मेरा दोस्त शहर ‘लैंसडाउन’



मेरा दोस्त शहर ‘लैंसडाउन’ 
- दीप्ति गुप्ता







  शान्त और  सुरम्य  वादियों में कायनात की  कुदरती  तिलस्म ओढ़े एक छोटा सा शहर,  कोमल घास से भरे  पहाडी ढलान, एक तरह की खास खुशबू से भरे खुद-ब-खुद उग आनेवाले जंगली फूल, झूमते दरख़्त, परस्पर सटे-सटे, छोटे-छोटे पहाडी घरों का घनछत, हरियाली के बीच में आने जाने वालों की आवा-जाही से बन जाने वाली प्राकृतिक बटिया, सर्पीली सड़कें, इधर उधर लगभग हर आधा किलोमीटर की  दूरी पर  बने अंग्रेजों के ज़माने के भव्य बंगलें जिनकी लाल टीन की छत चिमनियों सहित दूर से ही अपनी झलक दिखाती वहाँ की सघन वनस्पतियों में अपनी उपस्थिति को दर्ज करती, मन को लुभाती पहाडी फलों की मीठी महक, खुले विशाल मैदान में ट्रेनिंग लेते  रंगरूटो की परेड, शहर से ऊपर पहाडी पर स्थित आर्मी हैडक्वार्टर  से बिगुल की उठती एक खास धुन, अक्सर सड़क और बटिया पर ‘लैफ्ट-राईट - लैफ्ट-राईट’ करते सैनिकों के भारी फ़ौजी बूटों की तालबध्द ध्वनि, शाखों पर पंछियों की चहचहाहट, जून माह की सुबह - शाम के सर्द झोको से भरी गरमी, धुंध से भरी ना थमने वाली जुलाई-अगस्त की बरसात, सितम्बर माह का धुले सफ़ेद बादलों वाला नीला आकाश, सर्दियों में सफ़ेद नाजुक फूलों सी झरती बर्फ और अपनी आगोश में लेता कोहरा, इस सब का नाम है ‘लैंसडाउन’ I उत्तराखंड  में ६०००फ़ीट की ऊंचाई पर, प्रकृति की गोद में बसा  मन को मोह लेने वाला यही  ‘लैंसडाउन’ आज भी मेरे मानस पटल पर अपने भरपूर सौंदर्य के साथ अंकित है I अँग्रेज़ो के समय से ही  अपनी प्राकृतिक  सुंदरता के कारण लैंसडाउन, एक लोकप्रिय ‘हिल स्टेशन’ के रूप में स्थापित हो  चुका था I घने देवदार और चीड के जंगलों व चारों ओर पहाड़ों से घिरा यह अनूठा रम्य स्थान, अब से ५० वर्ष पहले तो और भी अधिक प्राकृतिक संपदा व सौंदर्य से भरा था I

आदिवासी विमर्श पर खोजपूर्ण सामग्री


पुस्तक-चर्चा 






आदिवासी विमर्श पर खोजपूर्ण सामग्री : 
‘संकल्य’ का 
जनजातीय भाषा, साहित्य और संस्कृति विशेषांक

-  गुर्रमकोंडा नीरजा




भारत का समाज संभवतः दुनिया के सबसे पुराने समाजों में से एक है. यहाँ समय पर अनेक सभ्यताएँ आईं और धीरे धीरे यह देश एक संगम समाज के रूप में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जाने कितने परिवर्तन लंबी यात्रा के दौरान घटित हुए होंगे. इतने बड़े देश में कोई भी ऐसा परिवर्तन संभव नहीं जो इसके हर कोने अँतरे को आमूल चूल बदल डाले. इस महादेश में व्यापक से व्यापक परिवर्तन में भी कुछ-न-कुछ अन-छुआ, अन-पलटा रह जाना स्वाभाविक है. और जो इस तरह अन-छुआ, अन-पलटा रह जाता है वह विकास की दौड़ में, सभ्यता के सफर में पीछे छूट जाता है. समाज के इस तरह पीछे छूटे हुए समुदाय आज की भूमंडलीय दुनिया में कहीं खो न जाए इसीलिए अनकी पहचान करना, उनकी समस्याओं से रू-ब-रू होना, उनकी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना और विकास के लाभ उन तक पहुँचना किसी भी चेतनाशील साहित्यकार के सरोकारों में शामिल होना चाहिए. 

स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ) - भाग-3



कल आपने पढ़ा -

"..... ये दोनों प्रश्न हिंदी प्रदेश के सभी हिंदी पुरोधाओं से भी पूछे जाने चाहिए कि उनमें से कितनों ने भारतीय भाषाओं से हिंदी में अथवा हिंदी से किसी भारतीय भाषा में अनुवाद किया है? या दक्षिण भारत में हिंदी से और हिंदी में किए गए अनुवाद कार्य की उन्हें जानकारी भी है? और यह भी कि क्या आप हिंदी के ‘बेसिक ग्रामर’ की समझ रखते हैं? कहना न होगा कि तब हिंदी के अधिकतर झंडाबरदार भी बगलें झाँकते नजर आएँगे। "



स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ) - भाग-3 

भाग - 2  से आगे 

- प्रो. दिलीप सिंह 




समय के साथ चलने की ललक हिंदी की स्वैच्छिक संस्थाओं में भरपूर है। ये आगे बढ़ने का प्रयास भी कर रही हैं। एक ओर साधनों की कमी ने इन्हें बाँधे रखा है तो दूसरी ओर हिंदी क्षेत्र की निरंतर उपेक्षा से ये दुखी हैं। मुझे बार-बार यह लगता है कि थोड़े-से प्रयास यदि एकजुट हो कर किए जाएँ तो इनकी उपादेयता और भी बढ़ाई जा सकती है। यह पूरे भारत का दायित्व है, इस देश के प्रत्येक व्यक्ति का कि वह अपनी मातृभाषा और अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान, विस्तार और प्रचलन के लिए डट कर इन संस्थाओं के साथ खड़ा हो। दक्षिण भारत में हिंदी की एकमात्र ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्था’ में अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर मैं यह पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इन संस्थाओं की उपयोगिता को दोबाला करने का एक ही सूत्र है - नव्यता। आधुनिकता, इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि इस शब्द के आज कई भिन्नार्थ (शेड्स) या कहें अनेक प्रत्याख्यान (इंटरप्रेटेशन) तैयार किए जा चुके हैं। नव्यता कई स्तरों पर और कई तरह की चाहिए होगी। इनमें से कुछ के प्रति दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास प्रयत्नशील भी है पर सुविधाओं की कमी और संस्था के कई लोगों के भीतर जड़ जमा चुका यथास्थितिवाद इन प्रयत्नों की अपेक्षित त्वरा को कच्छप गति में बदल देता है। नव्यता के स्तर हैं: 

स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ) - भाग 2



गतांक से आगे 



ऐतिहासिक महत्व का आँखे खोल देने वाला अत्यंत विचारोत्तेजक लेख, जिसे हिन्दी के प्रत्येक आधुनिक अकादमिक को तो अवश्य पढ़ना ही चाहिए, साथ ही हिंदीतर क्षेत्रों में हिन्दी की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए व उसकी तुलना में हिन्दी के नाम पर सर्वत्र व्याप्त धंधेबाजी में डूबे तथाकथित हिंदीवालों के मूल्यांकन के लिए भी इस लेख का पढ़ना अनिवार्यतम है।
-  क.वा.
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स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ)

गतांक से आगे 

- प्रो. दिलीप सिंह 


स्वतंत्रता के आंदोलन में खादी और स्वदेशी की तरह ही कौमी ज़बान की आवाज ने भी जन-जन को आंदोलित कर दिया था। स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं के इतिहास में यह सभी कुछ तफ़्सील से दर्ज है। इस तरह की संस्थाओं के लिए यह प्रश्न उठाना कि अब इनकी क्या जरूरत है, आज के प्रबुद्ध वर्ग के दिमागी दिवालियेपन की निशानी ही माना जाएगा। 


राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक उत्थान और सामाजिक जागरण आज भी राष्ट्रीय स्तर पर ज्वलंत मुद्दे हैं। इनकी सिद्धि में हिंदी भाषा की भूमिका अब और भी प्रबल बन कर उभर रही है। इन बातों को दुहराने की जरूरत नहीं है। बस इतना ही कहना है कि इन तीनेां के लिए जितना प्रयास और संघर्ष ; अनेकानेक प्रकार की कठिनाइयों और अड़चनों के रहते हुए भी; इन संस्थाओं ने किया है - इनकी संभाल की है - इन्हें संभव बनाया है, उसकी कोई और मिसाल नहीं दी जा सकती। किसी संस्थागत ढाँचे का आदर्श स्वरूप उसके राष्ट्रीय, वैश्विक और प्रगतिशील दृष्टिकोण के मद्देनजर ही रचा और परखा जाता है। स्वतत्रंता के पहले यह दृष्टिकोण राष्ट्रीय, भावात्मक एवं सांस्कृतिक एकता को केंद्र में रख कर विकास पा रहा था और आज उसके दृष्टिकोण भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रिएंबल) में निहित ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ वाले सूत्र से प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं। इन संस्थाओं पर आक्षेप करने वाले चाहे संविधान के भाग 4 क में उल्लिखित नागरिक कर्तव्यों को बिसरा चुके हों पर ये संस्थाएँ इन दस कर्तव्यों में से तीन (ख, ग, च) का पालन इन्हें अपनी सामूहिक जिम्मेदारी मान कर करती चली आ रही हैं - 

स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ (प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ)



3 अंकों में समाप्य लंबा आलेख 
पहला भाग 

स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ 
(प्रासंगिकता, उपादेयता एवं सीमाएँ) 

- प्रो. दिलीप सिंह 




दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास [तमिलनाडु]
पिछले कुछ वर्षों से हिंदी क्षेत्र के कई स्वनामधन्य आधुनिक हिंदी के स्वघोषित स्तंभ जगह-जगह स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं की प्रासंगिकता और उपादेयता पर प्रश्न खडे़ करने लगे हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने हिंदीतर प्रदेशों में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपना कोई योगदान कभी नहीं दिया है। भारत के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में बैठकर तथा हिंदी की समितियों में घुसपैठ करके ये अपने आप को हिंदी का स्वयंभू समझने लगे हैं। 


भारत के बड़े दोस्त थे रब्बानी


भारत के बड़े दोस्त थे रब्बानी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक



Portrait
अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति प्रो. बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या से अफगानिस्तान में चल रहे शांति-प्रयासों को गहरा धक्का लगेगा। वे अफगानिस्तान के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे। वे सिर्फ राष्ट्रपति ही नहीं रहे, उन्होंने लगभग 20 साल तक मुजाहिदीन-संघर्ष का भी नेतृत्व किया था। वे पठान नहीं थे। वे ताज़िक थे, फारसीभाषी थे और उनका जन्म बदख्शान में हुआ था, जो पामीर पहाड़ों का घर है। उसे दुनिया की छत भी कहा जाता है।


इस समय वे अफगानिस्तान की उच्च शांति समिति के अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में ही अफगानिस्तान की सबसे कठिन समस्या का समाधान खोजा जा रहा था। यह रब्बानी साहब के शानदार व्यक्तित्व का ही कमाल था कि उनके नाम पर अफगानिस्तान के सभी नेता और अमेरिका, पाकिस्तान व ईरान आदि सभी देश सहमत थे। तालिबान से बात करने के लिए सबसे उपयुक्त नेता वही थे। उनकी हत्या इसीलिए हुई है कि बड़े-बड़े तालिबान नेताओं की दुकानें रब्बानी साहब की वजह से बंद होने लगी थीं।

अंतरराष्ट्रीय आप्रवासी-भाषा-लेखक-संघ के गठन की घोषणा



अंतरराष्ट्रीय आप्रवासी-भाषा-लेखक-संघ के गठन की घोषणा
-  (डॉ.) कविता वाचक्नवी 


इतिहास 

वर्ष 2002 में जब "विश्वम्भरा" की स्थापना की थी तब जो कारक मन में रहे थे, उनकी अपनी एक पृष्ठभूमि थी। 1995 में नॉर्वे में रहते हुए, बचपन से रक्त में हिन्दी साहित्य, भाषा और संस्कृति के प्रति जड़ों में पोसा हुआ संस्कार बेकल होकर अंधाधुंध किसी खोज में डूबा रहता, उसके परिणाम स्वरूप एक स्वप्न रूपाकार ले रहा था, जिसमें मूलतः संस्कार के उस ऋण से उऋण होने के लिए छटपटाहट भरती जा रही थी। उऋण तो यद्यपि कभी हुआ नहीं जा सकता किन्तु उऋण होने का यत्न करना तो अवश्य चाहिए था। जिन-जिन से कुछ भी  सीखा-पाया है, उन-उन के दाय को अधिकाधिक लोगों व अधिकाधिक समय में (भविष्य), अधिकाधिक माध्यमों से जितना संभव हो उतना प्रचारित प्रसारित कर देना उसकी एक प्रमाणित विधि हो सकती थी। 


उसी का परिणाम था " विश्वम्भरा : भारतीय जीवनमूल्यों के प्रसार की संकल्पना "  का गठन । संस्था का उद्घाटन कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने किया। ज्ञानपीठ गृहीता डॉ. सी नारायण रेड्डी ने अपनी ओर से संस्था के मुख्य संरक्षक होना स्वीकार किया। संस्था ने मूलतः `फील्डवर्क' को प्रमुखता देते हुए  बिना शोर शराबे के, बड़े कार्य किए ; यद्यपि अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम भी संस्था ने आयोजित किए जिनमें  विष्णु प्रभाकर जी, प्रभाकर श्रोत्रिय जी प्रभृति अनेकानेक भाषा, साहित्य व संस्कृति के ख्यातनाम वरिष्ठ व्यक्तित्वों ने स्वयं उपस्थित होकर संस्था के विशद उद्देश्यों के प्रति अपना समर्थन व सहयोग दिया। उस पर फिर कभी विस्तार से लिखा जा सकेगा तो लिखूँगी।

हिंदी भाषा : विकास के विविध आयाम


हिंदी दिवस पर विशेष
               हिंदी भाषा : विकास के विविध आयाम
-ऋषभदेव शर्मा



 आपको मालूम ही है कि हिंदीशब्द के कई अर्थ प्रचलित रहे हैं. इसका सबसे सही और व्यापक अर्थ है भारतीय.  जो कुछ भी भारतीय था एक ज़माने में अभारतीयों द्वारा उसे हिंदी कहा जाता था और इसी का एक पहलू यह कि यह शब्द सभी भारतीय भाषाओं का द्योतक था. कालान्तर में यह उस क्षेत्र की उपभाषाओं और १७ बोलियों का सामूहिक नाम बन गया जिसे आज हिंदीभाषी या क्षेत्र कहते हैं. साहित्य में आज भी यही अर्थ व्यवहृत है; लेकिन राजभाषा के रूप में स्वीकृत होने पर इसका अर्थ केवल कौरवी या खड़ी बोली के परिनिष्ठित रूप तक सिमट गया. आज जब भारतवर्ष धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति और नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े होने की  ओर अग्रसर है; यह याद रखना ज़रूरी है कि मूलतः हिंदी शब्द  धर्म, भाषा, जाति और नस्ल से परे समग्र भारतीयता का वाचक है.

लिपि-साहित्य-संस्कृति-शिक्षा







हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष 




लिपि-साहित्य-संस्कृति-शिक्षा

-  ओम विकास

लिपि : वाणी का दर्पण

जब तक सोया था मानव, अहसास नहीं था, कहाँ है ? क्या है ? किधर जाएगा ? पथ का पता नहीं। नयन उन्मेष पर संवेदनशील हु। प्रकृति की निरंतरता और विपुल भंडार को संजोए गत्यात्मकता मानव जिज्ञासा को उद्दीप्त करती रही है। संवेदनशीलता से विजय भावना भी प्रबलतर होती रही है। कभी आश्रय देकर और कभी आश्रित बनाकर सुखानुभूति। कृपा-क्रूरता का काल-क्रम चलता रहा। सहनशीलता के अतिक्रमण की सीमा बंधने लगीं, कुटुम्ब और समाज परिभाषित होने लगे। शब्द थे, अभिव्यक्ति की भाषा बनी। फिर समझ की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए नियम बने। अतीत-वर्तमान-भविष्य का ज्ञान सेतु लेखन पद्धति से संभव हुआ। उत्तरोत्तर प्रयोग और परिष्कार से भाषा का मान्य स्वरूप उद्भूत हुआ। वाणी और लेखन की सुसंगत एकरूपता के लिए पाणिनि जैसे मनीषियों ने लिपि का नियमबद्ध  निर्धारण किया। लिपि वाणी का दर्पण है  लिपि दर्पण से वाणी का प्रतिबिम्ब लेखन के रूप में दिखता है। धुंधला दर्पण तो धुंधला बिम्ब। दर्पण की संरचना पर निर्भर करता है कि बिम्ब की स्पष्टता किस कोटि की होगी।

आतंक के दो मसीहाओं का द्वंद्व



आतंक के दो मसीहाओं का द्वंद्व
डॉ. वेदप्रताप वैदिक



11 सितंबर एक तारीख है लेकिन यह दुनिया में वैसे ही प्रसिद्ध हो गई है, जैसे 25 दिसंबर या 1 जनवरी! 11 सितंबर का मतलब वह दिन है, जब न्यूयार्क के ट्रेड टॉवर और वाशिंगटन के पेन्टेगॉन-भवन पर हवाई हमला हुआ था। इस हमले को हुए दस साल हो गए। इन दस वर्षों में अमेरिका और दुनिया ने क्या खोया और क्या पाया, इसका लेखा-जोखा जरूरी है।


हिंदी विवि में त्रि-दिवसीय फिल्‍म समारोह का उद्घाटन


हिंदी विवि में फिरोज अब्‍बास खान ने किया त्रिदिवसीय फिल्‍म समारोह का उद्घाटन
फिल्‍मोत्‍सव में कई फिल्‍मी हस्तियाँ थीं मौजूद, `गांधी माई फादर' रही उद्घाटन फिल्‍म  


वर्धा, 06 सितम्‍बर, 2011;

 महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में पहली बार आयोजित त्रिदिवसीय (6-8 सितम्‍बर, 2011) महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह का उद्घाटन कई फिल्‍मी हस्तियों की मौजूदगी में सुप्रसिद्ध फिल्‍म निर्देशक फिरोज अब्‍बास खान ने किया। फिरोज अब्‍बास खान की फिल्‍म गांधी माई फादर उद्घाटन फिल्‍म रही। फिल्‍म समारोह की अध्‍यक्षता वि‍श्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने की।

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