देव शर्मा [मणिपुरी व्याकरण] आदि कुछेक उत्साही लोगों ने भाषायी अध्ययन की शुरुआत अवश्य की, किन्तु यह कोई गम्भीर प्रयास नहीं था। संयोगवश बाहर जाकर हिन्दी तथा भाषा-शास्त्र का अध्ययन करने वाले स्थानीय व्यक्तियों ने मणिपुरी भाषा को तुलनात्मक अध्ययन का विषय बनाया, जिसके अंतर्गत उन्होंने भाषा के विकास और विस्तार का अध्ययन भी किया। इन विद्वानों में डॉ. इबोहल सिंह काङ्जम [हिंदी - मणिपुरी क्रिया संरचना] और डॉ. तोम्बा सिंह [व्याकरणिक कोटियों का अध्ययन] का नाम महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय कार्य एन. खेलचन्द्र सिंह [अरिबा मणिपुरी साहित्यगी इतिहास], राजकुमार झलजीत सिंह [ए हिस्ट्री ऑफ़ मणिपुरी लिटरेचर] और सी-एच. मनिहार सिंह [ए हिस्ट्री आफ़ मणिपुरी लिटरेचर] ने किया।"
( ....क्रमशः )
- प्रस्तुति: चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

1 टिप्पणी:

  1. अब यह तो नहीं पता कि काल ऋजु है अथवा रैखिक.. इसलिए प्राचीनता और अर्वाचीनता से भी क्‍या लेना देना, मगर इतना जरूर है कि राज्‍य को अपनी भाषाओं की सुरक्षा प्राणपण से करना चाहिए चाहे कितने ही कम लोगों के बीच में बोली जा रही हो क्‍योंकि किसी भी प्राणी के अंत:करण में उतरने के लिए उसकी भाषा ही एकमात्र पथ है।

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