यह कैसे होगा ?




यह कैसे होगा ?
 

 

यह कैसे होगा ?

यह क्यों कर होगा?

नई-नई सृष्टि रचने को तत्पर

कोटि-कोटि कर-चरण

देते रहें अहरह स्निग्ध इंगित

और मैं अलस-अकर्मा

पड़ा रहूँ चुपचाप !

यह कैसे होगा ?

यह क्योंकर होगा ?




यथा समय मुकुलित हों

यथासमय पुष्पित हों

यथासमय फल दें

आम और जामुन, लीची और कटहल !

तो फिर मैं ही बाँझ रहूँ !

मैं ही न दे पाऊँ !

परिणत प्रज्ञा का अपना फल !

यह कैसे होगा ?

यह क्योंकर होगा ?




भौतिक भोगमात्र सुलभ हों भूरि-भूरि,

विवेक हो कुंठित !

तन हो कनकाभ, मन हो तिमिरावृत्त !

कमलपत्री नेत्र हों बाहर-बाहर,

भीतर की आँखें निपट-निमीलित !

यह कैसे होगा ?

यह क्योंकर होगा ?

- नागार्जुन

बिनायक पर हंगामा क्यों ?


बिनायक पर हंगामा क्यों ?
डॉ वेदप्रताप वैदिक

डॉ. बिनायक सेन को लेकर देश का अंग्रेजी मीडिया और हमारे कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी जिस तरह आपा खो रहे हैं, उसे देखकर देश के लोग दंग हैं। इतना हंगामा तो प्रज्ञा ठाकुर वगैरह को लेकर हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी तत्वों ने भी नहीं मचाया। वामपंथियों ने आरएसएस को भी मात कर दिया। आरएसएस ने जरा भी देर नहीं लगाई और ‘भगवा आतंकवाद’ की भर्त्सना कर दी। अपने आपको हिंसक गतिविधियों का घोर विरोधी घोषित कर दिया। ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द ही मीडिया से गायब हो गया। लेकिन बिनायक सेन का झंडा उठाने वाले एक भी संगठन या व्यक्ति ने अभी तक माओवादी हिंसा के खिलाफ अपना मुँह  तक नहीं खोला। क्या यह माना जाए कि माओवादियों द्वारा मारे जा रहे सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है? क्या वे भोले आदिवासी भारत के नागरिक नहीं हैं? उनकी हत्या क्या इसलिए उचित है कि उसे माओवादी कर रहे हैं? माओवादियों द्वारा की जा रही लूटपाट क्या इसीलिए उचित है कि आपकी नजर में वे किसी विचारधारा से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं? मैं पूछता हूँ कि क्या जिहादी आतंकवादी और साधु-संन्यासी आतंकवादी चोर-लुटेरे हैं? वे भी तो किसी न किसी ‘विचार’ से प्रेरित हैं। विचारधारा की ओट लेकर क्या किसी को भी देश के कानून-कायदों की धज्जियाँ  उड़ाने का अधिकार दिया जा सकता है? क्या यही मानव अधिकार की रक्षा है?



यदि नहीं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ में जो लोग पकड़े गए हैं, उन्हें दंडित क्यों न किया जाए? जो भी दंड उन्हें दिया गया है, उसे वे खुशी-खुशी स्वीकार क्यों नहीं करते? यदि वे सचमुच माओवादी हैं या माओवाद के समर्थक हैं, तो उन्हें वैसी घोषणा खम ठोककर करनी चाहिए थी, देश के सामने और अदालत के सामने भी। जरा पढ़ें, 1921 में अहमदाबाद की अदालत में महात्मा गांधी ने अपनी सफाई में क्या कहा था। यदि वे लोग माओवादी नहीं हैं और उन्होंने छत्तीसगढ़ के खूनी माओवादियों की कोई मदद नहीं की है, तो वे वैसा साफ-साफ क्यों नहीं कहते? वे सरकारी हिंसा के साथ-साथ माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते? यदि वे ऐसा नहीं करते, तो जो अदालत कहती है, उस पर ही आम आदमी भरोसा करेगा। छत्तीसगढ़ की अदालत के फैसले पर जिस तरह का आक्रमण हमारे छद्म वामपंथी कॉमरेड लोग कर रहे हैं, वैसी न्यायालय की अवमानना भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई।



यदि बिनायक सेन और उनके साथी सचमुच बहादुर होते या सचमुच आदर्शवादी होते तो सच बोलने का नतीजा यही होता न कि उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता। जिसने अपने सिर पर कफन बांध रखा है, वह एक क्या, हजार फांसियों से भी नहीं डरेगा। आदर्श के आगे प्राण क्या चीज है? अपने प्राणों की रक्षा के लिए बहादुर लोग क्या झूठ बोलते हैं? क्या कायरों की तरह अपनी पहचान छुपाते हैं? भारत जैसे लोकतांत्रिक और खुले देश में जो ऐसा करते हैं, वे अपने प्रशंसकों को मूर्ख और मसखरा बनने के लिए मजबूर करते हैं। माओवादियों की दलाली कर रहे लोगों को कहीं उनके प्रशंसक भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल के उच्चासन पर बिठाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं?




डॉ बिनायक सेन और उनकी पत्नी यदि सचमुच आदिवासियों की सेवा के लिए अपनी मलाईदार नौकरियाँ छोड़कर छत्तीसगढ़ के जंगलों में भटक रहे हैं तो वे निश्चय ही वंदनीय हैं, लेकिन उनके बारे में आग उगल रहे अंग्रेजी अखबार यह क्यों नहीं बताते कि उन्होंने किन-किन क्षेत्रों के कितने आदिवासियों की किन-किन बीमारियों को ठीक किया? यदि सचमुच उन्होंने शुद्ध सेवा का कार्य किया होता तो अब तक काफी तथ्य सामने आ जाते। लोग मदर टेरेसा को भूल जाते हैं। पहला प्रश्न तो यही है कि कोलकाता या दिल्ली छोड़कर वे छत्तीसगढ़ ही क्यों गए? कोई दूसरा इलाका उन्होंने क्यों नहीं चुना? क्या यह किसी माओवादी पूर्व योजना का हिस्सा था या कोई स्वत:स्फूर्त माओवादी प्रेरणा थी? जेल में फंसे माओवादियों से मिलने वे क्यों जाते थे? क्या वे उनका इलाज करने जाते थे? क्या वे सरकारी डॉक्टर थे? जाहिर है कि ऐसा नहीं था।




इसीलिए चिट्ठियाँ आर-पार करने का आरोप निराधार नहीं मालूम पड़ता। मैंने खुद कई बार आंदोलन चलाए और जेल काटी है। जो लोग जेल में रहे हैं, उन्हें पता है कि गुप्त संदेश आदि कैसे भेजे और मंगाए जाते हैं। पीयूसीएल के अधिकारी के नाते बिनायक का कैदियों से मिलना डॉक्टरी कम, वकालत ज्यादा थी। यदि कॉमरेड पीयूष गुहा के थैले से वे तीन चिट्ठियां पकड़ी गईं, जो कॉमरेड नारायण सान्याल ने बिनायक सेन को जेल में दी थीं, तो गुहा की कही हुई इस बात को झुठलाने के लिए वकीलों को खड़ा करने की जरूरत क्या थी? भारत को शोषकों से मुक्त करवाने वाला क्रांतिकारी इतना छोटा-सा ‘गुनाह’ करने से भी क्यों डरता है? पकड़े गए कॉमरेडों को किराए पर मकान दिलवाने और बैंक खाता खुलवाने की बात खुद बिनायक ने स्वीकार की है। अदालत को बिनायक की सांठ-गाँठ के बारे में अब तक जितनी बातें मालूम पड़ी हैं, वे सब ऊँट  के मुँह में जीरे के समान हो सकती हैं। असली बातों तक वे बेचारे पुलिसवाले क्या पहुंच पाएंगे, जो इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट को आईएसआई (पाकिस्तानी जासूसी संगठन) समझ लेते हैं। पुलिसवालों का दिल गुस्से से लबालब हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि माओवादी हिंसा में वे ही थोक में मारे जाते हैं। वे नेता हैं, न धन्ना सेठ। उनके लिए कौन रोएगा? हमारे गालबजाऊ और आरामफरमाऊ बुद्धिजीवी तो उन्हें मच्छर के बराबर भी नहीं समझते। एक माओवादी के लिए जो आसमान सिर पर उठाने को तैयार है, वे सैकड़ों पुलिसवालों की हत्या पर मौनी बाबा का बाना धारण कर लेते हैं।


कौन हैं ये लोग? असल में ये ही ‘बाबा लोग’ हैं। अंग्रेजीवाले बाबा! इनकी पहचान क्या है? शहरी हैं, ऊँची जात हैं, मालदार हैं और अंग्रेजीदाँ  हैं। आम लोगों से कटे हुए, लेकिन देश और विदेश के अंग्रेजी अखबारों और चैनलों से जुड़े हुए। इन्हें महान बौद्धिक और देश का ठेकेदार कहकर प्रचारित किया जाता है। ये देखने में भारतीय लगते हैं, लेकिन इनके दिलो-दिमाग विदेशों में ढले हुए होते हैं। इनकी बानी भी विदेशी ही होती है। भारतीय रोगों के लिए ये विदेशी नुस्खे खोज लाने में बड़े प्रवीण होते हैं। इसीलिए शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए गांधी, लोहिया और जयप्रकाश इन्हें बेकार लगते हैं। ये अपना समाधान लेनिन, माओ, चे ग्वारा और हो ची मिन्ह में देखते हैं। अहिंसा को ये नपुंसकता समझते हैं, लेकिन इनकी हिंसा जब प्रतिहिंसा के जबड़े में फंसती है तो वह कायरता में बदल जाती है। इसी मृग-मरीचिका में बिनायक, सान्याल, गुहा, चारु मजूमदार, कोबाद गांधी – जैसे समझदार लोग भी फंस जाते हैं। ऐसे लोगों के प्रति मूल रूप से सहानुभूति रखने के बावजूद मैं उनसे बहादुरी और सत्यनिष्ठा की आशा करता हूं। ऐसे लोगों को अगर अदालतें छोड़ भी दें तो यह छूटना उनके जीवन-भर के करे-कराए पर पानी फेरना ही है। क्या वामपंथी बुद्धिजीवी यही करने पर उतारू हैं?

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