लिपि-साहित्य-संस्कृति-शिक्षा







हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष 




लिपि-साहित्य-संस्कृति-शिक्षा

-  ओम विकास

लिपि : वाणी का दर्पण

जब तक सोया था मानव, अहसास नहीं था, कहाँ है ? क्या है ? किधर जाएगा ? पथ का पता नहीं। नयन उन्मेष पर संवेदनशील हु। प्रकृति की निरंतरता और विपुल भंडार को संजोए गत्यात्मकता मानव जिज्ञासा को उद्दीप्त करती रही है। संवेदनशीलता से विजय भावना भी प्रबलतर होती रही है। कभी आश्रय देकर और कभी आश्रित बनाकर सुखानुभूति। कृपा-क्रूरता का काल-क्रम चलता रहा। सहनशीलता के अतिक्रमण की सीमा बंधने लगीं, कुटुम्ब और समाज परिभाषित होने लगे। शब्द थे, अभिव्यक्ति की भाषा बनी। फिर समझ की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए नियम बने। अतीत-वर्तमान-भविष्य का ज्ञान सेतु लेखन पद्धति से संभव हुआ। उत्तरोत्तर प्रयोग और परिष्कार से भाषा का मान्य स्वरूप उद्भूत हुआ। वाणी और लेखन की सुसंगत एकरूपता के लिए पाणिनि जैसे मनीषियों ने लिपि का नियमबद्ध  निर्धारण किया। लिपि वाणी का दर्पण है  लिपि दर्पण से वाणी का प्रतिबिम्ब लेखन के रूप में दिखता है। धुंधला दर्पण तो धुंधला बिम्ब। दर्पण की संरचना पर निर्भर करता है कि बिम्ब की स्पष्टता किस कोटि की होगी।



पाणिनि  ने स्वर और व्यंजन समूहों को उच्चारण स्थान और विधि के अनुसार अलग-अलग वर्गीकृत किया है। ध्वनि-उच्चारण में उच्चारण का स्थान और उच्चारण की विधि मुख्य हैं। उच्चारण के स्थान (Place of articulation) (P) के अनुसार कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दन्त्य, ओष्ठ्य  5 ध्वनि प्रकार माने गए  हैं। उच्चारण की विधि (Manner of articulation) (M) के अनुसार गले से वायु और विवर फैलाव के कम-अधिक होने के आधार पर अथवा नाक से वायु-नि:सरण के अनुसार  6 ध्वनि प्रकार माने गए -      [ (अल्प प्राण - अघोष) / (अप्र अघ) ], [ (महाप्राण अघोष) / (मप्र अघ) ], [ (अल्पप्राण - घोष) / (अप्र ) ], [ (महाप्राण - घोष) / मप्र घ) ] , नासिक्य, अलिजिह्वा। इन ध्वनियों को व्यंजन कहा गया। व्यंजनों को स्वर ध्वनि से मोड्युलेट कर सकते हैं। उच्चारण स्थान के आधार पर 5 प्रकार की स्वर ध्वनियाँ  हैं। स्वर ध्वनियाँ हस्व, दीर्घ हो सकती हैं। स्वर ध्वनियों के परस्पर योग से व्युत्पन्न स्वर ध्वनियाँ 4 + 4 बनेंगी। की स्वर ध्वनि को आदि स्वर और की स्वर ध्वनि को मघ्य स्वर और की व्यंजन ध्वनि को व्यंजनांत मानें तो (अ उ - म) ध्वनि संयोग सभी ध्वनियों का द्योतक है, अर्थगत होने पर सभी संकल्पनाओं (Concepts) का।


संयुक्त स्वर + व्युत्पन्न य र ल व ध्वनियाँ व्यंजन की भांति हैं। इस प्रकार पहचाने जाने वाली स्वनिम/अक्षर ध्वनियों को नागरी लिपि के रूपिमों से प्रदर्शित कर सकते हैं। अल्प नासिक्य ध्वनि को अनुस्वार ं का रूपिम और अल्प अलिजिह्वा ध्वनि को विसर्ग ः का रूपिम दिया गया है। इन्हें स्वर श्रेणी में रखा गया है। स्वनिम(phoneme)–रूपिम(grapheme) का 1:1 (एक प्रति एक) निरूपण नागरी लिपि की विशेषता है। स्वर-स्वर, व्यंजन-स्वर, व्यंजन-व्यंजन-स्वर संयोजन से जो स्वतंत्र ध्वनियाँ व्युत्पन्न होती हैं, उन्हें अक्षर (Syllable) कहते हैं। अक्षर का अंत किसी स्वर से होता है। यह स्वर तीन रूपों में हो सकतास्वर, (स्वर-अनुस्वार), (स्वर-विसर्ग) ।   हलन्त को व्यंजन के साथ स्वर हीन योग मान सकते हैं। अक्षरांत को नए रूपिम ‘मात्रा’ से दिखाते हैं। व्यंजन को हलन्त के साथ दिखाते हैं, जैसे क्, ग्, च्, ...... म् .... ह् ........ इन्हें शुद्ध व्यंजन भी कह सकते हैं।  ‘‘जैसा सुनो वैसा लिखो’’, ‘‘जैसा लिखा वैसा बोला’’ सिद्धांत नागरी लेखन में है। संस्कृत भाषा के संदर्भ में ऐसा है, अन्य भाषाओं में कुछ उच्चारण विकृतियाँ भी हैं।


ध्वन्यात्मक नागरी वर्णमाला को पाणिनि सारणी (Panini Table) में दिखा सकते हैं। जिस प्रकार रसायन विज्ञान में मेंडलीफ टेबल परमाणु क्रम को दर्शाती है, जिससे रासायनिक यौगिक क्रियाओं को समझना आसान होता है, उसी प्रकार ध्वनि यौगिकों को पाणिनी टेबल से समझना आसान होगा। वर्णीकरण से अन्य संभावित ध्वनियों को जोड़ना भी आसान है।


पाणिनि सारणी से लिपि संरचना के मूलभूत सिध्दांत स्पष्ट होते हैं।



पाणिनि सारणी (Panini Table)
P = (P1,P2,P3,P4,P5), M = (M1,M2,M3,M4,M5,M6)


व्यंजन
स्वर
स्वरांत


अप्र-अघ
मप्र-अघ
अप्र-घ
मप्र-घ
नासिक्य
अलि जिह्वा
व्युत्पन्न
व्युत्पन्न
व्युत्पन्न
मूल
मूल



M1
M2
M3
M4
M5
M6
व्यंजन स्वर
दीर्ध
हस्व
हस्व
दीर्ध
मात्रा
कंठ
P1
-
-
-
- ा
तालु
P2
(इ+अ)
(अ+इ)
ि ी
मूर्ध
P3
(+अ)
-
-
ृ ॄ
दंत
P4
(लृ+अ)
-
-
लृ
लॄ
- -
ओष्ठ
P5
-
(उ+अ)
(अ+उ)
ु ू
ो ौ



साहित्य : समाज का दर्पण

लिपि से लेखन को आधार मिला। सामाजिक अभिव्यंजना के संकलन को साहित्य कहा जाने लगा।  प्रारंभ में यथार्थ की अभिव्यक्ति को प्राथमिकता मिली। विजय और श्रेष्ठता की कामना से साहित्य में आदर्श भी लक्षित किए जाने लगे। स्थान-काल-व्यक्ति निरपेक्ष अवलोकन, परीक्षण, विश्लेषण, संश्लेषण और निष्कर्षण विज्ञान की पद्धतियाँ हैं। कुछ नियम सूत्र पता लगाते हैं, जिनके आधार पर अनेक घटनाओं को समझने में आसानी होती है। विज्ञान के आधार पर संश्लेषित प्रविधियों, संरचनाओं को प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) कहा जाने लगा। इनके प्रयोग से औद्योगीकरण बढ़ा। औद्योगिक क्रांति ने आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया। वाष्प इंजिन, विद्युत, पेट्रोल उत्पाद, रेल, मोटर कार, कम्प्यूटर, दूरसंचार आदि प्रौद्योगिकियों के उत्तरोत्तर उन्नत व सस्ते साधन उपलब्ध होने से सामान्य जन जीवन बेहतर होने लगा।


वैश्विक स्तर पर बदलाव आने लगे। दुनिया बंटने लगी- राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर। तीसरी दुनिया के लोग अभिशप्त हुए। स्वाधीनता के लिए संघर्ष हुए। समाज जाति-धर्म-सम्प्रदाय के दूषित प्रचार से बंटने लगे, कमजोर होते गए, शासक प्रबलतर और क्रूरतर। पूर्व-पश्चिम की संस्कृतियों का अस्वाभाविक, बेमन मिलन तो हुआ लेकिन संस्कृतियों के नाभिक भिन्न थे। भारतीय संस्कृति मोक्षकामी और पाश्चात्य संस्कृति व्यक्ति केन्द्रित भोगकामी। सामाजिक और आर्थिक व्यवहार पूर्व में संचय-परक हैं,  और पश्चिम में उपभोगपरक हैं


भारत में  अलग-अलग स्वायत्त शासन व्यवस्था मजबूत होने पर भाषा-विकास एवं साहित्य प्रणयन को राज्याश्रय मिला। लेकिन मूल उद्­भव संस्कृत भाषा और संस्कृत साहित्य से बिल्कुल पृथक नहीं हुए। भारतीय भाषाओं में वर्णमाला क्रम देवनागरी के अनुरूप रहा। अलबत्ता उनमें कुछ भिन्नताएँ रहीं।  कला-विज्ञान-आध्यात्म के संकल्पना शब्द अधिकांशत: संस्कृत से लिए गए। कई शब्द तद्भव रूप में प्रयुक्त हुए। संस्कृत प्रामाणिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा थी, इससे उद्भूत  भारतीय भाषाएं सुबोध लोक भाषाओं की भांति विकसित हुईं। इन कई भारतीय भाषाओं में साहित्य-सृजन उच्चकोटि का है, यथार्थ-परक है। इनमें  प्रमुखत: पांच प्रकार का साहित्य-प्रणयन हुआ -

1.            भाषा-विषयक साहित्य -  लिपि और भाषा के व्याकरण, व्यवहार, इतिहास संबंधी।
2.            सामाजिक साहित्य -  समाज की व्यवस्था, इतिहास, दर्शन, नीति संबंधी।
3.            कला साहित्य -  गायन, वादन, संगीत, नाटक, चित्रण, स्थापत्य आदि के सि­ध्दांत, नियम, व्यवहार संबंधी।
4.            विज्ञान साहित्य -  पदार्थ, सृष्टि, शरीर प्रकृति की संरचना, गुणधर्मिता, पारस्परिक प्रभाव आदि का ज्ञान और आध्यात्म संबंधी।
5.            आध्यात्म साहित्य -  आत्म दर्शन संबंधी।

मानव जिज्ञासा से विज्ञान साहित्य समुन्नत होता गया;  समृद्धि और सुशासन से कला साहित्य। कुछ मनीषियों ने आध्यात्म साहित्य का प्रणयन किया। इसी प्रकार विद्वानों ने भाषा विषयक साहित्य और सामाजिक साहित्य की रचना की। किस दिशा में, कितना गहन और सटीक साहित्य सृजन हुआ, यह सामाजिक परिवेश पर निर्भर था। 

संस्कृति : ज्ञान-विज्ञान व्यवहार में   

समाज के रीति-रिवाज, रहन-सहन, व्यवहार-कौशल, उद्यमिता, वैचारिक चिंतन आदि की अभिव्यक्ति को साहित्य और लम्बे समय में समाज के व्यवहार वैशिष्ट्य को संस्कृति कहा जाने लगा। संस्कृति का उर्ध्वगामी स्वरूप ही सामान्य अर्थ है। अन्यथा अपसंस्कृति का प्रयोग होता है। संस्कृति की पहचान ज्ञान-विज्ञान से होती है।


जापान प्रवास के बाद मैंने एक लेख लिखा था। ''जापान की प्रौद्यागिकी संस्कृति''।  शिंतो और बौद्ध धर्म के सह-अस्तित्व को बनाए रखा।  जापान ने प्रकृति की उपासना (शिन्तो) से सभ्यता के विकास का पथ अपने ढ़ंग से प्रशस्त किया। प्राकृतिक संसाधनों के अभावों से अविचल सदैव उद्यमशील रहा। सोनी कम्पनी के संस्थापक आकियो मोरिता के अनुसार ''मोत्ताइनाइ'' विचार जापानी उद्योग की विशिष्टता का परिचायक है। इसका आध्यात्मिक भाव है कि विश्व में सब कुछ नियंता सृजनकर्ता की देन है। कोई भी वस्तु अनुपयोगी नहीं है। बहुत कम मूल्य की भी किसी वस्तु का अपव्यय न करें। जापान का ‘व्यवहार’ पश्चिमी बना, लेकिन ‘सोच’ एशियाई रही ।


जापानी प्रबंधन की आधार संकल्पना है कि  सभी कार्मिक एक परिवार हैं । टोयोटा की कानबान पद्धति ठीक समय पर’ (Just-in-time) पूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन (TQM)  की विधि है, अपरिग्रह का उदाहरण है।  कोबे स्टील के अमागासी मिल पर उद्बोधन है मुरी, मुदा और मुरा से बचो’ [ मुरी अर्थात्   क्षमता से अधिक काम करना; मुदा अर्थात्   अपव्यय करना; मुरा  अर्थात्   अनियमित और असंगत होना। ]  इस संदेश में सुरक्षा, मितव्यता, नियमन और गुणवत्ता-नियंत्रण पर बल दिया गया है।


जापान ने पश्चिमी टैक्नोलॉजी के आयात के समय परंपरागत उद्योगों को उजाड़ा नहीं। उनके बीच संबंध बनाए जिससे परंपरागत प्रौद्योगिकी आधुनिकतम बन सके। प्राय: शिकायत की जाती है कि जापान ने मशीन तो बेची लेकिन टैक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं की। जापानी दलील देते हैं कि जब टैक्नोलॉजी ट्रांसफर की जाती है, तब उस टैक्नोलॉजी की संस्कृति ट्रांसफर नहीं हो पाती। पुष्प सज्जा (इकेबाना), चाय-पान (चा दो / टी सेरेमनी) और औद्योगिकी कौशल का प्रशिक्षण देकर गुणवत्ता का प्रसार किया,  तथा इन्हें संस्कृति का अंग बनाया। ''मोत्ताइनाइ'' जीवन-दर्शन प्रौद्योगिकी विकास और नवाचार में भी व्याप्त है। यह जापान के आध्यात्मिक एवं भौतिक वैशिष्ट्य का द्योतक है। जापानियों को अपनी भाषा से विशेष  अनुराग है। विदेशी टैक्नोलोजी को आत्मसात करने के लिए वहाँ के तकनीकी शब्दों को लिखने के लिए एक अलग काताकाना लिपि ईज़ाद की।  द्वितीय विश्व युद्ध में हार के बाद अमेरिकी दबाव था कि विज्ञान शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बने, लेकिन जापानियों ने युक्ति से काम लिया। तकनीकी शब्दों को रोमन लिपि में न लिखकर विदेशी शब्दों के लिए बनाई गई पृथक्  काताकाना'' लिपि में लिखा, शेष अभिव्यक्ति जापानी मूल लिपि ''हीरागाना'' में की। इस प्रकार अपनी भाषायी और वैचारिक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखा। निर्यातपरक उद्योग नीति बनायी। कार्यान्वयन में स्पष्टता थी कि प्रौद्योगिकी का शिक्षण-प्रशिक्षण, विकास, विनिर्माण जापानी भाषा में ही किया जाए। 1980 के दशक से कंप्यूटर में जापानी भाषा का प्रचुर प्रयोग होता रहा है। निर्यात के लिए कुछ सेल्स प्रबंधकों को ही अंग्रेजी में प्रशिक्षित कर उन्हें  टैक्नोबिजनेस इंटरफेस बनाया। कम लागत से गुणवत्तापूर्ण उत्पाद विक्रय से जापानी कंपनियों के ब्रांड बनते गए। 11 मार्च को  भीषण त्सुनामी और भूकम्प से फुकुशिमा दाइ-इची  का न्यूक्लियर रिएक्टर ध्वस्त हुआ। विश्व हिल गया। इस आपदा को भी जापानियों ने अदम्य साहस से सहा। विदेशियों को आतिथ्य संस्कृति  का परिचय कराया।


भारतीय संस्कृति में आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की दृष्टि है। “इतिहास में भारत जैसा अन्य कोई उदाहरण नहीं है, जहाँ आध्यात्मिक जीवन ने इस प्रकार सारे राष्ट्र के समस्त व्यावहारिक पक्षों को समाहित कर लिया हो।“  मेक्समूलर ने लिखा । सत्य के अन्वेषण में विज्ञान और वेदांत एक बिन्दु पर मिल जाते हैं ; चेतना ही सत् तत्व है ; सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है। सृष्टि में निरंतर गतिशीलता और परिवर्तन है। उत्पत्ति, विकास और विनाश की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। पदार्थ और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं। सृष्टि त्रिगुण प्रधान है। गुणों के माप से अवस्था निर्धारण करते हैं। न्यूट्रोन-प्रोट्रोन-इलेक्ट्रोन परिमाणु के अवयव हैं;  वात-पित्त-कफ स्वास्थ्य गुण हैं; लाल-हरा-नीला मूल रंग हैं; सत–रज–तम  स्वभाव गुण हैं; श्वेत, लाल, प्लेटलेट रक्त के तीन प्रकार के सैल (कणिकाएं) हैं;  इत्यादि मूलभूत तीन गुण ।  लोक व्यवहार में नदी, वन, पर्वत, सूर्य , कूप, तड़ाग आदि को देवता मानना दाता के प्रति कृतज्ञता का भाव है।  जल-वायु का प्रदूषण हेय माना गया । “सर्वे भवन्तु सुखिन: , सर्वे सन्तु निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:खभाग भवेत् ॥“   दैनन्दिन प्रार्थना बन गए। “योग: कर्मसु कौशलम्” से उत्कृष्टता का प्रतिपादन किया। शुचिता, सत्य, अहिंसा, प्रेम, तपश्चर्या, अपरिग्रह जैसे जीवन मूल्यों पर बल दिया गया। अग्रणी बनने के लिए सदा प्रेरित किया। एक प्रेरक ऋचा का भावानुवाद इस प्रकार है -   “ हम हैं दिव्य शक्ति के स्वामी, बने अग्रणी नहिं अनुगामी ।  अपने ही अनुभव के बल पर,  नए सृजन आधार बनाएँ  ॥“   भारत के स्वर्णिम अतीत की गाथाएँ ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, संगीत, कला से भरी पड़ी हैं। आम लोगों की सहिष्णुता और विश्वास से कुछ शासक क्रूर बने। विषम परिस्थितियों में आध्यात्म खडग बना, परिवर्तन भी आए।  


शिक्षा : सर्वसुलभ उद्यमोन्मुखी

औद्योगिक क्रांति का हल्का झोंका भारत में आया; उद्योग-धंधे पनपे। लेकिन वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) की आंधी ने भारत के अपने उद्योगों को उखाड़ा। विनिर्माण सेक्टर कमजोर होता गया। 20वीं सदी के उत्तारार्ध में कंप्यूटर प्रयोग बढ़ा; वैज्ञानिकों ने सूचना क्रांति का शंखनाद किया। राजनीतिज्ञ और प्रशासकों ने सूचना क्रांति को अलादीन के चिराग-सा प्रतिष्ठापित किया। औद्योगीकरण की क्रांति का लाभ न उठा सके तो कोई बात नहीं। सूचना क्रांति का अलादीन का चिराग मिल गया। TCS, Infosys, Wipro, HCL आदि सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सर्विस इंडस्ट्री बन गए। इस चिराग में घी-तेल अंग्रेजी हो, यह बात कॉर्पोरेट हस्तियों, उद्योगपति, नीतिकार सभी जोर देकर कहने लगे। तकनीकी शिक्षा 10+2 के बाद पूरे देश में अंग्रेजी का माध्यम होती आ रही है। अब अंग्रेजी की शिक्षा कक्षा-1 से होने की सिफारिश हो गई है। योजना एवं प्रबंधन की दृष्टि से देखें तो GER लगभग 13% है, अर्थात 100 में से मात्र 13 ग्रेजुएशन करते हैं। प्रतिवर्ष 20 मिलियन  ग्रेजुएट में 2 मिलियन तकनीकी शिक्षा में जाते हैं अर्थात मात्र 10% प्राइवेट संस्थानों में प्रति छात्र वार्षिक फीस 1 से 2 लाख रुपए तक है। दलील दी जाती है कि शिक्षा-ऋण  ले कर पढ़ें , लेकिन  उद्योग जगत उनमें से केवल 20% से कम को ही रोजगार लायक पाता है। ऋण चुकाना भी दूभर हो जाता है।  इनमें से निर्यात परक उद्योगों में इंटरफेस लोगों की आवश्यकता 5% से कम होगी। इस प्रकार अंग्रेजी की आवश्यकता 13% x 10% x 20% x 5% = 13 x 10-5  अर्थात्  एक लाख विद्यार्थियों में से मात्र 13-14 को ही अंग्रेजी ज्ञान कराना पर्याप्त है। कम खर्च में अपने शिक्षा तंत्र को आविष्कारोन्मुखी, नवाचारमय और सर्वसुलभ गुणवत्ता-पूर्ण बना सकते हैं। इससे गुणवत्तापूर्ण तकनीकी  का अधिकतम प्रसार होगा।


आजकल सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जॉब भी कम होते जा रहे हैं। विश्व आर्थिक मन्दी से जूझ रहा है। शिक्षा तंत्र राष्ट्र का मेरूदंड है। स्वाभिमान और विजय कामना का प्रतीक है यह मेरूदंड । सभ्यता के विभिन्न पड़ावों पर शिक्षा तंत्र को सुदृढ़ और प्रभावी बनाने के प्रयास होते रहे हैं। बाहरी आक्रामकों ने इसी शिक्षा मेरूदंड को ध्वस्त किया। नालंदा, तक्षशिला ध्वस्त किए गये। मुगल और अंग्रेजों ने भी शिक्षा मेरूदंड को कमजोर किया। अब स्वतंत्र भारत में शिक्षा तंत्र के फैलाव पर बल है, लेकिन मेरूदंड की सुदृढ़ता पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। शिक्षा मेरूदंड लोकधर्मी हो। थोड़े से विदेशी बाज़ार के आधार पर शिक्षा का माध्यम इंग्लिश और गुणवत्ता के लिए भारी फीस करने से बहुसंख्य प्रतिभा शिक्षा-पिपासु  होकर भी आगे बढ़ने से वंचित रहती है।  गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सर्व सुलभ हो, मात्र अमीरों को ही नहीं।  अतएव प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का माध्यम लोकभाषा हो। डिग्रीस्तर की तकनीकी शिक्षा भी लोकभाषा में अन्तर्राष्ट्रीय शब्दावली का प्रयोग करते हुए संभव है,  इससे उद्यमिता को बढ़ावा मिलेगा।  नवाचार का आधार जन-सामान्य वर्ग है, जो दो-तिहाई जनसंख्या में है। इन सबका योगदान महत्त्वपूर्ण होगा।


तात्पर्य यह नहीं है कि अंग्रेजी क्लिष्ट है, अनुपयोगी है, हेय है। कदापि नहीं। अन्य भाषा ज्ञान नवाचार में सहायक ही सिद्ध होगा। वैसे भी भारत बहुभाषी राष्ट्र है।


समाहार  दृष्टि

विज्ञान, भाषा, संस्कृति की जब बात आती है तो गांधी जी ने हिन्दी को हिन्दुस्तानी के रूप में विकसित और प्रयुक्त होने का सपना देखा था। शोषण, अत्याचार के विरुद्ध औरहिन्द स्वराज  के लिए संघर्ष में सरल हिन्दी से देश को जगाया, जोड़ा और उठाया। भारत में आ बसी संस्कृतियों के सम्मिलन को ध्येय बनाया। वे अमेरिका की एक वर्चस्वशाली संस्कृति और बाकी सबको सोखकर बनावटी एकता ऊपर से थोपने के हिमायती नहीं थे। गांधी जी उन मशीनों के विरोधी थे जो लोगों को रोजगार से वंचित करें, लेकिन उन मशीनों के हिमायती थे जिससे आम आदमी की सृजनात्मकता बढ़े,  उत्पादकता बढ़े, गुणवत्ता बढ़े, और  आमदनी बढ़े।


भावात्मक स्तर पर भारत की संस्कृति में एकरूपता है। ग्लोबलाइजेशन से पश्चिम का अनुकरण और भौतिक प्रतिद्वंदता बढ़ी है। लोक भाषाओं का शनै: शनै: ह्रास होने लगा है। विडम्बना है कि ज्ञान-पोषित समाज की चका चौंध में सृजनात्मक ज्ञान में कमी आ रही है। लोकोपयोगी श्रेष्ठ साहित्य सर्जना भी मन्द पड़ गई है। इस सब के मूल में शिक्षा है, इसमें आमूलचूर परिवर्तन की अपेक्षा है।



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