वसंत पंचमी और हरसिंगार के फूलों का केसरिया रंग


वसंत पंचमी और हरसिंगार के फूलों का केसरिया रंग 
- सुधा अरोड़ा






बसंत पंचमी के नाम से मन पचास साल पहले के बसंत के आने की धमक पर लौट लौट जाता है | बसंत पंचमी यानी पीले और केसरिया रंग के गेंदे के फूलों का मौसम ! बसंत पंचमी यानी कई किस्मों के बेर के फल आने का मौसम ! बसंत पंचमी यानी देवी सरस्वती की सुनहली और रुपहली, धवल सफेद और रंग बिरंगी कलात्मक प्रतिमाओं से कलकत्ता के फुटपाथों के अटे होने का मौसम ! बसंत पंचमी यानी सरस्वती पूजा के अनोखा स्वादिष्‍ट प्रसाद का दोना - शंखालू, केला, अमरूद, बेर यानी मौसमी सभी फलों का प्रसाद और इसके साथ ही खाकी कागज के एक अलग ठोंगे में मीठी केसरिया बूँदी में मिली हुई हल्दी रंग की नमकीन सेव । पूरे साल में इस मिश्रण का जो स्वाद सरस्वती पूजा पर आता, दूसरे किसी दिन नहीं । 


सरस्वती पूजा से पहले देवी सरस्वती की सुनहली, रुपहली और रंग बिरंगी कलात्मक प्रतिमाओं से कलकत्ता के फुटपाथ अंट जाते थे। हम दोनों बहनें अपने घर के लिये सरस्‍वती की एक प्रतिमा खरीदने जाते. प्रतिमाओं के सफेद, तांबई, बहुरंगी आकार प्रकार को निहार निहार कर अपनी पसंद की मूर्ति छाँटने में बड़ी परेशानी आती. मन होता कि सभी को उठा कर ले जायें। एक उठाते, एक रखते। आखिर अपनी जेब में रखे पैसों में समाती एक प्रतिमा पसंद कर उसकी कीमत कारीगर को देते. दूकानदार सरस्वती की प्रतिमा को अखबार के कागज में लपेट कर साथ साथ गणेश और लक्ष्मी की दो छोटी छोटी मूर्तियाँ हमें थमा देता. हम कहते - हमने तो देवी की एक ही प्रतिमा के पैसे दिये हैं. वह कहता - ए टा ओ निये जाओ माँ , पॉयशा दिते हबे ना ( ये भी ले जाओ, इसके लिये पैसे नहीं देने हैं ) ऐसा क्यों ? हमारी जिज्ञासा होती तो कहता - जहाँ ज्ञान की देवी जायेगी वहाँ विवेक और धन तो अपने आप रहने के लिये आ जाते हैं. इन विघ्न विनाशक और लक्ष्मी को भी रख लो. हम दोनों बहनें खुश खुश लौटते। आज का समय होता तो कहते -'' बाय वन, गेट टू फ्री ! '' 


सरस्‍वती पूजा से दो-चार दिन पहले से केसरिया रंग की फ्रॉक की तैयारी शुरु हो जाती . बसंत पंचमी यानी एक दिन के लिये स्कूल की सफेद पोशाक के बदले केसरिया, पीले रंग की फ्रॉक या सलवार कुरता और दुपट्टा पहनने का दिन ! हमारे पास स्कूल के लिये जो सफेद फ्रॉक होती, उसमें से थोड़ी सी घिसी हुई फ्रॉक को रंगने के लिये अलग कर लिया जाता. अपने घर के बगल में एक बंगाली सेन महाशय के बागान से हम दोनों बहनें सुबह सुबह जाकर हरसिंगार के झरे हुए फूल - पूरे बागान की हरी घास पर जिसकी चादर बिछी होती - चुन कर अपनी फूलों की डलिया भर लेते, तब भी फूल अगर कम लगते तो पेड़ के तने को दोनों हाथों से थामकर थोड़ा हिला भर देते और डालियों से हरसिंगार के फूल झमाझम बारिश की बूँदों की तरह झरने लगते - हमारे सिर माथे पर, हमारी डलिया में, हमारे कपड़ों पर. इतने ढेर सारे फूल लेकर फिर उन्हें आधी बाल्टी पानी में भिगोया जाता और उनके केसरिया रंग में फ्रॉक रंगी जाती. यह रंग एकसार होता - कहीं गहरा, कहीं हल्का नहीं जैसा आमतौर पर कपड़ों के रंगों में रंगने से हो जाता था. फिर फूलों की खुशबू भी फ्रॉक में रच-बस जाती .   


घर में भी हर साल सरस्वती की प्रतिमा आती और साल भर रहती, स्कूल में तो स्थायी प्रतिमा थी जिसका भव्य साज शृंगार सरस्वती पूजा के दिन किया जाता और विद्यार्थियों के रंगारंग कार्यक्रमों और गायन से पूरा वातावरण झंकृत हो उठता। वे 1955 से 1962 के बीच के साल थे जब मैं कक्षा पाँच से ग्यारहवीं तक कलकत्ता के श्री शिक्षायतन स्कूल में पढ़ रही थी. यह उस इलाके का हिन्दी माध्यम का सिर्फ लड़कियों का सबसे बेहतरीन स्कूल माना जाता था. सरस्वती पूजा हमारे स्कूल का एक बड़ा उत्सव था क्योंकि इस दिन विद्या की देवी की पूजा की जाती थी। महीने पहले से उत्सव की तैयारियाँ शुरु हो जातीं - नृत्य नाटिकाएँ, गायन-वाचन प्रतियोगिताएँ। 'वर दे वीणा वादिनी वर दे' से लेकर कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर का गीत '' आगुनेर परस दिए छोआओ प्राणे, ए जीबन पूर्ण करो दहन दाने '' सस्वर गाया जाता । पीले केसरिया गेंदे के फूलों से अल्पना का सुंदर गोलाकार वृत्त बनाया जाता और भीतर चावल के आटे से रंगोली आँकी जाती . नवीं और दसवीं कक्षा की लड़कियाँ अपने उस विषय की किताबें सरस्वती की प्रतिमा के पीछे रखतीं जो विषय उनको सबसे मुश्किल लगता और जिसको समझने के लिये देवी सरस्वती की विशेष अनुकंपा की ज़रूरत होती । 


नये नये स्कूलों का उद्घाटन वसंत पंचमी के दिन ही होता। हाथ में नयी स्लेट और नयी चॉक देकर सरस्वती पूजा के दिन ही बच्चों का विद्यारंभ करवाया जाता । उन दिनों ज्ञान और विद्या की देवी सरस्‍वती थी, इस देवी को नेट, गूगल और आइ पॉड ने रिप्‍लेस नहीं किया था । 


वसंत के आने की धमक के साथ बेर फल के आने का मौसम होता । स्कूल के बाहर बेर के खोमचे वाला बैठता जो आम तौर पर आमड़ा, इमली और अनारदाने के चूरन की गोलियाँ  रखता । माना जाता था कि लड़कियाँ इमली जैसी खट्रटी मीठी और चूरन जैसी चटपटी चीजें ही पसंद करती हैं। साल-भर के लिये यह स्थायी खोमचा था पर मौसमी फलों के आने के साथ वह अपने खोमचे पर तरह तरह के बेर सजाने लगता । हम उन बेरों को ललचाई नज़रों से देखते और चटखारे लेती जीभ को होंठों के भीतर कैद कर लेते कि बेर का पहला भोग सरस्वती मैया की प्रतिमा को लगेगा, तब जाकर हम मौसम का पहला बेर चखेंगे । अगर भोग से पहले चख लिया तो सरस्वती मैया नाराज़ हो जाएगी, फिर हम अच्छे नंबरों से पास नहीं होंगे, इसलिये प्रसाद के दोने का हाथ में आना मानो अब रोज़ बेर खाने का प्रवेश पत्र होता सो पहली बार फलों के प्रसाद के दोने में शंखालू, केले और अमरूद के साथ बेर चखने का मज़ा ही कुछ और था। सरस्वती पूजा के प्रसाद में मीठी बूँदी में नमकीन भुजिया मिले प्रसाद का पुड़ा भी हमें मिलता था । वह स्वाद याद कर आज भी मुँह में स्वादेन्द्रियाँ रस छलका रही हैं । 


कितना इंतजार करते थे हम इस सरस्वती पूजा का ! कैसा जुनून था किताबों का ! उन किताबों को सरस्वती की प्रतिमा के पीछे रखकर देवी से वरदान माँगने का ! और उत्साह से छलकते घर लौटते हुए, प्रसाद का थोड़ा सा हिस्सा बचाकर, माँ और पापा को देने का ! आज यह समय ही खो गया है । नहीं मालूम कोलकाता के स्कूलों में अब सरस्वती पूजा होती है या नहीं पर मुंबई में तो नहीं होती । बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा की जगह वेलेंटाइन डे होता है, जिसमें लड़कियाँ थोक में मित्रों को मित्रता की डोरी बाँधती हैं । यह रिवाज़ बुरा नहीं पर अपने पुराने उत्सवों को स्थगित कर इनका आना मन में अब एक टीस-सी पैदा करता है । क्या हमारे सारे त्यौहार, सारे जुड़ाव, किताबों के लिये ऐसा उछाह, गेंदे के फूलों की अल्‍पना और केसरिया बूँदी और नमकीन भुजिया का अनोखा प्रसाद, अब अतीत की चीज़ बनकर रह जायेगा ? 

 - सुधा अरोड़ा
1702 , सॉलिटेअर , डेल्‍फी के सामने,
हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई,
मुंबई - 400 076 
फोन – 022 4005 7872 / 097574 94505

5 टिप्‍पणियां:

  1. टीस तो होती है, पर अब महानगरों में यह परंपरा खत्म होता जा रहा है। पर मेरे यहां तो बढ़ता ही जा रहा है सरस्वती पूजा का चलन...

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  2. गाँव में (उत्तराखण्ड) आज के दिन सुबह-सुबह सोते ही बिना चेहरा देखे माँ या पिताजी सभी के सिर पर टीका लगाते थे। स्कूल में फूल, प्रसाद, स्वांळी-पकौड़ी ले जाते थे। गुरु जी स्कूल में कमल बनाकर संक्षिप्त पूजा करवाते थे। कुछ प्रसाद वहीं खाया जाता था, कुछ गुरु जी घर ले जाते थे। गुरु जी को कुछ दक्षिणा दी जाती थी। पिताजी के समय में यह लगभग १ रुपया तथा मेरे पीढ़ी के समय में लगभग ५ रुपये थी। गुरु जी भी प्रसन्न हो जाते थे।

    मैं भी बचपन में एक साल अपने गाँव की प्राथमिक पाठशाला में पढ़ा हूँ। मुझे ध्यान है हम भी उस दिन घर से प्रसाद आदि बनाकर विद्यालय में ले गये थे। अब बस यादें ही रह गयी हैं इन परम्पराओं की। गाँव में शायद अब भी कुछ हद तक इनका पालन होता हो।

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  3. I do not know how to type in Hindi in my laptop. Very beautifully written piece. Thanks for sharing it with all of us!
    In Odisha and Bengal it is a very big festivals for students! Though Odiya, my schooling was in Banaras and my father taught in BHU. This also happens to be the foundation day of BHU and is celebrated with a lot of pomp and gaiety there.

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  4. बहुत गहरे सवाल.. !

    सफ़ेद रुमाल को मान लेता हूँ वो पवित्र रीत.. !

    उस पर पीला टीका.. और अब पवित्र रुमाल.. पुराना सा हो कूड़े के ढेर पर जाने की तैयारी में.. ! क्या रूमाल को दो कर साफ़ करना चाहिए.. या रंग बिरंगे को फोटो में फ्रेम कर देना चाहिए ??

    कहीं तो रास्ता होगा.. पवित्र का पवित्र रखने का.. !! इस्तेमाल में रखना होगा.. तभी नया रह पाएगा.. !

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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